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भारत
राजनीति
डेटा संरक्षण विधेयक की ख़ामियां और जेपीसी रिपोर्ट की भ्रांतियां
विधेयक और संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिशें कई समस्याओं से घिरी हुई हैं, और उनमें से कुछ सिफारिशें तो राज्य को निगरानी शक्ति के साथ  लैस कर रही हैं, जो गंभीर चिंताओं को विषय है।
विकास भदौरिया
21 Dec 2021
data protection

देश के पहले व्यापक डेटा संरक्षण कानून पर संयुक्त संसदीय समिति की बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट संसद में पेश कर दी गई है। इस रिपोर्ट को दो साल के गहन विचार-विमर्श और परामर्श के बाद अंतिम रूप दिया गया है और इसे अपनाया गया है। अब यदि यह पारित हो कर कानून बन जाता है, तो डेटा न्यासियों द्वारा डेटा संग्रह, उसके प्रसंस्करण और उसके संग्रह की प्रक्रिया को विनियमित करेगा। 

विधेयक, जिसका नाम अब निजी डेटा संरक्षण की बजाय डेटा संरक्षण विधेयक कर दिया गया है, उसको समिति की रिपोर्ट के साथ संसद में बहस के लिए फिर से पेश किए जाने की संभावना है। चूंकि संसदीय समितियों की सिफारिशें बाध्यकारी नहीं हैं, इसलिए केवल विधेयक पर वोटिंग होगी। 

देखा जाए तो यह विधेयक और जेपीसी की सिफारिशें कई दृष्टियों से असंख्य समस्याओं से घिरी हुई हैं। इस समिति की सिफारिशों के कई नुकसान हैं और उसके बुरे आयाम भी हैं। 

जैसे कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को प्रकाशकों के रूप में देखा-माना जाना और उनके द्वारा प्रस्तुत या प्रकाशित की जाने वाली सामग्री को विनियमित किया जाना। 

अब तक, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT Act) में निहित प्रावधान के माध्यम से 'सेफ हार्बर' नामक कानूनी प्रतिरक्षा का उपभोग किया है। हालांकि, समिति इनमें से कुछ "प्लेटफ़ॉर्म" को "प्रकाशक" के रूप में मानने की सिफारिश कर रही है और इसलिए उनकी प्रतिरक्षा की कानूनी छूट को खत्म करने का प्रस्ताव देकर उनसे सख्ती पर जोर दे रही है। 

यदि इस प्रस्तावित सिफारिश को बिल में समाहित कर लिया जाता है, तो यह आईटी अधिनियम की धारा 79 के तहत मिली गारंटीकृत सुरक्षा को कमजोर कर देगी, जो सभी अंतर्वर्तियों को उनके मंच पर तीसरे पक्ष द्वारा "पोस्ट" की जाने वाली कंटेन्ट की जवाबदेही से बचाती है, बशर्ते कि वे अपेक्षित सतर्कता का पालन करें। बिल को पढ़ने से यह स्पष्ट नहीं है कि कौन से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अंतर्वर्ती (इंटरमीडिएटरिज) बने रहेंगे और किन प्लेटफार्म्स को प्रकाशक (कंटेंट पब्लिशर) माना जाएगा। 

समिति का मानना है कि ये प्रस्तावित प्रावधान "प्लेटफ़ॉर्म" पर पोस्ट की जाने वाली कंटेन्ट की समीक्षा कर सकते हैं, कंटेन्ट के रिसीवर का चयन कर सकते हैं, और उनके द्वारा पेश (होस्ट) की गई, ऐसी किसी भी कंटेन्ट तक उनकी पहुंच को नियंत्रित कर सकते हैं। पैनल के माननीय सदस्यों ने जिस पर विचार करने की जहमत नहीं उठाई, वह यह है कि इन प्लेटफार्म्स पर कंटेन्ट की भारी मात्रा में आवक को देखते हुए, ये प्लेटफॉर्म व्यावहारिक रूप से किस हद तक विनियमित कर सकते हैं। 

