देश में विमर्श तेजी से बदल रहा है। आंशिक रूप से यह बदलते यथार्थ की अभिव्यक्ति है पर उससे अधिक यह आज के जलते हुए सवालों से ध्यान भटकाने का सचेतन propaganda है।
नए नए सनसनीखेज मुद्दे रोज उछाले जा रहे हैं, उन्हें प्राइम टाइम बहसों का प्रमुख मुद्दा और अखबारों की सुर्खियां बनाया जा रहा है।
प्रायोजित सर्वे का खेल चल रहा है, वास्तविक जीवन में जो सवाल पृष्ठभूमि में जा चुके हैं उन पुराने विभाजनकारी मुद्दों के प्रेत को फिर से जगाया जा रहा है और उनके आधार पर मोदी के पक्ष में समर्थन का माहौल बनाया जा रहा है।
इस सारी कवायद का मकसद आज के असल सच को छिपाना है। लेकिन विडंबना या हकीकत यह है कि जिस सच की पर्दादारी है उसे न सिर्फ हमारे गांव का आखिरी आदमी तक जान रहा है, बल्कि सुदूर विदेशों में भी उसका ‘डंका’ बज रहा है।
आज का असल सच यह है कि हमारे देश में महामारी से बेशुमार मौतें हुई हैं, सरकारी आँकड़ों से कई गुना ज्यादा। नीति आयोग के साख-विहीन, बेरीढ़ के नौकरशाह न्यूयॉर्क-टाइम्स के मौत के आँकड़ों को भले अहंकार और बेशर्मी के साथ खारिज कर दें, पर गंगा में बहती लाशों, नदियों के तट पर उग आयी असंख्य क़ब्रों, श्मशानों पर अहर्निश जलती चिताओं की जो तस्वीरें लोगों के स्मृति-पटल पर चस्पा हो गयी हैं, वे युगों-युगों तक समाज की सामूहिक स्मृति में जिंदा रहेंगी, ठीक वैसे ही जैसे सदी बीत जाने के बाद भी स्पेनी फ्लू, प्लेग-ताउन की यादें ज़िंदा हैं। सबसे बड़ी बात यह कि जिन लोगों ने अपने परिजनों, मित्रों, गांव-मुहल्ले के पड़ोसियों को खोया है, जो कहीं किसी आंकड़े में दर्ज नहीं हैं क्योंकि न उनका टेस्ट हुआ, न अस्पताल में इलाज मिला, क्या वे अपने प्रियजनों की याद झूठे सरकारी आंकड़ों को सच मानकर भूल पाएंगे ?
न्यूयॉर्क टाइम्स ने कहा conservative आंकलन से भी भारत मे मौतों की संख्या सरकार जो बता रही है उससे बहुत अधिक लगभग 6 लाख है, ज्यादा सम्भावना है (more likely scenario) कि यह 16 लाख हो, और सबसे बदतरीन आशंका (worst case scenario ) यह है कि यह 42 लाख के आसपास हो।
स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का यह तंज करना कि कुछ लोगों को दिल्ली से ज्यादा न्यूयॉर्क पर विश्वास है, राष्ट्रवाद का कार्ड खेलकर सरकार के झूठे आंकड़ों को सच साबित करने का निरर्थक प्रयास है, क्योंकि जो सच लोगों ने अपनी नंगी आँखों से देखा है, वह किसी सबूत और प्रमाणपत्र का मोहताज नहीं है। लोग जब अपने आसपास नजर दौड़ाते हैं, तो उन्हें साफ समझ में आ जाता है कि कौन आँकड़े सच के ज्यादा करीब हैं, और कौन सफेद झूठ !
यह जरूर मजेदार है कि कल तक जो लोग Harvard के सर्टिफिकेट की मनगढ़ंत खबर चलवाकर योगी जी की वाहवाही के लिए बेकरार थे, वे आज न्यूयॉर्क और दिल्ली का अंतर समझा रहे हैं और उनके विदेश मंत्री जय शंकर शिकायत कर रहे हैं कि राजनीतिक कारणों से सरकार की छवि खराब की जा रही है! ये तो सब आप के मित्र देशों के लोग हैं और ये अपनी सरकारों को भी आईना दिखाते रहते हैं।
मूल सवाल यह है कि सरकार के आँकड़ों को भी मान लिया जाय तो जो हमारे लाखों देशवासियों की जान गई है, क्या उन्हें बचाया नहीं जा सकता था? आखिर उस जनसंहार ( इलाहाबाद उच्चन्यायालय के शब्दों में ) लिए जिम्मेदार कौन है?
