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भारत
राजनीति
उत्तर प्रदेश: चुनावी सरगर्मियों के बीच महिला चार्टर की ज़रूरत
उत्तर प्रदेश में हमेशा की तरह जातीय समीकरण महत्वपूर्ण बने हुए हैं, लेकिन आधी आबादी का सवाल भी कम अहमियत नहीं रखता।
कुमुदिनी पति
08 Nov 2021
Women Voters in UP
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: अमर उजाला

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव 2022 में होने हैं और चुनावी सरगर्मियां शुरू हो गयी हैं। जहाँ हमेशा की तरह जातीय समीकरण महत्वपूर्ण बने हुए हैं, आधी आबादी का सवाल भी कम अहमियत नहीं रखता।

हमने देखा कि 2017 के विधानसभा चुनाव में महिला वोटर्स ने पुरुषों की अपेक्षा अधिक संख्या में मतदान किया। जहाँ पुरुष मतदाता 59.43% थे, महिला मतदाता 63.26% थीं।  प्रमुख कारण यह है कि स्थानीय निकायों में महिलाओं की व्यापक हिस्सेदारी के चलते  वे गांव-गांव में जागरूक हो गयी हैं। हाल के समय में देखा गया है कि मतदान के समय महिला वोटर पुरुषों के बराबर, और कई बार उनसे अधिक सक्रिय हो जाती हैं और आज उनका अपना अलग वजूद या एजेंसी भी है। 

प्रियंका ने की महिलाओं से अपील 

शायद इसी तथ्य के मद्देनज़र कांग्रेस की उत्तर प्रदेश प्रभारी, प्रियंका गाँधी वाड्रा ने चुनावी बिगुल महिला सशक्तिकरण के वायदे के साथ बजाया है। यह काफी देर से की गयी, पर निश्चित ही स्वागत योग्य पहल है, यदि इसे केवल चुनावी घोषणाओं तक सीमित न रखा जायेI  

इसके पहले भी महिला नेता के रूप में प्रियंका ने उन्नाव, हाथरस और बदायूं बलात्कार कांडों पर मायावती से अधिक सक्रियता दिखाई; यहाँ तक कि राष्ट्रीय महिला आयोग को आड़े हाथों लिया और और योगी को  "महिला विरोधी मानसिकता से ग्रसित" बताने की हिम्मत की।

पर कांग्रेस यदि आधी आबादी के प्रति गंभीर है, तो उसे अपने द्वारा शासित प्रदेशों को महिला सशक्तिकरण के मॉडल के रूप में विकसित करना होगा।

पार्टियां महिला घोषणापत्र तैयार करें

कांग्रेस पार्टी का महिलाओं के लिए अलग घोषणापत्र अपने आप में एक नया प्रयोग है। यदि सभी विपक्षी दल ऐसा करें तो महिला एजेंडा राजनीति का बुनियादी हिस्सा बन सकेगा; उसपर अमल करने के मामले में प्रतिस्पर्धा भी होगी। इससे देश में एक स्वस्थ परंपरा शुरू होगी। महिलाओं के लिए साल में 3 मुफ्त गैस सिलिंडर, आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को 10,000 रुपये मासिक मानदेय, विधवा और वृद्धा महिलाओं को 1000 रुपये  मासिक, 12वीं पास छात्रों के लिए स्मार्टफोन और स्कूटी, सरकारी पदों पर 40% महिलाओं की नियुक्ति, चुनावों में 40% महिलाओं को पार्टी टिकट, प्रदेश की  वीरांगनाओं के नाम पर 75% दक्षता विद्यालय और राज्य की बसों में महिलाओं के लिए निशुल्क यात्रा की सुविधा कांग्रेस के महिला घोषणापत्र में शामिल हैं।

महिला अध्ययन केंद्र ,इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पूर्व निदेशक, प्रोफेसर सुमिता परमार के अनुसार “हम सभी समझ रहे हैं की ये सारे वायदे चुनाव के मद्देनज़र किये जा रहे हैं। वैसे तो बीजेपी भी यह कर सकती है और तब इन घोषणाओं की हवा निकल सकती है।”

