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विधानसभा चुनाव
भारत
राजनीति
यूपी चुनाव: क्यों हो रहा है भाजपा मतदाता का हृदय परिवर्तन
उस किसान की कहानी, जो ग्रामीण मध्य वर्ग के बीच हिंदुत्व से प्रेरित आकांक्षाओं से उपजे संघर्षों का प्रतीक है।
प्रज्ञा सिंह
10 Feb 2022
UP West

सहारनपुर: सहारनपुर के काकराला गांव के वीरेंद्र सिंह से योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार के बारे में पूछने पर उनकी ओर से जवाब मिलता है: “मैं पास की नयी फ़ोर-लेन सड़क से ख़ुश हूं। मुझे नये हवाई अड्डों में से उस एक हवाई अड्डे से उड़ान भरने की उम्मीद है, जिसे लेकर मैंने बहुत कुछ सुन रखा है।"

इस किसान को इस बात पक्का यक़ीन है कि जब राज्य सरकार के पास "ज़्यादा पैसे" होंगे, तो सरकार "उसकी तरह कम ख़ुशहाल लोगों के लिए और ज़्यादा काम करेगी।" हालांकि, उनके साथ खेती के उपकरण, चारा और भैंस रखे जाने वाले एक गोदाम जैसी इमारत, यानी उनके घेर में जब कुछ समय और बिताने पर भाजपा के ख़िलाफ़ शिकायतों का पिटारा खुल जाता है।

अपने 10 बीघे ज़मीन पर अपने मवेशियों के लिए गेहूं, गन्ना और कुछ हरा चारे बोने वाले सिंह उस सैनी सामाज से आते हैं, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से एक पिछड़ा समुदाय है और इस समाज के लोगों को भाजपा का वफ़ादार समर्थक माना जाता रहा है।

सिंह को अपने उन तीन बेटों पर फ़ख़्र है, जिनकी उम्र 20 या 30 की दहाई की उम्र हैं, और उनके कई पोते-पोतियां उनकी ख़ुशी का ज़रिया हैं। लेकिन, उन्हें इस बात का अफ़सोस है कि उनकी छोटी सी आय पर किसी तरह स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बावजूद उनका कोई भी बेटा सरकारी नौकरी हासिल नहीं कर सका। उनकी बेरोज़गारी ने ज़िंदगी को मुश्किल बना दिया है और राज्य सरकार की ओर से जो थोड़ी सी वित्तीय सहायता मिलती है,वह उनके बड़े कुनबे की ज़रूरतों के लिहाज़ से नाकाफ़ी है।

समय-समय पर मिलने वाली सरकारी राहत पर निर्भर रहने वाले सिंह न्यूज़क्लिक को बताते हैं, “कई फ़ॉर्म भरने और सालों इंतज़ार करने के बाद जब कभी मेरे बेटे नौकरी पाने की स्थिति में आये, तो उन्हें रिश्वत देने के लिए कहा गया। ज़ाहिर है, हम इसे वहन नहीं कर सकते थे।” उन्हें प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत दो-दो हज़ार रुपये की किस्तें मिली हैं। वह 5,00 रुपये मासिक पेंशन पर भी निर्भर है, हालांकि उन्हें अब तक महज़ चार किस्तें ही मिली हैं।

प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना के तहत वादा किया गया "मुफ़्त एलपीजी सिलेंडर" सिंह को इसलिए कभी नहीं मिली, क्योंकि उनके पास पहले से ही रसोई गैस कनेक्शन था। उन्हें ज़रूरत पड़ने पर सिलिंडर को फिर से भरवाने पर 9,30 रुपये ख़र्च करने पड़ते हैं, हालांकि उनका परिवार चुल्हे का इस्तेमाल करना पसंद करता है। वह कहते हैं, "महंगई ज़्यादा बढ़ा दी इन्होंने।"  

खाना पकाने के तेल की क़ीमत 190 रुपये प्रति लीटर है और पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतें भी आसमान छू रही हैं। हालांकि, परिवार के पास ट्रैक्टर नहीं है, लेकिन सिंह को इस बात का मलाल है कि उनके पास बस एक मोटरसाइकिल ही है।

