NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
पर्यावरण
स्वास्थ्य
भारत
राजनीति
…इस बार भी लोगों ने प्रदूषण चुना
दिवाली में कब और कैसे प्रदूषण का प्रवेश हो गया, यह एक गहन शोध का विषय है लेकिन आज 21वीं सदी में जब इंसान को थोड़ा अधिक तार्किक, समझदार और जिम्मेदार होने की ज़रूरत थी, कम से कम आस्थाप्रधान देशों के लोगों ने इन अपेक्षाओं से पल्ला झाड़ लिया है और पूरे होशो-हवास में प्रकृति के ऊपर प्रदूषण को चुन लिया है।
सत्यम श्रीवास्तव
16 Nov 2020
 प्रदूषण
फोटो साभार : Hindustan Times

बरसात आती है। धरती को नहलाकर उसे हरियाली की चादर ओढ़ाकर चली जाती है। फिर दिवाली यानी दीपावली आती है। उत्तर भारत में दिवाली पाँच दिनों का त्योहार होता है। अनिवार्य रूप से खेती के चक्र से जुड़े इस त्योहार के साथ सुख, समृद्धि, प्रकाश, साफ- सफाई और तमाम अच्छे अच्छे भाव व कर्म जुड़े हैं। इस त्योहार में कब और कैसे प्रदूषण का प्रवेश हो गया, यह एक गहन शोध का विषय है लेकिन आज 21वीं सदी में जब इंसान को थोड़ा अधिक तार्किक, समझदार और जिम्मेदार होने की ज़रूरत थी, कम से कम आस्थाप्रधान देशों के लोगों ने इन अपेक्षाओं से पल्ला झाड़ लिया है और पूरे होशो-हवास में प्रकृति के ऊपर प्रदूषण को चुन लिया है।

प्रकृति की रक्षा के लिए उसके पास सेव द नेचर, सेव द इनवायरमेंट, सेव द टाईगर और सेव द एवरीथिंग जैसे सबसे बड़े झूठ हैं। यह जुमले फेंकते समय यह गुमान ज़रूर हो सकता है कि आप इस धरती, जलवायु, पर्यावरण, शेर, नदियां आदि सब को बचा सकते हैं लेकिन इसमें अहंकार में जो बात छिपायी जाती है वो ये कि आप इससे बने हैं और आप महज़ अपने आप को बचाने की चिंता कीजिये। प्रकृति अपनी चिंता आप करती है। बहरहाल।

इस दिवाली भी जबकि तमाम चिकित्सा अनुसन्धानों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों ने बार बार कहा कि प्रदूषण और कोरोना के बीच बहुत गहरा संबंध है और जिस अनुपात में प्रदूषण बढ़ेगा उसी अनुपात में कोरोना महामारी भी अपने पाँव पसारेगी। यह बात किसी गूढ़ भाषा में नहीं बल्कि आम चलन की  भाषा में कही गयी। यह कोई नयी बात भी नहीं थी जिसका रहस्योद्घाटन हुआ हो बल्कि सभी ने देखा है कि कोरोना से संक्रमित व्यक्ति को सांस लेने में तकलीफ बढ़ जाती है। सांस लेने में तकलीफ प्रदूषित हवा की वजह से भी होती है। ऐसे में अगर दोनों वजहें एक साथ किसी इंसान को प्रभावित करें तो उसका गंभीर रूप से बीमार होना निश्चित है। फिर यह बीमारी केवल एक इंसान को बीमार नहीं करती बल्कि उसके संपर्क में आए कितने ही लोगों को संक्रमित कर सकती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि एक इंसान 88000 लोगों तक को संक्रमित कर सकता है।

इस अर्थ में इस दिवाली में प्रदूषण के हर कारण और कारक को त्योहार से दूर रखे जाने की एहतियात बरतने की ज़रूरत थी। इस लिहाज से दिवाली का चिकित्सकीय महत्व भी इस बार बहुत गंभीरता से जुड़ गया। जिसका पालन करते हुए लोग इक्कीसवीं सदी के ज़्यादा तार्किक, ज़्यादा समझदार और थोड़ा ज़्यादा जिम्मेदार होने की कसौटी पर खरे उतर सकते थे। औपचारिकता के लिए सही देश की लोकतान्त्रिक संस्थाओं ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाई। राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल, कोर्ट्स, सरकारों ने अपने अपने स्तर पर प्रदूषण फैलाने वाली तमाम गतिविधियों को रोकने की समझाइशें दीं। अफसोस, फिर भी हमने प्रदूषण चुना।