समाजवादी पार्टी की वरिष्ठ नेता सबीहा मोहनी, जो इलाहाबाद की जिला अध्यक्षा रह चुकी हैं, कहती हैं, “सपा को भी महिलाओं के पक्ष में काम करने की ज़रुरत है, तभी प्रदेश की राजनीति में सकारात्मक बदलाव आएगा।“

लेकिन क्या योजनाओं से ही महिलाओं का भला होगा,यदि वे अर्थव्यवस्था और राजनीती में "गेम चंगेर” नहीं बनतीं ?

हमें याद रखना चाहिए कि 2022 में भले ही उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव होना है, 33% महिला आरक्षण का सवाल राज्य और केंद्र दोनों के लिए महत्वपूर्ण है, और महिला मतदाताओं के भीतर नयी ऊर्जा का संचार कर सकता है। 25 वर्षों से ये टलता रहा, इसलिए, इसे घोषणापत्रों का केंद्रीय सवाल बनना चाहिए।

फिर महिलाओं की श्रम में भागीदारी भी राज्य में बहुत कम है। 2017-18 में यह शहर में 8.2 %, और ग्रामीण क्षेत्र में 9.7 % रही है। आखिर इसे कैसे बढ़ाया जायेगा?

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है की भाजपा की महिला विरोधी सोच को भी विपक्ष का केंद्रीय मुद्दा बनना चाहिए। क्योंकि यदि इस सोच का विस्तार होता रहा तो समाज में महिलाओं का सम्मान घटेगा और उन्हें क्रूरतम हिंसा का शिकार बनाया जाता रहेगा। इतना ही नहीं, अपराधियों के हौसले और भी बुलंद होंगे और पुलिस अपराधियों और सवर्ण दबंगों के साथ खड़ी मिलेगी। महिलाओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी लगातार घटेगी। महिलाओं के लिए लोकतंत्र की बची-खुची सुरक्षाएं भी स्वप्न सामान हो जाएँगी। ऐसे माहौल में कैसे बचेंगी और कैसे पढेंगी बेटियां?

विचारधारा जो भी हो, महिला वोट बैंक को चुनावी रणनीति का अहम् हिस्सा बनाने वाले दलों की गिनती करें तो वे रहे हैं- चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी, जिसने ड्वाकरा (DWACRA) स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से 94 लाख ग्रामीण औरतों की गोलबंदी की थी। 2014 से यह अभियान चला और नायडू को काफी समर्थन और तारीफ भी मिली। पसुपु कुमकुम योजना के तहत स्वयं सहायता समूहों की महिला सदस्यों को 10,000 रुपये और मुफ्त स्मार्टफोन भी दिए गए थे। यह एक अनोखा प्रयोग था जिसने आंध्र प्रदेश में महिलाओं को विकास  का चेहरा बनाया।   पर उत्तर प्रदेश में स्वयं सहायता समूहों की औरतें सबसे अधिक प्रताड़ित हैं।

देवरिया जिला के माले नेता रामकिशोर बताते हैं कि कोविड-19 के चलते या किसी अन्य कारण से यदि महिलाएं लोन की किस्त नहीं भर पाती हैं तो उनके घर पर रात 11-12 बजे भी एजेंट वसूली करने आ जाते हैं और दरवाज़े पर बैठकर भद्दी से भद्दी गालियां देते हैं। कई बार तो वे महिलाओं के साथ मारपीट पर भी उतारू हो जाते हैं, पर औरतों को राहत दिलाने कोई नहीं आता। लोकसभा चुनाव से पहले एक बार अफवाह फैली कि मोदी जी लोन माफ़ कर रहे हैं, तो हज़ारों औरतें बैंकों के सामने कतारों में खड़ी हो गयीं; इतना इस मुद्दे को लेकर वे त्रस्त हो चुकी हैं। प्रदेश में 5,41,548 स्वयं सहायता समूह हैं, पर वे ग्रामीण क्षेत्रों में एक नए किस्म के सामंतवाद को जन्म दे चुके हैं, जहाँ महिला ही बलि चढ़ती है।

