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संविधान पर आए ख़तरों को पहचानने का अवसर है यह गणतंत्र दिवस!
दरअसल जिस सामासिक संस्कृति और बहुलताओं की स्वीकृति की वकालत हमारा संविधान करता है वह संघ को सदैव अस्वीकार्य रही।
डॉ. राजू पाण्डेय
24 Jan 2020
Republic day

जब भारतीय गणतंत्र अपने गौरवशाली सात दशक पूरे कर रहा है तब एक ऐसी विचारधारा का उभार अपने चरम पर है जो इन सात दशकों को असफलता और गलतियों के कालखंड के रूप में मूल्यांकित करती है और यह मानती है कि हमारे गणतंत्र की आधार शिला- हमारा संविधान- ही प्रकारांतर से हमारी कथित समस्याओं हेतु उत्तरदायी है।

हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को साम्राज्यवाद के विरुद्ध वैचारिक युद्ध के रूप में भी समझा जा सकता है। हमने साम्राज्यवादी शक्तियों की असमानता और विभाजन की बुनियाद पर अपनी सत्ता को चिरस्थायी बनाने की रणनीति को अच्छी तरह देखा और समझा। यही कारण था कि जब संविधान बना तब इसमें सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समानता की अवधारणा केंद्र में थी और उदार प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना इसका लक्ष्य था।

ऐसा तभी संभव था जब धर्म,पंथ और जाति- जिनका उपयोग साम्राज्यवादी शक्तियां देशवासियों को संगठित होने से रोकने के लिए करती रही थीं- के प्रभाव को कम किया जाता। संविधान में इस संबंध में कई प्रावधान किए गए। यद्यपि इन प्रावधानों को बहुत क्रांतिकारी नहीं कहा जा सकता किंतु इनके उद्देश्य और इनकी मंशा एकदम स्पष्ट थी- राज्य के समानतामूलक स्वरूप को स्थायित्व प्रदान करना और राज्य व्यवस्था के संचालन में धर्म-पंथ तथा जाति के असर को कम करना।

प्रोफेसर शमसुल इस्लाम ने गहन शोध के बाद बड़ी मजबूती से यह रेखांकित किया है कि यह हमारे संविधान की शक्ति ही थी कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आने वाली 35 संवैधानिक शासन व्यवस्थाओं में से केवल भारत ही अपने संविधान और लोकतांत्रिक स्वरूप को अक्षुण्ण बनाए रख सका, शेष सभी देश तानाशाही, सैन्य शासन और गृह युद्ध की मार से जूझते रहे।

26 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा भारत के संविधान को अंगीकार किया गया। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से असहमति रखने वाली और उससे दूरी बना लेने वाली आरएसएस ने संविधान का विरोध इसके तत्काल बाद ही प्रारंभ कर दिया था।

30 नवंबर 1949 के ऑर्गनाइजर के संपादकीय में लिखा गया- किन्तु हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं हैं। मनु द्वारा विरचित नियमों का रचनाकाल स्पार्टा और पर्शिया में रचे गए संविधानों से कहीं पहले का है। आज भी मनुस्मृति में प्रतिपादित उसके नियम पूरे विश्व में प्रशंसा पा रहे हैं और इनका सहज अनुपालन किया जा रहा है। किंतु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए यह सब अर्थहीन है।

ऑर्गनाइजर जब मनुस्मृति की विश्व व्यापी ख्याति की चर्चा करता है तब हमारे लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है उसका संकेत किस ओर है। आम्बेडकर ने यह उल्लेख किया है कि मनुस्मृति से जर्मन दार्शनिक नीत्शे प्रेरित हुए थे और नीत्शे से प्रेरणा लेने वालों में हिटलर भी था। हिटलर और मुसोलिनी संकीर्ण हिंदुत्व की अवधारणा के प्रतिपादकों के भी आदर्श रहे हैं। विनायक दामोदर सावरकर भी भारतीय संविधान के कटु आलोचक रहे।