प्रदूषण है क्या? प्रदूषण, विकृति का पर्याय है। विकृति यानी जो जैसा होना चाहिए उसका वैसा न होना। इसे स्थान सूचक शब्दावली में भी समझ सकते हैं जिसे जहां होना चाहिए वहाँ न होना। अगर संस्कृति, प्रकृति के साथ मनुष्य का सकारात्मक संवाद या विनम्र हस्तक्षेप है तो विकृति उसी प्रकृति के साथ, उसी मनुष्य का नकारात्मक विवाद या गर्वीला अतिक्रमण है। प्रदूषण कई वजहों से होता है। दिवाली के संदर्भ में बात करें तो यह पटाखे जलाने से सबसे ज़्यादा होता है। और यह इतना जाना, समझा, परखा हुआ तथ्य है कि बीते कई सालों से दिल्ली जैसे महानगरों में अलग अलग तरह से समझाइशें जारी होती रहती हैं कि त्योहार सादगी से मनाएँ, पटाखे तो बिलकुल न चलाएं आदि आदि।

कुछ लोग पटाखे जलाने को ज़रूरी नहीं भी मानते हैं और बिना पटाखे जलाए भी अपनी दिवाली मना लेते हैं। ज़्यादातर लोग वो हैं जो थोड़ा कम पटाखे जलाते हैं ताकि इस त्योहार से जुड़े अनुकूलन में स्मृतियों को तरोताजा किया जा सके । अधिकांश लोग वो हैं जो इसे पटाखों का ही त्योहार मानते हैं और यही वो मनवाना भी चाहते हैं। खुद का किसी बात को मानना एक बात है लेकिन किसी को जबर्दस्ती मनवाना एक हठ है। हठ को भी मानव स्वभाव के प्रदूषक के तौर पर देखा जाता है। इस हठ को तब और बल मिलता है जब इसे आस्था, धर्म, खतरे और बदले की कार्यवाही के तौर पर किसी राजनीतिक दल द्वारा प्रोजेक्ट कर दिया जाता है। इस बल में कई गुना इजाफा तब हो जाता है जब वह राजनीतिक दल सत्ता में भी हो। तो इस बार भी इस सत्तासीन दल के बल ने इंसान के हठ रूपी प्रदूषण से प्रकृति के साथ निर्लज्ज ढंग से ऐसी तैसी की।

विचारणीय प्रश्न यह है कि हम जानबूझकर प्रदूषण क्यों चुन रहे हैं? अभी बिहार चुनाव सम्पन्न हुए और बिहार के लोगों ने रोजगार, दवाई, सिंचाई, पढ़ाई के स्थान पर श्मशान, कब्रिस्तान, घुसपैठिए,आतंकवादी, नक्सल, जंगलराज, अपहरण, फिरौती जैसे शब्दों को चुना। ये सारे शब्द कम से कम शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आजीविका, सिंचाई जैसे शब्दों के सामने तो अच्छे समाज और अच्छे देश के लिए प्रदूषण ही हैं। हैं न?

इसी तरह मध्य प्रदेश में टिकाऊ और बिकाऊ विधायकों के बीच जनता ने बिकाऊ को चुन लिया। बिकाऊ होना विधानसभा और सरकार के लिए प्रदूषण हैं। लोगों ने यहाँ भी प्रदूषण चुना।

दिवाली के त्योहार में मंदिरों का महत्व तो है लेकिन मंदिरों की जगह लोकतन्त्र में नहीं ही है। फिर भी लोकतन्त्र की शिखर संस्था तक पहुँचने के लिए मंदिर का इस्तेमाल जिस रूप में किया गया वह असल में प्रदूषण ही था पर अपनी आदत से मजबूर होते जा रहे हम फिर प्रदूषण चुन बैठे।

ध्यान से देखें तो हमारे घरों और सार्वजनिक जीवन में हम जैसे प्रदूषण चुनने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। प्रदूषण का एक अर्थ कभी एक शिक्षक ने समझाया था जहां उनका मतलब किसी भी प्रकार के कूड़े से था और कूड़ा का सीधा सा मतलब था कि जो जहां नहीं होना चाहिए वो अगर वहाँ है तो वो कूड़ा कहलाएगा। मसलन, खाने की मेज पर अगर आप हीरे के रत्नजड़ित हार रख दें तो भले ही वह कितना ही मूल्यवान क्यों नो पर वो वहाँ कूड़ा है। यानी एक रत्नजड़ित हीरे के हार की खाने की मेज पर कोई ज़रूरत नहीं है।