दक्षिण भारत में तमिलनाडु एक विकसित राज्य है, जहाँ मुख्यमंत्री जयललिता को महिलाएं दिल से चाहती थीं, और प्यार से ‘अम्मा’ बुलातीं। तमिलनाडु में जयललिता का शासन महिलाओं के पक्ष में लगातार काम करता रहा। कई ऐसी योजनाएं लायी गयीं जिनसे महिलाओं को भरी मदद मिली। क्रेडल बेबी स्कीम के तहत भ्रूण हत्या पर भी काफी हद तक  नियंत्रण किया जा सका; यह एक क्रांतिकारी  कदम था। गरीब घरों की बेटियों के लिए जयललिता ने जो ‘थलिकु थंगम थिटुम’ स्कीम शुरू किया था उसके तहत डिग्री या डिप्लोमा धारी लड़कियों को 4 ग्राम सोना और 50,000 रुपये की मदद दी जाने लगी थी। जयललिता ने माताओं के लिए मुफ्त बेबी केयर किट, महिलाओं के लिए मुफ्त ग्राइंडर और मिक्सी, स्वयं सहायता समूहों की प्रशिक्षकों के किये मुफ्त स्मार्टफोन और बैलेंस पैसा भी दिलवाया। इसके अलावा महिलाओं के लिए मुफ्त स्वस्थ्य जांच का प्रावधान भी रखा गया जिससे लाखों औरतों को, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, काफी लाभ मिला। कुल मिलकर, जयललिता की इन योजनाओं ने महिलाओं को उनका स्थायी वोट बैंक बना दिया था। प्रतिस्पर्धा में डीएमके ने भी महिलाओं के लिए अनेक योजनाएं लागू कीं।

इसकी तुलना में उत्तर प्रदेश की कन्या सुमंगला योजना के तहत बेटी की पढाई के लिए दी जा रही रकम 15000 रुपये बिलकुल नाकाफी हैं। प्रदेश में अत्यंत गरीब परिवारों की बेटियों को एक बार शादी के लिए 51,000 रुपये दिए जाते हैं,पर शर्त यह है की परिवार की आय ग्रामीण क्षेत्र में 46,080 रुपये और शहर के निवासियों की 56,460 रुपये सालाना होनी चाहिए। पर देखा जाए तो साल में एक लाख रुपये पाने वाला परिवार भी अपनी बेटी की शादी के लिए क़र्ज़ लेने पर मजबूर हो जाता है। इस अनुदान को देने के लिए निश्चित ही आय सीमा बढ़ाई जानी चाहिए और 20,000 रुपये प्रति माह कमाने वालों को कम ब्याज पर शादी के लिए क़र्ज़ उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

उत्तर प्रदेश महिला स्वस्थ्य के मामले में अब भी बहुत पीछे है। केवल गर्भवती औरतों को निःशुल्क जांच की सुविधा मिली है, जिसमें कॉर्पोरेट अस्पतालों को सेवा देने के लिए सरकारी अस्पतालों में 1 दिन तय करने को कहा गया, पर यह भी उनकी मर्ज़ी पर छोड़ दिया गया। नतीजा है कि कहीं-कहीं शिविर लगाकर इन महिलाओं को जांच की सुविधा दी जाती है, पर राज्य ज़िम्मेदारी नहीं लेता कि यह सेवा कम-से-कम 80% औरतों को मिल सके। यही कारण है कि प्रदेश की महिलाओं में रक्ताभाव आम हो गया है। 2016 के आंकड़ों के अनुसार 52.4 % औरतें एनीमिया ग्रस्त पायी गयी थीं, और 63. 2 % बच्चे भी रक्ताभाव से पीड़ित थे। इसपर यदि जल्द काबू न किया गया, तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी औरतें कमज़ोर और कुपोषित होती जाएंगी।