आज अगर अपनी जनता के जीवन की परवाह करने वाली कोई जिम्मेदार सरकार होती तो वह सच को स्वीकार करती उसे पारदर्शी ढंग से सामने रखती- वह चाहे जितना भी कड़वा हो, महामारी के अनियंत्रित प्रसार और मौतों के लिए जवाबदेही तय करती, उसके ठोस कारण चिह्नित करती और उसके आधार पर सभी उपाय करती ताकि महामारी की आगे लहर आती है तो उसका सफलतापूर्वक मुकाबला किया जा सके।
पर यहाँ तो सारा बुद्धिकौशल, ऊर्जा और प्रशासनिक दक्षता लगाई जा रही है सच को छुपाने और आंकड़ों को दबाने के लिए। जनता के जीवन को बचाने की नहीं, एकमात्र चिन्ता अपनी छवि बचाने की है।
वैज्ञानिक तथ्य यह है कि आंकड़ों को जितना छुपाया जाएगा, महामारी से लड़ना उतना ही मुश्किल होता जाएगा और अनगिनत और लोगों की जान खतरे में पड़ती जाएगी, क्योंकि आंकड़ों के अध्ययन और विश्लेषण के आधार पर ही विशेषज्ञ समय रहते forecast करते हैं ताकि बचाव के लिए अग्रिम तैयारी की जा सके। आंकड़ों के आधार पर ही वैज्ञानिक कोविड की दूसरी लहर का सटीक पूर्वानुमान कर पाए।
बहरहाल, जितना छिपाने की कोशिश हो रही है, सच उतना ही विद्रूप होकर पूरी दुनिया के सामने प्रकट हो जा रहा है, गंगा तट के शवों से रामनामी नोचते और श्मशानों को दीवारें बनाकर ढंकने की तस्वीरें वायरल हो चुकी हैं।
सरकार लाख कोशिश कर ले, कविवर रहीम के अमर शब्दों में :
खैर, खून, खांसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥
दरअसल, यह सारी बेचैनी ब्रांड मोदी जो खत्म हो रहा है, उसे बचाने के लिए है । जाहिर है, यह महज एक व्यक्ति का मामला नहीं है, वरन इसके पीछे देश-दुनिया की तमाम बेहद ताकतवर शक्तियों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। पर यह सम्भव नहीं है क्योंकि यह जिस महा-सच पर आधारित है वह लोगों के जीवन का सबसे कड़वा भोगा हुआ यथार्थ है।
इस महात्रासदी का जो सबसे बड़ा सच है, वह यह है इस गैर-इरादतन हत्या / जनसंहार ( culpable homicide ) के लिए प्रधानमंत्री मोदी केंद्रीय रूप से जिम्मेदार हैं। फरवरी मध्य में महाराष्ट्र के कई इलाकों में मामले 7 गुना तक बढ़ गए थे, वायरस के नए variant की बात आ गयी थी, मार्च के शुरू में ही स्वयं केंद्र सरकार द्वारा इसी उद्देश्य से बनाई गयी वैज्ञानिकों की कमेटी ( National Covid19 Supermodel Committee ) ने सरकार को alert कर दिया कि दूसरी लहर शुरू हो चुकी है, वह आगे बढ़ रही है, तैयारी करिये।
तब सरकार का क्या रिस्पांस था? उस समय, स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन मोदी जी की शान में कसीदे काढ़ रहे थे और महामारी के endgame के लिए अपनी सरकार की पीठ थपथपा रहे थे! फरवरी के अंत मे ही 4 राज्यों के चुनावों की घोषणा हुई और 19 करोड़ आबादी को पूरे मार्च और अप्रैल चलने वाले चुनाव अभियान में झोंक दिया गया। बंगाल के चुनाव तो सभी दलों की मांग को दरकिनार कर 8 चरण में कराए गए।
