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भारत
राजनीति
यह एक और असाधारण प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करने का समय है 
जिस प्रकार खुलकर हमले लोकतान्त्रिक आजादी पर हो रहे हैं, उसे देखते हुए विधायिका की ओर से उसके प्रतिकार में गंभीर प्रतिरोध देखने को नहीं मिले हैं।
हिरेन गोहेन
23 Sep 2020
लोकतान्त्रिक आजादी
मात्र प्रतिनिधित्व हेतु।

हाल के दिनों में चली संसदीय कार्यवाही को लेकर की गई प्रेस रिपोर्टों को मैं बेहद उत्सुकता के साथ स्कैन कर रहा था, जिसने सरकार द्वारा की गई अनेकों गंभीर अनियमितताओं एवं अवैधानिक कृत्यों को देशभक्ति कानूनों और संविधान के नियमों के कड़ाई से पालन करने की आड़ में छुपाने का काम किया है। यह सब देखकर मुझे बेहद निराशा हो रही है।  

बेशक इसमें समय की कमी का भी एक योगदान अवश्य है। ऐसे बहुतेरे तात्कालिक एवं दबाव वाले मुद्दे मुहँ बाए खड़े हैं जिनके तत्काल समाधान की जरूरत है, लेकिन महामारी के चलते उनके समाधान के काम में और अधिक “घटोत्तरी” करनी पड़ रही है। लेकिन जो मुद्दे उपर वर्णित किये गए हैं, वे यदि ज्यादा नहीं तो किसी से कम महत्वपूर्ण भी नहीं हैं। विशेष तौर पर यूएपीए और अन्य काले कानूनों के खुल्लम-खुल्ला दुरुपयोग के मसले को ही ले लें। कुछ लोग जो आज भी आपातकाल के खिलाफ लड़ाई में अपनी भूमिका के बारे में काँव-काँव करते फिरते हैं, वे इस बात को बड़ी आसानी से भुला देते हैं कि तब उन्होंने वास्तव में इन्हीं सब वजहों के चलते एक निरंकुश शासन से लोहा लिया था, अर्थात इसके लोकतांत्रिक राज्य को अपने अधीन कर लेने के खिलाफ आवाज बुलंद की थी।

इस बीच कुछ हलचल भी देखने को मिली है, उदाहरण के लिए सांसद मोहुआ मोइत्रा की ओर से केंद्र की वित्तीय जिम्मेदारियों एवं दायित्वों को लेकर दी जाने वाली भावपूर्ण एवं अकाट्य सवाल-जवाब वाले कुछ पल। लेकिन इसके बावजूद यह खेदजनक है कि लोकतांत्रिक आजादी पर किये जा रहे खुल्लम-खुल्ला हमले को देखकर भी विधायिका की ओर से गंभीर प्रतिरोध नहीं देखने को मिल रहा है। केंद्र सातवीं अनुसूची में मौजूद खामियों का इस्तेमाल राज्यों की अधिकाँश मामलों में सीमित ताकतों को खुद के लिए हथियाने के तौर पर इस्तेमाल में ला रहा है और हमारी न्यायिक व्यवस्था में मौजूद उन अंतर्निहित मानदंडों की अवहेलना करने से बाज नहीं आ रहा है। यहाँ यह संभव नहीं कि हर चीज लिख कर रख दी जाए और कानून का शासन सिर्फ अपने कवच के साथ मौजूद रहे।

कांग्रेस के लिए इस प्रकार की भूमिका में खुद को संचालित कर पाना असहज होता जा रहा है, जिसका पूर्वानुमान सहज ही लगाया जा सकता है, लेकिन यह सब दुर्भाग्यपूर्ण भी है। इतिहास में की गई खुद की खामियों के चलते आज यह प्रेत बाधा का शिकार है। सत्ता के मद में चूर होकर सबसे पहले इसने ही इस विनाशकारी दिशा की तरफ, हालाँकि लजाते हुए कदम बढाये थे। यूएपीए, टाडा के साथ-साथ कई कानूनों में तोड़-मरोड़ की मूल वजह इनकी सत्ता में किसी भी तरह बने रहने की भूख एवं थैलीशाहों को किसी भी तरह से खुश रखने की वजह से हुई थी। जिस नरम हिंदुत्व वाले सहअपराधी को इसने प्रश्रय दिया, के लिए आगे चलकर इसने और अधिक क्रूर एवं बेरहम किस्म के प्रयोगों के लिए मार्ग प्रशस्त करने का काम कर डाला था। यहाँ तक कि इसके कुछ वरिष्ठ नेताओं को हाल के दिनों में पार्टी हदबंदी को तोड़ते हुए वर्तमान सरकार द्वारा अपनाए गए कुछ कठोर क़दमों की जमकर तारीफ़ करते देखा गया था।

