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विधानसभा चुनाव
भारत
राजनीति
यूपी इलेक्शनः सलेमपुर में इस बार नहीं है मोदी लहर, मुकाबला मंडल-कमंडल के बीच होगा 
देवरिया जिले की सलेमपुर सीट पर शहर और गावों के वोटर बंटे हुए नजर आ रहे हैं। कोविड के दौर में योगी सरकार के दावे अपनी जगह है, लेकिन लोगों को याद है कि ऑक्सीजन की कमी और इलाज के अभाव में न जाने कितनों ने अपनों को खोया है। यहां जब भी कोरोना की बात होती है तो सभी के जख्म हरे हो जाते हैं।
विजय विनीत
24 Feb 2022
Salempur
सलेमपुर में भाजपा का चुनाव दफ्तर

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले का एक गझिन सा कस्बा है सलेमपुर। विधानसभा की सुरक्षित सीट सलेमपुर। सूबे का सबसे पुराना तहसील हेडक्वार्टर। अफसोस यह है कि विकास यहां आज भी सपना है। जानते हैं क्यों? सलेमपुर सीट से चुनाव मैदान में उतरे ज्यादातर प्रत्याशियों के पास न कोई एजेंडा है, न ही विकास का कोई खाका। सोशल मीडिया पर सभी के अकाउंट्स हैं, लेकिन उसमें विकास की गाथा नहीं, सिर्फ लोगों के जीवन-मरण में पहुंचने की कहानियां हैं। साथ में कुछ ऐसे जुमले और कसीदे भी हैं जो उनके नेताओं की शान में गढ़े गए हैं। 

सलेमपुर में चुनावी हलचल तेज हो गई है। सियासी दलों का ताप बढ़ता जा रहा है। यहां सभी दलों के दफ्तर खुल गए हैं। दफ्तरों के बाहर बैनर हैं और झंडे भी। कुर्सियों पर बैठे लोग कहीं कहीं गलचौर करते नजर आते हैं तो कहीं ऊंघते हुए। सभी दफ्तरों में माइक है, जिससे अपने पक्ष में वोट देने के लिए वोटरों से अपील की जा रही है। आसपास के गांवों में नेताओं और उनके समर्थकों की टोलियां पहुंच रही हैं। हर किसी के पास वादे और झूठे-सच्चे आश्वासन हैं। अगले पांच सालों में सलेमपुर की तरक्की का मॉडल क्या होगा? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। चुनाव मैदान में उतरने वाले प्रत्याशियों के पास न कोई मुद्दा है, न एजेंडा। किसी के पास छड़ी है तो किसी के पास हाथी। कोई कमल लेकर घूम रहा है। विकास का मुद्दा न जाने कहां गुम हो गया है? 

सलेमपुर के इंडस्ट्रियल इलाके का यह है हाल

सलेमपुर में विकास सपना क्यों हैं? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए हम इंडस्ट्रियल इलाके में पहुंचे। यह इलाका सलेमपुर बाजार के आखिरी छोर पर स्थित है। इंडस्ट्रियल स्ट्रीट की ऊबड़-खाबड़ सड़कों के आसपास बजबजाती नालियां हैं, जहां से पैदल गुजर पाना आसान नहीं है। यहां हमें मिले कुश कुमार मिश्र। साल 1972 से इसी इंडस्ट्रियल स्ट्रीट में इनकी एल्युमीनियम का बर्तन बनाने की फैक्ट्री है। सलेमपुर की यह इकलौती फैक्ट्री है जो हर साल जस्ते के बर्तनों से करीब 12 से 15 करोड़ का कारोबार करती है। साथ ही बड़ी संख्या में कुशल श्रमिकों को रोजगार भी देती है। गरीब तबके के लोग जस्ते की जिस बटुली, पतीली, बाल्टी से अपना भोजन बनाते हैं, वो सभी बर्तन यहीं बना करते हैं। एल्युमीनियम का गमला हो या फिर टब अथवा कड़ाही, यहां सब कुछ बनता है। यह पूर्वांचल की पहली फैक्ट्री है जहां सबसे पहले कुकर बनना शुरू हुआ और घर-घर में पहुंच गया।

