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अपने अन्नदाता के खिलाफ यह युद्ध मोदी-सरकार को भारी पड़ेगा!
दरअसल यह टकराव बहुत बुनियादी चरित्र का है। विभाजन रेखा के एक ओर किसान हैं और दूसरी ओर कॉरपोरेट। कृषि विकास का किसान रास्ता या कॉरपोरेट रास्ता।
लाल बहादुर सिंह
14 Dec 2020
अपने अन्नदाता के खिलाफ यह युद्ध मोदी-सरकार को भारी पड़ेगा!

मीडिया में इस समय किसान आंदोलन के खिलाफ एक अभूतपूर्व प्रचार युद्ध छिड़ा हुआ है। भोले-भाले किसानों ने अपने गांवों से दिल्ली आकर एक सीधी-सपाट बात कह दी है  कि वे नए कृषि कानूनों को खारिज करते हैं क्योंकि यह उनकी तबाही का दस्तावेज हैं, क्योंकि यह कानून मोदी जी किसानों के लिए नहीं, बल्कि अपने दोस्तों अम्बानी, अडानी, कॉरपोरेट के फायदे के लिए लाए हैँ। मिथकीय अंगद की तरह रावण के दरबार मे अपने पांव जमाते हुए, उन्होंने एलान कर दिया है कि अब वे वापस तभी जाएंगे जब मोदी जी ने बिन मांगे उन्हें जो कानूनों का तोहफा दिया है, उसे वापस ले लेंगे !

ये दो टूक बातें बाजार और मोदी के बारे में उनके जीवन के ठोस अनुभव, उनके भोगे हुए यथार्थ से निकली हैं और उनकी अनुभूति का हिस्सा बन गयी हैं, जिससे मोदी जी की कोई चिकनी-चुपड़ी बात, अमित शाह की कोई धमकी और शातिर चाल, कृषिमंत्री तोमर की कोई रोनी सूरत-रुआंसी अपील,  गोयल की अंग्रेज़ी में कोई अहंकारी व झूठभरी खोखली लफ्फाजी उन्हें डिगा नहीं पा रही है।

यह प्रचार युद्ध कई स्तर पर लड़ा जा रहा है, प्रधानमंत्री, सरकार के तमाम मंत्री, सांसद रोज किसी न किसी बहाने बयान दे  रहे हैं, भाजपा 100 प्रेस कॉन्फ्रेंस और 700 चौपाल लगा रही है। IMF जैसी वैश्विक संस्थाओं के अर्थशास्त्री, वित्तीय पूंजी और कॉरपोरेट से जुड़े, नव उदारवादी नीतियों के पैरोकार बुद्धिजीवी, विशेषज्ञ, मीडिया के ऐंकर, अखबारों के सम्पादक, सबके लेखों, वक्तव्यों, साक्षात्कारों की बाढ़ आ गयी है। 

यह देखना रोचक है कि IT cell, ट्रोल आर्मी या प्रज्ञा ठाकुर-कपिल मिश्रा जैसे दंगा-नफरत ब्रिगेड के लोग तो किसानों को देशद्रोही, खालिस्तानी, आतंकवादी, टुकड़े-टुकड़े गैंग साबित करने में लगे ही हैं, ( और दिल्ली दंगों की तर्ज़ पर किसान आंदोलन से निपटने की चेतावनी दे ही रहे हैं ), मोदी कैबिनेट के स्वनामधन्य मंत्री भी पीछे नहीं हैं, उपभोक्ता मामलों के मन्त्री रावसाहेब दानवे को तो इसमें चीन-पाकिस्तान की साजिश दिखी ही थी, स्वयं वार्ताकार मंत्री पीयूष गोयल ने बयान दिया है कि अल्ट्रा-लेफ्ट, माओवादियों ने किसान आंदोलन को हाईजैक कर लिया है, अब वही बात वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री नितिन गडकरी ने दुहराई है कि वामपंथी व अतिवादी तत्व आंदोलन का इस्तेमाल कर रहे हैं।

