NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
किसान-आंदोलन राष्ट्रीय जनान्दोलन बनने की ओर!
किसान आंदोलन के 9 माह: राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करता किसान आंदोलन जनान्दोलन और गैर-संसदीय विपक्ष बनने की राह पर है। इसमें कोई शक नहीं है कि देश को कॉरपोरेट लूट के चारागाह में बदलने की साज़िश के ख़िलाफ़ किसान-आंदोलन आज़ादी की नई लड़ाई का केन्द्रक बनेगा।
लाल बहादुर सिंह
27 Aug 2021
किसान-आंदोलन राष्ट्रीय जनान्दोलन बनने की ओर!
फोटो भारतीय किसान यूनियन के ट्विटर हैंडल से साभार

राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के आंदोलन के 9 महीने हो गए। इस अवसर पर 26-27 अगस्त को सिंघु बॉर्डर पर किसान मोर्चा का पहला अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन चल रहा है, दिल्ली बॉर्डर पर जारी आंदोलन को देश के सारे किसानों की सामूहिक राष्ट्रीय आवाज और उनकी प्रतिनिधि संस्था बनाने तथा आंदोलन की भावी दिशा और रणनीति तय करने में यह सम्मेलन मील का पत्थर साबित होगा।

संयुक्त किसान मोर्चा के बयान में कहा गया है, " इस ऐतिहासिक सम्मेलन में 22 राज्यों के 2500 से अधिक प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। इसमें 300 से अधिक किसान और खेत मजदूर संगठनों, 18 अखिल भारतीय ट्रेड यूनियनों, 9 महिला संगठनों और 17 छात्र और युवा संगठनों के प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। सम्मेलन का उद्घाटन किसान नेता राकेश टिकैत ने किया, जिन्होंने सभी प्रतिनिधियों का स्वागत किया और सभी मांगों को पूरा होने तक शांतिपूर्ण विरोध जारी रखने के किसानों के संकल्प की पुष्टि की। सम्मेलन के दूसरे सत्र में श्रमिकों पर थोपे गए 4 लेबर कोड रद्द करने एवम अन्य समस्याओं को लेकर देश के अनेक श्रमिक संगठनों के नेताओं ने सम्मेलन को संबोधित किया। "

दिल्ली बॉर्डर पर आंदोलन को भले 9 महीने हो रहे हैं, पर सच यह है कि अध्यादेश के माध्यम से 3 कृषि कानूनों के सामने आने के बाद अगस्त 2020 में ही पंजाब के अलग-अलग इलाकों में आंदोलन की अनुगूंज सुनाई पड़ने लगी थी। इसलिए, सही मायने में आंदोलन अब दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रहा है। मोदी सरकार ने संवैधानिक प्रावधानों की खुलेआम धज्जियां उड़ाते हुए जब इन्हें कानून का रूप दिया था, तब इसके खिलाफ 25 सितंबर 2020 को किसानों ने पहले भारत बंद का आह्वान किया और उसके 2 महीने बाद 26 नवम्बर, 2020 को उन्होंने दिल्ली के लिए कूच किया। 8 दिसम्बर, 2020 को उन्होंने दूसरे भारत बंद का आह्वान किया।

दरअसल, अपने पहले ही कार्यकाल में मोदी ने जब किसान-विरोधी भूमि अधिग्रहण कानून बनाने की कोशिश की,  किसान तभी उनके इरादों को भाँप गए थे। कृषि व श्रम क्षेत्र में नव उदारवादी सुधारों को लागू करने की कॉरपोरेट की बहुप्रतीक्षित मांग को पूरा करने की दिशा में वह उनका पहला कदम था, जिसके लिए कॉरपोरेट घराने प्रबल समर्थन देकर उन्हें सत्ता में लाये थे। लेकिन किसानों की तीखी स्वतस्फूर्त प्रतिक्रिया से, जिसके साथ विपक्षी पार्टियाँ भी खड़ी हो गईं, सरकार डर गई और उसने तेजी से अपने पैर पीछे खींच लिए।