लेकिन ऐसी कोई वजह नजर नहीं आती कि वे इस बारे में साफ़-सुथरे फेफड़ों से साँस नहीं ले सकते और खुद में सुधार लाने का वायदा न कर सकें। वे यदि चाहें तो अभी भी शासन में लोकतांत्रिक सिद्धांतों को अपना सकते हैं, इससे पहले कि वे अपनी पार्टी की साफ़-सफाई के काम में आगे बढ़ें, जिसके बारे में वे काफी लंबे वक्त से वादा कर रहे हैं। हमारे संविधान के सामने आई इस विपदा की घड़ी में भी यदि वे चाहें तो अपनी प्रतिबद्धता साबित कर अपने प्रति विश्वसनीयता एवं व्यापक जनसमर्थन को हासिल कर सकते हैं। लेकिन उनकी दिलचस्पी इस सबमें नहीं है, और वे अभी भी सत्ता में अपनी पुनर्वापसी के लिए भाजपा के प्रति बढ़ते जन-असंतोष एवं उनके द्वारा उठाये जा रहे गलत क़दमों पर ही भरोसा लगाये बैठे हैं।

सत्ता जब चुंबक की तरह आकर्षित करने लगती है और सीमेंट की भांति मजबूत नजर आती है तो ऐसे में बीजेपी के लिए असंतुष्ट नेताओं और सदस्यों को बहकाना आसान हो जाता है। जिन 23 वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी ऑफिस एवं विभिन्न पदों के लिए स्पष्ट लोकतांत्रिक चुनावों की अपील की थी, उन्होंने असल में इससे भी कहीं ज्यादा जरूरी विचारधारात्मक आग्रह को अनदेखा करने का काम किया है। निश्चित तौर पर यह स्पष्ट नजर आ रहा था कि कुछ कांग्रेसी मानसिकता वाले सामाजिक कार्यकर्ता भी इस लड़ाई में सबसे आगे खड़े थे और वे ईमानदारी एवं उद्देश्य की गंभीरता में कुछ भी योगदान नहीं दे सकने की स्थिति में हैं। इसलिए रिकॉर्ड पूरी तरह से खाली नहीं है।

यहाँ पर कुछ सोच-विचार की गुंजाइश नजर आती है कि क्या मोनोपोली कैपिटल के साथ अपने संबंधों के चलते ही कांग्रेस, लोकतंत्र की इस बेहद अहम लड़ाई में मजबूती से आगे बढ़कर लड़ने में हिचक रही है, जिसे कि स्वयं उसके द्वारा ही कभी प्रायोजित और पोषित करने का काम किया गया था? अब उसने अपनी लॉयल्टी भगवाकरण के प्रति तब्दील कर ली है, क्योंकि बाद वाले के साथ अपनी मनमानी करने की कहीं ज्यादा छूट मिली हुई है। लेकिन चूँकि अभी भी इस क्षेत्र में कुहासा छाया हुआ है, इसलिए इस पर पर्याप्त रौशनी के लिए मेरे पास अभी उपकरण मौजूद नहीं हैं। मैं आगे की जांच के लिए फिलहाल इसे मात्र एक कूबड़ के तौर पर छोड़ रहा हूं।

यह मुझे सिविल सोसाइटी की ओर से उठाये जा रहे सामरिक क़दमों की ओर ले जाता है जिससे अभी भी कुछ अच्छे परिणामों की उम्मीद की जा सकती है। न्यायमूर्ति एपी शाह के सर्वोच्चतम न्यायपालिका को नींद से जगाने वाले साहसिक एवं स्पष्ट आह्वान में वे लोकतांत्रिक राज्य को निरंकुश शक्तियों के घातक लेकिन निरंतर हमलों से ढहने से बचाने के लिए आह्वान करते नजर आते हैं, जो मृतप्राय उम्मीद की चिंगारी को पुनर्जीवित करने का पर्याय बनती दिखती है। शायद प्रख्यात एवं योग्य न्यायिक हस्तियों की ओर से एक बार फिर से प्रेस-कांफ्रेंस को आहूत करने का समय आ चुका है, जिसके खुद के पास अपनी कोई राजनीतिक कुल्हाड़ी नहीं है!

लेखक सामाजिक-राजनीतिक विषयों के टिप्पणीकार एवं सांस्कृतिक आलोचक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। 

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Time for Another Extraordinary Press Conference

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AP Shah
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UAPA
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