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भारत की असमान आर्थिक हालत : दिवाली पर सोने की ख़रीदारी में गिरावट और 600 मर्सिडीज़ की होम डिलीवरी
सरकार इतनी छोटी सी बात को नहीं समझ पा रही कि आज ज़रूरत कॉर्पोरेट की और मदद करने की नहीं बल्कि उन लाखों करोड़ों मज़दूरों, किसानों की मदद करने की है जिन्हें अगर बेहतर मज़दूरी और अनाज के दाम मिलेंगे तो उन्हीं पैसों से वे पारले जी बिस्किट, अमूल के चड्ढी बनियान और दिवाली जैसे त्यौहार में सोना नहीं तो चाँदी ख़रीद सकने की चाहत पूरी कर सकेंगे।
रविंद्र पटवाल
28 Oct 2019
car and gold

एक दशक पहले तक भारत दुनिया के कुल सोने के उत्पादन का एक चौथाई हिस्से का अकेला ख़रीदार था, लेकिन पिछले 3 सालों में उसकी यह चमक फीकी पड़ चुकी है और चीन फिर से पहले स्थान पर पहुँच चुका है। इन तीन वर्षों में यह मांग क़रीब 24% तक कम हुई है। भारतीय घरों में सदियों से यह मान्यता रही है कि सोना वह धातु है जो गाढ़े वक्त में किसी भी परिवार के हमेशा काम आता रहा है, और शादी ब्याह जैसे हर अवसर पर गाहे ब गाहे पहला मौक़ा मिलते ही इस धातु को अपने घर के पुराने बक्से में हिफ़ाज़त से रख लेने की परंपरा रही है।

लेकिन इस साल दिवाली में सोने के भाव में उछाल के साथ जेब में पैसे न होने के कारण ख़रीदारी में भारी मंदी देखी गई। क़रीब 40 टन सोने का कारोबार इस सीज़न में होता था, जिसके इस बार आधे पर रह जाने की उम्मीद थी, लेकिन धनतेरस तक इसने रफ़्तार पकड़ी और बाज़ार में अंतत: 30 टन सोने की बिक्री हुई, लेकिन फिर भी पिछले वर्ष की तुलना में यह 25% कम है।

इसके पीछे के कारणों पर अगर ग़ौर करें तो यह भारत में बढ़ती आर्थिक बदहाली का सूचक है, ख़ासतौर पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था और शहरी ग़रीबों के बीच। औद्योगिक इलाक़ों में जहाँ मज़दूरों और कर्मचारियों को आमतौर पर वेतन के साथ साथ बोनस बांटे जाते थे, उसकी जगह पिछले कई महीनों से छंटनी और तालाबंदी के चलते अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है। इस बार धनतेरस में दिल्ली में जहाँ केंद्र सरकार ने अनाधिकृत इलाक़ों को अधिकृत करने की घोषणा की है, उन इलाक़ों में सबसे अधिक झाड़ू ख़रीदकर घर लाते हुए देखा गया। सोने और चांदी की ख़रीदारी उनके लिए अब सपना हो चुका है। मध्यमवर्गीय परिवारों ने शुभ संकेत के रूप में अपने लिए ज़रूर चांदी के सिक्कों की ख़रीदारी की होगी।

मारुति की तुलना में मर्सिडीज़ की बिक्री के चौकाने वाले आंकड़े

ऑटो सेक्टर में भयानक मंदी जारी है। लेकिन इसमें दो कार निर्माताओं ने जो तेज़ी दिखाई है वह अपने आप में चौकाने वाली है। दक्षिण कोरियाई कार निर्माता किआ मोटर इंडिया को इस साल 50 हज़ार कारों की अग्रिम बुकिंग मिल चुकी है। धनतेरस के दिन इसने 2184 गाड़ियों की डिलीवरी की है, वहीं मर्सिडीज़-बेंज़ इंडिया ने उस एक दिन में 600 गाड़ियों की डिलीवरी की है। एक मर्सिडीज़ GLE की कीमत 67-99 लाख रूपये के बीच भारत में है। मर्सिडीज-बेंज इंडिया के अनुसार, इन 600 गाड़ियों में से तकरीबन आधी गाड़ियाँ दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में बेची गईं और शेष पंजाब, मुंबई, गुजरात, पुणे और कोलकता में डिलीवर की गईं। 