उसके बाद मंदसौर गोलीकांड के विरुद्ध किसानों ने आवाज उठाई और स्वामीनाथन आयोग की संस्तुतियों को लागू करवाने तथा कर्ज़ मुक्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय बनाकर दिल्ली में पहल और हस्तक्षेप शुरू किया। बीच में CAA-NRC आदि के माध्यम से बदले एजेंडा, दिल्ली दंगों और कोविड की पहली लहर से पैदा हुए सहमे माहौल में मोदी जी को शायद लगा कि किसान इस समय प्रतिरोध में नहीं उतर पाएंगे और वे अपने कॉरपोरेट एजेंडा को लेकर फिर आनन-फानन में सामने आ गए और 3 कृषि कानूनों (तथा 4 लेबर कोड) को अकल्पनीय तेजी से उन्होंने क़ानूनी जामा पहना डाला।

महामारी के समय जब सब लोग किसी तरह अपनी प्राण-रक्षा में लगे थे, ठीक उस समय किसानों की मजबूरी का फायदा उठाकर क्रूरतापूर्वक चोरी-चुपके, धोखाधड़ी से कॉरपोरेट लुटेरों को कृषि क्षेत्र में घुसाने की मोदी की बदनीयत को किसानों ने अच्छी तरह पहचान लिया। इस पर उनका आक्रोश और तीखी प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, अंततः अपना और अपनी भावी पीढ़ियों का अस्तित्व बचाने के लिए वे जान हथेली पर लेकर महामारी के बावजूद निकल पड़े और मोदी-शाह-खट्टर राज के हर दमन का मुकाबला करते न सिर्फ दिल्ली के दरवाजे पर पहुंच गए बल्कि मौसम, महामारी और मोदी की क्रूर सत्ता का मुकाबला करते 9 महीने से वहां टिके हुए हैं।

सरकार कृषि क्षेत्र में इन बदलावों के लिए इतनी उतावली और दृढ़प्रतिज्ञ थी कि संविधान की भावना और प्रावधानों का violation करने में भी नहीं हिचकी, उसकी तकनीकी व्याख्या वह जो भी करे, State List के विषय कृषि पर स्वयं कानून बना दिया, विवाद की स्थिति में कोर्ट जाने का संवैधानिक अधिकार छीन लिया और संसदीय नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए "ध्वनिमत" से बलात किसानों की जमीन और आजीविका पर हमला बोल दिया।

इन 9 महीनों में किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचल देने की हर सम्भव साजिश की गई। शुरू में वार्ता के कुछ दिखावे जरूर किये गए, पर सरकार कानूनों को वापस न लेने की जिद पर अड़ी रही। 22 जनवरी को आखिरी वार्ता टूटने के बाद 26 जनवरी का घटनाक्रम आंदोलन के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुआ, जब आंदोलन का पुनर्जन्म हुआ, उस दिन किसानों ने भाजपा के असली किसान विरोधी फासिस्ट रूप का दर्शन किया और देश ने किसानों के प्रचण्ड प्रत्याक्रमण की ताकत देखी। इसके बाद से आंदोलन लगातार भाजपा विरोधी दिशा अख्तियार करता गया और बंगाल चुनाव में किसान खुलकर भाजपा-हराओ अभियान में उतर पड़े।

पूरे मानसून सत्र के दौरान संसद के द्वार पर सफल किसान संसद का आयोजन कर तथा पीपुल्स ह्विप के माध्यम से विपक्ष को किसानों के सवालों को प्रमुखता से उठाने और किसान संसद तक मार्च करने के लिए प्रेरित करके किसान आंदोलन ने अपनी स्वायत्तता, परिपक्वता और ताकत का प्रदर्शन कर दिया।