महिला स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिले 

कुपोषण के ख़िलाफ़. गरीब माने जाने वाले प्रान्त ओडिशा में नवीन पटनायक ने स्मार्ट हेल्थ कार्ड का प्रचलन शुरू किया और यह कदम काफी सराहा गया। इसे बीजू स्वास्थ्य कल्याण योजना के नाम से जाना जाता है, और इसे मलकानगिरी के आदिवासी इलाके से आरम्भ किया गया। इस योजना की बराबरी तो करना मुश्किल है- प्रत्येक गरीब परिवार को 5 लाख रुपये प्रति वर्ष स्वस्थ्य सम्बन्धी खर्च के लिए मिलने के अलावा यदि परिवार में कोई महिला अस्वस्थ है तो उसे अलग से 7 लाख का कवर दिया जाता है। परिकल्पना यह है कि आधी आबादी यदि स्वस्थ रहेगी तो पूरा देश स्वस्थ रहेगा, क्योंकि परिवार के स्वास्थ की देखभाल वही करती हैं।  

भाजपा को हराने में ममता को महिलाओं ने मदद की 

पश्चिम बंगाल की बात करें, तो ममता बनर्जी ने भी महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए कुछ बेहतरीन योजनाएं लागू की हैं। पिछले चुनाव में ममता ने महिला शक्ति को ललकारने के लिए "बांग्ला निजेर में (daughter) के चाये" नारा दिया। पर पश्चिम बंगाल की गरीब महिलायें हमेशा से ही पुरुषों की अपेक्षा ममता से विशेष जुड़ी रही हैं। ममता को भाजपा के मुकाबले 13% अधिक महिला वोट मिले। सबसे लोकप्रिय योजना है  मासिक बेसिक आय योजना जिसके तहत हर सामान्य श्रेणी की महिला पारिवारिक मुखिया को 500 रुपये प्रति  माह और एससी/एसटी व ओबीसी महिलाओं को 1000 रुपये प्रति माह दिया जाता है। पहले तीन दिनों में ही 30 लाख महिलाओं ने फॉर्म भर दिए थे। छात्र-छात्राओं के लिए 4% की ब्याज दर पर 10,00,000 रुपये लोन की योजना भी ममता लागू कर चुकी  हैं, जिससे वे 12वीं कक्षा के बाद 40 साल  की उम्र तक अपने मन पसंद के ग्रेजुएट,पोस्ट ग्रेजुएट, डाक्टरल या पोस्ट कोर्सेज चुन सकते हैं या बाहर पढ़ने भी जा सकते हैं। इस लोन को 15 साल के भीतर चुकाना होगा। 

अगर हम उत्तर प्रदेश की स्थिति देखें तो यहाँ केवल केंद्र सरकार द्वारा चलायी जा रही विद्या लक्ष्मी पोर्टल के माध्यम से उच्च शिक्षा के लिए लोन राष्ट्रीय बैंकों से मिलते हैं। इनकी ब्याज दर 11%-13% है और पोर्टल के माध्यम से छात्र कई बैंकों में लोन का आवेदन भर डाल सकता है, इससे अधिक कुछ नहीं। 

महिला साक्षरता का नायाब मॉडल

महिला मुद्दों की नज़र से देखें तो केरल सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है महिला साक्षरता, जो 95. 2% है, और देश में सबसे अधिक मानी जायेगी। केरल सरकार ने विधवा महिलाओं को स्वरोज़गार के लिए एकमुश्त 30,000 रुपये की सहायता राशि और विधवा विवाह के लिए 25,000 रुपये की सहायता राशि की भी गारंटी की है ।

पूर्ण शराब बंदी, सरकारी नौकरी में महिला आरक्षण

पूरब की और चले जाएँ, तो नीतीश कुमार ने भी महिलाओं को अपनी जीत सुनिश्चित करने हेतु प्रमुख शक्ति के रूप में इस्तेमाल किया। सबसे चर्चित कदम रहा पूर्ण शराब बंदी का, जिसके कारण महिलाओं का भारी समर्थन भी उन्हें मिला। इसके अलावा सरकारी पदों में 35% महिला आरक्षण और पुलिस में 35% महिला आरक्षण प्रमुख रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के पहले से ही पोल सर्वे बता रहे थे कि 41% महिला वोट नीतीश की झोली में चले जायेंगे। 