इसके अलावा, समिति का प्रस्ताव है कि महत्त्वपूर्ण डेटा प्रत्ययी के रूप में अधिसूचित सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपने उपयोगकर्ताओं को आवश्यक दस्तावेज जमा करके स्वेच्छा से अपने खातों को सत्यापित करने में सक्षम बनाने के लिए एक तंत्र लागू करें। ऐसे सत्यापित खातों को बाद में सत्यापन का दृश्य चिह्न प्रदान किया जाएगा। 

इसी तरह, समिति चाहती है कि सरकार इन प्लेटफार्मों पर असत्यापित खातों से उपभोगताओं की पेश की गई कंटेन्ट के लिए इन प्लेटफार्मों को दंडित करे। यह विडंबनापूर्ण तरीके से उन प्लेटफार्मों को अपने उन सभी उपयोगकर्ताओं को अनिवार्य रूप से अपने खातों को सत्यापित करने पर मजबूर करता है, न कि "स्वेच्छा से", जैसा कि नवीनतम अंतर्वर्ती दिशानिर्देशों में कहा गया है। 

निस्संदेह, संवेदनशील दस्तावेजों को सोशल मीडिया कॉम्पनियों को बांटने से उनके द्वारा उपयोगकर्ताओं की विशिष्ट प्रोफाइलिंग हो जाएगी, जो मूल रूप से प्रस्तावित कानून के उद्देश्य का उल्लंघन करती है। 

सिफारिश में यह भी उल्लेख किया गया है कि सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के भारत में एक भौतिक कार्यालय होना आवश्यक है। फरवरी 2021 में अधिसूचित न्यू इंटरमीडियरी गाइडलाइंस के अनुसार, इसकी जरूरत उन खास सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स को थी, जिनके पंजीकृत उपयोगकर्ताओं की तादाद पांच लाख से अधिक थी। 

गुमनामी एक दोधारी तलवार है। एक तरफ, गुमनामी का इस्तेमाल किसी का ट्रोल करने, गाली-गलौज करने और दुष्प्रचार के लिए किया जाता है; साथ ही, यह दुर्व्यवहार और दुष्प्रचार का सामना करने वालों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करता है। क्या हम #Metoo जैसे सफल अभियान की कल्पना कर सकते हैं, जो कम से कम भारत में पीड़ितों के नाम न छापने पर आधारित था? यह व्हिसलब्लोअर और घृणा अपराधों के पीड़ितों के लिए एक महत्त्वपूर्ण सुरक्षा कवच भी है। 

यदि यह कानूनी ढांचा चलन में आता है और सरकार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को उनके द्वारा होस्ट की गई सामग्री को विनियमित करने और उनके उपयोगकर्ताओं को सत्यापित करने के लिए मजबूर करने के लिए कानून लाती है, तो इसका परिणाम केवल इंटरनेट की मुक्त जगह पर उभरने वाली आलोचनात्मक एवं खास आवाजों का दम घोंटना होगा। 

हमने देखा है कि कैसे सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को विनियमित करने के सरकार के दृष्टिकोण ने उसकी नीतियों से असहमति को एक अपराध मानने का काम किया है। तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के विरोध के धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों के समर्थन में सोशल मीडिया पर शेयर किए गए एक "टूलकिट" के लेकर 21 वर्षीया पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी की घटना अभी भी हमारे जेहन में ताजा हैं। उसी सरकार ने ट्विटर से अनुरोध किया था कि वह कोविड-19 की दूसरी लहर के मद्देनजर विरोध जताने के लिए बनाए हैशटैग #ModiMadeDisaster वाले ट्वीट्स को हटा दे। नतीजतन, ट्विटर ने महामारी से निपटने में सरकार की नाकामियों की आलोचना करने वाले 50 से अधिक ट्वीट्स को सार्वजनिक रूप छिपा दिए गए थे; यहां तक कि विपक्षी पार्टी के नेताओं के आधिकारिक रूप से सत्यापित खातों के ट्वीट्स को भी नहीं बख्शा गया। 