पिछले 9 महीने में इस आंदोलन की अनेक उपलब्धियां हैं

सर्वोपरि, इस आंदोलन ने देश की जनता को बेहतरी और बदलाव की उम्मीद दी है, जो फासिस्ट हमलों के गुहान्धकार में कहीं गुम सी हो चली थी, इसने उन तमाम संवेदनशील नागरिकों को जो 7 साल से मनुष्यता-विरोधी दमघोंटू माहौल में जीने को अभिशप्त थे और नाउम्मीद हो चले थे, यह भरोसा दिया है कि इंसाफ, इंसानियत और जम्हूरियत के लिए जनता लड़ेगी और जीतेगी, कि जालिम फासीवादी ताकतें अपराजेय नहीं हैं, उन्हें पीछे धकेला जा सकता है।

इस आंदोलन ने देश का एजेंडा बदल दिया, साम्प्रदयिक ध्रुवीकरण और अंधराष्ट्रवादी उन्माद के नैरेटिव को पीछे धकेलकर, आपसी भाईचारे पर आधारित सच्ची राष्ट्रीय एकता को बुलंद कर, सेकुलर डेमोक्रेटिक एजेंडा का वर्चस्व स्थापित कर,  हमारे लोकतंत्र को बचा लिया है और भारत को फासिस्ट हिन्दू राष्ट्र बनाने के कुचक्र को ध्वस्त कर दिया है। यह अनायास नहीं है कि इसी दौर में महज एक साल में मोदी की लोकप्रियता 66% से 24% और योगी की approval rating 49% से गिरकर 29% हो चुकी है।

किसान आंदोलन ने मोदी को अडानी-अम्बानी का आदमी साबित कर जनता के बीच उनकी मसीहा की गढ़ी गयी (manufactured ) छवि को ध्वस्त कर दिया है और बहुप्रचारित मोदी लहर का हमेशा के लिए अंत कर दिया है, जिसे बंगाल चुनाव ने बखूबी दिखा दिया।

इसने demoralised, भयभीत विपक्षी दलों को लड़ने का हौसला दिया है, धीरे धीरे बड़ी विपक्षी एकता आकार ले रही है जो अंततः 2024 में मोदी एंड कम्पनी को बोरिया-बिस्तर समेटने पर मजबूर करने की ओर बढ़ रही है। 19 विपक्षी दलों ने कॄषि कानूनों को रद्द करने की किसानों की मांग को अपने 10 सूत्रीय एजेंडा में शामिल किया है, जो भविष्य में उनके संयुक्त घोषणापत्र का आधार बनेगा।

आज यह आंदोलन बड़ी सम्भावनाओं के द्वार पर खड़ा है और उसी अनुपात में इसके सामने चुनौतियां खड़ी हैं।

वैसे तो व्यवहारतः कृषि कानून मृत हो चुके हैं और भविष्य की कोई सरकार शायद ही इन्हें लागू करने की जुर्रत करे, पर क्या आंदोलन मोदी सरकार को इन कानूनों को औपचारिक रूप से वापस लेने और MSP की कानूनी गारण्टी के लिए बाध्य कर पायेगा, क्या यह विपक्ष की पार्टियों को इसके लिए कायल कर पायेगा और भविष्य में यदि उनकी सरकार बनती है तो इसे लागू करवा पायेगा? क्या यह आंदोलन  कृषि के क्षेत्र में नवउदारवादी सुधार की प्रक्रिया और बड़ी पूँजी के प्रवेश को  रोक सकता है? क्या यह जनांदोलनों के ऐसे chain reaction को trigger कर सकता है जिससे अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में neo-liberal reforms को रोल बैक करना पड़े और एक जन-केन्द्रित अर्थव्यवस्था का ऐसा मॉडल सामने आए जिसमें कृषि व कृषि-आधारित उद्यमों की आधारभूत भूमिका हो, तथा राज्य की भूमिका प्रमुख हो?

