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तोहमतें आएंगी नादिरशाह पर, आप दिल्ली रोज़ ही लूटा करो!
पहला लॉकडाउन केवल और केवल केंद्र सरकार का फैसला था जिसे राज्यों में लागू होना था। दूसरे लॉकडाउन से पहले राज्यों के साथ परामर्श की औपचारिकता की गयी और अब जो तीसरा लॉकडाउन है, इसे चलाने का पूरा दारोमदार राज्यों के ऊपर डाल दिया गया है।
सत्यम श्रीवास्तव
05 May 2020
 लॉकडाउन
Image Courtesy: The Financial Express

कल 4 मई से हिंदुस्तान में देशबंदी या लॉकडाउन का तीसरा चरण शुरू हो गया है। यह लॉकडाउन जिसे 3.0 कहा जा रहा है वह आभासी है। आभासी मतलब इसमें कुछ भी बंद नहीं है।

पहला लॉकडाउन केवल और केवल केंद्र सरकार का फैसला था जिसे राज्यों में लागू होना था। दूसरे लॉकडाउन से पहले राज्यों के साथ परामर्श करने की औपचारिकता की गयी और इसे एक तरह से संघीय ढांचे के हिसाब से देशव्यापी लॉकडाउन तय करना माना जा सकता है। अब जो तीसरा लॉकडाउन है, इसे चलाने का पूरा दारोमदार राज्यों के ऊपर डाल दिया गया है।

एक दिलचस्प तथ्य है जिसे सब जानते होंगे पर कई बार अति-परिचय का शिकार हो जाने से उस पर निगाह नहीं जाती। यह तथ्य है कि हिंदुस्तान एक संघीय गणराज्य है जिसमें 29 प्रदेश और 7 केंद्र शासित प्रदेश हैं। और चूंकि यह एक संघीय गणराज्य है अतएव यहाँ केंद्र जैसा कुछ होता नहीं है लेकिन संघीय सरकार को केंद्र सरकार कहने का चलन स्थापित हो चुका है इसलिए इस पर कोई दोबारा सोचता नहीं है।

अब जो दिलचस्प तथ्य है वो ये कि इस भू-भाग पर संघीय या केंद्र सरकार द्वारा लिया गया कोई भी फैसला अंतत: किसी राज्य के तहत ही क्रियान्वित होता है। यहाँ तक कि केंद्र शासित प्रदेश जिन्हें कहा जाता है वहाँ भी कई राज्यों में विधानसभाएं हैं जहां कुछ जिम्मेदारियाँ नितांत उन प्रदेशों की सरकारों की होती हैं। कई मसलों पर पूरी स्वायत्तता भी इन्हें हैं।

इसलिए पहला लॉकडाउन जब 24 मार्च को रात 8 बजे घोषित किया गया तब भी उसका पालन करवाने का जिम्मा राज्यों के ऊपर आया। दूसरा लॉकडाउन माना गया कि उनके परामर्श से हुआ जिसका पालन भी उन्हें ही करवाना पड़ा। अब तीसरा लॉकडाउन जो 4 मई से शुरू हुआ है उसमें जो रियायतें संघीय सरकार ने सुझाई हैं उनका पालन करवाना भी राज्यों के ऊपर निर्भर करता है।

पहला और दूसरा लॉकडाउन सुनिश्चित करवाना इतना दुरूह काम न था क्योंकि उसमें संघीय या केंद्र सरकार शामिल थी और ज़िम्मेदारी भी महज़ ये सुनिश्चित करना था कि कोई भी इस लॉकडाउन का उल्लंघन न करे। इसे कानून-व्यवस्था के मामले में असीमित अधिकार लेकर कराया जाना आसान रहा।

मोटे तौर पर भारत में 40 दिनों का लॉकडाउन सफल रहा। सवा सौ अरब की आबादी में कुछ छिट-पुट घटनाएँ हुईं जो अपवाद मानी जा सकतीं हैं लेकिन इन्हें छोड़कर देश के इतने बड़े जन समुदाय ने अपना भरपूर सहयोग दिया है।

