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उत्तराखंड स्वास्थ्य श्रृंखला भाग 3- पहाड़ की लाइफ लाइन 108 एंबुलेंस के समय पर पहुंचने का अब भी इंतज़ार
“हमने 108 एंबुलेंस को बार-बार फ़ोन लगाया। एंबुलेंस नहीं आयी। यहां की आशा कार्यकर्ता ने रिखणीखाल अस्पताल में कई फ़ोन किये। वहां से भी कोई मदद नहीं मिली। उसके शरीर से बहुत ख़ून निकल गया था। एंबुलेंस का इंतज़ार और इस बीच वाहन का प्रबंध करने में तीन घंटे लग गए। इसके बाद हम निजी वाहन से उसे लेकर कोटद्वार बेस अस्पताल की ओर निकल गए। सुमन ने अस्पताल के रास्ते में ही दम तोड़ दिया। शाम के साढ़े सात बजे का समय रहा होगा। ” 
वर्षा सिंह
30 Mar 2021
पहाड़ पर 108 एंबुलेंस से जुड़ी कई ज़िंदा और मृतकों की कहानियां हैं 
पहाड़ पर 108 एंबुलेंस से जुड़ी कई ज़िंदा और मृतकों की कहानियां हैं 

एक छोटे से कमरे में उछलती-कूदती सात साल की आरोही जोशी को गणित विषय बहुत पसंद है। भाई आरव उससे करीब दो साल छोटा है। दोनों बच्चों की पढ़ाई के लिए मां नीलम जोशी ने करीब चार साल पहले टिहरी का अपना गांव छोड़ा। नीलम अपने परिवार के साथ देहरादून शहर से करीब 21 किलोमीटर दूर सेलाकुईं में किराये के एक कमरे में रहती हैं। उनके पति सुनील जोशी वहीं फर्नीचर फैक्टरी में काम करते हैं।

टिहरी के कीर्तिनगर ब्लॉक के सिलकाखाल बाज़ार के पास सोनी गांव में नीलम जोशी का मूल निवास है। जहां 8 कमरों का बड़ा घर है। आरोही के जन्म की कहानी बेहद दिलचस्प है। 22 फरवरी 2014 की रात करीब 8-9 बजे नीलम को प्रसव पीड़ा शुरू हुई। गांव से करीब पांच किलोमीटर की सीधी चढ़ाई के बाद सड़क मिलती है। वहां से पौड़ी के श्रीनगर ब्लॉक का श्रीकोट बेस अस्पताल ही नज़दीकी स्वास्थ्य केंद्र है। जो करीब 40 किलोमीटर दूर पड़ता है। वाहन से करीब डेढ़-दो घंटे का समय लग जाता है।

प्रसव पीड़ा में 5 किलोमीटर पैदल चलने के बाद नीलम जोशी ने टिहरी में एंबुलेंस में बच्चे को जन्म दिया

नीलम बताती हैं “रात में सफ़र करना संभव नहीं था। सुबह करीब 5 बजे घरवालों ने 108 एंबुलेंस को फ़ोन किया। मैंने प्रसव पीड़ा में ही 5 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई पैदल पूरी की। 108 एंबुलेंस हमें वहां मिल गई। मेरा दर्द तब तक बहुत तेज़ हो चुका था। अस्पताल पहुंचने का समय नहीं बचा था। एंबुलेंस में ही मैंने अपनी बेटी को जन्म दिया। एंबुलेंस में मौजूद पुरुष सहायक ने ही मेरा प्रसव कराया। मैं दो दिन श्रीकोट बेस अस्पताल में भर्ती रही।”

वह बताती हैं कि जब आरव के जन्म का समय आया तो पहले ही अस्पताल के नजदीक रहने वाले अपने रिश्तेदार के घर चली गईं।

एंबुलेंस में जन्मी बेटी आरोही के सिर पर हाथ फेरते हुए नीलम कहती हैं “इसे तो अपना गांव ही पसंद है। गांव में सुविधाएं होती तो हम वहीं रहते। लेकिन वहां तो कुछ भी नहीं हैं। अस्पताल जाने के लिए कई घंटे लगते हैं। स्कूल जाने के लिए बच्चों को 5 किलोमीटर खड़ी चढ़ाई पर चलना होता है।”

