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महिलाओं के बिना असंभव थी मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा
मानव अधिकार केवल कागजों में सिमटे शुष्क आदर्श बनकर रह जाते यदि उन्हें महिलाओं की संवेदनशील जीवन दृष्टि का स्पर्श नहीं मिलता।
डॉ. राजू पाण्डेय
10 Dec 2020
Lakshmi N. Menon and Hansa Jivraj Mehta
यूडीएचआर के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली भारतीय प्रतिनिधि लक्ष्मी एन मेनन (बाएं) और हंसा मेहता (दाएं)

यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स (यूडीएचआर) को उसका निर्णायक और अंतिम स्वरूप देने में महिलाओं की भूमिका प्रायः अचर्चित रही है जबकि वास्तविकता यह है कि बिना महिलाओं के योगदान एवं हस्तक्षेप के मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा सर्वसमावेशी नहीं बन पाती बल्कि इसके एकांगी होकर पुरुषों के अधिकारों की सार्वभौम घोषणा बन जाने का खतरा था। इस घोषणा को तैयार करने में महिलाओं के योगदान को तो कम महत्व दिया ही जाता है किंतु इसके निष्पादन में भारतीय उपमहाद्वीप की महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को तो बिल्कुल उपेक्षित कर दिया गया है।

एलेनोर रोसवैल्ट (1884-1962) 1933 से 1945 तक संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रथम महिला रहीं। उनकी असाधारण योग्यताओं को देखते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने उन्हें दिसंबर 1945 में यूनाइटेड नेशन्स की जनरल असेंबली में बतौर प्रतिनिधि नियुक्त किया। अप्रैल 1946 में एलेनोर रोसवैल्ट को कमीशन ऑन ह्यूमन राइट्स का पहला चेयरपर्सन बनाया गया। उन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के ड्राफ्ट निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 28 सितंबर 1948 के अपने एक उद्बोधन में उन्होंने यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स को विश्व के प्रत्येक मनुष्य के अंतरराष्ट्रीय मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी।

वह समय पूर्व और पश्चिम के बढ़ते तनावों का था किंतु एलेनोर रोसवैल्ट की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता उन्हें सभी पक्षों के लिए स्वीकार्य बनाती थी, यही कारण था कि मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा मूर्तरूप ले सकी और इसे 10 दिसंबर 1948 को एकमत से अंगीकार किया गया, केवल सोवियत ब्लॉक के छह देश तथा सऊदी अरब और दक्षिण अफ्रीका मतदान के दौरान अनुपस्थित रहे। एलेनोर रोसवैल्ट को मरणोपरांत 1968 में संयुक्त राष्ट्र शांति पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। 

डेनमार्क की बोडिल गरट्रूड बेगट्रप(1903-1987) एक जानी मानी राजनयिक थीं  और महिलाओं के अधिकारों के लिए निरंतर संघर्षरत रहा करती थीं। वे 1947 में संयुक्त राष्ट्र के कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन की प्रमुख बनीं। वे यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स में कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं के समावेश हेतु जानी जाती हैं। उन्हीं के प्रयासों से मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा में “सभी” अथवा “प्रत्येक” को मानव अधिकारों के धारक के रूप में स्वीकारा गया अन्यथा इसके पहले “ऑल मेन” का प्रयोग किया गया था।

उनके विचार अपने समय से बहुत आगे थे। उन्होंने शिक्षा के अधिकार संबंधी अनुच्छेद 26 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को समाविष्ट करने का प्रस्ताव दिया किंतु वह विवादित होने के कारण स्वीकार नहीं किया जा सका। यही कारण है यूडीएचआर में अल्पसंख्यक अधिकारों का पृथक उल्लेख नहीं है, हां, यह सभी के लिए समान अधिकारों की गारंटी अवश्य करता है। 

फ्रांस की मेरी हेलेन लीफाशो (1904-1964) संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा के उद्घाटन सत्र में सम्मिलित होने वाले फ्रांसीसी प्रतिनिधिमंडल की एकमात्र महिला सदस्य थीं। उन्हें यूनाइटेड नेशंस कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन के 15 संस्थापक सदस्यों में से एक होने का गौरव प्राप्त है। वे 1948 में इसकी चेयरपर्सन बनीं। उन्हें दूसरे अनुच्छेद में “लिंग के आधार पर भेदभाव” न किए जाने के स्पष्ट उल्लेख हेतु श्रेय दिया जाता है। उनके प्रयासों दूसरे अनुच्छेद का अंतिम रूप निम्नानुसार निर्धारित हुआ- इस घोषणा में उल्लिखित सभी अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए प्रत्येक व्यक्ति बिना  किसी प्रकार के भेदभाव (यथा नस्ल,रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या वैचारिक भिन्नता,राष्ट्रीयता या सामाजिक उद्गम, संपत्ति, जन्म या अन्य दशा पर आधारित भेदभाव) के पात्र रहेगा।