उन्होंने लिखा- भारत के नए संविधान के बारे में सबसे ज्यादा बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए सर्वाधिक पूजनीय है। यह ग्रंथ प्राचीन काल से हमारी संस्कृति और परंपरा तथा आचार विचार का आधार रहा है। आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे मनुस्मृति पर ही आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिन्दू विधि है। ( सावरकर समग्र,खंड 4, प्रभात, दिल्ली, पृष्ठ 416)

गोलवलकर ने बारंबार संविधान से अपनी गहरी असहमति की निस्संकोच अभिव्यक्ति की। उन्होंने लिखा- हमारा संविधान पूरे विश्व के विभिन्न संविधानों के विभिन्न आर्टिकल्स की एक बोझिल और बेमेल जमावट है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अपना कहा जा सके। क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में इस बात का कहीं भी उल्लेख है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और हमारे जीवन का मूल राग क्या है? (बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु बेंगलुरु,1996, पृष्ठ 238)

मनुस्मृति के प्रति संकीर्ण हिंदुत्व की विचारधारा के शिखर पुरुषों का यह आकर्षण बार बार महिला और दलित विरोध का रूप लेने की प्रवृत्ति दर्शाता रहा है। जब आंबेडकर ने हिन्दू पर्सनल लॉ में सुधार हेतु हिन्दू कोड बिल का ड्राफ्ट तैयार किया जिससे महिलाओं को विरासत आदि से संबंधित उनके अधिकार मिल सकें तब आरएसएस ने इसका जमकर विरोध किया। गोलवलकर ने कहा कि महिलाओं को इस प्रकार से अधिकार देना पुरुषों में गहरी मनोवैज्ञानिक उथल पुथल को जन्म देगा और मानसिक रोगों तथा अशांति का कारण बनेगा। (पाओला बच्चेट्टा, जेंडर इन द हिन्दू नेशन: आरएसएस वीमेन एज आइडिओलॉग्स, पृष्ठ 124)।

एम जी वैद्य ने अगस्त 2015 में रायपुर में कहा कि जाति आधारित आरक्षण को खत्म कर देना चाहिए क्योंकि जाति अब अपना महत्व खोकर अप्रासंगिक हो गई है। जनवरी 2016 में वरिष्ठ भाजपा नेत्री सुमित्रा महाजन ने कहा कि आंबेडकर जाति आधारित आरक्षण पर पुनर्विचार के पक्षधर थे किंतु हमने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री गिरिराज सिंह ने रणवीर सेना प्रमुख को बिहार के गांधी की संज्ञा दी थी। रोहित वेमुला को राष्ट्रद्रोही कहने वाले भाजपा नेताओं की सूची बहुत लंबी है।

दरअसल जिस सामासिक संस्कृति और बहुलताओं की स्वीकृति की वकालत हमारा संविधान करता है वह संघ को सदैव अस्वीकार्य रही। देश की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त 1947 को प्रकाशित ऑर्गेनाइजर का संपादकीय कहता है- हम स्वयं को राष्ट्रवाद की मिथ्या धारणा से प्रभावित न होने दें। यदि हम इस सरल सत्य को स्वीकार कर लें कि हिंदुस्थान में केवल हिन्दू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्र की संरचना इसी सुरक्षित और मजबूत आधार पर होनी चाहिए एवं राष्ट्र हिंदुओं द्वारा हिन्दू परंपरा, संस्कृति, विचारों और अपेक्षाओं के अनुसार ही निर्मित होना चाहिए तब हम स्वयं को बहुत सारे मानसिक विभ्रमों से बचा सकेंगे और वर्तमान तथा भविष्य की समस्याओं से छुटकारा भी पा सकेंगे।