सर्वोपरि, हमारी राजनीति और समाज ने जो एक majoritarian turn ले लिया है, खतरनाक बहुसंख्यकवादी सोच और व्यवहार राजनीतिक दलों से लेकर आम समाज तक में वैधता हासिल करता जा रहा है,  क्या किसान आंदोलन उसे बदल पायेगा और इससे अलग हटने के लिए विपक्ष पर दबाव बना पायेगा?

आज यह निर्विवाद रूप से दुनिया का सबसे बड़ा प्रोटेस्ट मूवमेंट है, जिसकी दिशा कॉरपोरेट-विरोधी है, जाहिर है पूरी दुनिया की निगाह इसकी ओर लगी हुई है और इससे अपेक्षाएं भी बड़ी हैं।

वैसे तो इस आंदोलन की सर्वोत्तम संभावनाएं अभी भविष्य के गर्भ में हैं, पर 9 महीने में ही आज़ाद भारत के इतिहास में इसका अद्वितीय स्थान सुरक्षित हो गया है। अपनी रैडिकल अन्तर्वस्तु, अपने समावेशी राष्ट्रीय चरित्र , अपने सरोकारों और मूल्यबोध, अपनी राजनीतिक परिपक्वता और रणनीतिक कुशलता, अपनी व्यापकता, टिकाऊपन, अदम्य साहस और अतुलनीय बलिदान की दृष्टि से इस आंदोलन की अगर किसी दूसरे आंदोलन से तुलना हो सकती है तो वह आज़ाद भारत का कोई अन्य आंदोलन नहीं, बल्कि स्वयं आज़ादी की लड़ाई से ही हो सकती है।

वास्तव में आज देश के सामने कार्यभार भी आज़ादी की एक नई लड़ाई ही है क्योंकि 1947 में मिली आज़ादी के सभी मूल्यों, आधुनिक लोकतान्त्रिक राष्ट्र निर्माण के सभी cardinal principles को न सिर्फ तिलांजलि दे दी गयी है, बल्कि आधुनिक राष्ट्रनिर्माण के पूरे प्रोजेक्ट को sabotage किया जा रहा है और बहुसंख्यकवादी, फासिस्ट राज्य की आधारशिला रखी जा रही है, तथा देश को वित्तीय पूँजी और कॉरपोरेट लूट के चारागाह में बदला जा रहा है।

क्या यह आंदोलन आज़ादी की ऐसी नई लड़ाई का केन्द्रक बन सकता है जो फासिस्ट ताकतों की साजिशों को नाकाम कर, पहली आज़ादी की महान सकारात्मक विरासत की रक्षा करते हुए, उसे उच्चतर धरातल पर ले जाने की ऐतिहासिक भूमिका निभा सकता है?

किसान आंदोलन अपने सीमित तबकायी एजेंडा से आगे बढ़कर राष्ट्र के समक्ष उपस्थित इस चुनौती को कबूल करने की ओर बढ़ रहा है। किसान नेता राकेश टिकैत ने कल कन्वेंशन स्थल पर कहा, " आज देश को बेचा जा रहा है, जिसकी कभी किसी ने कल्पना नहीं कि होगी। हमें इसे बचाना होगा। " इसके लिए उन्होंने नौजवानों से आगे आने का आह्वान किया।

सिंघु बॉर्डर पर अपने राष्ट्रीय कन्वेंशन और 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में विराट किसान महापंचायत से मिशन UP का आगाज़ करते हुए किसान आंदोलन अपने सबसे सम्भावनामय चरण में प्रवेश कर रहा है, जिसके नतीजे हमारे राष्ट्र और लोकतंत्र के लिए युगान्तकारी महत्व के हो सकते हैं।

इसके लिए जरूरत है कि राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करता किसान आंदोलन सभी वर्गों और तबकों का एक विराट जनान्दोलन बन जाए, सच्चे विपक्ष के बतौर अपनी स्वायत्तता हर हाल में बरकरार रखे, राजनीतिक दलों को अपने एजेंडा को अंगीकार करने के लिए बाध्य कर दे और अंततः आंदोलन के गर्भ से  ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया unleash हो जो  एक नई political economy पर आधारित राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और पुनर्जीवन की वाहक बने।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इन्हें भी पढ़ें:  

किसान आंदोलन के 9 महीने : किसान आंदोलन की ऐतिहासिक जन कार्रवाइयां

नौ महीने से चल रहे किसान आंदोलन की वे पांच विशेषताएं, जिनसे सरकार डरी हुई है!