एंबुलेंस में जन्मी आरोही अपने गांव में ही रहना चाहती है

आरोही का जीवन 108 एंबुलेंस सेवा के सही समय पर पहुंचने से जुड़ा है। ये पहाड़ की लाइफ लाइन कही जाती है। दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों में गांव और नज़दीकी स्वास्थ्य केंद्र के बीच की दूरी सामान्य तौर पर 40-50 किलोमीटर से अधिक है। कमज़ोर आर्थिक तबके या निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिए 108 एंबुलेंस ही अस्पताल तक पहुंचने का बड़ा सहारा है। मरीज को लेकर एंबुलेंस के अस्पताल पहुंचने का समय गोल्डन आवर यानी सुनहरा एक घंटा कहलाता है। जिसका एक-एक मिनट बेहद कीमती होता है। जब ये लाइफ लाइन समय पर नहीं आती या किन्हीं वजहों से इसकी सर्विस नहीं मिलती तो मौत का खतरा खड़ा हो जाता है।

आरोही ने इसी गोल्डन आवर में जन्म लिया। लेकिन पौड़ी की सुमन का ये गोल्डन आवर मौत के साथ खत्म हुआ।

अंश और आयशा की मां सुमन सिंह की दिसंबर 2020 में प्रसव के बाद मृत्यु हो गई

पौड़ी के रिखणीखाल ब्लॉक के द्योड़ गांव में 9 साल का अंश सिंह अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता मिला। उसकी बहन आयशा सिंह भी खेलते-खेलते घर से दूर चली गई थी। परिजनों ने आवाज़ लगाई तो वह भी आ गई। इन दोनों बच्चों ने अपनी मां सुमन सिंह को 2 दिसंबर 2020 को हमेशा के लिए खो दिया। सुमन ने घर पर ही स्वस्थ्य बच्ची को जन्म दिया था। प्रसव के बाद उसकी तबीयत बिगड़ गई।

सुमन के जेठ दयाल सिंह बताते हैं “हमने 108 एंबुलेंस को कई बार फ़ोन लगाया। एंबुलेंस नहीं आयी। यहां की आशा कार्यकर्ता ने रिखणीखाल अस्पताल में कई फ़ोन किये। वहां से भी कोई मदद नहीं मिली। उसके शरीर से बहुत ख़ून निकल गया था। एंबुलेंस का इंतज़ार और इस बीच वाहन का प्रबंध करने में तीन घंटे लग गए। इसके बाद हम निजी वाहन से उसे लेकर कोटद्वार बेस अस्पताल की ओर निकल गए। सुमन ने अस्पताल के रास्ते में ही दम तोड़ दिया। शाम के साढ़े सात बजे का समय रहा होगा।”  

सुमन के परिजन बताते हैं कि कई बार फ़ोन करने के बावजूद 108 एंबुलेंस नहीं पहुंची

बच्चे के जन्म के लिए सुमन को अस्पताल क्यों नहीं ले गए? इस सवाल पर सुमन की सास सावित्री देवी कहती हैं “हमारे यहां बच्चों को घर पर ही जन्म देते हैं। अस्पताल में हमारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता। हमें वहां जाने में डर लगता है। सुमन बिलकुल ठीक थी। बस जन्म देने के बाद ख़ून बहुत निकलने लगा। अगर उसे समय पर अस्पताल पहुंचाया जा सकता तो शायद उसकी जान बच जाती।”

सुमन के नवजात शिशु का क्या हुआ? दयाल सिंह कहते हैं कि हमने उसे अपने एक रिश्तेदार को गोद दे दिया। उसके दो छोटे बच्चे पहले ही हैं। इन दो बच्चों का पिता और सुमन का पति महेंद्र सिंह दिल्ली में रोज़गार के लिए लौट गया।

पौड़ी के सामाजिक कार्यकर्ता देवेश आदमी 108 एंबुलेंस के समय पर न पहुंचने की बात कहते हैं

वहीं मौजूद सामाजिक कार्यकर्ता देवेश आदमी बताते हैं “सुमन के केस के बाद से ही क्षेत्र में 108 एंबुलेंस के समय से न पहुंचने की कई घटनाएं हो चुकी हैं। एक छोटे बच्चे के पेट में तेज़ दर्द उठा। उसे तुरंत अस्पताल ले जाने की जरूरत थी। हमने 108 एंबुलेंस को फ़ोन किया। वहां से हमसे पूछा गया कि किस क्षेत्र में आऩा है। हमने बताया तो जवाब मिला कि हम प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की सड़क पर 108 एंबुलेंस नहीं चलाते। सिर्फ पीडब्ल्यूडी की सड़क पर वाहन चलाते हैं। आप मरीज को पीडब्ल्यूडी की सड़क तक लाओ। इस तरह का जवाब सुनकर हम सन्न रह गए। वाहन का प्रबंध कर बच्चे को हमने कोटद्वार की क्लीनिक में दिखाया। वहां उसकी मौत हो गई।”