एक लोकतान्त्रिक देश में जैसे अपनी जाति, कुल, खानदान, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि का अभिमान इसलिए कूड़ा है क्योंकि यहाँ लोकतन्त्र खाने की मेज है और आपका तमाम ऐसी बातों पर अभिमान जो असल में आपके द्वारा अर्जित नहीं हैं वो रत्नजड़ित हीरे का हार है जिसका उपयोगिता वहाँ न होने से वह कूड़ा बन जाता है। अब एक समझदार मनुष्य को चाहिए कि वो अपनी खाने की मेज पर ऐसे कूड़े को न आने दे। लेकिन हमें अब सत्ता के हर प्रतिष्ठान, मीडिया, प्रचार माध्यमों से यही सिखाया जा रहा है कि ये प्रदूषण नहीं हैं वरन मुख्य बात यही है खाने की मेज पर लोकतन्त्र को सजाने से बेहतर है कि वहाँ इस कूड़े को प्रतिष्ठित किया जाये। हमें भी ऐसा करने में एक मौज मिल रही है।

हम अब अपने अपने विषय या क्षेत्र के विद्वानों की बजाय ऐरों-गैरों को सुनने लगे हैं। देश की अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही हो लेकिन हम सुनेंगे अपनी तरह के अनुपम, अनुपम खेर को, हम सुनेंगे कंगना रानौट को, रक्षा मामलों के लिए अक्षय कुमार हैं ही। देशभक्ति सिखाने के लिए ये सारे ऐरे-गैरे ज़िंदाबाद हैं।

सूचनाएँ अब सूचनाएँ नहीं हैं बल्कि ध्वनियों का ऐसा प्रदूषण हैं जहां शोर है, शराबा है और ऐसी उत्तेजना है जिससे इंसान का इंसान बोध खत्म हो जाये फिर लोकतन्त्र की मेज़ पर बैठना तो केवल नागरिकों को था और उनका विवेक तो पूरी तरह इन चैनलों ने समूल ही निगल लिया है। राजनीति अब सत्य या करुणा या सहानुभूति से प्रेरित नहीं बल्कि एक इंसान की भरपूर हठ से संचालित है। और किसी लोकतन्त्र में किसी एक का ही होना और सर्वत्र होना और उसका हठधर्मी होना और करुणा, सत्य और सहानुभूति से निर्मम ढंग से रहित होना ही वो भी लोकतन्त्र की मेज़ पर सबसे बड़ा कूड़ा है, सबसे बड़ा प्रदूषण है। पटाखों जलाने की ज़िद से भी बड़ा। अब भले ही उसकी हठधर्मिता, उसका दिखावा, उसका छलावा, उसकी निर्ममता देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए रत्नजड़ित हीरे का हार ही क्यों न हो पर अंततः और अनिवार्यतया वह कचरा है। कूड़ा है। प्रदूषण है। और अफसोस की बात है कि हम जैसा कि ऊपर कहा प्रदूषण चुनना सीख गए हैं।

दिवाली तो बीत गयी पर कोई दिवाली ऐसी आए जब हम इस प्रदूषण से मुक्ति पाएँ...

लेखक पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

pollution
Air Pollution
Pollution in Delhi
Diwali
diwali crackers
Diwali Pollution

Related Stories

मध्यप्रदेशः सागर की एग्रो प्रोडक्ट कंपनी से कई गांव प्रभावित, बीमारी और ज़मीन बंजर होने की शिकायत

बिहार की राजधानी पटना देश में सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहर

बनारस में गंगा के बीचो-बीच अप्रैल में ही दिखने लगा रेत का टीला, सरकार बेख़बर

दिल्ली से देहरादून जल्दी पहुंचने के लिए सैकड़ों वर्ष पुराने साल समेत हज़ारों वृक्षों के काटने का विरोध

साल 2021 में दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी थी : रिपोर्ट

विश्व जल दिवस : ग्राउंड वाटर की अनदेखी करती दुनिया और भारत

देहरादून: सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट के कारण ज़हरीली हवा में जीने को मजबूर ग्रामीण

हवा में ज़हर घोल रहे लखनऊ के दस हॉटस्पॉट, रोकने के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने तैयार किया एक्शन प्लान

हर नागरिक को स्वच्छ हवा का अधिकार सुनिश्चित करे सरकार

बिहार में ज़हरीली हवा से बढ़ी चिंता, पटना का AQI 366 पहुंचा


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License