किसान आंदोलनों का इतिहास: तीसा, त्रिवेणी और एका आन्दोलन

farmers protest
farmers crises
Agriculture workers
Farm Bills
Singhu Border
All India National Conference
MSP
rakesh tikait
Samyukt Kisan Morcha
9 Months of Farmers protest

Related Stories

राम सेना और बजरंग दल को आतंकी संगठन घोषित करने की किसान संगठनों की मांग

क्यों है 28-29 मार्च को पूरे देश में हड़ताल?

28-29 मार्च को आम हड़ताल क्यों करने जा रहा है पूरा भारत ?

झारखंड: नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज विरोधी जन सत्याग्रह जारी, संकल्प दिवस में शामिल हुए राकेश टिकैत

मोदी सरकार की वादाख़िलाफ़ी पर आंदोलन को नए सिरे से धार देने में जुटे पूर्वांचल के किसान

ग़ौरतलब: किसानों को आंदोलन और परिवर्तनकामी राजनीति दोनों को ही साधना होगा

एमएसपी पर फिर से राष्ट्रव्यापी आंदोलन करेगा संयुक्त किसान मोर्चा

यूपी चुनाव: किसान-आंदोलन के गढ़ से चली परिवर्तन की पछुआ बयार

कृषि बजट में कटौती करके, ‘किसान आंदोलन’ का बदला ले रही है सरकार: संयुक्त किसान मोर्चा

केंद्र सरकार को अपना वायदा याद दिलाने के लिए देशभर में सड़कों पर उतरे किसान


बाकी खबरें

  • विजय विनीत
    ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां
    04 Jun 2022
    बनारस के फुलवरिया स्थित कब्रिस्तान में बिंदर के कुनबे का स्थायी ठिकाना है। यहीं से गुजरता है एक विशाल नाला, जो बारिश के दिनों में फुंफकार मारने लगता है। कब्र और नाले में जहरीले सांप भी पलते हैं और…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटों में 3,962 नए मामले, 26 लोगों की मौत
    04 Jun 2022
    केरल में कोरोना के मामलों में कमी आयी है, जबकि दूसरे राज्यों में कोरोना के मामले में बढ़ोतरी हुई है | केंद्र सरकार ने कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए पांच राज्यों को पत्र लिखकर सावधानी बरतने को कहा…
  • kanpur
    रवि शंकर दुबे
    कानपुर हिंसा: दोषियों पर गैंगस्टर के तहत मुकदमे का आदेश... नूपुर शर्मा पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं!
    04 Jun 2022
    उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था का सच तब सामने आ गया जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के दौरे के बावजूद पड़ोस में कानपुर शहर में बवाल हो गया।
  • अशोक कुमार पाण्डेय
    धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है
    04 Jun 2022
    केंद्र ने कश्मीरी पंडितों की वापसी को अपनी कश्मीर नीति का केंद्र बिंदु बना लिया था और इसलिए धारा 370 को समाप्त कर दिया गया था। अब इसके नतीजे सब भुगत रहे हैं।
  • अनिल अंशुमन
    बिहार : जीएनएम छात्राएं हॉस्टल और पढ़ाई की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर
    04 Jun 2022
    जीएनएम प्रशिक्षण संस्थान को अनिश्चितकाल के लिए बंद करने की घोषणा करते हुए सभी नर्सिंग छात्राओं को 24 घंटे के अंदर हॉस्टल ख़ाली कर वैशाली ज़िला स्थित राजापकड़ जाने का फ़रमान जारी किया गया, जिसके ख़िलाफ़…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License