महिलाओं के लिए निःशुल्क बस यात्रा 

दिल्ली में भी अरविंद केजरीवाल ने महिलाओं के लिए निःशुल्क बस यात्रा की सुविधा देकर काफी लोकप्रियता बटोरी। पर लड़कियों व औरतों के लिए राजधानी को सुरक्षित बनाने के मामले में अधिक कुछ नहीं कर पाए। अलबत्ता आप पार्टी में महिला प्रत्याशियों की स्ट्राइक रेट बेहतर रही 9 में से 8.

ये गणित प्रियंका गाँधी को देश भर के विजयी दलों के इतिहास को देखकर समझ आ गया है, पर विदेश से पढ़कर आये विपक्षी नेता अखिलेश यादव क्यों अब तक महिला एजेंडा को सामने नहीं लाना चाह रहे, यह विडम्बना है। क्या वे प्रदेश में हिंदुत्ववादी, सामंती मानसिकता वाली शक्तियों से लोहा लेने से इसलिए कतरा रहे हैं कि वे महिला शक्ति के नारे से भड़क जायेंगे और भाजपा की और ध्रुवीकृत हो जायेंगे?

उत्तर प्रदेश में योगी सामंती, सांप्रदायिक व उच्च जातीय बर्बरता के प्रतीक हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं होता जब वे महिलाओं की आज़ादी, उनकी मर्यादा और उनके राजनीतिक व सामाजिक सशक्तिकरण का पुरजोर विरोध करते हैं।  उन्होंने एक बयान में तो यह तक कह दिया की पुरुषों में जब महिला गुण होते हैं, वे देवता सामान हो जाते हैं पर यदि पुरुष के गुण महिलाओं में आ जाएँ तो वे राक्षस बन जाती हैं। उनका एक बयान यह भी है कि औरतों को अकेला नहीं छोड़ा जाना चाहिए -बचपन से बुढ़ापे तक वे  किसी के शरण में ही रही हैं। इस सन्दर्भ में ही हमें उनके एंटी रोमियो स्क्वाड और लव जिहाद को लेकर सनक को समझना होगा। वरना उत्तर प्रदेश महिलाओं पर अपराध के मामले में प्रथम स्थान पर न होता।

महिला चार्टर- कुछ बिंदु

प्रदेश में कौन सरकार बनाएगा यह बाद की बात है पर आज के समय प्राथमिकता होनी चाहिए महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार के लिए बेहतर सुविधाएँ और अनुदान उपलब्ध कराये जाएँ; औरतों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए उनपर अत्याचार की प्राथमिकी न लिखना दंडनीय अपराध बनाया जाये, वर्किंग विमेंस हॉस्टल हर जिले में बनाये जाएँ तथा महिला उद्यमियों को प्रोत्साहन दिया जाये और महिला श्रमशक्ति बढ़ाई जाये। महिलाओं को कम से कम  ब्याज दर पर लोन चाहिए ताकि वे स्वरोज़गार की और बढ़ सकें। निःशुल्क व सुरक्षित बस सेवा की गारंटी हो, महिला आश्रय खोले जाएँ, महिला आयोगों और अधिकार दिए जाएँ तथा उन्हें पूरी तरह से स्वायत्त बनाया जाये। और सबसे बढ़कर, विधानसभाओं में महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन करने का प्रस्ताव पारित किया जाये व संसद में व्हिप जारी कर पार्टियां अपने सांसदों से उसके पक्ष में वोट करवाएं। परन्तु, इन सब पर भी भारी होगा प्रदेश में प्रगतिशील महिला पक्षधर संस्कृति को हर तरीके से बढ़ावा देना, जिसके बिना ये सारी योजनाएं निरर्थक साबित होंगी।     

(लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और महिला मुद्दों पर विशेष तौर पर लिखती हैं।)

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