बेलारशियन सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक की एवदोकिया यूरोलोवा (1902-1985)ने 1947 में  यूनाइटेड नेशंस कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन में रैपोर्टर के रूप में अपनी भूमिका सम्यक रूप से निभाई। उन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में महिलाओं हेतु समान वेतन के प्रावधान के लिए जबरदस्त प्रयास किया। यह उन्हीं के प्रयासों का परिणाम था कि हम आज अनुच्छेद 23 को उसके वर्तमान स्वरूप में देखते हैं- 'प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के समान कार्य हेतु समान वेतन का अधिकार है।"

किंतु एवदोकिया यूरोलोवा ने इस घोषणापत्र के निर्माण में एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान दिया था जिसकी चर्चा कम ही होती है। उन्होंने पोलैंड की कालिनोस्का तथा यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक की पोपोवा के साथ मिलकर गैर स्वशासित इलाकों के लोगों के मानवाधिकारों के अनुच्छेद 2 में समावेश हेतु संघर्ष किया। इस विषय पर तब कम ही लोगों का ध्यान गया था।

मिनर्वा बर्नार्डिनो (1907-1998) महिलाओं के अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निरंतर प्रयास करती रहीं। वे 1950 में संयुक्त राष्ट्र संघ में डोमिनिकन रिपब्लिक की प्रतिनिधि नियुक्त हुईं। वे उन चार महिलाओं में थीं जिन्होंने 1945 में सान फ्रांसिस्को में संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर किए थे। वे इस चार्टर में महिलाओं के अधिकारों को सम्मिलित कराने तथा लैंगिक आधार पर  भेदभाव न करने जैसे विषयों को समाविष्ट कराने में कामयाब रहीं। इस कार्य में ब्राज़ील की बर्था लुट्ज़ और उरुग्वे की इसाबेल डी विडाल ने उनकी बड़ी मदद की। वे 1953 में यूनाइटेड नेशंस कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन की अध्यक्ष भी रहीं। उन्होंने यूडीएचआर की प्रस्तावना में “स्त्री और पुरुषों की समानता” को शामिल करने हेतु बड़ी मजबूती से अपना पक्ष रखा।

अब चर्चा भारतीय उपमहाद्वीप की उन महिलाओं की जिन्होंने यूडीएचआर के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हंसा जीवराज मेहता (1897-1995) ने महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर स्वाधीनता आंदोलन में  बढ़ चढ़ कर भागीदारी की और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार समेत अन्य गतिविधियों में सम्मिलित रहीं। वे 1932 में अपने पति के साथ जेल भी गईं। स्वतंत्रता के बाद वे संविधान सभा की सदस्य चुनीं गईं। संविधान सभा में कुल 15 महिलाओं को प्रतिनिधित्व मिला था। वे मौलिक अधिकारों के निर्धारण संबंधी समिति की सदस्य भी रहीं।

हंसा मेहता ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में देश के प्रतिनिधि के रूप में 1947-48 में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें यूडीएचआर के आर्टिकल 1 में एक महत्वपूर्ण भाषागत सुधार हेतु जाना जाता है। पहले इसमें “ऑल मेन आर बॉर्न फ्री एंड इक्वल” लिखा गया था जिससे एलेनोर रोसवैल्ट भी सहमत थीं किंतु हंसा मेहता ने अपने प्रखर तर्कों से इसे संशोधित करने हेतु बाध्य कर दिया, इसे बदल कर “ऑल ह्यूमन बीइंग्स आर बॉर्न फ्री एंड इक्वल” किया गया। कालांतर में 1950 में हंसा मेहता संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग की वाईस चेयरमैन बनीं।

बेगम शाइस्ता सुहरावर्दी इकरामुल्लाह(1915-2000) जानी मानी पाकिस्तानी राजनेत्री, राजनयिक और लेखिका थीं। उन्हें लंदन विश्विद्यालय से पीएच डी की उपाधि प्राप्त करने वाली प्रथम मुस्लिम महिला होने का गौरव प्राप्त है। वे संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा की सामाजिक-सांस्कृतिक तथा मानवीय विषयों की तीसरी समिति में प्रतिनिधि थीं। इस समिति ने यूडीएचआर के मसौदे पर चर्चा करने के लिए 1948 में 81 बैठकें की थीं। उन्हें यूडीएचआर में आर्टिकल 16 को सम्मिलित कराने का श्रेय दिया जाता है जो विवाह के संबंध में महिलाओं को बराबरी के अधिकार प्रदान करता है। उनका मानना था कि अनुच्छेद 16 बाल विवाहों और दबावपूर्वक होने वाले विवाहों की रोकथाम में सहायक सिद्ध होगा। उन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में महिलाओं को स्वतंत्रता, समानता और चयन के अधिकार दिलाने के लिए प्रयास किया। 

