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उत्तराखंड : क्यों बदली गई जंगल की परिभाषा?
एक तरफ अपने जंगलों के आधार पर उत्तराखंड सरकार जीडीपी की तुलना में जीईपी (ग्रॉस इनवायरमेंटल प्रोडक्ट) का आंकलन करवा रही है। जिसके आधार पर केंद्र से ग्रीन बोनस की मांग की जाती है। वहीं व्यवसायिक गतिविधियों के लिए बहुत से जंगल को, जंगल से बाहर किया जा रहा है। जबकि जलवायु परिवर्तन हर साल वीभिषिका के तौर पर सामने आ रहा है।
वर्षा सिंह
29 Nov 2019
forest

जंगल को बचाने के लिए चिपको आंदोलन चलाने वाले राज्य के रूप में पहचान रखने वाले उत्तराखंड में जंगल की परिभाषा ही बदल दी गई। उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने जंगल की नई परिभाषा तैयार की है, जो पर्यावरण के लिए काम कर रहे लोगों को चिंता में डाल रही है और वे इस मामले को अदालत में ले जाने की तैयारी में जुटे हैं। पर्यावरविदों की चिंता है कि इस तरह जंगल का एक बड़ा हिस्सा बिना किसी अड़चन के बिल्डर, कन्स्ट्रक्शन या अन्य व्यवसायिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल हो सकता है। 

जंगल क्या है?

वन संरक्षण अधिनियम-1980 रिजर्व फॉरेस्ट पर लागू होता है। जबकि जंगल की श्रेणियों में रिजर्व फॉरेस्ट के साथ प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट (संरक्षित वन), विलेज फॉरेस्ट और अन-क्लासीफाइड (गैर-वर्गीकृत) फॉरेस्ट भी हैं।
 
वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने जंगल को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। इसके मुताबिक जंगल को उसके डिक्शनरी के अर्थ के मुताबिक ही परिभाषित किया जाएगा। चाहे वो निजी ज़मीन पर हो, राजस्व भूमि हो या वन विभाग की ज़मीन हो। इस हिसाब से जहां पेड़ उगे हैं, वो जगह जंगल है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस परिभाषा के साथ ही हम वन संरक्षण अधिनियम-1980 की सुरक्षा कर सकते हैं। ये कानून कहता है कि यदि आप जंगल की ज़मीन पर कोई अन्य कार्य करना चाहते हैं तो उसके लिए आपको केंद्र सरकार से अऩुमति लेनी होगी।
 
साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि राज्य सरकारें इस तरह के क्षेत्र को चिह्नित भी करेंगी, जिन्हें जंगल की श्रेणी में रखा जा सकता है। उन्हें डिक्शनरी मीनिंग के हिसाब से डीम्ड फॉरेस्ट कहा गया।
 
डीम्ड फॉरेस्ट को अलग-अलग राज्य की परिस्थिति के लिहाज से राज्य सरकारों को परिभाषित करने का अधिकार है। उत्तराखंड सरकार ने डीम्ड फॉरेस्ट को परिभाषित करने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा। जिस पर केंद्र ने कहा कि राज्य अपनी परिस्थिथियों के हिसाब से अपने डीम्ड फॉरेस्ट को परिभाषित कर सकते हैं।
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राज्य सरकार तय करती है डीम्ड फॉरेस्ट के मानक

देहरादून में फॉरेस्ट रिसर्स इंस्टीट्यूट में सिल्वी कल्चर और फॉरेस्ट रिसोर्स मैनेजमेंट डिवीज़न की चेयर पर्सन आरती चौधरी बताती हैं कि डीम्ड फॉरेस्ट वो जंगल होता है, जिसका लीगल स्टेटस फॉरेस्ट नहीं होता है, लेकिन उसमें प्राकृतिक तौर पर उगे हुए पेड़ होते हैं। उसे किसी ने लगाया नहीं होता। वह कहती हैं कि डीम्ड फॉरेस्ट का कानूनी दर्जा राजस्व भूमि का होता है। चूंकि इस पर पेड़ होते हैं तो इस क्षेत्र में व्यावसायिक गतिविधि के लिए वन संरक्षण अधिनियम के तहत अनुमति ली जा सकती है। वह बताती हैं कि वन मंत्रालय ने राज्यों को डीम्ड फॉरेस्ट की परिभाषा तय करने का अधिकार दिया है। रिजर्व फॉरेस्ट की ज़मीन पर आप कोई व्यवसायिक कार्य नहीं कर सकते लेकिन डीम्ड फॉरेस्ट पर कमर्शियल एक्टिविटी की जा सकती है।
 