दो रोज़ पहले यानी 3 मई को मुकुल सरल ने यही एक बहुत वाज़िब सवाल उठाया था कि 3 मई का दिन बहुत महत्व का दिन था और 40 दिनों की सम्पूर्ण देशबंदी का अंतिम दिन था। ऐसे में इन 40 दिनों का सम्यक मूल्यांकन किया जाना था कि कैसे इन 40 दिनों में देश ने क्या कदम उठाए, कोरोना के बढ़ते खतरे को कैसे नियंत्रित किया गया और भविष्य के लिए क्या योजनाएँ या रणनीतियाँ बनाई गईं हैं ताकि देश का सामान्य कारोबार चले और कोरोना के संक्रमण को भी बढ़ने से रोका जा सके। इसके बजाय देश की पेशेवर सेना को कोरोना वॉरियर्स को सलामी देने के काम पर लगाकर खुद कोई ज़िम्मेदारी लेने से बचा गया।

क्या देश की संघीय सरकार के पास कोई ठोस और वाज़िब तर्क है कि जब 24 मार्च की मध्य रात्रि से देश भर में सख्त लॉकडाउन की घोषणा की गयी तब कोरोना संक्रमितों की संख्या महज़ 500 थी और 12 लोगों की मृत्यु कोरोना की वजह से होना बताया गया था। 21 दिन बाद यानी 14 अप्रैल को मरीज़ों की यह संख्या 11154 पर पहुँच गयी और इसके सामुदायिक प्रसार की संभावनाओं को देखते हुए 19 दिनों के लिए देशबंदी की मियाद बढ़ा दी गयी। तमाम कारोबार पूर्ववत बंद रखे गए।

कल, 4 मई को कोरोना संक्रमितों की संख्या 42000 से ज़्यादा थी। और आज 5 मई को संख्या 46 हज़ार के पार पहुंच गयी है और 15 सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।

तीसरा लॉकडाउन 80 प्रतिशत जन जीवन सामान्य करते हुए अगले 14 दिनों के लिए बढ़ा दिया गया है। अब बहुत बुनियादी और मौलिक सवाल है कि अगर 500 या 11,000 मामलों पर इतना सख्त कदम उठाया गया तो 40,000 से पार जा चुके मामलों में यह रियायतें क्यों दी जा रहीं हैं?

इस दौरान हम शराब की दुकानों की खबरों को तमाम न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया पर देख रहे हैं। किस तरह से लोग लॉकडाउन से पैदा हुई एकरसता और उबाऊपन को तोड़ने के लिए जद्दोजहद करते नज़र आ रहे हैं। भयंकर अराजकता का माहौल बन रहा है। इसके अलावा सड़कों पर बेतहाशा आवाजाही बढ़ गयी है। लोग अपने काम-धंधों पर लौट रहे हैं। कई दफ्तर खोल दिये गए हैं। ऐसे में सामुदायिक प्रसार के खतरों को लेकर कोई बात नहीं हो रही है। हालांकि स्टेज 3 का जो डर पहले दो लॉकडाउन के लिए इस्तेमाल किया गया अब उसका ज़िक्र कहीं सुनने नहीं मिल रहा है। 

हाल ही में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस बीमारी को ‘सामान्य मौसमी फ्लू’ जैसा बताया। यह उनकी नाकाम प्रयासों को ढंकने का एक जुमला भी हो सकता है लेकिन क्या यही असल बात भी है?

अगर जनजीवन पटरी पर वापस लाना है तो क्या राज्य सरकारों ने यह तैयारी की है कि अतिरिक्त कार्यबल तैनात किया जाएगा? जब लोग अपने अपने घरों में थे तब जितना कार्यबल तैनात था उससे कितने गुना ज़्यादा की ज़रूरत होगी? उसकी क्या व्यवस्था की गयी है? कल किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री का इस संबंध में कोई बयान सुना नहीं गया। खुद केंद्र सरकार इस पूरी परिस्थिति को कैसे संभालेगी या क्या इंतज़ामात किए जा रहे हैं, हम यह भी नहीं जानते।