लक्ष्मी एन मेनन (1899-1994) ने स्वाधीनता संग्राम सेनानी एवं राजनेत्री  के रूप में ख्याति अर्जित की। वे राज्यसभा की 1952,1954 और 1960 में सदस्य चुनी गईं। वे नेहरू जी और शास्त्री जी के मंत्रिमंडल में विदेश राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) रहीं और देश की विदेश नीति के निर्माण में उनकी अग्रणी भूमिका रही। उन्होंने केरल में इसरो की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके जीवन का उत्तरार्ध लेखन एवं समाज सेवा को समर्पित रहा। इंग्लैंड में पढ़ाई करते समय लक्ष्मी को 1927 में मॉस्को जाने का अवसर मिला जहाँ वे सोवियत संघ की दसवीं वर्षगाँठ के अवसर पर आयोजित समारोह में एक छात्र प्रतिनिधिमंडल की सदस्या के रूप में सम्मिलित हुईं। यहाँ उनकी मुलाकात जवाहरलाल नेहरू से हुई। उनसे प्रभावित होकर वे राजनीति में आ गईं। उन्हें 1948 एवं 1950 में संयुक्त राष्ट्र हेतु भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में नामित किया गया। उन्हें संयुक्त राष्ट्र की कमेटी ऑन स्टेटस ऑफ वीमेन का सदस्य भी बनाया गया। उन्होंने इस बात की आवश्यकता बताई कि संपूर्ण यूडीएचआर में स्थान स्थान पर इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि लैंगिक आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। उन्होंने भी प्रस्तावना में इक्वल राइट्स फ़ॉर मेन एंड वीमेन के उल्लेख की पुरजोर वकालत की।

लक्ष्मी मेनन ने उस मानसिकता को सिरे से खारिज कर दिया जो औपनिवेशिक शासन के अधीन रहने वाले देशों के नागरिकों को किसी भी तरह के मानव अधिकार देने का विरोध करती थी। उन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौमिकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि यदि महिलाओं और उपनिवेशों में रहने वाले लोगों का मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा में पृथक से उल्लेख नहीं किया जाएगा तो इन्हें “एवरीवन” की परिधि से बाहर मान लिया जाएगा।

इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स को सच्चे अर्थों में यूनिवर्सल बनाने में महिलाओं की अविस्मरणीय भूमिका रही। मानव अधिकार केवल कागजों में सिमटे शुष्क आदर्श बनकर रह जाते यदि उन्हें महिलाओं की संवेदनशील जीवन दृष्टि का स्पर्श नहीं मिलता। जैसा एलेनोर रोसवैल्ट ने कहा-“आखिरकार सार्वभौमिक मानवाधिकारों की शुरुआत कहाँ से हुई? यह शुरुआत हुई छोटी जगहों से, घर के पास वाली छोटी जगहें- इतनी नजदीक और इतनी छोटी कि यह किसी भी नक्शे में दिखाई नहीं देंगी। यदि यह अधिकार उन घर के नजदीक वाली छोटी जगहों के लिए उपयोगी और अर्थपूर्ण नहीं हैं तो फिर इनका महत्व शायद किसी भी स्थान के लिए नहीं होगा। घरों के नजदीक इन मानव अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस नागरिक प्रयत्नों के अभाव में विराट विश्व में मानवाधिकारों के विकास की कल्पना करना भी व्यर्थ है।”

आज जब हम एक बलात्कारी, परपीड़क, हिंसक, धर्म संचालित पितृसत्तात्मक समाज एवं शासन व्यवस्था बनने की ओर अग्रसर हैं जहाँ देश के अनेक राज्यों में लिंगानुपात चिंताजनक रूप से कम है और अनेक राज्यों में नारियों की जीवन साथी चुनने की क्षमता पर संदेह किया जा रहा है तब मानव अधिकारों की इस सार्वभौमिक घोषणा को रूपाकार देने वाली इन महिलाओं से प्रेरित होने की आवश्यकता है तभी हम इन कठिन परिस्थितियों का मुकाबला कर सकेंगे।

(डॉ. राजू पाण्डेय स्वतंत्र लेखक एवं चिंतक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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