सरकारी राशन और 8-12 घंटे की बिजली आपूर्ति से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती है-उन्हें शायद ही अनाज की ज़रूरत है और नये लगाये गये बिजली मीटर चिंता की एक वजह है। परिवार के लोग एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते हुए बल्ब और पंखे बंद करने को लेकर सचेत रहकर चलते हुए मीटर पर नज़र रखते हैं। वह कहते हैं,“अब भी मासिक बिजली बिल 1,000-1,100 रुपये है और मैं पंप से खेतों में पानी पहुंचाने के लिए 2,000 रुपये की निर्धारित रक़म का भुगतान करता हूं। यह हमारे जैसे किसानों के लिए तो बहुत महंगा पड़ता है और राज्य सरकार को बिजली की ऊंची दरों को कम कर देना चाहिए।”

वीरेंद्र उन किसानों में सबसे छोटे किसान नहीं हैं, जिनका सामना इस क्षेत्र में इन समस्याओं से होता होगा, लेकिन उनकी मुसीबतें बहुत बड़ी हैं। इसकी वजह खेती से घटती आय और उस व्यवस्था की सनक है, जिस पर वह निर्भर हैं। उनके परिवार की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक समस्या सरकारी नौकरियों का नहीं होना है, जिसका मतलब है कि नक़द आय का कोई भरोसेमंद ज़रिया का नहीं होना।

सरकारी नौकरी और ख़ासकर पुलिस या सेना की नौकरी में होना इन मध्यम जातियों के लिए भी गर्व का विषय होता है। बेहतर जीवन के लिए उनकी तड़प इन्हीं नौकरियों से जुड़ी हुई होती है, जिसे पूरा करने में सरकार नाकाम रही है। 35 साल के अमित की ओर इशारा करते हुए सिंह कहते हैं, ''मेरे इस गबरू जवान छोटे बेटे को देखिए। उसे एसएचओ (स्टेशन हाउस ऑफ़िसर) या सीओ (सर्कल ऑफ़िसर) होना चाहिए था, लेकिन वह घर पर बैठा है।" वह इन पुलिस रैंकों का ज़िक़्र करते हुए दुखी हो जाते है।

अमित एक पार्ट टाइम "प्राइवेट नौकरी" करता है, लेकिन उसे लंबे समय तक काम करना होता है, जबकि भुगतान बहुत मामूली किया जाता है और रिटायर होने के बाद मिलने वाले लाभ भी संतोषजनक नहीं हैं। इसके अलावा, निजी क्षेत्र की नौकरियां शिक्षित ज़मींदार वर्गों को पसंद नहीं आती हैं।

भाजपा ने ऐसे ही परिवारों से टीवी और ऑनलाइन विज्ञापन के ज़रिये शानदार जीवन शैली के सपने बेचने वाले अविश्वसनीय वादे किये हैं। हालांकि, इस परिवार जैसे लोगों को इन सपनों को हासिल करने के आस-पास भी लाने के लिहाज़ से "इस राजनीति ने पिछले पांच सालों में कुछ नहीं किया है।" निस्संदेह, बढ़ते जीएसटी (वस्तु और सेवा कर) के संग्रह की ख़बरें उनके भीतर बेचैनी पैदा कर देती हैं, क्योंकि यह इस धारणा से टकराती है कि सरकार के पास "पैसे नहीं है।"  

सिंह के भतीजे-दीपक सैनी अभी 20 की उम्र ही पार की है,लेकिन पहले से ही वह इस सियासत को लेकर आलोचक हैं, क्योंकि विकट वास्तविकता ने उनके सपनों को चूर-चूर कर दिया है।वह कहते हैं, "मेरे जैसे बहुत से नौजवान नौकरी की तलाश में हैं - जब हम आवेदन पत्र भरते हैं, तो हमें पता चलता है कि 15 लाख आवेदक महज़ 1,000 नौकरियों के लिए लाइन में हैं।" वह सवाल करते हैं कि इतने कम सरकारी रिक्तियां क्यों हैं, जबकि स्वास्थ्य सेवा से लेकर पशु चिकित्सा देखभाल और पुलिस से लेकर शिक्षा तक का हर विभाग कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है।

जब कोविड-19 ने भारत में प्रवेश किया था, दीपक ने उसी साल 2020 में ग्रेजुएशन किया था और इसके बाद तो लॉकडाउन ही लगा दिया गया था। वह इस समय भी अपने गांव से दूर नहीं जा सकते हैं, क्योंकि महामारी की तीसरी लहर के चलते "एक और लॉकडाउन" लगाने को लेकर लगातार बातें हो रही हैं। पुलिस की नौकरी के लिए आवेदन करने के बावजूद,वह सरकारी नोकरी के किसी पद पर भी जाने के लिए तैयार बैठे हैं।