मर्सीडीज़-बेंज़ इंडिया के प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी मार्टिन स्चवेंक के अनुसार, “यह त्योहारों का सीज़न हमारे लिए काफ़ी संतोषजनक रहा, और सारे देश से हमारे उत्पादों को लेकर ज़बरदस्त उत्साह देखने को मिला है। हम GLE को मिल रहे रिस्पांस से बेहद उत्साहित हैं, जिसकी सारी बिक्री हमने अपने घोषित लक्ष्य से तीन महीने पहले ही कर डाली। दशहरा और नवरात्रि के दौरान 200 कारें अकेले गुजरात में बिकी हैं।"

भारत बनाम इंडिया

भारत में दो-तिहाई सोने की ख़रीदारी अकेले ग्रामीण भारत से होती आई है। आज भी फसल और मवेशियों से होने वाली आय का एक हिस्सा सोने के रूप में जमा करने का चलन ग्रामीण भारत में है। इसके साथ ही भारी संख्या में गावों से पलायन कर बसे शहरी ग़रीबों और निम्न मध्यम वर्ग में भी इस प्रवत्ति को देखा जा सकता है। बैंकों में घटती ब्याज़ दरों और पिछले साल की तुलना में इस साल सोने के भाव में 7000 रुपये के उछाल से भी इसे समझा जा सकता है। शेयर बाज़ार की तुलना में भी सोने में निवेश ने 10% अधिक रिटर्न दिया है। लेकिन इस सीज़न में ढेरों शादी-ब्याह के मुहूर्त के बावजूद सोने की ख़रीदारी में आई इस भारी गिरावट की वजह यह दर्शाती है कि अधिकांश भारतीय की जेब में पैसा ही नहीं है, फिर वह इस बारे में कैसे सोचें?

वहीँ दूसरी और, 67-99 लाख रुपये की क़ीमत वाली लक्ज़री कारों की ख़रीदारी में तेज़ी यह दर्शाने के लिए काफ़ी है कि भारत के शहरी अमीरों के पास धन की कोई कमी नहीं है। वे अपने धन और वैभव का पूर्ण प्रदर्शन सबसे अधिक अपनी सेडान के ज़रिये ही दिखाने में कोई संकोच नहीं करते। ये वही लोग हैं, जिन्हें केंद्र सरकार और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा हाल ही में कॉर्पोरेट टैक्स के रूप में ज़बरदस्त राहत दी गई है, जिसका विद्रूप प्रदर्शन मर्सिडीज़-बेंज़ की बिक्री में आई उछाल से देखा जा सकता है।

वैश्विक पूंजीवादी संकट में तेज़ी से बढ़ती असमानता

लेकिन यह असमानता सिर्फ़ भारत में ही तेज़ी से नहीं बढ़ रही। उदहारण के लिए हाल के दिनों में लातिनी अमेरिकी देशों के बीच सम्पन्न माने जाने वाले देश चिली में हो रहे उग्र प्रदर्शनों से इसे समझा जा सकता है।

इस आंदोलन की शुरुआत मेट्रो रेल के किरायों में हुई वृद्धि के विरोध से शुरू हुई थी। लेकिन जल्द ही चिली में पूरी आर्थिक व्यवस्था पर प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं और अब यह आंदोलन अपने हिंसक स्वरूप में खड़ा हो चुका है। लोग लगातार महंगी होती शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, परिवहन, और रिटायरमेंट पेंशन के सवालों को लेकर सड़कों पर हैं। 

दक्षिणी अमेरिका के अन्य देशों में भी यह ग़ुस्सा फूट रहा है, लेकिन चिली के बारे में विशेष रूप से ध्यान इसलिए दिए जाने की ज़रूरत है क्योंकि लातिनी अमेरिका के बीच चिली को एक उदहारण के रूप में लिया जाता रहा है। हाल के दशकों में लागू की गईं आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के चलते चिली के मध्य वर्ग की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी देखने को मिली है, और इसे विकसित देशों की श्रेणी से ठीक नीचे का दर्जा (मिडिल इकॉनमी) हासिल है। यहाँ तक कि यह धनी देशों के संगठन OECD का भी हिस्सा है। यहाँ के नागरिकों की औसत आयु 79 साल है जबकि अन्य लातिनी अमेरिकी देशों में यह 75 के क़रीब है।