पूरी दुनिया यह तमाशा देख कर दंग थी, एक ओर मौत और तबाही का खौफनाक ताण्डव हो रहा था, राजधानी दिल्ली तक की सड़कों पर लोग ऑक्सीजन के अभाव में तड़प तड़प कर दम तोड़ रहे थे, महाराष्ट्र, दिल्ली, यूपी, गुजरात समेत पूरे देश मे हाहाकार मचा हुआ था, दूसरी ओर नरेंद्र मोदी स्टेडियम अहमदाबाद में 1 लाख 30 हजार लोग भारत इंग्लैंड के बीच अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच के रोमांच का आनन्द ले रहे थे, स्वयं नरेंद्र मोदी आसनसोल की चुनावी रैली में 17 अप्रैल को गदगद हो रहे थे कि इतनी बड़ी भीड़ जीवन मे नहीं देखी, जिस दिन देश मे कोरोना के ढाई लाख मामले आये थे और 1500 लोगों की मौत हुई थी, उधर हरिद्वार में ठीक उस समय जब महामारी चरम पर थी, 35 लाख लोगों को कुम्भस्नान कराया गया।
साफ है, मोदी ने न सिर्फ दूसरी लहर को नकार दिया बल्कि वे उसके सुपरस्प्रेडर बन गए।
दरअसल, मोदी-शाह जोड़ी बंगाल चुनाव जीत कर पूरे देश का नैरेटिव बदलने के लिए इतनी बेचैन थी कि उस स्कीम में महामारी की दूसरी लहर की नोटिस लेने की जगह ही कहाँ थी, अगर वे उसे recognise करते और महत्व देते तो फिर बंगाल में लाखों की रैलियाँ कैसे आयोजित करते? सचेत ढंग से खतरे को इग्नोर किया गया। सरकार ने वैज्ञानिक चेतावनी की पूरी तरह उपेक्षा कर दिया। और जब प्रचण्ड वेग से महामारी की सुनामी दबे पांव आगे बढ़ी तो सुपरमॉडल कमेटी के अध्यक्ष प्रो. विद्यासागर के शब्दों में, "महामारी की भयावहता ( ferocity ) से सरकार हतप्रभ रह गयी।" दरअसल, सरकार के हाथ-पांव फूल गए। प्रधान सेनापति और उनके महाबली लेफ्टिनेंट दोनों अचानक रणभूमि से गायब हो गए।
The Economist ने लिखा, " महाविपदा (catastrophy) से सामना होते ही भारतीय राज्य मोम की तरह पिघल गया। ....सबसे ज्यादा एक sense of abandonment-संकट के समय सरकार द्वारा त्याग दिए जाने की भावना ने ताकतवर मध्यवर्ग की नाराजगी को बढ़ाया है। ...2 महीने पहले तक मोदी सरकार भारतीय इतिहास की सबसे लोकप्रिय और कॉंफिडेंट सरकारों में थी, लेकिन अब मोदी और उनकी सरकार संकट में है।"
रही-सही कमी अंतरराष्ट्रीय छवि निर्माण की बेचैनी और रीढ़विहीन नाकारा मंत्रियों-अधिकारियों ने पूरी कर दी। मोदी सरकार के "अहंकार, अतिराष्ट्रवाद और नौकरशाही अक्षमता ने मिलकर भारत मे इस विराट संकट को जन्म दिया है" (The Australian )
जब दुनिया के दूसरे राष्ट्राध्यक्ष अपने लिए अधिक से अधिक वैक्सीन जुटाने में लगे थे, उसके निर्माण में निवेश कर रहे थे, खरीद के लिए अग्रिम ऑर्डर दे रहे थे, तब अपने स्वास्थ्य मंत्री द्वारा "वैक्सीन गुरु" उपाधि से नवाजे गए मोदी जी ने न तो वैक्सीन में कोई निवेश किया, न बाहर से मंगाया, उल्टे 10 करोड़ डोज निर्यात कर दिया। जबकि दुनिया के तमाम विशेषज्ञ कह रहे थे कि जब मामले कम हैं तभी भारत को तेजी से टीकाकरण करना चाहिए, वरना आगे स्थिति भयावह हो सकती है। पर यहां तो मोदी जी 28 जनवरी को World Economic Forum के दावोस डॉयलॉग को सम्बोधित करते हुए कोरोना पर भारत की विजय का एलान कर चुके थे। जब दुनिया के दूसरे देश दूसरी लहर से मुकाबले की तैयारी कर रहे थे, तब वे शेखी बघार रहे थे कि हमने न सिर्फ कोविड को हरा दिया बल्कि 150 देशों की मदद भी किया। उन्होंने कहा कि "ग्लोबल एक्सपर्ट भारत मे कोरोना की सुनामी की बात कर रहे थे, पर हमने इसके खिलाफ लड़ाई को जनांदोलन बना दिया (याद करिये ताली-थाली-मोमबत्ती)। हमारी दूसरों से तुलना भी नहीं हो सकती क्योंकि हमारी आबादी दुनियां की 18% है, फिर भी हमने सिर्फ अपनी समस्या हल नहीं की बल्कि पूरी दुनियां की मदद की।"