सुमन के परिवार के युवा कहते हैं “हम 108 एंबुलेंस की गाड़ियां चलाने को तैयार हैं। हमें रोज़गार नहीं मिलता। सरकार से कहो कि ऐसी एंबुलेंस और लाएं।”

स्वास्थ्य मानकों पर पिछड़ा उत्तराखंड

महिलाओं और बच्चों की सेहत राज्य की स्वास्थ्य सुविधाओं का इंडिकेटर कहा जा सकता है। स्वास्थ्य का अधिकार मूलभूत अधिकारों में भी शामिल है। उत्तराखंड में समय के साथ स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में सुधार तो हुआ है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों से ये कहीं दूर है।

मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) प्रति एक लाख जीवित जन्म पर होने वाली माओं की मौत को दर्शाता है। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2030 तक एमएमआर को प्रति लाख जीवित जन्म पर 70 (बच्चे को जन्म देने के बाद होने वाली मौत) तक लाने का लक्ष्य तय किया है। दक्षित भारत के राज्य जैसे आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र इस लक्ष्य को हासिल कर चुके हैं। सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के वर्ष 2014-16 और 2016-18 के एमएमआर से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2014-16 के बीच उत्तराखंड में ये दर 201 थी। वर्ष 2015-17 में 89 और 2016-18 में 99 हो गई। पहले की तुलना में राज्य में एमएमआर की स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन तय लक्ष्य 70 से ये कहीं दूर है। मातृ मृत्यु दर के मामले में उत्तराखंड देश के उन तीन राज्यों में से एक रहा, जहां शिशु को जन्म देते समय महिलाओं की सबसे अधिक मौतें हुईं।

शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) प्रति एक हज़ार जीवित जन्म पर होने वाली नवजात शिशु की मौत को दर्शाती है। वर्ष 1991 में देश की आईएमआर 80 थी। वर्ष 2018 में यह घटकर 32 हो गई। उत्तराखंड में वर्ष 2016 में आईएमआर 38, वर्ष 2017 में 32 और वर्ष 2018 में 31 दर्ज की गई। इस मामले में केरल की स्थिति सबसे बेहतर 7 और मध्य प्रदेश की सबसे खराब 48 है। ज़ाहिर है यहां भी उत्तराखंड में भारी सुधार की जरूरत है।

पौड़ी के रिखणीखाल सामुदायिक केंद्र पर मौजूद 108 एंबुलेंस

108 एंबुलेंस की मौजूदा स्थिति

मुश्किल भौगोलिक परिस्थितियों के चलते उत्तराखंड में स्वास्थ्य केंद्रों, सीएचसी, पीएचसी या नज़दीकी अस्पतालों तक पहुंचना आसान नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति भी बेहद खराब है। किसी भी बीमारी या मेडिकल देखभाल के लिए ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को शहरी क्षेत्र में ही जाना पड़ता है। राज्य की ज्यादातर ग्रामीण आबादी आर्थिक तौर पर कमज़ोर है। अस्पताल तक पहुंचने का एक बड़ा ज़रिया सरकारी एंबुलेंस सेवा ही है।

उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2019 में कंपनी कम्यूनिटी एक्शन थ्रू मोटिवेशन प्रोग्राम (कैंप) को इन एंबुलेंस के संचालन का ज़िम्मा दिया है। यही एंबुलेंस 108-एंबुलेंस सेवा कही जाती है। वर्ष 2019 तक जीवीके-ईएमआरआई नाम की कंपनी ये एंबुलेंस सेवा मुहैया कराती थी। राज्य में ये एंबुलेंस सेवा वर्ष 2008 को शुरू की गई थी।

108 एंबुलेंस सेवा संचालित कर रही कंपनी कम्यूनिटी एक्शन थ्रू मोटिवेशन प्रोग्राम (कैंप) से मिले डाटा के मुताबिक उत्तराखंड में मई 2019 से जनवरी 2021 तक कुल 140 108-एंबुलेंस चल रहीं थी। इनमें से एक टिहरी झील में संचालित बोट एंबुलेंस है। इनमें मात्र 18 एडवांस लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम एंबुलेंस हैं बाकी बेसिक लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम सुविधाओं के साथ हैं। एडवांस लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम में वेंटिलेटर की सुविधा होती है। अल्मोड़ा में 12 एंबुलेंस, बागेश्वर में 5, चमोली में 13, चंपावत में 5, देहरादून में 19, हरिद्वार में 9, नैनीताल में 13, पौड़ी में 17, पिथौरागढ़ में 9, रुद्रप्रयाग में 7, टिहरी में 13, उधमसिंहनगर में 8 और उत्तरकाशी में 10 एंबुलेंस हैं।