अगर गौर से देखा जाय तो किसानों के खिलाफ छेड़े गए इस महायुद्ध में उनका बुद्धिजीवी गिरोह भी सारतः यही बात कह रहा है, जरा नफीस (sophisticated ) ढंग से। अर्धसत्य, सन्दर्भ-प्रसंग से कटे आंकड़ों और बेतुके तर्कों के माध्यम से वह भी किसानों को खलनायक साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है। इसकी एक बानगी देखिए। स्तम्भकार स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर ने बताया है कि कैसे हरित क्रांति के अगुआ, देश को भुखमरी से निकालने वाले तथा खाद्यान्न में देश को आत्मनिर्भर बनाने वाले कल के हीरो पंजाब के किसान अब खलनायक बन चुके हैं। "पंजाब के ये किसान पराली  जलाकर दिल्ली और आसपास धुएँ के प्रदूषण से होने वाली हजारों मौतों के जिम्मेदार है, "  उन्हीं की वजह से जलस्तर गिरता जा रहा है और जलस्रोत सूखते जा रहे हैं, उनको मिलने वाली सब्सिडी के लिए लानत-मलामत करते हुए वे कहते हैं कि उन्हीं की वजह से पंजाब में जमीनें इतनी महंगी हो गयी हैं कि वहां उद्योग-धंधे नहीं खुल पा रहे ! उनकी वजह से बफर स्टॉक से बहुत अधिक अनाज गोदाम में सड़ रहा है, उसे चूहे खा रहे हैं और उसकी चोरी हो रही है! (मानो, इसके लिए भी किसान ही जिम्मेदार हों!)। लखटकिया सब्सिडी और करोड़पती assets वाले (केवल इस अर्थ में कि उन्हीं के अनुसार उनकी 1 एकड़ जमीन की कीमत 1 करोड़ के ऊपर हो गयी है) पंजाब के किसानों की चौतरफा लानत-मलामत करने के बाद वे उन्हें चीन जैसी autocracies में ऐसे आंदोलनों को कैसे मसल दिया जाता है, इसकी एक veiled धमकी देने के बाद उदारतापूर्वक बताते हैं कि यूरोप और अमेरिका की democracies अपने किसानों से डील करती हैं और उन्हें सब्सिडी देती हैं। 

अंत में इन तीन कानूनों को अत्यंत समझदारी भरा सुधार घोषित करते हुए, वे हर हाल में इन  पर अड़े रहने की अपील करते हुए मोदी जी को सलाह देते है,  " आपको चुपचाप आंदोलन के गुजर जाने का  इंतजार करना चाहिए। इस बीच किसानों की ओर देखकर गर्मजोशी से मुस्कराते रहना चाहिए, उन्हें यह शपथपूर्वक बताते रहना चाहिए कि आपका दिल उन्हीं के साथ है,  MSP की गारंटी उन्हें देते रहना चहिए। और यह बात जोर देकर उन्हें बताते रहना चाहिए कि विपक्ष उन्हें गुमराह कर रहा है। और हाँ, आने वाली रबी की फसल के लिए भारी गेंहूँ  खरीद की बक्शीश की घोषणा कर देना  चाहिए। आपको किसानों के लिए मीठे शब्दों की चाशनी और प्रलोभनों से लबालब भरे रहना चाहिए। लेकिन इन  विख्यात विवेकपूर्ण सुधारों (eminently sensible reforms ) पर दृढ़तापूर्वक अडिग रहना चाहिए" । 

बहरहाल मोदी जी हूबहू इसी रणनीति पर पहले से अमल कर रहे हैं। इस समय किसानों के लिए उनके मन मे कितना प्यार छलक रहा है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के पूंजीपतियों के मंच FICCI के वार्षिक अधिवेशन में भी वे किसानों को इन कानूनों से होने वाले फायदे गिना रहे थे!

