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किसान आंदोलन उत्तर प्रदेश में सत्ता-विरोधी केमेस्ट्री में उत्प्रेरक की भूमिका निभाएगा
फ़र्ज़ी आंकड़ों, विज्ञापनों और गोदी मीडिया के बल पर खड़ी की गई झूठ की टाटी किसान आंदोलन और छात्र-युवा रोजगार आंदोलन के अभियान के आगे टिक नहीं सकेगी।
लाल बहादुर सिंह
31 Jul 2021
किसान आंदोलन उत्तर प्रदेश में सत्ता-विरोधी केमेस्ट्री में उत्प्रेरक की भूमिका निभाएगा
 फोटो साभार: Hindustan Times

26 जुलाई को, किसान-आंदोलन के 8 महीने पूरे होने के अवसर पर, लखनऊ में पत्रकार वार्ता करके आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व ने मिशन UP लांच करने का ऐलान किया। 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में विराट किसान महापंचायत इसका पहला पड़ाव है।

किसान नेता राकेश टिकैत के इस ऐलान को लेकर कि जरूरत होने पर हम लखनऊ को भी दिल्ली बनाएंगे, मीडिया में काफी हलचल रही। गोदी मीडिया ने एक बार फिर किसानों को बदनाम करने का अभियान छेड़ा तो IT सेल की ट्रोल आर्मी ने मजाक उड़ाने और धमकाने की मुहिम छेड़ी। यह इस बात को दिखाता है कि चोट बिल्कुल सही निशाने पर लगी है। किसान-आंदोलन के इम्पैक्ट को लेकर संघ-भाजपा खेमे में दहशत है। यह फिलहाल एक unknown entity है, इसकी मार कहाँ तक जाएगी कोई नहीं जानता। लोग इस बात को भूले नहीं हैं कि दादरी में ऐसे ही एक किसान आंदोलन की धमक ने 2007 में मुलायम सिंह यादव की सरकार की बलि ले ली थी।

मिशन UP के इस धमाकेदार आगाज के साथ किसान नेताओं ने यह साफ कर दिया है कि किसान-आंदोलन UP चुनाव में एक बड़ा प्लेयर होगा। मिशन UP के अंजाम पर किसान आंदोलन का तो भविष्य निर्भर है ही, देश का भी भविष्य निर्भर है। यह योगी ही नहीं मोदी की तकदीर का भी फैसला कर देगा।

क्या UP चुनाव के पहले किसान-आंदोलन पर कोई निर्णायक पहल करके मोदी जी बाजी पलटने की कोशिश करेंगे अथवा वे किसी चमत्कार की उम्मीद में UP के रिजल्ट का इंतज़ार करेंगे? इस सवाल का जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है।

जाहिर है, अब पूरे देश की निगाह उत्तर प्रदेश पर लगी हुई है।

पर लोग इस बात को देख कर दंग हैं कि जनता के मुद्दे कुछ और हैं, पार्टियों के कुछ और। जमीनी मुद्दे कुछ और हैं, राजनीति के मुद्दे कुछ और। असल मुद्दे कुछ और हैं, मीडिया द्वारा गढ़े जा रहे विमर्श के मुद्दे कुछ और। असली सरोकारों और नकली नारों के बीच इतनी बड़ी खाईं ( dualism ) शायद ही कभी रही हो।

आज सच्चाई यह है कि 5 साल की कथित डबल इंजन की सरकार के पास अपनी विदायी के समय भी गिनाने के लिए एक भी ठोस उपलब्धि नहीं है। आम जनमानस में यह धारणा घर कर गयी है कि पिछली सरकारों की तुलना में 5 साल में इस सरकार ने कोई विकास का काम नहीं किया। दरअसल, योगी सरकार प्रदेश के इतिहास में सबसे नाकारा सरकार के रूप में याद की जाएगी, जिसने विकास और उम्मीद की किरण तो नहीं ही दिखाई, उल्टे प्रदेश को 5 साल तक पुलिस-दबंग-गुंडा राज के साये तथा बहुसंख्यकवादी शासन-प्रशासन के तनाव भरे माहौल में जीने को मजबूर किया।

पूरे प्रदेश को 5 साल तक धीमी आंच पर साम्प्रदायिक आग की भट्ठी में सुलगाया गया- तीन तलाक, लव जिहाद, CAA-NRC, चुनिंदा मुसलमानों के खिलाफ कार्रवाइयां- वह डॉ0 कफील हों, सिद्दीक कप्पन जैसे पत्रकार हों, आज़म खान जैसे नेता हों या ऐसे ही प्रदेश के कोने-कोने में अनगिनत लोग।

जिस माफिया राज के खात्मे के लिए स्वयं मोदी ने योगी सरकार की बनारस में भूरि- भूरि प्रशंसा की, जिसे योगी जी अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताते हैं, वह और कुछ नहीं मुसलिम समुदाय के बाहुबलियों की selective targetting है, जबकि सत्ता संरक्षण प्राप्त तमाम माफिया निर्द्वन्द्व फल-फूल रहे हैं, सरकारी संपत्ति लूट रहे हैं और लोगों पर जुल्म ढा रहे हैं।