इस बीच दिल्ली में मची अफ़रातफरी पर देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन का एक बयान शाया हुआ –‘ये देखकर बुरा लग रहा है। राज्य सरकार को चाहिए कि लॉकडाउन में ढील या रियायतें देने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे’। यानी अब सारी ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी गयी।

शराब या दूसरे कारोबार खोलना राज्य सरकारों की मजबूरी भी है क्योंकि सबसे ज़्यादा राजस्व यहीं से पैदा होता है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बेबाकी से यह कहा है कि “पंजाब सरकार को साल भर में आबकारी से 6500 करोड़ का राजस्व मिलता है। हम इसे कैसे छोड़ सकते हैं। अगर केंद्र सरकार इस राजस्व घाटे की भरपाई कर दे तो हम दुकानें नहीं खोलेंगे”। इसके अलावा उन्होंने केंद्र सरकार से राज्य के बकाया जीएसटी का भी तगादा किया। दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री भी अपने बकाया जीएसटी के लिए बार बार केंद्र सरकार को कह रहे हैं लेकिन इस बात पर केंद्र सरकार का बेसाख्ता ठंडा रवैया है। कैप्टन  ने तो यहाँ तक कहा है कि अगर कारोबार बहाली नहीं होती है तो आने वाले महीनों में कर्मचारियों को तनख्वाह देना मुश्किल हो जाएगा। राजस्व भरपाई की बात केजरीवाल जी ने भी की हालांकि जीएसटी का तगादा उनके बयान में नहीं था।

इस बीच भारत सरकार ने ऐसे कितने ही फैसले लिए हैं जो आने वाले समय की कुछ आहट तो देते हैं कि 40 दिनों में अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान की भरपाई कैसे की जाएगी। इनमें किसी परियोजना को स्थापित करने के लिए अनिवार्य पर्यावरण प्रभाव आंकलन में भारी ढील देना, इलेक्ट्रिसिटी एक्ट में निजी मुनाफे को बढ़ावा देने के लिए की गईं तब्दीलियाँ या बैंकिंग सेक्टर में हो रहे आमूल बदलाव। हालांकि कोरोना के साथ रहने की आदत के साथ इससे सामंजस्य बनाने के लिए क्या ठोस उपाय किए जा रहे हैं इसके बारे में कुछ बात नहीं हो रही है।

कल जिस तरह से लॉकडाउन खोला गया जिससे पैदा हुई अफ़रातफरी में फिर से गंभीर प्लानिंग या चिंतन का अभाव दिखलाई पड़ रहा है। तीन मई के जश्न के बाद वैसे भी यह भ्रम फैला है कि देश से कोरोना की समाप्ति हो गयी है। ऐसे में सरकार को दो बातों का स्पष्ट और तर्कसंगत जवाब देश को देना चाहिए कि क्या आपने अपने देश के नागरिकों को अब उनकी नियति पर छोड़ दिया है और उन्हें कोरोना के साथ रहने और जीने–मरने की परवाह खुद करनी चाहिए? या कोरोना वास्तव में इतना बड़ा ख़तरा कभी था ही नहीं?

इस लॉकडाउन के बहाने और बीच बीच में कई तरह के जो उत्सव प्रायोजित हुए उनसे केवल अपनी लोकप्रियता सुनिश्चित की गयी।

लगता है अब अपना पल्ला झाड़ते हुए सब कुछ राज्य सरकारों के ऊपर थोपकर केंद्र सरकार ने तोहमतें थोपने के लिए ‘नादिरशाह’ को ढूंढ लिया है ताकि आप यूं ही दिल्ली लूटते रहें। अब यह  देखना दिलचस्प होगा कि राज्य सरकारें अपने लोगों की हिफ़ाज़त करते हुए अपनी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को कैसे संभालती हैं और केंद्र सरकार की जवाबदेही कैसे सुनिश्चित करती हैं।

बाकी हर तोहमत लेने के लिए जनता तो है ही....

(लेखक सत्यम श्रीवास्तव पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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