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भारत
राजनीति
यूपी: सबसे ज़्यादा UAPA के तहत गिरफ़्तारियां, क्या विरोधी आवाज़ों को दबाने की कोशिश है?
उत्तर प्रदेश में 'बेहतर कानून व्यवस्था' और 'न्यूनतम अपराध' के नाम पर योगी आदित्यनाथ की बीजेपी सरकार में साल 2020 में यूएपीए के तहत कुल 361 गिरफ़्तारियां हुईं, जबकि जम्मू कश्मीर में 346 और मणिपुर में 225 लोग इस क़ानून के तहत गिरफ़्तार हुए।
सोनिया यादव
04 Dec 2021
UAPA
Image courtesy : Arre

"संयुक्त प्रवर समिति को एक गधा सौंपा गया था और समिति का काम था उसे घोड़ा बनाना लेकिन परिणाम यह निकला है कि वह खच्चर बन गया है। अब गृह मंत्रालय का भार ढोने के लिए तो खच्चर ठीक है लेकिन अगर गृहमंत्री यह समझते हैं कि वह खच्चर पर बैठकर राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता की लड़ाई लड़ लेंगे, तो उनसे मेरा विनम्र मतभेद है।"

ये बातें साल 1967 में अटल बिहारी वाजपेयी ने तब कही थीं जब तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार यूएपीए क़ानून पारित करने की तैयारी में थी। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी ने इस बिल का जमकर विरोध किया था और इसकी तुलना एक ऐसे 'गधे' से की थी जिसे 'घोड़ा' बनाने की कोशिश की गई हो लेकिन वो 'खच्चर' बन गया हो।

हालांकि ये विडंबना ही है कि अब अटल बिहारी वाजपेयी की पार्टी बीजेपी की ही सरकारें इस कानून का जमकर प्रयोग कर रही हैं। केंद्र में मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के सत्ता में आने के बाद बरसों पुराने राजद्रोह और यूएपीए के कानून फिर से सुर्खियों में आ गए। देश भर में कई मशहूर सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और छात्रों को इन कानूनों के जरिए गिरफ्तार किया गया, जिनमें अभी भी कई लोग जांच के नाम पर सालों से सलाखों के भीतर हैं। इस कानून के उपयोग से ज्यादा आज-कल दुरुपयोग की खबरें सामने आ रही हैं। कई बार अदालतें खुद भी इन कानून के तहत दर्ज मुकदमों और गिरफ्तारियों पर चिंता जाहिर कर चुकी हैं।

बात अगर यूएपीए की करें, तो देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में बेहतर कानून व्यवस्था और न्यूनतम अपराध के नाम पर 2017 में योगी आदित्यनाथ की बीजेपी सरकार बनने के बाद इस कानून के तहत 313 केस दर्ज हुए हैं और 1397 लोगों की गिरफ्तारी हुई। जबकि साल 2015 में गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत सिर्फ छह केस दर्ज किए गए थे जिनमें 23 लोगों की गिरफ्तारी हुई थी।

बता दें कि बुधवार, 1 दिसंबर को राज्यसभा में दिए गए एक सवाल के लिखित जवाब में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि साल 2020 में यूएपीए के तहत यूपी में 361 गिरफ्तारियां हुई हैं जबकि जम्मू कश्मीर में 346 और मणिपुर में 225 लोग इस कानून के तहत गिरफ्तार हुए हैं।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम यानी यूएपीए के तहत सबसे ज्यादा गिरफ्तारियां उत्तर प्रदेश में हुई हैं। यानी इस मामले में योगी सरकार ने जम्मू कश्मीर को भी पीछे छोड़ दिया है। इस लिस्ट में जम्मू कश्मीर दूसरे स्थान पर है जबकि तीसरे स्थान पर उत्तर पूर्वी राज्य मणिपुर है।

क्यों बना यूएपीए का कानून?