अपराधियों के उन्मूलन के नाम पर " कानून के राज " की सरेआम धज्जियाँ उड़ाई गईं, जब योगी जी की ठोंक दो नीति के तहत अनेक नौजवान "एनकाउंटर" में मारे गए। इनमें अधिकांश समाज के कमजोर तबकों से आते थे।

पूरे 5 साल सरकार मुस्लिम भयादोहन की messaging और उसके माध्यम से ध्रुवीकरण में लगी रही।

यह तो देश-प्रदेश के बदलते मिजाज का ही बैरोमीटर माना जाना चाहिए कि लाख उकसावे के बावजूद कोई गम्भीर कम्युनल clash नहीं हुआ और प्रदेश में साम्प्रदायिक सौहार्द बना रहा। निश्चय ही इसका श्रेय आम अवाम की सूझबूझ और आपसी भाईचारे की संस्कृति को दिया जाना चाहिए।

जाहिर है योगी सरकार के इस रोडमैप में विकास का एजेंडा कहीं था ही नहीं, सरकार के पास न इसके लिए समय था, न उसे इसकी कोई जरूरत थी।

इसी का नतीजा है कि स्वयं मोदी सरकार के नीति आयोग के अनुसार SDG सूचकांक ( Sustainable Development Goal index ) में उत्तर प्रदेश आज देश के सबसे फिसड्डी 5 राज्यों में है बिहार, असम, झारखंड के साथ। रिपोर्ट से यह बात  प्रमुखता से उभरती है कि आय की असमानता, गरीबी और भूख जैसे मानव विकास के पैमानों पर उत्तर प्रदेश का performance खासतौर से बेहद खराब है।

मनरेगा को कभी मोदी जी ने पिछली सरकारों की असफलता का भव्य स्मारक कहा था। आज गरीबों को 5 किलो मुफ्त अनाज की बड़ी-बड़ी होर्डिंग लगवाकर अपनी पीठ थपथपाते वे अपने उसी जुमले  सार्थक कर रहे हैं ( हालांकि यह उस  सरकारी खजाने के पैसे से दिया जा रहा है जिसमें गरीबों का भी अंशदान है। )

आज प्रदेश में आर्थिक तबाही और बेरोजगारी का आलम यह है कि दैनिक जागरण के अनुसार केवल जुलाई के महीने में प्रयागराज में 22 दिन में 18 लोगों की खुदकशी की दिल दहला देने वाली वारदातें हुई हैं।

इलाहाबाद जो शिक्षा और प्रतियोगी छात्रों का ऐतिहासिक केंद्र रहा है, वहां प्रतियोगी छात्रों के बीच बेरोजगारी के कारण गहरी हताशा और बेचैनी है, वे सालों से  खाली पड़े लाखों पदों की लंबित भर्ती प्रक्रिया को पूरा कराने के लिए लगातार सड़कों पर उतर रहे हैं। संवैधानिक प्रावधानों की खुले-आम अवहेलना की जा रही है। पिछले दिनों युवक-युवतियां 69000 शिक्षक भर्ती आरक्षण घोटाला की जांच और आरक्षण नियमावली के हिसाब से भर्ती की मांग लेकर लखनऊ में कई दिनों तक आंदोलन में डटे रहे, लेकिन उनकी न्यायोचित मांगे मानने की बजाय योगी सरकार ने उनके खिलाफ बल-प्रयोग किया।

अब नौजवानों ने प्रदेश में 5 लाख खाली पदों पर भर्ती की मांग को लेकर 9 अगस्त से लखनऊ के इको-गार्डन में अनिश्चितकालीन धरना-प्रदर्शन का ऐलान किया है।

किसान पिछले 8 महीने से दिल्ली बॉर्डर पर जीवन-मरण संग्राम में जूझ रहे हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादक किसानों का 13 हजार करोड़ भुगतान और उसका ब्याज मिलों पर बकाया है। मूलतः उपभोग के लिए उत्पादन करने वाले प्रदेश के अन्य हिस्सों के किसान लाभकारी मूल्य से तो वंचित हैं ही, लागत सामग्री की अंधाधुंध बढ़ती कीमतों ने उनकी कमर तोड़ दी है। देश में बिजली की सबसे ऊंची दरों से प्रदेश के किसान बेहाल हैं। किसानों की आत्महत्या अब उत्तरप्रदेश की भी परिघटना बनती जा रही है।

प्रदेश में स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्टर पूरी तरह ध्वस्त है जिसकी कोरोना ने सारी पोल खोल कर रख दी। कोरोना कुप्रबन्धन से होने वाली अपने प्रिय जनों की अनगिनत मौतों और उस दौर के खौफनाक मंजर को प्रदेश की जनता कभी भूल नहीं पाएगी।