आज जब हमारा गणतंत्र 70 वर्ष की आयु पूर्ण कर रहा है तो देश की एक बड़ी आबादी सीएए, एनआरसी और एनपीआर के विरोध में आंदोलनरत है। सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पर फिलहाल रोक लगाने से इंकार कर दिया है। पूर्व भाजपा अध्यक्ष और वर्तमान गृहमंत्री केरल के कन्नूर की एक जनसभा में अक्टूबर 2018 में सर्वोच्च न्यायालय को सबरीमाला विवाद के संबंध में यह नसीहत दे ही चुके हैं कि अदालत को वही फैसले सुनाने चाहिए जो लागू किए जा जा सकें। यह सरकार के लिए बड़ी सुखद अनुभूति रही होगी जब सर्वोच्च न्यायालय का राम मंदिर विवाद पर फैसला भी बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं के अनुकूल रहा। तर्क एवं तथ्य की दृष्टि से इसमें व्याप्त विसंगतियों को लेकर सवाल उठते रहे किंतु इन्हें नजरअंदाज कर दिया गया।

इस बात की पूरी संभावना है कि सीएए में सर्वोच्च न्यायालय को कुछ भी असंगत न मिले। सरकार कह रही है कि उसने पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के हिन्दू, सिख, पारसी, ईसाई, जैन एवं बौद्ध शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्राप्त करने के लिए सहूलियतें प्रदान की हैं। इस्लाम धर्मावलंबियों के लिए भारत की नागरिकता प्राप्त करने के अवसर समाप्त नहीं हुए हैं और वे पुराने नियमों के तहत नागरिकता प्राप्त करने के गुणदोष और पात्रता के आधार पर अधिकारी हैं।

यदि सुप्रीम कोर्ट इस बात पर गौर नहीं करता है कि सीएए प्रच्छन्न रूप से धार्मिक आधार पर नागरिकता देने की वकालत करने के कारण संविधान की मूल भावना से असंगति रखता है और सरकार संविधान के सेकुलर कैरेक्टर के प्रतिकूल व्यवहार कर रही है तो तकनीकी तौर पर शायद इस कानून में कोई खामी उसे नहीं मिलेगी।

दरअसल सीएए, एनआरसी और एनपीआर में जितना प्रकट है, जितना लिखित है उससे कहीं अधिक खतरनाक इनके पीछे की भावना है, इनमें में छिपे वे संकेत हैं जो बहुसंख्यक समुदाय को (जिसका आधिपत्य स्वाभाविक तौर पर न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका पर है) अपनी धार्मिक पहचान के आधार पर सोचने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जामिया, एएमयू और जेएनयू का घटनाक्रम यह दर्शाता है कि सरकारी तंत्र अब बहुसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधि की तरह सोचने लगा है और उसके व्यवहार में निष्पक्षता और न्यायप्रियता का ह्रास हुआ है। वह संवैधानिक नियमों के स्थान पर अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति संदेह, संशय और प्रतिशोध की उस भावना से संचालित हो रहा है जो उसमें सप्रयास उत्पन्न की जा रही है।

इस गणतंत्र दिवस पर हमें साहस कर वे सवाल खुद से पूछने होंगे जो डॉ. हामिद अंसारी (द वायर, 3 अप्रैल 2019) ने उठाए हैं- क्या 80 प्रतिशत बहुसंख्यक समुदाय के लोग शतप्रतिशत भारतीयों का पर्याय हो सकते हैं? क्या 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक भारतीयों का विलय 80 प्रतिशत बहुसंख्यक लोगों के साथ किया जा सकता है? इस तरह की सोच हमारे संविधान, इसके लोकतांत्रिक स्वरूप, इसमें निहित समानता के सिद्धांत और इसमें वर्णित अधिकारों के चार्टर के साथ क्या खिलवाड़ नहीं है? क्या इस तरह की सोच धर्म पालन की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन नहीं कर रही है और हमारी सामासिक संस्कृति की समृद्ध विरासत की रक्षा के नागरिक कर्त्तव्य से हमें विमुख नहीं कर रही है?