नव उदारवादी अर्थनीति के कट्टर समर्थक अय्यर साहब का यह लंबा उद्धरण हवा का रुख समझने के लिए बेहद जरूरी है। यह याद रखना भी रोचक होगा कि यह वही अय्यर हैं जिन्होंने पुलवामा के बाद,बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक से लगभग 1 सप्ताह  पहले TOI के पन्नों पर अपने रविवारी लेख में इसे anticipate किया था और हूबहू ऐसी ही स्ट्राइक के लिए मोदी सरकार को सुझाव दिया था, जैसी 1 सप्ताह बाद हुई, एक निर्जन deserted आतंकी अड्डे पर जिससे कोई जनहानि न हो, ताकि वह युद्ध छिड़ने और आर्थिक तबाही का कारण न  बने, पर जिसे गोदी मीडिया के माध्यम से बड़ी कामयाबी बताया जा सके और विरोध करने पर विपक्ष को देशद्रोही साबित किया जा सके।

जिस तरह वित्तीय पूंजी और कॉरपोरेट की पूरी ताकत, आज, मोदी सरकार के पीछे तन-मन-धन से लामबंद है, उससे यह समझा जा सकता है कि उनका कितना बड़ा दांव लगा हुआ है और ये कृषि कानून उनके लिए और कितने दूरगामी महत्व के हैं।

इसीलिए मामला महज मोदी और भाजपा का नहीं है, इसके पीछे पूरा शासक खेमा एकताबद्ध है !

यह अनायास नहीं है कि इन कृषि कानूनों के मुख्य सिद्धांतकार, कृषि अर्थशास्त्री प्रो. अशोक गुलाटी, वाजपेयी सरकार की आर्थिक सलाहकार परिषद के  सदस्य थे, तो मनमोहन सिंह ने उन्हें CACP का अध्यक्ष बनाया था, और मोदी जी के कार्यकाल में तो नीति आयोग के अंतर्गत कृषि पर टास्क फोर्स के सदस्य तथा Agriculture Market Reforms के  विशेषज्ञ-समूह के अध्यक्ष के बतौर वे नए कृषि क़ानूनों के मुख्य सूत्रधार ही बन गए। इतिहासकार राम चन्द्र गुहा ने इनके बारे में शायद ठीक ही कहा है कि, " प्रो. गुलाटी देश के अगुआ कृषि अर्थशास्त्री हैं। वे सतर्कतापूर्वक विभिन्न दलों से पूरी तरह निष्पक्ष ( scrupulously non-partisan ) हैं।" क्योंकि दरअसल वे वित्तीय पूंजी और कॉरपोरेट हितों के, समग्र शासक खेमे के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं!

प्रो. गुलाटी ने इन कृषि कानूनों को "1991 moment for Indian agriculture" करार दिया है।

अरविंद पनगढ़िया ने, जिन्हें मोदी जी ने नीति-आयोग का पहला उपाध्यक्ष नियुक्त किया था, सही ही चिह्नित किया है कि इस आंदोलन से नवउदारवादी सुधारों का भविष्य जुड़ा हुआ है। उन्होंने चिंता जाहिर की है कि मौजूदा सुधारों को सरकार वापस लेती है तो इससे निहितस्वार्थी तत्व सभी सुधारों को उलटने के लिए प्रोत्साहित होंगे।

दरअसल यह टकराव बहुत बुनियादी चरित्र का है। विभाजन रेखा के एक ओर किसान हैं और दूसरी ओर कॉरपोरेट। कृषि विकास का किसान रास्ता या कॉरपोरेट रास्ता। कृषि आज जिस गहरे संकट में है, उससे उबरने के लिए बड़े बदलाव की जरूरत है, विकल्प दो ही हैं : कृषि का कारपोरेटीकरण या सहकारीकरण।