दूसरी लहर की तबाही में मोदी सरकार की जवाबदेही इतनी साफ है कि आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत को भी जनता की नाराजगी को भांपते हुए यह मानने को मजबूर होना पड़ा कि “शासन, प्रशासन सब गफलत में रहे”, हालांकि इसमें उन्होंने जनता की बात भी जोड़ दिया, पर जब मोदी जी खुद ही सुपरस्प्रेडर बन गए और बिना मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के लाखों की रैलियाँ करने लगे तो आखिर जनता को दोष देने का क्या औचित्य ?
ब्रांड मोदी को बचाने की कोशिश में दूसरी लहर से निपटने की पूरी जिम्मेदारी राज्यों के मत्थे मढ़ दी गयी, लॉकडाउन लगाने से लेकर, ऑक्सीजन-दवा की व्यवस्था, यहां तक कि विश्व बाजार में वैक्सीन खरीदने तक की जिम्मेदारी उनके ऊपर छोड़ दी गयी, जो कि किसी भी दृष्टि से न तो उचित है, न सम्भव है। वैक्सीन बनाने वाली तमाम विदेशी कम्पनियों ने राज्य सरकारों से deal करने से सीधे मना ही कर दिया।
पिछले दिनों लोग संघ-भाजपा की हृदयहीनता और सत्ता की हवस पर दंग रह गए जब यह खबर आई कि एक ओर उत्तर प्रदेश के गांवों में लाशें गिर रही हैं, दूसरी ओर संघ-भाजपा ने UP चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है और मोदी के साथ उनके शीर्ष नेताओं की बैठक हुई है।
मोदी एंड कम्पनी को UP की चिंता इसलिए भी सता रही है क्योंकि महामारी की दूसरी लहर में यूपी से आने वाली तस्वीरें-गंगा में बहती लाशें, नदियों किनारे रेत में रामनामी ओढ़े असंख्य कब्रें और फिर उस रामनामी का घसीटा जाना, श्मशानों पर दीवारें खड़ी कर अनगिनत चिताओं को छिपाया जाना- इस महामारी की defining image बन गयी हैं जो पूरी दुनिया मे वायरल हो चुकी हैं।
ब्रांड मोदी को बचाने के लिए इस सब का ठीकरा योगी के सर फोड़ने की कोशिश बेईमानी है, वे बेशक सह-अभियुक्त हैं, पर कोरोना के खिलाफ लड़ाई के प्रधान सेनापति तो स्वयं मोदी ही हैं। दरअसल यह डबल इंजन की सरकार का कमाल है।
उप्र में महामारी की तबाही को लेकर भाजपा सरकार के खिलाफ जबरदस्त नाराजगी की जो under-current है, किसान आंदोलन के " भाजपा हराओ " अभियान के साथ मिलकर चुनाव आते आते उसके भाजपा विरोधी लहर में तब्दील हो जाने के पूरे आसार हैं। इसकी एक झलक पंचायत चुनाव नतीजों में दिखी है जहाँ भाजपा की करारी हार हुई और वह प्रदेश में दूसरे नम्बर की पार्टी हो गयी।
फिलहाल सारे संकेत यही हैं कि अगले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश का जनादेश ब्रांड मोदी के खात्मे पर मुहर लगा देगा ।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)