2 फ़रवरी 2021 को राज्य सरकार ने 132 अन्य एंबुलेंस इस सेवा से जोड़ी हैं। कुंभ तक (एक अप्रैल-30 अप्रैल 2021) ये एंबुलेंस हरिद्वार के आसपास ही रहेंगी। इसके बाद अन्य ज़िलों में भेजी जाएंगी।

राज्य में 108 एम्बुलेंस प्रोजेक्ट के जनरल मैनेजर अनिल शर्मा बताते हैं “औसतन एक एंबुलेंस पर 1,35,000 प्रति माह का खर्च आता है। एंबुलेंस में ड्राइवर के साथ एक इमरजेंसी मेडिकल टेक्निशियन भी होता है। एक एंबुलेंस 30 किलोमीटर के दायरे में अपनी सेवाएं देती है। लेकिन इमरजेंसी की स्थिति में चमोली से देहरादून जैसी दूरी भी तय की जा सकती है।”

पर्वतीय क्षेत्रों में एंबुलेंस की उपलब्धता को लेकर वह कहते हैं “यहां एक घंटे में एंबुलेंस करीब 20 किलोमीटर की दूरी तय कर पाती है जबकि मैदानी क्षेत्र में 20 किमी. की दूरी दस मिनट में भी तय की जा सकती है। पहाड़ों में भौगोलिक स्थिति अलग है। गांव सड़क से दूर बसे हैं। गांववाले जानते हैं कि जब तक वो फ़ोन करेंगे, एंबुलेंस 50-60 किमी. दूर से आएगी, उसके पहुंचने में समय लग जाएगा। इसलिए इमरजेंसी की स्थिति में वे कई बार अपने साधन से अस्पताल के लिए निकल जाते हैं।”

हालांकि पर्वतीय क्षेत्र में 108 एंबुलेंस का औसत रिस्पॉन्स टाइम 24 मिनट और शहरी क्षेत्र में 14 मिनट का दावा किया गया है। अनिल शर्मा के मुताबिक 2019 में ये रिस्पॉन्स टाइम 32 मिनट था। एक महीने में एक एंबुलेंस औसतन 3500 किलोमीटर चलती है। शहरी क्षेत्र की एंबुलेंस ज्यादा चलती है। पहाड़ी क्षेत्रों में कम। वह मानते हैं कि पहाड़ों में ज्यादा एंबुलेंस होगी तो स्थिति बेहतर होगी।

108 एंबुलेंस से मरीज़ों के अस्पताल पहुंचने के दर्ज मामले

(स्रोत- कैंप कंपनी से मिला डाटा)

पहाड़ों में 108 एंबुलेंस सेवा की अहमियत का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि वर्ष 2018-19 में उत्तराखंड में 71,922 बार 108 एंबुलेंस मरीज को अस्पताल तक लेकर गई। जबकि 2019-20 में 1,10,137 बार 108 एंबुलेंस से मरीज को घर से अस्पताल लाया गया। इनमें सबसे ज्यादा मामले गर्भवती महिलाओं से जुड़े थे। वर्ष 2018-19 में 35,420 प्रेगनेंसी केस में एंबुलेंस का इस्तेमाल हुआ और 607 बच्चों ने एंबुलेंस में जन्म लिया। 2019-20 में ये संख्या 42,804 और 495 थी। इसी तरह एक वर्ष तक के बच्चों को अस्पताल पहुंचाने के लिए 2018-19 में 996 मामले सामने आए। 2019-20 में ये संख्या 2018 थी।

उत्तराखंड में 108 एंबुलेंस को संचालित करने में कुल 781 लोगों का स्टाफ है। इनमें प्रशासनिक पद, कॉल सेंटर, ड्राइवर और ईएमटी शामिल हैं। अनिल शर्मा बताते हैं कि इन कर्मचारियों में 25-30 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। एक एंबुलेंस पर दो ड्राइवर और दो ईएमटी होते हैं। जो दिन की दो शिफ्ट करते हैं। साप्ताहिक छुट्टी पर इन्हें रिलीवर मिलता है। एंबुलेंस की जरूरत दिन या रात कभी भी पड़ सकती है। इस तरह एक व्यक्ति 12 घंटे की शिफ़्ट करता है।