लेकिन सरकार ने न सिर्फ़ शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी ज़रूरी चीज़ों का निजीकरण कर दिया है बल्कि पीने के पानी से लेकर वृद्धों के पेंशन भत्ते के भी निजीकरण करने का काम किया है।

25 अक्टूबर को 10 लाख से अधिक लोग राष्ट्रपति पिनेरा की बर्खास्तगी की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे थे। उनकी मांगों में शिक्षा, स्वास्थ्य और पेंशन में संशोधन के साथ नया संविधान बनाने की मांग प्रमुख है। मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक़ 26 अक्टूबर तक 19 नागरिक इन प्रदर्शनों में मारे गए हैं और क़रीब 2500 लोग घायल हुए हैं और 2840 लोगों को हिरासत में लिया गया है। नागरिकों को प्रताड़ित करने और उनके साथ यौन दुर्व्यवहार के साथ ही हिंसक घटनाओं की कई ख़बरें आ रही हैं। 27 अक्टूबर को राष्ट्रपति ने अपने सभी कैबिनेट मंत्रियों को बर्खास्त कर दिया है।

क्या भारत और चिली के बीच तुलना करना सही है?

आबादी के लिहाज़ से जल्द ही दुनिया का सबसे बड़ा देश बनने की कगार पर खड़े देश भारत के सामने चिली की तुलना में कई हज़ार गुना अधिक जटिलताएं हैं। एक छोटे देश के ऊपर चढ़ने और नीचे गिरने के बीच संभलने के लिए सैकड़ों मौक़े हो सकते हैं, लेकिन भारत जैसे विशालकाय देश के लिए ऐसा कर पाना नामुमिकन जैसा है।

2008 की वैश्विक मंदी में मनमोहन सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश को बढ़ाकर देश को इसकी चपेट में आने से अवश्य रोका था, लेकिन बैंकों के ज़रिये लाखों करोड़ रुपयों को जिस तरह कॉर्पोरेट को ऋण के रूप में बांटा गया, उसके दुष्परिणाम आज भयावह रूप से सामने आ रहे हैं। 2014 से मोदी युग की शुरुआत ने इसे बढ़ाने का ही काम किया है, यह आज जगज़ाहिर है।

आज पारले जी जैसे 5 रुपये के बिस्किट को तरसते करोड़ों ग्रामीण और शहरी भारतीय हैं, जो सोने की ख़रीदारी का अब सपना भी नहीं देख सकते, वहीँ दूसरी ओर किआ मोटर्स जैसे 9 लखिया और मर्सिडीज़-बेंज़ जैसी 69-99 लाख रुपयों वाली लक्ज़री गाड़ियों को अपने क़ब्ज़े में दिखाने की भूख के बीच सरकार इतनी छोटी सी बात को नहीं समझ पा रही कि आज ज़रूरत कॉर्पोरेट की और मदद करने की नहीं बल्कि उन लाखों करोड़ों मज़दूरों, किसानों की मदद करने की है जिन्हें अगर बेहतर मज़दूरी और अनाज के दाम मिलेंगे तो उन्हीं पैसों से वे पारले जी बिस्किट, अमूल के चड्ढी बनियान और दिवाली जैसे त्यौहार में सोना नहीं तो चाँदी ख़रीद सकने की चाहत पूरी कर सकेंगे। बदले में यही उद्योंगों के लिए संजीवनी का काम करेगी, और देश में छाई मंदी का दुश्चक्र कम हो सकेगा।

मोदी सरकार को चाहिए कि वह तत्काल अपना सारा ध्यान अपने उन मतदाताओं की ओर दे, जिन्हें अच्छे दिन, 15 लाख, हर साल 1 करोड़ रोज़गार की गारंटी और फसल के दोगुने दाम का वादा किया गया था। लेकिन उन वादों का कुछ नहीं हुआ, और जनता को देश्ब हकती, पुलवामा के नाम पर बरगलाया तो गया, लेकिन ये हर बार नहीं हो सकता। अभी इसका हालिया संकेत हरियाणा और महाराष्ट्र चुनावों में बग़ैर किसी मज़बूत विपक्ष के इन दो राज्यों की मामूली जनता ने दिया है, लेकिन देश की आर्थिक नीतियाँ अगर इसी तरह बदस्तूर जारी रहीं, तो भारत को भी जल्द चिली बनने से नहीं रोका जा सकता।

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