उनके चाचा विनोद सैनी कहते हैं,"वह बेरोज़गार है। उसे जो भी नौकरी मिलेगी, वह करने के लिए तैयार है। वह एक सफ़ाई कर्मचारी या चपरासी बनने के लिए भी तैयार है - वह कुछ भी कर लेगा। क्या उसके पास कोई और चारा है ? लेकिन, सरकारी नौकरी होनी चाहिए, क्योंकि निजी क्षेत्र बहुत ज़्यादा शोषण करता है।” उदास होकर दीपक कहते हैं, “मैं तो किसी प्राइवेट स्कूल का शिक्षक भी नहीं हो सकता। वे महज़ 3,500-4,000 रुपये ही कमाते हैं।यह रक़म तो मेरे आने-जाने पर ही ख़र्च हो जायेगी।”

ऐसा नहीं कि सरकारी नौकरियों की कमी ही एकलौती समस्या है। सैनी परिवार की मुख्य आजीविका,यानी खेती-बाड़ी अब फायदेमंद रह नहीं गयी है। इस इलाक़े में कोई मंडी नहीं है।विनोद कहते हैं, “पंजाब और हरियाणा की सरकारों ने किसानों के लिए मंडियां बनायी हैं, लेकिन हमारे पास कोई मंडी नहीं है। हम अपनी उपज को एमएसपी पर बेचने में असमर्थ हैं और हमेशा उससे कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर होते हैं।

मवेशियों के संरक्षण की बात आने पर किसानों के लिए चीज़ें जिस तरह की हो गयी हैं,सिंह इस बात से भी परेशान हैं। वह कहते हैं,“बछड़ा अब हमारे किसी काम का नहीं रह गया है। जब हम इसे गोशाला ले जाते हैं, जो नकुर में बहुत दूर है, तो हमें 1,500 रुपये से 2,100 रुपये गेने के लिए कहा जाता है।”  मायूसी में सिर हिलाते हुए अमित इस समस्या पर रौशनी डालते हैं कि अगर किसान अतिरिक्त मवेशियों को गोशाला में नहीं छोड़ते हैं, तो वे खेतों में भटकने लगते हैं और फ़सलों को बर्बाद कर देते हैं। अगर 10 बैल और गाय 10 बीघे के खेत में चले जायें, तो वे आधी फ़सल को चर जाते हैं और बाकी को उसी रात में रौंद डालते हैं। सैनी परिवार को एक-दो बार इस तरह का नुक़सान उठाना पड़ा है।

केंद्र और राज्य में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ही यह मवेशी संकट पैदा हुआ है और हिंदुत्ववादी संगठनों ने हिंदू किसानों को किसी भी क़ीमत पर गोवंश को मारने से बचाने के लिए मजबूर कर दिया है। राज्य सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया था कि नर और बांझ हो चुकी मादा पशुओं की मौत होने तक उनकी रक्षा के लिए गोशालायें स्थापित की जायेंगी। हालांकि, बहुत कम गौशालायें हैं और उनके पास हमेशा नक़दी की कमी होती है। इसलिए, वे उन किसानों से पैसे की मांगा करते हैं, जो अवांछित मवेशियों को वहां छोड़ना चाहते हैं।

इस बारे में शक जताते हुए सिंह कहते हैं, “हम अपने जानवरों को वहां रखने के लिए गौशालाओं का भुगतान तो कर देते हैं,लेकिन हम यह भी नहीं जानते कि उनके साथ क्या होता है। कौन जानता है कि ये गौशालायें उन पशुओं को हमारे खेतों में फिर से घुसने के लिए छोड़ दे रही हों, हमें पशुओं को फिर से वहीं वापस भेजने और फिर से गोशालाओं को भुगतान करने के लिए मजबूर किया जाता है।”वह कहते हैं, "बुरे फ़ंस गये।"

इससे पहले पशु व्यापारी किसानों से अवांछित गोवंश और भैंसों को अच्छी क़ीमत पर ख़रीद लेते थे। कई हिंदू किसान हमेशा से गायों को पवित्र मानते रहे हैं, लेकिन उन्हें कभी भी व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर नहीं किया जाता था। यह एक ऐसा सामाजिक अनुबंध था, जिसमें किसान और व्यापारी दोनों को फ़ायदा होता था। लेकिन,इस समय दोनों पक्षों को नुक़सान उठाना पड़ रहा है।