गर्भवती महिलाएं और बच्चों को देखते हुए महिला ईएमटी बढ़ाए जाने की भी जरूरत है। 108 एंबुलेंस उत्तराखंड सरकार मुहैया कराती है। कंपनी इसकी मेनटेनेंस और ऑपरेटर का काम करती है। इसके अलावा राज्य में प्रसव के बाद महिला और उसके नवजात शिशु को घर तक पहुंचाने के लिए “खुशियों की सवारी” सेवा भी संचालित होती थी। 95 एंबुलेंस इस कार्य के लिए लगाए गए थे। मई 2019 में 108-एंबुलेंस की कमान नई कंपनी को सौंप दी गई। लेकिन ख़ुशियों की सवारी एंबुलेंस व्यवस्था तब से ठप पड़ी है।

चमोली की कहानी

उत्तराखंड के सीमांत ज़िले चमोली में 108 एंबुलेंस के समय पर न आने को लेकर स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन तक किया है। जन्म देने वाली माओं की मुश्किलें हों या सड़क दुर्घटना में घायल पर्यटक-यात्री। बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं सब पर भारी पड़ती हैं। जोशीमठ चमोली का अंतिम ब्लॉक मुख्यालय है। करीब 80 हज़ार की आबादी पर यहां एक मात्र सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है।

जोशीमठ में स्थानीय मुद्दों को लेकर सक्रिय रहने वाले अतुल सती कहते हैं “यहां के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में प्राथमिक उपचार तक उपलब्ध नहीं है। सामान्य बीमारियों में ही लोगों को हायर सेंटर रेफ़र कर दिया जाता है।”

108 एंबुलेंस सर्विस को लेकर वह बताते हैं, “पहाड़ के लिए ये सर्विस बहुत बढ़िया थी। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में इन एंबुलेंस का प्रदर्शन बहुत खराब हो गया है। कभी ड्राइवर नहीं होता। कभी फ्यूल नहीं होता। लोगों को अस्पताल तक जाने की व्यवस्था खुद ही करनी होती है। यहां के अस्पताल भी रेफरिंग सेंटर ही हैं। फिर हमें चमोली से पौड़ी या देहरादून के अस्पताल जाने के लिए भी खुद ही वाहन का प्रबंध करना होता है”।

चमोली में 108 एंबुलेंस की लापरवाही से नाराज़ लोगों ने एसडीएम और स्वास्थ्य महानिदेशक को पत्र लिखा

बच्चे को जन्म देने वाली माओं के लिए ये स्थिति अधिक गंभीर हो जाती है। 22 फ़रवरी 2020 को जोशीमठ में प्रसव के लिए भर्ती हुई  नेपाली मूल की महिला ने दम तोड़ दिया। उसे सुबह करीब 11 बजे हायर सेंटर रेफ़र किया गया था। शाम 4 बजे तक 108 एंबुलेंस उपलब्ध नहीं हुई। अतुल सती बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में यहां कई महिलाएं बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं के चलते अपनी जान गंवा चुकी हैं। इस मामले के बाद उपज़िलाधिकारी और स्वास्थ्य महानिदेशक को एक ज्ञापन भी भेजा गया।

चमोली के नारायणबगड़ के कोटी ग्राम पंचायत के पैंखोली गांव में 14 फरवरी 2020 को 25 साल की सुनीता और उसके नवजात शिशु ने दम तोड़ दिया।

चमोली के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ जीएस राणा 108 एंबुलेंस की स्थिति पर संतुष्टि जताते हैं। वह बताते हैं कि 108 एंबुलेंस की बहुत कम शिकायत आती है। वह ये भी मानते हैं कि अधिक एबुलेंस होनी चाहिए। एक एंबुलेंस को पहुंचने में आधा-एक घंटा लग जाता है। यहां गांव दूर-दूर तक हैं। अभी एक एंबुलेंस 25 किलोमीटर तक के क्षेत्र में जाती है। ज्यादा एंबुलेंस होगी तो जल्दी मरीज तक पहुंचेगी।