संविधान स्वीकार किए जाने की 70वीं वर्षगांठ के अवसर पर संसद के साझा सत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि 70 साल से इस बात पर बल दिया जाता रहा है कि भारत के लोगों के बुनियादी अधिकार क्या हैं और उन्हें कैसे मिलेंगे पर अब लोगों को अपना कर्त्तव्य निभाने के बारे में भी विचार करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम में पुनः कहा- आज़ादी के बाद से हमने सबसे ज्यादा जोर अधिकारों पर दिया है। लेकिन अब वक्त की मांग है कि कर्त्तव्य पर बल दिया जाए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोगों को अनुशासित करने की इच्छा कोई नई नहीं है। संभवतः यदाकदा वे भारत के आम जनमानस को एक अनुत्तरदायी, आत्मकेंद्रित, अस्वच्छता प्रेमी, अनुशासनहीन और अराजक समूह के रूप में भी आकलित करते होंगे। कभी कभी उन्हें ऐसा भी लगता होगा कि उनकी प्रजा अपनी छोटी छोटी समस्याओं के लिए आसमान सर पर उठा लेती है किंतु सरकार जब उससे कुछ अपेक्षा करती है तो वह पीछे हटने लगती है। आम जनता से त्याग और बलिदान की अपेक्षा प्रधानमंत्री जी को कुछ अधिक ही है। किंतु यहां पर कर्त्तव्य पालन की चर्चा इसलिए हो रही है कि सरकार के निर्णयों और नीतियों से असहमत लोगों को अराजक ठहराया जा सके। राज्य वह अकेली संस्था नहीं है जो देश का हित-अहित तय कर सके या लोगों को बता सके कि उनके लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय है।

हमारे देश की सामासिक संस्कृति की रक्षा करना भी हमारा कर्त्तव्य है। यदि सरकार लोकतंत्र को बहुसंख्यक वर्ग की तानाशाही के रूप में परिवर्तित करना चाहती है तो उसे रोकना भी हमारा कर्त्तव्य है।

कुछ कर्त्तव्य सार्वभौमिक होते हैं और उन्हें देशकाल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता और भारतीय जनमानस इन कर्त्तव्यों के पालन में कभी पीछे नहीं रहा जैसा स्वामी विवेकानंद ने अपने शिकागो उद्बोधन में कहा था- मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी। यदि सरकार हमारे गणतंत्र की मूल संरचना में कोई अनुचित परिवर्तन करना चाहती है तो इसके वर्तमान पवित्र स्वरूप को अक्षुण्ण बनाए रखने की कोशिश करना भी जनता का कर्त्तव्य है। यदि राज्य की नीतियों और निर्णयों का विरोध देशद्रोह के रूप में परिभाषित कर कुचला जाने लगे तो यह समझ लेना चाहिए कि हमारे गणतंत्र के लिए आने वाला समय अच्छा नहीं है।

दरअसल जिस जनता को हमेशा अपने अधिकारों के लिए अनुचित हठ करने वाली भीड़ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है वह अपने सर्वोच्च नागरिक कर्त्तव्य का पालन कर रही है- एक उदार और समावेशी लोकतंत्र की रक्षा का कर्त्तव्य।

सरकार का आचरण लोकतंत्र की एक अंतर्निहित अपूर्णता को बड़ी शिद्दत से उजागर कर रहा है -यदि अच्छा बहुमत हासिल करने वाली पार्टी सत्तासीन होने के बाद अपने वैचारिक पूर्वाग्रहों से उबर न पाए और सत्ता का उपयोग देश के बजाए पार्टी के एजेंडे को क्रियान्वित करने हेतु करने लगे तो इसके परिणाम लोकतंत्र के लिए घातक होते हैं। जब विचारधारागत संकीर्णता और अस्पृश्यता समाप्त होती है, लोकतंत्र तभी स्थायित्व प्राप्त करता है और फलता फूलता है। चाहे दक्षिण पंथ हो या वाम पंथ, वह लोकतंत्र में तभी प्रवेश कर सकता है जब वह वैचारिक हठधर्मिता का परित्याग कर लचीलेपन और उदारता का प्रदर्शन करता है अन्यथा जनता उसे खारिज कर देती है।