कुश कुमार मिश्र की कोलकाता में जस्ते का बर्तन बनाने की सालों पुरानी दो फैक्ट्रियां हैं। सलेमपुर इलाके के लोगों को रोजगार देने और सलेमपुर तरक्की का सपना लेकर मरकरा गांव के गंगा दयाल मिश्र यहां आए थे और फैक्ट्री लगाई थी। इनके उद्योग को जो रफ्तार मिलनी चाहिए वो नहीं मिल सकी। कुश कुमार मिश्र गंगा दयाल के बेटे हैं। इन्हें सरकार से उतनी शिकायत नहीं है, जिनती उद्योग विभाग के आला अफसरों से है। वो कहते हैं, "हम एल्युमीनियम रिफाइनरी प्लांट, सेक्शन चैनल और ब्रिकेट्स का प्लांट लगाना चाहते हैं, लेकिन उद्योग विभाग जमीन देने में आना-कानी कर रहा है। हम नया कारखाना लगाने की बात कहते हैं तो जवाब मिलता है, ‘पूरा इंडस्ट्रियल स्ट्रीट आपके ही नाम कर दें क्या?’ इंडस्ट्रियल इलाके में कायदे की सड़क तक नहीं है। पीने के पानी तक का इंतजाम नहीं। सीवर के गंदे पानी से भरे गड्ढों से होकर हमें आना-जाना पड़ता है।"

सलेमपुर बाजार की ओर रुख किया तो कस्बे की सर्पीली गलियों में इलेक्ट्रानिक सामानों के दुकान की साफ-सफाई करते मिले अनिल यादव। सलेमपुर में चुनावी मुद्दे क्या हैं?  मेरे इस सवाल पर जैसे वो विफ़र पड़े। वो बोले, "सोच रहा हूं सब-कुछ छोड़कर किसी जंगल में चला जाऊं।" लेकिन क्यों? इस पर वो थोड़ा संयत हुए और बोले, "महंगाई आसमान छू रही है। एक तरफ कोरोना की मार और ऊपर से जीएसटी की मार। पिछले तीन-चार सालों में बिक्री आधी हो गई है। पहले माल खरीदने के लिए लखनऊ-दिल्ली थर्ड एसी में जाते थे और अब स्लीपर में बैठने के लिए सोचना पड़ता है। पहले हर दिन दस-बीस हजार तक की बिक्री हो जाती थी और अब दो-चार हजार का सामान बेच लें तो बड़ी बात है। मेरे दुकान में पहले आठ लड़के काम करते थे और सिर्फ तीन बचे हैं। अपनी राम कहानी किसे सुनाएं? "

सलेमपुर में सपना है विकास

अनिल हमें सलेमपुर स्टेशन रोड की ओर ले गए और सड़क के गड्ढे की ओर इशारा करते हुए कहा, "देख लीजिए इलाके की बदहाली। संभलकर नहीं चलेंगे तो हाथ-पैर टूटने का खतरा रहता है। पिछले पांच सालों से सलेमपुर की स़ड़क ऐसी ही है। बारिश के दिनों में तो यह पता ही नहीं चलता कि गड़्ढे में सड़क है या फिर सड़क में गड्ढे हैं। दिल को सिर्फ इतनी ही तसल्ली है कि सलेमपुर में सड़क तो है। सलेमपुर के लोगों के पास न पीने का पानी है, न सांस लेने के लिए कोई पार्क और हरियाली। 

सलेमपुर बाजार की गलियों की बदहाल सड़कों की ओर इशारा करते हुए अनिल कहते हैं, ''अगर पानी गिरता है तो हमलोगों के निकलने के लिए जगह नहीं है, इतना पानी भर जाता है कि बच्चे स्कूल ठीक से नहीं जा पाते हैं और न ही कोई वाहन कायदे से निकल सकता है। विकास तो कोई नहीं हुआ है। राशन के अलावा सरकार ने और कुछ नहीं बांटा है। महंगाई के साथ बेरोज़गारी इतनी ज़्यादा बढ़ गई है कि हर आदमी परेशान है।"

सलेमपुर से जो लोग वाकिफ नहीं हैं उन्हें लग सकता है कि यह किसी गांव का बाजार है, जहां न साफ-सुथरी सड़कें हैं और न ही सीवर लाइन। पतली-पतली पेंचदार गलियों में टूटी-फूटी सड़कें हैं और विकास का इंतजार करते लोग हैं। सलेमपुर बस स्टैंड के पास मिले संतोष कुमार वर्मा। यहीं इनकी इलेक्ट्रानिक की दुकान है। संतोष कहते हैं कि भाजपा के पास अगर कुछ है तो सिर्फ पांच किलो राशन। सरसो का तेल और रसोई गैस का दाम भले ही आसमान छू रहा है, लेकिन कुछ रुपये का राशन देकर भाजपाई सरकार जनता को बरगलाने में जुटे है। लगता है कि जैसे ये लोग सरकारी राशन अपने घर से बांट रहे हैं। संतोष कहते हैं, "विधानसभा चुनाव में महंगाई और बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है। इस मुद्दे पर चुनाव लड़ने के बजाए सत्तारूढ़ दल के लोग वोटों के ध्रुवीकरण में जुटे हैं। झूठ-छल और जुमलों के जरिए वोटरों को रिझाने की कोशिश की जा रही है।"