साल 1967 में इंदिरा सरकार ने कहा था कि देश में कुछ अलगाववादी ताक़तें काम कर रही हैं और भारत की अखंडता की रक्षा के लिए इस क़ानून की ज़रूरत बताई थी। तब आज से करीब 54 साल पहले कई राजनीतिक पार्टियों ने इस क़ानून का जमकर विरोध किया था और आशंका जताई थी कि यूएपीए का इस्तेमाल विरोधी आवाज़ों को दबाने के लिए किया जाएगा। आज 54 साल बाद इतिहास जैसे ख़ुद को दोहरा रहा है। आज भी विपक्षी दल और सामाजिक संगठनों से जुड़े लोगों का आरोप है कि सरकार असहमति के स्वरों को दबाने के लिए इस कानून का बेजा इस्तेमाल कर रही है।

दरअसल, राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता से जुड़ी समस्याओं का हवाला देकर साल 1967 में लाए गए यूएपीए क़ानून में कई बार संशोधन हुए हैं और हर संशोधन के साथ ये ज़्यादा कठोर होता गया है। अगस्त 2019 के संशोधन के बाद इस कानून को इतनी ताकत मिल गई कि किसी भी व्यक्ति को जांच के आधार पर आतंकवादी घोषित किया जा सकता है।

इस कानून का मुख्य काम आतंकी गतिविधियों को रोकना होता है और इसके तहत पुलिस ऐसे अपराधियों या अन्य लोगों को चिन्हित करती है जो आतंकी गतिविधियों में शामिल होते हैं या फिर ऐसी गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं। इस मामले में एनआईए यानी राष्ट्रीय जांच एजेंसी को काफी शक्तियां होती हैं।

कानूनी जानकारों के मुताबिक, यूएपीए के तहत जमानत पाना बहुत ही मुश्किल होता है क्योंकि जांच एजेंसी के पास चार्जशीट दाखिल करने के लिए 180 दिन का समय होता है और जेल में बंद व्यक्ति के मामले की सुनवाई मुश्किल हो जाती है। यूएपीए की धारा 43-डी (5) में कहा गया है कि यदि न्यायालय को किसी अभियुक्त के खिलाफ लगे आरोप प्रथमदृष्टया सही लगते हैं तो अभियुक्त को जमानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।

एक नज़र में यूएपीए 

• 1967: यूएपीए प्रभाव में आया। राष्ट्रीय अखंडता, संप्रभुता और सुरक्षा से जुड़े मसलों से निपटने का मक़सद।

• 2001: संसद पर आतंकी हमले के बाद वाजपेयी सरकार ने आतंक विरोधी क़ानून प्रिवेंशन ऑफ़ टेररज़िम एक्ट (POTA) लागू किया।

• 2004: यूपीए सरकार ने POTA के दुरुपयोग की बात कहते हुए इसे निरस्त किया और POTA के कई प्रावधानों को यूएपीए में जोड़ दिया। यह पहली बार था जब यूएपीए में ऐसे प्रावधान जोड़े गए।

• 2011: मुंबई में हमलों के बाद आतंकी गतिविधियों के संदिग्ध अभियुक्तों को बिना चार्ज़शीट दायर किए, लंबे समय तक जेल में रखे जाने के प्रावधान जोड़े गए। ज़मानत की शर्तों को और कठोर कर दिया गया।

• 2019: बीजेपी सरकार ने राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) को अतंकवादी गतिविधियों से जुड़े मामलों की जाँच में असुविधा का हवाला देते हुए यूएपीए में और कड़े प्रावधान जोड़े। एनआईए को यूएपीए के तहत मामलों की जाँच करने का अधिकार मिला।

क्यों उठते हैं सवाल यूएपीए पर?