डेटा उल्लंघनों की रक्षा करने वाले बिल में सोशल मीडिया का यह अवांछित विनियमन अत्यधिक अनुचित लगता है। साथ ही, ऐसा प्रतीत होता है कि समिति ने इस तरह की अवास्तविक सिफारिशें करते हुए "गैरकानूनी" कंटेन्ट पर अंकुश लगाने के लिए अभद्र भाषा का स्वतः ही पता लगाने की मशीनरी, और ऐसी सामग्री पर रोक लगाने के प्लेटफार्मों द्वारा  उठाए जाने वाले उचित कदमों की तकनीकी चुनौतियों पर विचार नहीं किया। 

यह सब होते हुए भी, निजता के पैरोकारों एवं अन्य हितधारकों की सबसे बड़ी चिंता के बावजूद पैनल ने इस पर विचार नहीं किया कि प्रस्तावित कानून में राज्य को असीम शक्तियां देते हुए किसी भी सरकारी एजेंसी को विधेयक के दायरे से बाहर रखने का प्राधिकार दिया गया है।

डेटा स्थानीयकरण

समिति ने डेटा स्थानीयकरण की फिर से लामबंदी की है, जबकि नागरिक समाज की सलाह है कि इसे कानून से हटा देने की है। स्थानीयकरण एक देश की क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर डेटा के भौतिक भंडारण और इसके बाहर डेटा हस्तांतरण किए जाने से रोकता है। जेपीसी ने अस्पष्ट शब्दों में, विदेशों में संग्रहीत "संवेदनशील" और "महत्त्वपूर्ण" डेटा के अनिवार्य "प्रतिबिम्बन" (mirroring) का प्रस्ताव दिया है। अराजकता को दूर रखने के लिए, समिति ने विधेयक में "महत्त्वपूर्ण व्यक्तिगत डेटा" को परिभाषित करने की सिफारिश करने की जहमत नहीं उठाई, जबकि केंद्र सरकार के लिए किसी भी निजी डेटा को उपबंध 15 तथा 3 (36)(xii) के तहत “संवेदनशील निजी डेटा” के रूप में वर्गीकृत करने के लिए कुछ गुंजाइश छोड़ दी है। 

समिति का मानना है कि डेटा का स्थानीयकरण सरकार को कानून लागू कराने के संबंध में डेटा प्रत्ययी पर अधिक नियंत्रण से लैस करेगा। हालांकि, नागरिक समाज और गोपनीयता के पैरोकारों का कुछ और ही मानना है। उनका तर्क है कि स्थानीयकरण अवश्यंभावी राज्य-प्रायोजित निगरानी को बढ़ावा देगा और उसे गति प्रदान करेगा। 

SFLC.in के कानूनी निदेशक प्रशांत सुगथन का कहना है कि "डेटा स्थानीयकरण खुले इंटरनेट (open internet) के सिद्धांतों और इंटरनेट के काम करने के तरीके  पर प्रतिकूल असर डाल सकता है। यदि प्रत्येक देश डेटा स्थानीयकरण आवश्यकताओं के साथ आने लगे तो सीमा रहित डिजिटल स्थान का जो वादा है, वह कहीं खो जाएगा। इसके अलावा, जब तक नागरिकों को डिजिटल निगरानी से बचाने के लिए कड़े सुरक्षा उपाय नहीं हो जाते हैं, स्थानीयकरण से सरकारों द्वारा बड़े पैमाने पर निगरानी की जा सकती है।" 

समिति ने विधेयक के दायरे से किसी भी कानून प्रवर्तन को छूट देने के लिए सरकार को व्यापक अधिकार देने का भी प्रस्ताव किया है। रिपोर्ट की दो सिफारिशों को संयुक्त रूप से पढ़ने से समिति की मंशा स्पष्ट हो जाती है कि वह चाहती है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियों के पास अपने नागरिकों से संबंधित डेटा तक पहुंचने के लिए बेलगाम शक्तियां हों। इससे भी बदतर यह है कि छोटी विदेशी संस्थाएं, एमएसएमई, और गैर-सरकारी संगठन जो विकास क्षेत्र में लगे हुए हैं और सीधे या साझेदार संगठनों के साथ काम कर रहे हैं, वे भारत में अपने डेटा को संग्रहीत करने की बढ़ी हुई लागत को वहन करने पर विवश होंगे। भारी वित्तीय बोझ इन संगठनों को व्यवसाय से बाहर कर सकता है। 