कृषि उपकरणों के विक्रेता विनोद कुमार गुप्ता भी बढ़ती महंगाई से बेहद आहत नजर आते हैं। वो कहते हैं, "भाजपा सरकार से हमें बहुत उम्मीदें थी, लेकिन धराशायी हो गईं। नोटबंदी और उसके बाद जीएसटी की मार ने हमारे धंधे की धड़कन ही रोक दी। अब तो हमें इंतजार करना पड़ता है कि कई ग्राहक आए और सामान खरीदे। दुकान के अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं है। कभी-कभी मन तो यह करता है की इस धंधे से ही तौबा कर लें। पास खड़े शब्बीर अहमद ने न्यूजक्लिक से कहा, "काम तो कुछ नहीं हुआ है, जहां थे वहां से और नीचे हो गए हैं। अखिलेश ने युवाओं को नौकरियां दी। बसपा ने भी बहुत काम किया, लेकिन भाजपा सरकार आई को हमारी पूंजी भी डूब गई। कोरोना में न जाने कितने लोग मारे गए, फिर भी बेशर्मी से वोटरों का साथ निभाने का वादा कर रहे हैं। शायद इसी को ‘थेथरोलाजी’ कहते है।" 

नोटबंदी और जीएसटी की मार पड़ रही भारी

गुम हो गया अलग जिले का मुद्दा

सलेमपुर के लोगों को लगता है कि देवरिया के साथ जुड़कर इस इलाके का विकास संभव नहीं है। नई पहचान देने के लिए इसे अलग जिला बनाना होगा। सलेमपुर को नया जिला बनाने की मांग दो दशक पुरानी है। साल 2014 से नए जिले की मांग को लेकर क्रमबद्ध आंदोलन चलाया जा रहा है। जेपी मद्धेशिया की अगुवाई में सलेमपुर जिला बनाओ आंदोलन 1157 दिनों तक चला था, जिसका सभी दलों ने समर्थन किया था। मद्धेशिया सलेमपुर नगर पंचायत के अध्यक्ष भी हैं। इनके नेतृत्व में इलाके के लोगों ने लखनऊ विधानसभा तक पैदल यात्रा निकाली थी और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को ज्ञापन सौंपा था। दरअसल, सलेमपुर, देवरिया जिले की सबसे बड़ी तहसील है। इस तहसाल में पहले 1232 गांव शामिल थे। साल 1997 में भाटपाररानी और बरहज को अलग तहसील बना दिया गया। इसके बावजूद सलेमपुर पूर्वांचल की सबसे बड़ी तहसील है। 

सलेमपुर को जिला बनाने की मुहिम चलाने वाले शेषनाथ भाई कहते हैं, "हम उसी प्रत्याशी का समर्थन करेंगे जो जिला बनवाने में हमारी मुहिम को सहयोग देगा।" मनोज कुमार, संतोष कुमार, नागेंद्र वर्मा, अम्बिका प्रजापति, संदीप, हर्षित, अनिरुद्ध बरनवाल कहते हैं, "सलेमपुर उन सभी मानकों को पूरा करता है जिसकी किसी जिले को जरूरत है। देवरिया के साथ जुड़कर सलेमपुर का विकास कतई संभव नहीं है। इस इलाके को पिछड़ेपन से मुक्ति दिलाने के लिए इसे आजादी चाहिए। सलेमपुर का अपना डीएम और एसपी होगा, तभी विकास होगा और जनता को सर्वसुलभ न्याय मिल सकेगा। दुख इस बात का है कि विधानसभा चुनाव जीतने के दावे तो सभी दल कर रहे हैं, लेकिन सलेमपुर को बनाने का वादा ईमानदारी से कोई नहीं कर रहा है।"