कृषि के कारपोरेटीकरण को ही कॉरपोरेट अर्थशास्त्री और नीति-नियंता कृषि सुधार कहते हैं और मोदी सरकार इसी की प्रबल पैरोकार है, और नए तीन कृषि कानून इसी नीति की आधिकारिक घोषणा/अभिव्यक्ति हैं, इस मूल दिशा से वह हटने को तैयार नहीं है। बेशक इस मूल दिशा पर कायम रहते हुए कुछ संशोधनों के लिए वह तैयार है, जो इसकी मूल दिशा को प्रभावित न करते हों, इसी के प्रस्ताव हर वार्ता के बाद सामने आ रहे हैं। 

गैर-वामपंथी विपक्षी राजनीतिक पार्टियां ऊपर से किसानों के साथ हैं, पर अंदर से वे इन करपोरेटपरस्त नीतियों के साथ हैं । APMC Act को निरस्त करने की बात तो कांग्रेस के 2019 के घोषणापत्र में की ही गयी थी। उनके बीच फर्क इन नीतियों के सार को लेकर नहीं है, शैली को लेकर है, उन्हें लागू करने के तरीकों के ऊपर हैं। मोदी सरकार के खिलाफ इस आंदोलन का राजनैतिक इस्तेमाल करने के लिए वे बेशक उत्सुक हैं। इसीलिए सरकार आंदोलन का दमन भी नहीं कर पा रही है,  पर इसका हल भी नहीं निकल पा रहा ।

इस आंदोलन की सेटिंग भले स्थानीय हो पर यह एक dead-end /अंधी गली में फंस चुकी नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ उभरते आंदोलनों की वैश्विक लहर का हिस्सा है।

भारत में भी पिछले 30 वर्षों से लागू की जा रही  नवउदारवादी नीतियों ने आय की गहराती असमानता, भयावह बेरोजगारी, सार्वजनिक शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं के ध्वंस/ पतन, public sector के Corporate Take-over, अवरुद्ध, गिरते विकास के  गहरे संकट में देश की अर्थव्यवस्था को फंसा दिया है, बेशक इसमें मोदी जी की नोटबन्दी, GST, अनियोजित लॉक डाउन जैसी कुचिन्तित /अचिंतित( ill-conceived ) नीतियों और कदमों का कोई कम योगदान नहीं है।

सर्वोपरि, कृषि क्षेत्र में इन नीतियों ने भारी तबाही मचाई है। इनके विनाशकारी प्रभाव का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि कर्ज़ में डूबे लाखों किसानों ने आत्महत्या की है, GDP में कृषि का योगदान घटते- घटते अब मात्र 15% रह गया है, जबकि देश की लगभग आधी आबादी इस पर निर्भर है। इसमें सबसे बुरा हाल तो 2 हेक्टेयर से भी कम जोत वाले सीमांत व लघु किसानों का है, जो कुल किसानों का 93 % हैं। कृषि विकासदर में लगातार गिरावट हो रही है। गैर-कृषि इस्तेमाल के लिए लगातार अधिग्रहण होते जाने के कारण कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही है। फलस्वरूप बड़े पैमाने पर, खेती से अपनी आजीविका कमा पाने में असमर्थ उजड़ते, बेरोजगार होते, किसानों का गाँवों से शहरों की ओर त्रासद पलायन हो रहा है ।

कृषि उत्पादन और व्यापार पर मुट्ठी भर दैत्याकार विदेशी और देशी कॉर्पोरेशन्स का इजारेदारी कायम हो जाने का दुष्परिणाम केवल किसानों को ही नहीं भुगतना होगा बल्कि मेहनतकश-गरीब वर्ग,  आम मध्यवर्गीय उपभोक्ता सब पर  पड़ेगा। हमारी खाद्य सुरक्षा जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जोड़कर देखा जाता है, गम्भीर खतरे में  पड़ जाएगी। कृषि और ग्रामीण ढांचे में बुनियादी बदलाव से हमारे पूरे सामाजिक-सांस्कृतिक- आर्थिक-राजनैतिक ढांचे में उथल -पुथल मच जाएगी। बेरोजगारी, ड्रग,अवसाद,आत्महत्या की बाढ़ आ जायेगी। पूरा समाज एक अभूतपूर्व त्रासदी के रूबरू होगा। पंजाब ने कृषि के इस गहराते संकट की त्रासदी को शायद सबसे तल्खी से महसूस किया है, इसीलिए वह आज इस मोर्चे पर पूरे देश के किसानों का नेतृत्व कर रहा है।

