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तिरछी नज़र : डर और नफ़रत का कारोबार
अब जब सब कुछ ऑन लाइन उपलब्ध है तो डर और नफ़रत के व्यापार के लिये भी ऑफ लाइन और ऑन लाइन, दोनों सुविधाएं उपलब्ध हैं।
डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
08 Mar 2020
तिरछी नज़र
गुजरात दंगों से जुड़ी यह तस्वीर भी डर और नफ़रत और फिर प्यार-भाईचारे का एक उदाहरण है। फोटो साभार : जनसत्ता

जैसे जैसे नया ज़माना आया है, नये नये कारोबारों का स्कोप बढ़ा है। पुराने ज़माने में जीवन यापन करने के लिए थोड़े बहुत ही कारोबार उपलब्ध होते थे। उन्हीं कारोबारों से लोग अपना जीवन यापन करते थे। जैसे जैसे हम उन्नति करते गये, नये नये कारोबार आते गये और पुराने कारोबारों को करने का तरीका भी बदलता गया। इन्हीं कारोबारों में एक कारोबार है डर का, भय का और नफ़रत का कारोबार।

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वैसे डर का कारोबार इतना पुराना भी नहीं है, पुराने राजाओं के काल से चला आ रहा है और आज के राजाओं के समय भी जारी है। पुराने ज़माने से ही राजा अपनी प्रजा पर डर, भय, आतंक का कारोबार आज़माते रहे हैं। तब वे अपनी प्रजा को दूसरे राजा से डराते थे। राजा को डर अपने राज के जाने का होता था पर डराते जनता को थे। अपनी प्रजा को डराते थे कि दूसरा राजा जीत गया तो तुम्हारे ऊपर अत्याचार ढहाया जायेगा, तुम्हारा धर्म और जाति भ्रष्ट कर दी जायेगी, तुम्हारा जीवन नरक बन जायेगा। आज भी कमोबेश वही जारी है।

समय के साथ साथ सभी कारोबारों को करने के तरीके बदल चुके हैं। लगभग सभी कामकाज दो तरह से होने लगे हैं, ऑन लाइन और ऑफ लाइन। आजकल सारे काम काजों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। आपको राशन मंगवाना हो तो ऑन लाइन भी उपलब्ध है, दवाइयां, कपड़ें और अन्य सारी चीजें भी ऑफ लाइन के अलावा ऑन  लाइन भी उपलब्ध हैं।

अब जब सब कुछ ऑन लाइन उपलब्ध है तो डर के व्यापार के लिये भी ऑफ लाइन और ऑन लाइन, दोनों सुविधाएं उपलब्ध हैं। इंटरनेट उपलब्ध होने के बाद बहुत सारे लोग अपना बहुत सा काम घर बैठे ही करने लगे हैं। डर के कारोबार में लिप्त अधिकतर छोटे मोटे व्यापारी भी "वर्क फ्रॉम होम" करने लगे हैं।

"वर्क फ्रॉम होम" के बहुत लाभ हैं। पूंजी निवेश भी बहुत ही कम, नाम मात्र का होता है। डर के, भय के, घृणा के कारोबार में तो "वर्क फ्रॉम होम" के लिए बस एक लैपटॉप चाहिये और इंटरनेट कनेक्शन। फिर आप जितना मर्जी डर फैलाइये। चाहे डर खुद मैन्युफैक्चर कीजिए या फिर औरों के द्वारा मैन्युफैक्चरड डर फैलाइये। व्हाट्सएप पर फैलाइये, फेसबुक पर फैलाइये, ट्विटर पर फैलाइये, इंस्टाग्राम पर फैलाइये, बस डर फैलाइये, कैसे भी फैलाइये। सीरिया की वीडियो को बंगाल की कह कर चलाइये। अफगानिस्तानी बवंडर को कश्मीर में हुआ बताइये। आपको तो बस जनता में डर बेचना है, चाहे झूठा ही हो पर बिके। 

"वर्क फ्रॉम होम" के और भी बहुत लाभ हैं। आप व्हाट्सएप पर, फेसबुक पर, ट्विटर पर, इंस्टाग्राम पर, यूट्यूब पर चाहे जो मरजी फैला लीजिए। आप जितना डर बेचेंगे, उतने ही आपके फॉलोअर बढ़ेंगे। यहां तक कि हो सकता है आपके डर फैलाने, घृणा फैलाने की प्रतिभा से प्रभावित हो प्रधानमंत्री भी आपको फॉलो करने लगें।  आज से प्रधानमंत्री महोदय ने सोशल मीडिया पर अपनी सही आईडी त्याग दी हैं।

आज के बाद अगर वे आपको फोलो करना चाहेंगे तो फेक आईडी से फोलो करेंगे। फिर जब आपको डर के बड़े बड़े कारोबारी फोलो करेंगे तो आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। अगर आप भी फेक आइडी बना लेंगे तो जब तक सरकार नहीं चाहेगी पता चलाना कि आप कौन हैं, आपका नाम तक भी पता नहीं चलेगा।

डर या भय फैलाने के बड़े कारोबारी ऑनलाइन कारोबार तो अपने मताहतों से करवाते हैं लेकिन "ऑफ लाइन" कारोबार स्वयं करते हैं। वैसे तो यह कारोबार बारहों महीने चलता है पर चुनाव के मौसम में ऑफ लाइन कारोबार का विशेष सीजन होता है। चुनाव के मौसम में डर बनाने की फैक्ट्रियां डर का बहुतायत में प्रोडक्शन करती हैं। नेता उसी डर को जनता को ऑफ लाइन बेचते हैं। हिन्दुओं के नेता हिन्दुओं को मुसलमानों का डर बेचते  हैं।

दूसरी ओर के डर के कारोबारी मुसलमानों को हिन्दुओं से डराते हैं। जब डर के कारोबारी बहुत सारा डर बेच चुके होते हैं तो उन्हें यकीन हो जाता है कि अब वे अपने प्लान में सफलता प्राप्त करेंगे।

डर का कारोबार अगर चुनाव न जितवा सके तो बाद में भी लाभ दे सकता है। दिल्ली में अभी हाल में ही ऐसा ही हुआ है। हां, अगर लोगों के दिमाग में इतना डर और घृणा चुनाव से पहले ही भर दी गई होती तो दिल्ली में चुनाव में सफलता अवश्य ही मिलती। 

"सॉरी सर, इस बार गलती हो गई। अगली बार से जो कुछ करना होगा चुनाव से पहले ही कर लेंगे।"

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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