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राजनीति
यूपी चुनाव: दलितों पर बढ़ते अत्याचार और आर्थिक संकट ने सामान्य दलित समीकरणों को फिर से बदल दिया है
एसपी-आरएलडी-एसबीएसपी गठबंधन के प्रति बढ़ते दलितों के समर्थन के कारण भाजपा और बसपा दोनों के लिए समुदाय का समर्थन कम हो सकता है।
सुबोध वर्मा
28 Feb 2022
Translated by महेश कुमार
mayawati
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती मतदान करती हुईं

उत्तर प्रदेश में चल रहा राजनीतिक मंथन यकीनन दलित समुदायों में सबसे तीव्र है, जो राज्य की आबादी का 21 प्रतिशत हिस्सा हैं। पिछले चुनाव में, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 84 सीटों में से 74 सीटों पर जीत हासिल कर विभिन्न दलित समुदायों का महत्वपूर्ण समर्थन हासिल करने में कामयाबी हासिल की थी। मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) मुख्य रूप से दलितों के एक हिस्से को अपनी ओर लुभाए रखते हुए 22 प्रतिशत वोट शेयर बरकरार रखने में कामयाब रही थी - मुख्य रूप से जाटव वोट को लुभाने में कामयाब रही जबकि वह केवल दो आरक्षित सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी थी।

इस बार, कई कारकों के संयोजन ने इस समीकरण को बदल दिया है। न केवल रोजगार और किसानों के संकट जैसे प्रमुख मुद्दों की उपेक्षा के प्रति बल्कि योगी आदित्यनाथ के शासन के दौरान दलितों के खिलाफ हिंसक अपराधों में वृद्धि की वजह से दलितों का भाजपा से मोहभंग हो गया है। दलितों के हितों की रक्षा करने में असमर्थ और इस दौरान अधिकांश समय तक  जमीन से बसपा की वास्तविक अनुपस्थिति के कारण उसने भी अपना कुछ आधार भी खो दिया है।

दलितों के ख़िलाफ़ बढ़े अपराध

पहले चार वर्षों में योगी के शासन के दौरान दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं, जिसे साबित करने के लिए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े उपलब्ध हैं। [नीचे चार्ट देखें]

2017 में दर्ज की गई 11,444 घटनाओं के बाद, जब योगी के नेतृत्व वाली भाजपा ने यूपी की कमान संभाली थी, 2020 में यह संख्या बढ़कर 12,714 हो गई थी। याद रखें कि 2020 महामारी का पहला वर्ष था और देश भर में दर्ज अपराध आंशिक रूप से कम हो गए थे क्योंकि विस्तारित लॉकडाउन के दौरान सामान्य जीवन रुक गया था और आंशिक रूप से घटनाएं इसलिए भी कम दर्ज़ हुई क्योंकि मामलों की रिपोर्टिंग भी कम हुई हो सकती हैं। किसी भी मामले में आप देखे  तो, अक्सर अत्याचारों को सामाजिक दबावों और पुलिस के शत्रुतापूर्ण रवैये के कारण रिपोर्ट नहीं किया जाता है, जैसा कि अक्सर पीड़ितों द्वारा आरोप लगाया जाता है। इन कारकों के बावजूद, 2020 में अत्याचारों की संख्या में वृद्धि हुई जो भाजपा शासन के दौरान हुए उत्पीड़न की गंभीर स्थिति को दर्शाती है।

एनसीआरबी डेटा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत दर्ज किए गए अपराधों और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ हुए अपराधों के खिलाफ बने विशेष कानूनों के तहत दर्ज़ किए गए मुकदमों का विवरण उपलब्ध कराता है। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में देखा जा सकता है, राज्य में दलितों के खिलाफ किए गए कई हिंसक अपराधों में यूपी में भाजपा के शासन के पहले चार वर्षों में लगातार वृद्धि देखी गई है।

इस प्रकार, 2017 में बलात्कार की घटनाएं 536 से बढ़कर 2020 में 604 हो गईं, गंभीर चोट की घटनाएं 368 से बढ़कर 417 हो गईं, आपराधिक धमकी 1,111 घटनाओं से बढ़कर 1,379 और साधारण चोट 1,259 से बढ़कर 1,839 हो गई थी। हत्या के मामलों में 226 से 214 तक मामूली गिरावट देखी गई है।

इस चौंकाने वाली स्थिति का सबसे बड़ा प्रतीक हाथरस सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना थी जिसने 2020 में देश को झकझोर कर रख दिया था। 19 वर्षीय महिला का कथित तौर पर उच्च जाति के पुरुषों द्वारा बेरहमी से बलात्कार किया गया और फिर हत्या कर दी गई थी। पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करने में देरी की और बाद में, एक हंगामे के बाद, उसे दिल्ली के एम्स में स्थानांतरित कर दिया गया, जहां उसने दम तोड़ दिया। पुलिस उसके शव को वापस गांव ले गई और आनन-फानन में रात में उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया।

इससे पहले, भारत भर में दलित और आदिवासी समुदाय इस तरह के अत्याचारों से बचाने के लिए बनाए गए कानूनों को कमजोर करने से काफी नाराज हुए थे। मार्च 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों की इस तरह से व्याख्या की थी कि दोषियों को पकड़ना मुश्किल हो गया था। केंद्र की भाजपा सरकार समय पर कार्रवाई करने में विफल रही और न्यायालय में इस तरह के बदलावों के विरोध में सुस्ती देखी गई थी। इससे दलित/आदिवासी समुदायों में अशांति और आक्रोश फैल गया और पूरे भारत में व्यापक विरोध हुआ।