इन समस्याओं के अलावा सिंह क़र्ज़ के बोझ तले दबे हुए हैं। हर साल वह अपने किसान क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करके 2 लाख रुपये और कभी-कभी दूसरे स्रोतों से ज़्यादा पैसे निकालते हैं। देनदारी बढ़ती रहती है, क्योंकि वह कभी भी समय पर भुगतान नहीं कर पाते हैं। अमित कहते हैं, “हमारे पास एक साल के भीतर क़र्ज़ चुकाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं। हम 2 लाख रुपये उधार लेते हैं, लेकिन 4 लाख रुपये चुकाते हैं। हमें फ़ौरी तौर पर क़र्ज़ माफ़ी योजना की ज़रूरत है लेकिन, इसका कहीं कोई संकेत नहीं दिख रहा है।"

सिंह का क़र्ज़ इसलिए भी बढ़ता जा रहा है, क्योंकि चीनी मिल उनकी उपज का भुगतान करने में देरी करती है। वह कहते हैं,“कभी-कभी तो हमें भुगतान पाने के लिए छह महीने तक इंतजार करना पड़ता है। किसी आपात स्थिति या शादी-विवाह के मौक़े पर हमारे पास उधार लेने के अलावा कोई चारा नहीं होता है। भुगतान में देरी होने पर मिलें हमें ब्याज़ नहीं देती हैं, लेकिन हमें ब्याज़ के साथ ऋण चुकाना होता हैं।”

सिंह याद करते हैं कि भाजपा ने सत्ता में आने पर दो हफ़्ते के भीतर गन्ना बकाया चुकाने का किस तरह से वादा किया था। चीनी मिलों पर उनका क़रीब 50,000 रुपये का बकाया है।वह कहते हैं, "सर्दी में 1-1.5 लाख का गन्ना दूंगा, चौमासे(मॉनसून) में पैसा आयेगा।" आय के साथ ऋण चुकाने और ख़र्चों को पूरा करने के लिए फिर से उधार लेते रहने का यह दुष्चक्र यह सुनिश्चित कर देता है कि सिंह जैसे किसानों के पास कभी भी नक़दी नहीं होगी।

सिंह की इन परेशानियों से किसी की भी आंखों में आंसू आ सकते हैं। उनकी फ़सलों के लिए ज़रूरी यूरिया की आपूर्ति कम है और ज़्यादा महंगा है। पहले के उलट, कभी-कभी तो यूरिया लेने के लिए उन्हें लगातार 10 दिनों तक का इंतज़ार करना होता है। ऐसे में अक्सर यही होता है कि फ़सलों में खाद डालने का समय ख़त्म हो चुका होता है और किसान उन सस्ते उपलब्ध विकल्पों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हो जाते हैं, जो कि कम असर वाले होते हैं।

सिंह बार-बार यही कहते हैं कि उनकी सबसे बड़ी चिंता बिजली की ऊंची दरें और बहुत ज़्यादा क़र्ज़ और ब्याज़ का बोझ है। वह कहते हैं कि धनी किसान जिस विकास की दलील देते हैं,क्या यह "उस विकास की क़ीमत" नहीं है। इन दोनों प्राथमिक चिंताओं के कारण वह ख़ुद को व्यवस्था का "बंधक,यानी क़ैदी" मानते हैं।

बीजेपी ने अपने मतदाताओं से चांद तोड़ ले आने का वादा किया था। हालांकि, अपने पांच साल के कार्यकाल में आदित्यनाथ सरकार इस चुनाव को जीतने के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण पर ही भरोसा कर रही है। सिंह इस अतिप्रचार को क़ुबूल तो करते हैं कि उत्तर प्रदेश में पहले के मुक़बाले अपराध में कमी आयी है, लेकिन उनकी योजना 14 फ़रवरी को भाजपा के प्रतिद्वंद्वी पार्टियों में से किसी एक पार्टी को वोट देने की है।

समाजवादी पार्टी ने उस धर्म सिंह सैनी को मैदान में उतारा है, जिन्होंने हाल ही में आदित्यनाथ के मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था और उनके समुदाय के वर्गों ने उनकी पहली वाली पार्टी,यानी भाजपा के बजाय उन पर अपनी उम्मीदें टिका दी हैं। जब लंबे समय तक वफ़ादार रहने वाले मतदाता अपनी पसंद की पार्टी के बजाय किसी ऐसे उम्मीदवार को चुनना शुरू कर दें, जिसका वे समर्थन करते हैं, तो आगे क्या होने वाला है,इसे समझा जा सकता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UP Elections: Why a BJP Voter is Having a Change of Heart

Dharam Singh Saini
Yogi Adityanath
SAMAJWADI PARTY
Farm crisis
PMAY
Ujjwala Yojana
Stray Cattle
backward classes
middle peasantry
MSP
sugarcane payments
Government schemes

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