कृषि पर कॉरपोरेट कब्जे का हमारी सम्प्रभुता,  लोकतंत्र तथा स्वस्थ सामाजिक प्रगति के लिए गहरे निहितार्थ  हैं ।

ऐसा नहीं है कि कृषि क्षेत्र में इन नव उदारवादी नीतियों के विनाशकारी असर का किसानों को पूर्वानुमान नहीं था, इन्हीं आशंकाओं के मद्देनजर 1994 में, जब WTO बन रहा था, डंकल प्रस्ताव के खिलाफ PMO के बैनर तले पिछली चौथाई सदी का सबसे जुझारू प्रतिरोध दिल्ली के लाल किला के पीछे राजघाट के पास हुआ था, जिसमें वामपंथी जनसंगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं का पुलिस के साथ पूरे दिन बैरिकेड पर pitched battle चला था ।

आज वह विष-वृक्ष मोदी जी के तीन कानूनों के रूप में लहलहा रहा है। और इसीलिए 1994 के उस जुझारू प्रतिरोध के 26 साल बाद आज पुनः किसानों का यह अभूतपूर्व आंदोलन उठ खड़ा हुआ है।

इस आंदोलन से निपटना मोदी जी के लिए उनके राजनैतिक जीवन की सबसे कठिन चुनौती साबित होने जा रहा है। उनकी राजनीति के लिए यह मनमोहन सिंह का अन्ना आंदोलन क्षण साबित हो सकता है, जहाँ एक ओर कुआं है, दूसरी ओर खाई।

अगर किसान यह लड़ाई जीते, और सरकार को कृषि-सुधारों से पीछे हटना पड़ा तो कॉरपोरेट जगत में मोदी-भाजपा की साख मिट्टी में मिल जाएगी। जैसा उनके कृषि मंत्री ने कहा कॉरपोरेट का सरकार पर से विश्वास उठ जाएगा। ऐसा हुआ तो कॉरपोरेट बुद्धिजीवियों की बदतरीन आशंकाएं सही साबित हो सकती हैं और अन्य देशों की तरह भारत में भी विनाशकारी नवउदारवादी नीतियों- शिक्षा-स्वास्थ्य समेत तमाम सेवाओं के अंधाधुंध निजीकरण, राष्ट्रीय संपदा की कॉरपोरेट लूट और विस्फोटक रोजगार -संकट के खिलाफ विभिन्न तबकों की लड़ाइयां एक बड़े राष्ट्रीय जनांदोलन का रूप ले सकती हैं। 

और अगर  छल छद्म से सत्ता और पूंजी की ताकत  के बल पर आंदोलन का दमन हुआ और किसानों को पराजित और अपमानित किया गया, तो इसके परिणाम प्रलयंकारी होंगे। उनके दमित आक्रोश की प्रतिक्रिया भयानक रूप ग्रहण कर सकती है, विशेषकर सीमावर्ती राज्य पंजाब में। मोदी सरकार की छवि पूरे देश के किसानों के मन में हमेशा के लिए अंबानी-अडानी सरकार के रूप स्थापित हो जाएगी और बड़ी मेहनत से गढ़ी गई त्यागी, तपस्वी, राष्ट्रवादी मसीहा की मोदी जी की छवि हमेशा के लिए ध्वस्त हो जाएगी। यह उनकी राजनैतिक पारी के अंत की शुरुआत साबित हो सकती है।

जो भी हो लंबे ठहराव के बाद यह भारतीय राजनीति का turning point है !

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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