वैसे इस कानून के तहत हुई कई गिरफ्तारियों पर सवाल भी उठे हैं और पिछले दिनों जम्मू कश्मीर में मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज की गिरफ्तारी पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी सवाल उठाए हैं। हालांकि भारत ने संयुक्त राष्ट्र के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दी है और कहा है कि संयुक्‍त राष्‍ट्र के उच्‍चायुक्‍त के प्रवक्‍ता का बयान आधारहीन है।

यूएपीए के तहत दर्ज मामलों की जांच, राज्य पुलिस और राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआईए द्वारा की जाती है। उत्तर प्रदेश इस कानून के तहत गिरफ्तारियों के मामले में इस वक्त भले ही अव्वल हो लेकिन साल 2015 में इसके तहत यहां सिर्फ छह केस दर्ज किए गए थे जिनमें 23 लोगों की गिरफ्तारी हुई थी। इससे अगले साल यानी साल 2016 में 10 केस दर्ज हुए और 15 लोग गिरफ्तार किए गए। लेकिन अगले ही साल इसके तहत दर्ज मामलों और गिरफ्तारियों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती गई। साल 2017 में 109 केस दर्ज हुए और 382 लोगों को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। साल 2017 में ही यूपी में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी सरकार बनी थी। यूपी में इन चार वर्षों के दौरान यूएपीए के तहत 313 केस दर्ज हुए हैं और 1397 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। 

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी और गृह मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि यूएपीए के मामलों में आरोपपत्र दायर होने और जाँच पूरी होने की दर बहुत कम है। सितंबर, 2020 में गृह मंत्रालय ने राज्यसभा में बताया था कि साल 2016-18 के बीच यूएपीए के तहत कुल 3005 मामले दर्ज किए गए थे। इनमें कुल 3947 लोगों को गिरफ़्तार किया था लेकिन चार्जशीट सिर्फ़ 821 मामलों में ही दायर की जा सकी थी। यानी इस दौरान महज 27% मामलों की जाँच ही पूरी जा सकी थी।

वहीं 2019 की एनसीआरबी रिपोर्ट कहती है कि यूएपीए के तहत एक साल में गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की कुल संख्या 1948 थी। इस कानून के अंतर्गत साल 2016 से लेकर 2019 तक 5922 गिरफ्तार किए गए थे। खास बात है कि इनमें से केवल 132 व्यक्तियों पर दोष साबित हो सका। इससे पता चलता है कि यूएपीए का दुरुपयोग हो रहा है। 

बरी होने वालों की संख्या में 26 प्रतिशत का इज़ाफ़ा

आंकड़ों के मुताबिक, साल 2019 और 2020 के बीच यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या में गिरावट आई, जबकि कानून के तहत बरी होने वालों की संख्या में 26 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2019 में इस कानून के तहत गिरफ्तार होने के बाद 92 लोगों को बरी कर दिया गया था जबकि 2020 में बरी किए गए लोगों की संख्या 116 थी।

गौरतलब है कि इसी साल जून में दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली दंगों में अभियुक्त नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ़ इक़बाल तन्हा को ज़मानत देते हुए यूएपीए के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी। कोर्ट ने सरकारों से कहा था कि किसी पर भी 'आतंकवादी' होने का ठप्पा लगाए जाने से पहले गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। इलाहाबाद हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस तरह के कई मामलों में सख्त टिप्पणी कर चुके हैं। बावजूद इसके आज भी इस कानून का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। 

कानून का बेजा इस्तेमाल बेहद चिंताजनक

हाथरस मामले की रिपोर्टिंग के लिए जा रहे केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन को भी इसी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था जिन्हें अब तक जमानत नहीं मिल सकी है। कप्पन के वकील विल्स मैथ्यूज ने मीडिया से कहा था कि यूएपीए की एक क़ानून के तौर पर सरकार को ज़रूरत है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इस क़ानून को जिस तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है, वो बेहद चिंताजनक है।

बीते महीने ही देश के पूर्व आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में यूएपीए के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए याचिका दाखिल की थी,जिस पर शीर्ष आदालत ने केंद्र सरकार को नोटिस भी जारी किया था। जाहिर है यूएपीए राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों के लिए अस्तित्व में आया था, लेकिन हमेशा से सरकारें इसे अपनी सुविधानुसार ही इस्तेमाल करती नज़र आईं हैं।

ये भी पढ़ें: क्या मोदी की निरंकुश शैली आगे भी काम करेगी? 

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