मामले को और जटिल बनाते हुए समिति ने अनिवार्य डेटा स्थानीयकरण की वजहों में आर्थिक पहलू पर ज्यादा जोर दिया है।जिसके कारण गोपनीयता की चिंताओं और अनियंत्रित राज्य निगरानी की बाध्यकारी चिंताओं को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया गया है। यह मूर्खतापूर्ण है कि समिति चाहती है कि विदेशी संस्थाओं से भारतीयों के बारे में डेटा सुरक्षित रहे; इसलिए, इसे केवल सरकार द्वारा सर्वेक्षण किए जाने के लिए भारत लाया जाना चाहिए। अभी कुछ समय ही पहले, भारत सरकार पर पेगासस विदेशी स्पाइवेयर के जरिए अपने नागरिकों की अवैध रूप से जासूसी करने का आरोप लगाया गया था। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर जासूसी करने और राजनीतिक निगरानी करने की मौजूदा महत्त्वाकांक्षी सरकार के खिलाफ कई अन्य गंभीर आरोप भी लगे हैं। 

सहमति की उम्र 

समिति ने 18 से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति को बच्चे के रूप में परिभाषित किया है। ऐसा उसने नागरिक समाज और बाल अधिकार कार्यकर्ता के निराशा जताने के बावजूद किया है। कमिटी ने तर्क दिया कि बिल में सहमति की उम्र भारतीय अनुबंध अधिनियम में बहुमत की उम्र के अनुरूप होनी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि है और होनी भी चाहिए। हालाँकि, सभी इंटरनेट-आधारित सेवाओं तक पहुँचने के लिए सहमति देने की सीमित उम्र अनुचित है। 

समिति ने वैध अनुबंध में प्रवेश करने के लिए कानूनी उम्र और इंटरनेट-आधारित सेवाओं तक पहुंचने के लिए सहमति की उम्र को अनावश्यक रूप से मिला दिया है। एक तरफ, संसद ने बाल श्रम संशोधन (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 2016 बनाया है, जो भारत अनुबंध अधिनियम से मेल नहीं खाता है, जिसमें 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे को गैर-खतरनाक व्यवसायों और प्रक्रियाओं में नियोजित किया जा सकता है। पर इस अधिनियम में, न तो नियोक्ता के साथ अनुबंध करने की कानूनी उम्र और न ही अभिभावक की सहमति का कोई उल्लेख है। यह केवल बाल श्रम को वैध बनाने का प्रयास करता है। दूसरी ओर, सरकार बच्चों की इंटरनेट एक्सेस करने के अधिकार को छीन लेना चाहती है और उसे इस ख्याल के साथ उनके माता-पिता को सौंपना चाहती है कि वे ही अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि वे किसके लिए और क्या सहमति दे रहे हैं। यह प्रस्ताव देते हुए शायद कमिटी ने देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक वास्तविकताओं की अनदेखी की है। 

इंटरनेट ने बच्चों, विशेष रूप से लड़कियों को खुद को इस तरह व्यक्त करने का अवसर प्रदान किया है, जो बहुत सारे माता-पिता को स्वीकार्य नहीं हो सकता है। बहुत सरल शब्दों में कहें तो परम्परागत भारतीय परिवारों में गोपनीयता एक मिथक है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में बच्चों की ओर से माता-पिता से सहमति मांगना न केवल महिलाओं की निजता के लिए प्रतिकूल होगा, बल्कि इंटरनेट तक पहुंच के मामले में इसका नतीजा लैंगिक असमानता होगा। एक व्यापक कानून के साथ डेटा के प्रसंस्करण को सीमित करने पर एडटेक कंपनियों और गैर-सरकारी संगठनों, जो शैक्षिक और गैर-शैक्षिक दोनों को कवर करता है, उनका दुख और बाल कल्याण संस्थान एक अन्य प्रमुख चिंता का विषय है।