किसी के पास नहीं विकास का खाका 

सलेमपुर कस्बे को ब्रितानी हुकूमत ने बसाया था। साल 1939 में यहां तहसील हेडक्वाटर की स्थापना की हुई थी। कस्बे के पास से एक छोटी सी गंडक नदी गुजरती है। सलेमपुर कस्बे की शाही मस्जिद आज भी उस इतिहास की शिनाख्त करती हैं, जिसे मझौलीराज के राजा बौद्ध मल्ल ने बनवाया था। करीब 350 साल पहले लगान अदा न करने पर औरंगजेब ने जबरिया उन्हें मुसलमान बना दिया था। फिर वो राजा बौद्ध मल्ल से सलीम बन गए थे। सलीम के नाम पर इस कस्बे का नाम सलेमपुर हो गया। 

सलेमपुर के नाम से लोकसभा सीट भी है, जहां से भाजपा के रविंद्र कुशवाहा सांसद हैं। इस संसदीय क्षेत्र में कुल पांच विधानसभा सीटें हैं। देवरिया जिले की दो विधानसभा सीट भाटपाररानी और सलेमपुर अनुसूचित है, तो बलिया की बेल्थरा अनुसूचित, सिकंदरपुर व बांसडीह हैं। इन सभी सीटों पर तीन मार्च को ही वोट डाले जाएंगे। सलेमपुर (सुरक्षित) विधानसभा सीट उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में आती है। सलेमपुर में तीन मार्च को छठें चरण में वोटिंग होनी है जिस दिन प्रदेश की 56 सीटों पर मतदान होगा। इसी दिन बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, महराजगंज, कुशीनगर, गोरखपुर, संतकबीर नगर, बस्ती, अंबेडकर नगर, बलिया के अलावा देवरिया में वोटिंग होगी। 

सलेमपुर विधानसभा सीट का चुनावी इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। साल 2012 में सपा से मनबोध प्रसाद यहां से चुनाव जीते थे और भाजपा की विजय लक्ष्मी गौतम दूसरे स्थान पर थीं। साल 2017 में भाजपा ने विजय लक्ष्मी का टिकट काट दिया तो वह नाराज होकर सपा में चली गईं और इस पार्टी का टिकट लेकर चुनावी मैदान में उतर गईं। मोदी लहर में वो भाजपा प्रत्याशी काली प्रसाद से चुनाव हार गईं। मौजूदा विधानसबा चुनाव में मनबोध प्रसाद और विजय लक्ष्मी फिर आमने-सामने हैं। अबकी फर्क यह है कि मनबोध इस बार सपा-सुभासपा के संयुक्त प्रत्याशी के रूप में मैदान में हैं तो विजय लक्ष्मी फिर भाजपा के टिकट पर अपना भाग्य आजमा रही हैं।

सपा-सुभासपा के संयुक्त प्रत्याशी का चुनाव दफ्तर 

वरिष्ठ पत्रकार केपी गुप्ता कहते हैं, "भाजपा के निवर्तमान विधायक काली प्रसाद ने सलेमपुर में विकास का कोई ठोस काम नहीं किया। पांच साल तक उन्होंने वोटरों को सिर्फ झुनझुना थमाया, लिहाजा अबकी पार्टी ने उनका टिकट काट दिया। पिछले चुनाव में इसी सीट पर समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी रहीं विजय लक्ष्मी गौतम वोटरों से बीती बातों को भूलने के लिए अर्ज कर रही हैं और दावा कर रही हैं कि जितना विकास कार्य दशकों में नहीं हुआ, वह चुनाव जीतने पर करा देंगी। समाजवादी पार्टी ने यह सीट अपने सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभाषपा) के लिए छोड़ी है। इस पार्टी ने मनबोध प्रसाद को उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस ने दुलारी देवी पाल और बसपा ने पेशे से ठेकेदार राजेश भारती को टिकट दिया है। आम आदमी पार्टी के टिकट पर उदयभान राय और माकपा से कामरेड सतीश कुमार को चुनावी समर में उतरे हैं। इन उम्मीदवारों देखें तो यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि जब इनके पास विकास का कोई खाका ही नहीं है तो सियासी दलों ने उन्हें टिकट क्यों दिया है?"

सूना पड़़ा कांग्रेस का दफ्तर

पत्रकार केपी गुप्ता कहते हैं, "निवर्तमान विधायक काली प्रसाद के ख़िलाफ़ वोटरों में गहरी नाराज़गी थी, जिसके चलते उनका टिकट कटा। विजय लक्ष्मी गौतम सर्वसुलभ नेत्री हैं। कोरोना के संकटकाल में भी उन्होंने लोगों को बहुत मदद की। मनबोध कुमार अनुभवी नेता हैं। साल 2012 का चुनाव उन्होंने अपने विचारों और नीतियों के दम पर ही जीता था। इस बार उनका चुनाव चिह्न साइकिल नहीं, छड़ी है। इसलिए यहां काटे का मुकाबला है।" 