नरेंद्र मोदी सरकार ने आखिरकार खामियों को दूर करने और शीर्ष अदालत द्वारा की गई व्याख्या को सही करने के लिए कानून में बदलाव किया। लेकिन इसने जो दंडमुक्ति पैदा की, उसके कारण अत्याचारों में वृद्धि हुई और पुलिस ने कई महीनों तक ऐसे मामले दर्ज करने से इनकार कर दिया। इन परिवर्तनों का विरोध करने वाले दलित कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामले को वापस लेने के आश्वासन के बावजूद, उन्हे लंबे समय तक घसीटा गया। 

किसान आंदोलन और बेरोज़गारी

दो अन्य महत्वपूर्ण कारक जो भाजपा के खिलाफ दलितों के गुस्से में योगदान दे रहे हैं, वे हैं मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ साल भर का विरोध और यूपी में योगी आदित्यनाथ द्वारा क़ानूनों का समर्थन। हालांकि दलित समुदाय के सदस्य आम तौर पर या तो भूमिहीन होते हैं या उनके पास छोटी/सीमांत भूमि होती है, लेकिन कॉरपोरेट्स द्वारा भूमि के अधिग्रहण और एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को खत्म करने की संभावना ने उनमें भी व्यापक गुस्सा पैदा किया है। ऐसा इसलिए था क्योंकि इन क़ानूनों के माध्यम से कृषि श्रमिकों के वेतन में ठहराव या गिरावट सहित आर्थिक कठिनाई में वृद्धि की भविष्यवाणी देखी जा रही थी। इसका असर सबसे ज्यादा पश्चिमी यूपी में देखा गया।

दलितों के बीच बढ़ते असंतोष का दूसरा कारण भाजपा द्वारा थोक निजीकरण, आउटसोर्सिंग और रोजगार के कैजुअलाइजेशन को दिया जा सकता है। इसे उनके रोजगार की संभावनाओं पर एक सीधे हमले के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि निजीकरण का मतलब नौकरियों के आरक्षण का अंत है। नौकरियों की गंभीर स्थिति के साथ, जो आमतौर पर गरीब और सामाजिक रूप से अधिक उत्पीड़ित वर्गों को सबसे अधिक प्रभावित करता है, आरक्षण द्वारा दी जाने वाली अपर्याप्त लेकिन महत्वपूर्ण राहत से वंचित होने का खतरा दलितों के दिमाग में, विशेष रूप से युवाओं के बीच में घर कर गया है।

नए समीकरण

इस सब के कारण दलितों का एक बड़ा वर्ग चल रहे चुनाव में भाजपा को खारिज करने की इच्छा जता रहा है। इसका मतलब यह होगा कि दलित समुदाय जिन्होंने अतीत में भाजपा को वोट दिया था (जैसे वाल्मीकि, जाटवों के वर्ग, आदि) इससे दूर हो जाएंगे और दूसरों को वोट देने की कोशिश करेंगे। सभी संभावना में, विकल्प समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय लोक दल-सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी गठबंधन होगा, जिसे कई छोटे समूहों और सामाजिक रूप से उत्पीड़ित वर्गों की पार्टियों का भी समर्थन प्राप्त है।

जाटव समुदाय, यूपी में सबसे बड़ा दलित समुदाय है, जिसके सभी दलितों का लगभग 54 प्रतिशत हिस्सा होने का अनुमान है, पारंपरिक रूप से यह मायावती के नेतृत्व वाली बसपा का समर्थन आधार रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मायावती की मूक गतिविधियों से जाटवों के एक बड़े वर्ग का मोहभंग हो गया है। ऊपर बताए गए पिछले कुछ वर्षों में कई प्रमुख घटनाक्रमों में मायावती बयानबाजी तक ही सीमित रहीं है। कई मौकों पर उन्होंने बीजेपी का समर्थन किया. इससे उनके कट्टर समर्थकों में नाराजगी है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि वे बसपा को पूरी तरह से छोड़ देंगे, लेकिन कुछ तबके उनसे अलग होते नजर आ रहे हैं।

जहां भाजपा भी इन वर्गों को आकर्षित करने के लिए एक दृढ़ प्रयास कर रही है, वहीं मौजूदा भाजपा विरोधी माहौल उन्हें हर तरह से सपा गठबंधन की ओर धकेल देगा। यह कई प्रभावशाली ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) वर्गों के साथ दलितों का एक नया आगमन होगा।

दलितों के ये नए गठबंधन भले ही केवल जातिगत विचारों से प्रेरित हों, लेकिन असली प्रेरक शक्ति संकटपूर्ण आर्थिक स्थिति है - जिसके लिए भाजपा को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। मूल्य वृद्धि, बेरोजगारी, किसानों को कम मूल्य, कृषि के साथ-साथ उद्योग में कम मजदूरी, आर्थिक मंदी आदि ने समाज के विभिन्न वर्गों को अपनी राजनीतिक समझ पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया है। यह फेरबदल कैसे होता है यह 10 मार्च को मतगणना के दिन ही पता चलेगा।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

UP Polls: Increased Atrocities, Economic Crisis Recast Usual Dalit Equations

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