सहमति के बिना व्यक्तिगत डेटा का प्रसंस्करण

क्लॉज 12 में एक अत्यधिक विवादास्पद प्रावधान रखा जाना अप्रत्याशित था। जिसमें कहा गया है कि व्यक्तियों की सहमति के बिना डेटा प्रोसेसिंग का प्रावधान करने वाले मसौदा विधेयक पर समिति द्वारा विचार नहीं किया जाएगा। 

समिति की रिपोर्ट की ऐसा ही एक उल्लेखनीय खामी इजरायली सॉफ्टवेयर पेगासस के जरिए सरकार द्वारा अपने नागरिकों की अवैध जासूसी के आरोपों के आलोक में उसकी रोकथाम पर धारा 35 पर विचार-विमर्श नहीं किया जाना है। धारा 35 विधेयक में निजी डेटा तक पहुंचने के लिए सरकार को व्यापक छूट दी गई है। यदि दोनों खंडों को एक साथ पढ़ा जाता है, तो इसका मतलब यह होगा कि व्यक्तिगत डेटा तक किसी भी सरकारी एजेंसी की अप्रतिबंधित पहुंच के लिए उसे कानून के दायरे से बाहर रखा जा सकता है, और इस प्रकार एक शक्तिशाली निगरानी राज्य का निर्माण किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, राष्ट्रीय पहचान कार्यक्रम जैसी निगरानी परियोजनाएं अब सरकार के लिए एक काल्पनिक परियोजना नहीं, बल्कि एक वास्तविकता होगी। 

सरकार को उसकी निजी संतुष्टि एवं "सार्वजनिक व्यवस्था", "राष्ट्रीय संप्रभुता", "राष्ट्र की अखंडता और सुरक्षा" जैसे शब्दों की व्याख्या के आधार पर अपने नागरिकों की गोपनीयता में दखल देने के लिए बेलगाम शक्तियां प्रदान की गई हैं।

यहां तक कि श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट ने भी स्वीकार किया कि पुट्टुस्वामी जैसे ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में भी कहा गया है कि किसी न्यायिक या संसदीय प्रावधान के बिना या मजबूत सुरक्षा तंत्र के बगैर सरकार की व्यक्तिगत डेटा तक पहुंच, संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है। 

इसके अलावा, किसी भी सरकारी एजेंसी को विधेयक को लागू करने से छूट देने की शक्ति डेटा संरक्षण प्राधिकरण (जिसकी सदस्यता और इसे बनाने वाली चयन समिति की संरचना भी विवादास्पद है) को नहीं सौंपी गई है, इस निकाय को प्रस्तावित कानून को लागू करने का काम सौंपा गया है। इसकी बजाय, केंद्र को लिखित में दर्ज किए जाने वाले कारणों के लिए ऐसी एजेंसियों को अधिसूचित करने का अधिकार है। 

पुट्टुस्वामी मामले में सर्वोच्च न्यायालय के नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ के सर्वसम्मत फैसले ने निजता के मौलिक अधिकार की पुष्टि की। इसमें किसी व्यक्ति की निजता में राज्य के उल्लंघन के लिए चार शर्तें रखी गईं थीं। ये चार शर्तें हैं, राज्य की यह कार्रवाई को कानून द्वारा अनुमोदित होनी चाहिए, यह दखल आवश्यक होना चाहिए, यह आवश्यकता के अनुपात में होना चाहिए, और इस तरह के हस्तक्षेप के दुरुपयोग के खिलाफ प्रक्रियात्मक गारंटी होनी चाहिए। 

यदि रिपोर्ट को आलोचनात्मक दिमाग लगाए बिना उदारतापूर्वक पढ़ा जाए, तो यह कहा जा सकता है कि मसौदा विधेयक सर्वोच्च न्यायालय की उन चार शर्तों में से केवल तीन को पूरा करता है, और उसकी प्रमुख शर्त, यानी, शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए एक प्रक्रियात्मक तंत्र की गारंटी देने से चूक जाता है। राज्य की राजनीतिक आकांक्षा ने अपने नागरिकों की निजता की चिंताओं को गड़प कर लिया है। ऐसा लगता है कि समिति चाहती है कि सरकार व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा के लिए बने कानून के माध्यम से लोगों के डेटा पर नजर रखे, उसका यह रवैया ठीक इसके विपरीत है, जिसमें वह निजी संस्थाओं को ऐसा करने से रोकती है। 