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक सलेमपुर में हिंदुओं की आबादी 86.2 प्रतिशत है तो 13.5 प्रतिशत मुस्लिमों की आबादी है। सलेमपुर विधानसभा में सर्वाधिक दलित हैं। दूसरे और तीसरे नंबर पर यादव और मुसलमान हैं। यहां प्रत्याशियों के हार-जीत का का फैसला मौर्य-कुशवाहा वोटर करते हैं। सलेमपुर विधानसभा में इन वोटरों की तादाद भी अच्छी खासी है। राजभर, ब्राह्मण और राजपूत भी प्रत्याशियों के फैसले में अहम भूमिका अदा करते हैं।  

जीत की चाबी पिछड़ों के पास 

चुनाव विश्लेषक अदस कमाल बनारस के जाने-माने पत्रकार हैं और वो सलेमपुर इलाके के लार कस्बे के बाशिंदे हैं। वह कहते हैं, "सलेमपुर में सपा गठबंधन और भाजपा के बीच सीधी टक्कर है। साल 2009 और 2012 के चुनाव को देखेंगे तो पूर्वांचल मुख्य रूप से सपा-बसपा का गढ़ रहा है। पिछड़ी जातियों के लोग जिस दल के साथ खड़े होते हैं, सरकरा भी उन्हीं की बनती है। सलेमपुर सीट पर इस बार भाजपा की राह आसान नहीं है। पिछड़े तबके के वोटरों को लगता है कि भाजपा ने उनके साथ छल किया है। पिछली मर्तबा इस आधार पर उन्होंने भाजपा के पक्ष में मतदान किया था कि सत्ता की बागडोर पिछड़े तबके नेता केशव प्रसाद मौर्य को सौंपी जाएगी, लेकिन ऐन वक्त नेतृत्व बदल दिया गया। देवरिया जिले की सलेमपुर सीट पर शहर और गावों के वोटर बंटे हुए नजर आ रहे हैं। कोविड के दौर में योगी सरकार के दावे अपनी जगह है, लेकिन लोगों को याद है कि आक्सीजन की कमी और इलाज के अभाव में न जाने कितनों ने अपनों को खोया है। यहां जब भी कोरोना की बात होती है तो सभी के जख्म हरे हो जाते हैं।"

लारी यह भी कहते हैं, "मुफ्त राशन योजना गरीब तबके में असर दिखा रही है, लेकिन मार्च बीतने के बाद भी लोगों को क्या मुफ्त में राशन मिलेगा? यह सवाल सभी गरीबों के मन में है। लोगों को पता है कि राशन सरकारी है, दलित वोटरों के मन में भाजपा को लेकर थोड़ी सिंपैथी दिख रही है। हालांकि दूसरी सीटों की तरह यहां भी जातीय खेमे में बंटे लोग अपने प्रत्याशियों के फेवर में मतदान करेंगे। पिछड़ी जातियां चाहती है कि जो भी सत्ता में आए वो जातीय आधार पर गणना कराए। सपा सुप्रीमो अखिलेश का बयान आ रहा है कि तीन महीने में जातिगत जनगणना कराएंगे। हालांकि मैनोफेस्टो में उन्होंने यह बात नहीं कही है, लेकिन उनके सहयोगी ओपी राजभर इस मुद्दे को मजबूती के साथ उठा रहे हैं।" 

बसपा के दफ्तर का ये है हाल

"पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मतदान का ट्रेंड यह है कि शहरी क्षेत्र में वोटिंग कम और ग्रामीण इलाकों में ज्यादा है। शायद शहर के वोटर प्रत्याशियों से निराश हैं। कुछ लोग शायद कोविड के चलते मतदान करने नहीं जा रहे हैं। मायावती के बसपा का जाटव वोट पहली बार आइसोलेट होता दिख रहा है। बसपा को जिस मजबूती के साथ लड़ना चाहिए था, वैसा नहीं दिख रहा है। सलेमपुर के शहरी इलाकों में भाजपा की पिच मजबूत है, देहात में सपा-सुभासपा की। मौर्य समाज के कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा छोड़ने का सलेमपुर में खासा असर है। लगता है कि सलमेपुर में मुकाबला मंडल और कमंडल के बीच ही होगा। हार-जीत का फैसला सवर्ण और दलित नहीं, पिछड़ी जातियों के वोटर करेंगे।" 

(लेखक विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

ये भी देखें: यूपी चुनाव: भाजपा का कोई मुद्दा नहीं चल रहा!

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