टिहरी के गणेश भट्ट ने लॉकडाउन में अपने वाहन को बनाया एंबुलेंस

टिहरी के देवप्रयाग ब्लॉक के भल्लेगांव निवासी गणेश भट्ट ने 27 मार्च 2020 से 42 दिनों तक अपने क्षेत्र में अपने निजी वाहन से एंबुलेंस सेवा दी। उनकी एंबुलेंस सेवा मीडिया की सुर्खियां भी बनी। वह बताते हैं कि 108 एंबुलेंस पर किसी को भरोसा ही नहीं रहा। ज्यादातर समय ड्राइवर नहीं है, फ्यूल नहीं है, गाड़ी खराब है, जैसी बातें सुनने को मिलती हैं। लॉकडाउन के समय सार्वजनिक वाहन उपलब्ध नहीं थे तो मैंने अपने आसपास के लोगों को अस्पताल पहुंचाने में मदद की। उस समय लोगों को 108 एंबुलेंस की सख्त जरूरत थी।

महंगी एंबुलेंस, ढीली सेवाएं

पर्वतीय क्षेत्रों में 108 एंबुलेंस सेवा की स्थिति को लेकर हिमालय रीजन स्टडी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट ने वर्ष 2019  में अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट पेश की। संस्थान के डॉ. जीडी भट्ट की अगुवाई में ये रिपोर्ट तैयार की गई। डॉ. भट्ट बताते हैं कि राज्य में इन एंबुलेंस सेवा में सुधार की सख्त गुंजाइश है।

वह ख़ासतौर पर इन एंबुलेंस पर होने वाले खर्च के बारे में बात करते हैं। उनके अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2014-15 से 2017-18 तक के एक 108-एंबुलेंस पर आंध्र प्रदेश में 1,39,095 रुपये प्रति माह का खर्च आता है। गुजरात में 1,14,847 रुपए और उत्तराखंड में 1,21,486 रुपए। जबकि राजस्थान में 41,666 रुपए, मध्य प्रदेश में  69,444 रुपए और हिमाचल प्रदेश में 50,000 रुपए। डॉ. भट्ट कहते हैं कि उत्तराखंड में सरकार एक एंबुलेंस पर बहुत अधिक रकम खर्च कर रही है। जबकि उसका आउटपुट उम्मीद के मुताबिक नहीं है।

यहां इस पर भी ध्यान देने के जरूरत है कि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश एक समान भौगोलिक परिस्थितियां हैं। वहां एक 108 एंबुलेंस पर प्रति महीने 50 हज़ार रुपये का खर्च आता है। जबकि उत्तराखंड में उस दौरान 1 लाख 21 हज़ार से अधिक खर्च आया। मौजूदा समय में ये रकम औसतन 1 लाख 35 हज़ार के नजदीक आ गई है।

108 एंबुलेंस की स्थिति पर इस रिपोर्ट को तैयार करते समय 27 मार्च 2021 को उत्तरकाशी से ख़बर मिलती है। मोरी विकास खंड के सुदूरवर्ती गंगाड़ गांव की प्रियंका प्रसव का असहनीय दर्द सह रही थी। गांव में सड़क नहीं है। ग्रामीणों ने अपने कंधे पर लेकर उसे मोटर मार्ग तालुका तक पहुंचाया। 108 एंबुलेंस फ़ोन करने के बावजूद नहीं पहुंची। प्रियंका को मोरी के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचाया गया। जहां कोई महिला डॉक्टर नहीं है। परिजन उसे लेकर करीब 250 किमी. दूर देहरादून लाने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन दर्द से जूझ रही प्रियंका के पास इतना समय नहीं था। प्रसव के कष्ट में उसके बच्चे की मौत हो गई। उसकी जान बमुश्किल बची।

ऊपर दिए गए आंकड़ों से भी स्पष्ट है कि मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्य दर के मामले में उत्तराखंड की स्थिति बेहतर नहीं कही जा सकती। 108 एंबुलेंस कमज़ोर आर्थिक वर्ग के लोगों के लिए इमरजेंसी की स्थिति में अस्पताल पहुंचने का एक बड़ा ज़रिया है। सड़क दुर्घटनाओं और गंभीर बीमारियों की स्थिति में भी इसकी सख्त जरूरत होती है। पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों की इस लाइफ लाइन को बेहतर बनाने की जरूरत है।

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सभी फोटो, सौजन्य : वर्षा सिंह

(देहरादून से स्वतंत्र पत्रकार वर्षा सिंह)

(This research/reporting was supported by a grant from the Thakur Family Foundation. Thakur Family Foundation has not exercised any editorial control over the contents of this reportage.)

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