इसके अलावा, रिपोर्ट छूट की अवधि पर चुप है, जैसे कि वह चाहती है कि सरकार को प्रवर्तन एजेंसियों को हमेशा के लिए छूट देने की शक्ति हासिल रहे। इस तरह की अनिश्चितकालीन छूट पुट्टुस्वामी के फैसले के अनुकूल नहीं लगती, जिसमें निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया गया था। 

इस पर पर्याप्त जोर नहीं दिया जा सकता है कि हमारे देश की भौगोलिक सीमाओं के भीतर ही व्यक्तिगत गोपनीयता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। क्लॉज 35 के तहत अनिश्चितकालीन एकमुश्त छूट और क्लॉज 12 के तहत "सार्वजनिक व्यवस्था" बनाए रखने के लिए डेटा प्रिंसिपल सहमति के बिना व्यक्तिगत डेटा तक अप्रतिबंधित पहुंच पर पुनर्विचार की जरूरत है। 

डेटा सुरक्षा प्राधिकरण की स्वतंत्रता और जवाबदेही

किसी को भी अपने स्वयं के मामले में न्यायाधीश नहीं होना चाहिए, यह प्राकृतिक कानून का एक मौलिक और व्यापक हिस्सा है, हालांकि, यह वर्तमान कानून में बिखरा हुआ लगता है। डेटा संरक्षण प्राधिकरण (डीपीए) निकाय, जिसे इसके प्रवर्तन के लिए प्रस्तावित कानून के तहत बनाया जाना है, वह राज्य से स्वतंत्र नहीं है। डीपीए, अपने गठन और सदस्यता संरचना में, सरकार का हिस्सा है, जो प्रस्तावित कानून के तहत संभावित उल्लंघनकर्ताओं में से एक है। 

मसौदा विधेयक में कहा गया है कि डेटा संरक्षण प्राधिकरण का एक अध्यक्ष एवं सात सदस्य होंगे। इसके अध्यक्ष और सदस्यों को केंद्र सरकार की सात सदस्यीय चयन समिति द्वारा नामित किया जाएगा। इस चयन समिति के गठन की कवायद केंद्र की ओर एकतरफा झुकी है क्योंकि इसके सात सदस्यों में से छह सदस्य या तो केंद्र द्वारा नियुक्त किए गए अधिकारी हैं या उसकी मर्जी पर सेवा में हैं। नागरिक समाज लंबे समय से यह मांग करता रहा है कि समिति में कम से कम एक सदस्य या तो कानून विशेषज्ञ होना चाहिए या न्यायपालिका से या उसकी समिति से हो, जिसमें भारत के महान्यायवादी शामिल हों, जो स्वयं ही केंद्र के कानून अधिकारी हैं। 

सदस्यों की विविधता और स्वतंत्रता एक ठोस और जवाबदेह डेटा सुरक्षा प्राधिकरण बनाने के लिए अपरिहार्य है। इसके अलावा, प्राधिकरण और उसकी चयन समिति दोनों में स्पष्ट शब्दों में नागरिक समाज के प्रतिनिधित्व का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इस प्रकार, प्रस्तावित डेटा संरक्षण कानून के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए और इसे बहुतायत रूप से स्वतंत्र बनाने के लिए, प्राधिकरण की संरचना को मसौदा बिल में परिभाषित किया जाना चाहिए, न कि इसे चयन समिति पर छोड़ देना चाहिए, जिसे स्वयं सरकार का एक विस्तारित हाथ के रूप में प्रस्तावित किया गया है। 

सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर, इंडिया समेत कई नागरिक समाजों ने समिति के अध्यक्ष को पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि वे एक व्यापक परामर्श प्रक्रिया सुनिश्चित करें जिसमें नागरिक समाज शामिल हों।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें 

Ugly Sides of Data Protection Bill and Fallacies of JPC Report

Data Protection
Law
Joint parliamentary committee report
data breach
State Surveillance
DATA LOCALISATION
Right to privacy

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