जाहिर है आज प्रदेश में सरकार के खिलाफ जबरदस्त एन्टी -इनकमबेंसी है।

इससे निपटने के लिए संघ-भाजपा द्वारा हिंदुत्व और सोशल इंजीनियरिंग का पुराना घिसा कार्ड खेला जा रहा है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में इसी के लिए कैबिनेट reshuffle की कवायद की गई, अब सम्भवतः प्रदेश में भी इसे आजमाया जाएगा। मोदी समेत संघ भाजपा के सारे रणनीतिकार उस जादुई सामाजिक कोएलिशन को बचाने की जीतोड़ कोशिश में लगे हैं जिसने 2014, 17, 19 में भाजपा को केंद्र से लेकर राज्य तक में प्रचण्ड बहुमत दिलाया था। पर तब से गंगा जमुना में बहुत पानी बह चुका है, भाजपा ने तब हाशिये के तबकों को सत्ता में हिस्सेदारी का जो सपना दिखाया था, वह पूरी तरह धूल-धूसरित ही चुका है।

आज, जनता के विक्षोभ को भटकाने के लिए, BJP का सोशल इंजीनियरिंग पर इतना ज्यादा जोर देना समझ में आता है क्योंकि उनके पास जनता के जीवन से जुड़े सवालों पर कोई ठोस उपलब्धि है ही नहीं। पर, विपक्ष के दलों के लिए भी यही प्रमुख प्रश्न बन जाय, तो यह उनकी राजनीति का दिवालियापन ही कहा जायेगा और कॉउंटर-प्रोडक्टिव साबित होगा। यह एक तरह से भाजपा के बिछाए जाल में फंसना होगा और उनके सेट एजेंडा और पिच पर खेलना होगा।

आज जरूरत इस बात की है कि विपक्ष जनता के ज्वलंत प्रश्नों - आजीविका, रोजगार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सामाजिक-आर्थिक न्याय, सबके लिए इंसाफ, पुलिस-माफिया राज के खात्मे और लोकतांत्रिक-नागरिक अधिकारों की बहाली जैसे सवालों को लेकर, योगी सरकार की विराट असफलताओं पर धारदार हमला बोले, उसके द्वारा फैलाये गए भावनात्मक भ्रम के कुहासे को छिन्न भिन्न कर दे और व्यापक जनता को भाजपा के खिलाफ राजनैतिक तौर पर लामबंद करे।

यह साफ है कि जीवन से जुड़े ज्वलंत सवालों पर मोदी-योगी सरकारों के खिलाफ जनता के अंदर उमड़ते-घुमड़ते विक्षोभ को एक बड़े  लोकतान्त्रिक अभियान में तब्दील करके ही संघ-भाजपा की दैत्याकार चुनाव मशीनरी और मोदी-शाह-योगी तिकड़ी की शातिर चालों को मात दी जा सकती है।

विपक्ष को identity politics की सीमाओं और खतरों  को पहचानना चाहिए, आखिर इस राजनीति के अवसरवाद ने ही भाजपा को इतनी बड़ी ताकत बनने में भूमिका निभाई है। विपक्ष को भाजपा को घेरने की नई मुकम्मल रणनीति के साथ मैदान में उतरना होगा। इसमें बिहार, बंगाल का अनुभव भी मददगार साबित हो सकता है।

बंगाल में  भी भाजपा ने हिंदुत्व और identity politics की इंतहा कर दिया था, बिहार में भी भाजपा-नीतीश ने 20 साल यही किया था। लेकिन बंगाल में तो भाजपा की निर्णायक शिकस्त हुई ही, बिहार में भी करीब-करीब बाजी  पलट ही गयी थी। (कुल मात्र 12 हजार अधिक वोट या 0.02% की बढ़त से नीतीश की सरकार बनी है।)

बिहार में यह सम्भव हुआ, जनतान्त्रिक आंदोलन की शक्तियों,  वामपंथ, भाकपा (माले) जैसी ताकतों की मजबूत उपस्थिति व एकजुटता तथा रोजगार, सरकारी नौकरियों जैसे लोकतांत्रिक सवालों पर विपक्ष द्वारा भाजपा-नीतीश की बिल्कुल focussed, धारदार घेरेबन्दी से।

बंगाल में भी वाम-लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष नागरिक चेतना की सजगता तथा भाजपा के फासीवादी अभियान के खिलाफ विपक्ष के आक्रामक राजनैतिक प्रत्याक्रमण ने निर्णायक भूमिका निभाई।

उत्तर प्रदेश में भाजपा की पुनर्वापसी को रोकने में किसान-आन्दोलन यही भूमिका निभाएगा। फ़र्ज़ी आंकड़ों, विज्ञापनों और गोदी मीडिया के बल पर खड़ी की गई झूठ की टाटी किसान आंदोलन और छात्र-युवा रोजगार आंदोलन के अभियान के आगे टिक नहीं सकेगी।

किसान-आंदोलन भाजपा-विरोधी ताकतों की केमिस्ट्री में उत्प्रेरक (catalyst) की भूमिका निभाएगा, जिसके आगे संघ-भाजपा की जातियों-समुदायों की गणित धरी रह जायेगी।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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