किंतु भाजपा जैसी कोई पार्टी जब अपनी सफलता की यात्रा दक्षिण पंथी रुझान रखने वाली एवं गठबंधन की राजनीति में विश्वास करने वाली पार्टी के रूप में प्रारंभ करती है और जनता का विश्वास अर्जित करने के बाद अचानक अपने पैतृक संगठन की उग्र दक्षिणपंथी विचारधारा के क्रियान्वयन में लग जाती है तब इसकी दो परिणतियाँ हो सकती हैं- या तो यह चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से जनता द्वारा खारिज कर दी जाएगी या यह देश में अधिनायकवादी शासन व्यवस्था की स्थापना का प्रयास करेगी। शायद यह अधिनायकवादी व्यवस्था आज्ञाकारी जनता द्वारा निर्मित जनप्रतिरोधरहित अनुशासित लोकतंत्र के रूप में चित्रित की जाए।

प्रधानमंत्री मोदी ने अटल जी की जयंती पर लखनऊ में दिए अपने भाषण में कहा कि किसी राजनेता के अवदान का मूल्यांकन करने हेतु हमें यह देखना होगा कि विरासत में उसे कौन सी समस्याएं मिलीं और अपने शासनकाल में उसने इन समस्याओं के समाधान के लिए क्या प्रयास किए। उन्होंने धारा 370 के कुछ प्रावधानों को अप्रभावी बनाने, राममंदिर की स्थापना हेतु अनुकूल न्यायालयीन फैसला प्राप्त करने और सीएए लागू करने को नासूर का रूप ले चुकी 70 वर्ष पुरानी समस्याओं के समाधान की दिशा में ठोस प्रयास की संज्ञा दी। उन्होंने कहा कि जो समस्याएं बची हुई हैं उनके समाधान के लिए वे संकल्पित हैं।

यह जनता को समझना होगा कि प्रधानमंत्री देश की जिन जटिल समस्याओं का समाधान करने का दावा कर रहे हैं क्या वास्तव में उनका संबंध आम लोगों के सुख- चैन, अमन, खुशहाली, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से था। क्या ये समस्याएं आम आदमी की जिंदगी को दूभर बना रही थीं? यदि ऐसा नहीं था तो फिर कहीं ये समस्याएं महज प्रधानमंत्री के पैतृक संगठन की विचारधारा के लिए ही तो कष्टकारक नहीं थीं? क्या यह प्रधानमंत्री का राजनीतिक चातुर्य नहीं है कि वे अपने पैतृक संगठन के सपनों को देश के सपनों में बदलने की कोशिश कर रहे हैं? क्या राष्ट्रहित और

राष्ट्रभक्ति की परिभाषा का अधिकार किसी दल विशेष या व्यक्ति विशेष को है? क्या राजनीतिक दलों के नेताओं को नजरबंद रखना, इंटरनेट पर पाबंदी लगाना, विद्यार्थियों और महिलाओं के प्रतिरोध को षड्यंत्र के रूप में चित्रित करना और उन पर होने वाली प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष दमनात्मक कार्रवाई का मौन समर्थन करना ही एक मजबूत सरकार का लक्षण है?

देश में अनेक स्थानों पर सीएए, एनआरसी और एनपीआर के विरुद्ध जो आंदोलन चल रहे हैं उनका स्वरूप अराजनीतिक है और इनमें विद्यार्थी तथा महिलाएं केंद्रीय भूमिका में हैं। यह तय कर पाना कठिन है कि इस आंदोलन में अपनी सांकेतिक सहभागिता दर्ज कराकर एक रणनीतिक दूरी बना लेने वाले राजनीतिक दलों की अनुपस्थिति से इस आंदोलन को नुकसान हो रहा है या फायदा।

बहुसंख्यक हिन्दू वोट बैंक की नाराजगी का खतरा मोल लेने से डरने वाले राजनीतिक दलों को गणतंत्र की रक्षा के अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते देखना दुःखद है।

बहरहाल सरकार समर्थक सोशल मीडिया समूह और टीवी चैनल इन प्रदर्शनकारियों का संबंध राजनीतिक दलों से स्थापित करने में लगे हैं और धीरे धीरे सरकार भी इन स्वतः स्फूर्त प्रदर्शनकारियों को षड्यंत्रकरियों के रूप में प्रस्तुत करने लगी है। हो सकता है कि दुनिया भर में आलोचना से बचने के लिए सरकार गणतंत्र दिवस के बाद इन आंदोलनकारियों का चरणबद्ध तरीके से दमन प्रारंभ करे या फिर दिल्ली के चुनावों पर ऐसी किसी कार्रवाई के प्रभाव का आकलन कर कोई उपयुक्त तिथि निर्धारित की जाए।

राजनीतिक दलों के दक्ष रणनीतिकारों और किसी कद्दावर करिश्माई दूरदर्शी नेता के अभाव में सरकार के लिए इन आंदोलनकारियों को बिखेरना बहुत आसान होगा। सरकार के पास पुलिस कार्रवाई के अतिरिक्त कई रणनीतियां हैं जिन पर काम शुरु हो चुका है।

सरकार के शीर्ष नेता और प्रवक्ता रैलियों, जनसभाओं और पत्रकार वार्ता आदि के माध्यम से सरकार के निर्णय को जायज ठहराने में तो लगे ही हैं उनकी असली कोशिश यह है कि बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक ध्रुवीकरण हो और टकराव की स्थिति बने। अल्पसंख्यक समुदाय में भी ऐसी कट्टरपंथी शक्तियां बहुतायत से मौजूद हैं जो चाहती हैं कि यह आंदोलन नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र की रक्षा के लिए उठे जन उभार के स्थान पर धार्मिक अस्मिता की रक्षा के संकुचित हिंसक प्रयास में बदल जाए। आंदोलन के प्रारंभ में हुई हिंसा ने इसके मूल उद्देश्य को कितना नुकसान पहुंचाया है यह हम देख ही चुके हैं। इस जन उभार को दो विचारधाराओं या दो राजनीतिक दलों के संघर्ष का रूप देना भी भटकाव लाने की रणनीति का हिस्सा है। यह जन प्रतिरोध तभी सफल हो पाएगा जब यह लोकतंत्र और अधिनायकवाद के मध्य संघर्ष के अपने स्वरूप को बरकरार रख सकेगा।

आने वाला समय भारतीय गणतंत्र के लिए कठिन है। शायद हम इक्कीसवीं सदी में अधिनायकवादी शासन व्यवस्था के बदलते स्वरूप को देख रहे हैं। यह नए किस्म का आपातकाल है। हमें किस विषय पर क्या सोचना है और क्या जानना है इसका निर्धारण सोशल मीडिया और सरकार समर्थक मीडिया समूह इतनी खूबी से कर रहे हैं कि सरकार को सेंसरशिप लागू करने की आवश्यकता ही नहीं है। वैचारिक दृष्टि से ब्रेन वाश किये जा चुके लोगों के समूह सुनियोजित एवं नियंत्रित हिंसा को अंजाम दे रहे हैं। प्रत्यक्ष पुलिसिया दमन की भी विशेष जरूरत नहीं है। अत्याचारों से दुःखी होने के स्थान पर लोग आत्मपीड़क आनंद प्राप्त कर रहे हैं। शोषण को सहन करना राष्ट्रभक्ति का पर्याय बन गया है।

जब हम यह गणतंत्र दिवस मना रहे हैं तो सरकार हमारे गणतंत्र के स्वरूप में कुछ आधारभूत परिवर्तन लाने हेतु प्रयासरत है। सिविक नेशनलिज्म के स्थान पर कल्चरल नेशनलिज्म की प्रतिष्ठा की जा रही है और हमारी लिबरल डेमोक्रेसी को एथनिक डेमोक्रेसी में बदला जा रहा है। यह समय किंकर्तव्यविमूढ़ और हतप्रभ होने का तो बिल्कुल नहीं है अपितु उदार और समावेशी गणतंत्र की रक्षा के लिए अहिंसक जन प्रतिरोधों के साथ खड़े होने का है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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