उत्तराखंड में डीम्ड फॉरेस्ट की नई परिभाषा

राज्य सरकार ने डीम्ड फॉरेस्ट को नए सिरे से परिभाषित किया है। जिसमें कहा है कि ऐसे जंगल जो 10 हेक्टेअर से ज्यादा क्षेत्र में हैं, जिसका कैनोपी (पेड़ों के ऊपर का टॉप) घनत्व 60 प्रतिशत से अधिक है, वो जंगल माना जाएगा। इसके साथ ही वहां स्थानीय पेड़-पौधों की 70 प्रतिशत प्रजातियां भी होनी चाहिए।
 
नैनीताल में रह रहे सेवा निवृत्त फॉरेस्ट ऑफिसर विनोद पांडे बताते नैनीताल हाईकोर्ट में इस मुद्दे पर पीआईएल दाखिल करने की तैयारी कर रहे हैं। वह इसे जंगल की ज़मीन इस्तेमाल करने के लिए तैयार की गई परिभाषा मानते हैं।
 
इसके तहत दस हेक्टेअर से कम क्षेत्र हो या कैनोपी घनत्व 60 प्रतिशत से कम हो तो वो जंगल की परिधि से बाहर हो जाएगा। यदि ये दोनों चीजें हों और स्थानीय पेड़-पौधे न हुए तो इस आधार पर भी वो जगह जंगल की श्रेणी से बाहर हो जाएगी।
 
कमर्शियल गतिविधियों के लिए खुल जाएंगे जंगल!

इसे अगर हम उल्टा करें तो माना 5 हेक्टेअर क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक कैनोपी घनत्व के पेड़ हों, तो भी वो जंगल नहीं है। या फिर 15 हेक्टेअर क्षेत्र में 50 प्रतिशत कैनोफी घनत्व के पेड़ हों, तो भी वो जंगल नहीं है। वहां कोई भी कमर्शियल गतिविधि आसानी से की जा सकती है।
 
विनोद पांडे बताते हैं कि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में 4 प्रतिशत से अधिक जंगल अनक्लासिफाइड हैं। जो क्षेत्र के हिसाब से बहुत बड़ा है।
 
उत्तराखंड वन सांख्यिकी के मुताबिक राज्य में कुल वन क्षेत्र 37,999.60 वर्ग किलोमीटर है, जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 71.05 प्रतिशत है। इसमें 25,863.180 वर्ग किलोमीटर वन विभाग के नियंत्रण में है। 4768.704 वर्ग किलोमीटर राजस्व विभाग के अधीन सिविल सोयम वन है। 7350.857 वर्ग किलोमीटर वन बंचायत के नियंत्रण में है। साथ ही 156.444 वर्ग किलोमीटर निजी या अन्य एजेंसियों के वन क्षेत्र हैं।
 
घनत्व के आधार पर राज्य में अत्यन्त सघन वन की श्रेणी में करीब पांच हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र है। औसत सघन वन करीब 13 हजार वर्ग किलोमीटर है और खुला वन क्षेत्र करीब साढ़े छह हजार वर्ग किलोमीटर है।
 
ऊपर के आंकड़ों से समझिए कि कितने बड़े क्षेत्र में फैले जंगल को आप वन की श्रेणी से बाहर कर कमर्शियल एक्टिविटी के लिए खोल सकते हैं।
 
कैनोपी घनत्व को समझिए

उत्तराखंड सरकार ने जिस कैनोपी घनत्व की बात कही है, विनोद पांडे उसे लेकर भी सवाल उठाते हैं। वह बताते हैं कि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक जिसका कैनोपी घनत्व 70 प्रतिशत से अधिक है, वो डेन्स फॉरेस्ट यानी घना जंगल है। 40-70 प्रतिशत के बीच को मॉडरेटरी डेन्स फॉरेस्ट यानी मध्यम श्रेणी का जंगल कहा जाता है। 40 प्रतिशत से कम और 10 प्रतिशत से अधिक पेड़-पौधों और झाड़ियों वाली जगह को स्क्रब फॉरेस्ट कहते हैं। दस प्रतिशत से कम घनत्व वाले जंगल को ओपन फॉरेस्ट कहते हैं।
 
विनोद कहते हैं कि जब राज्य सरकार 60 प्रतिशत से अधिक कैनोपी घनत्व वाले 10 हेक्टेअर क्षेत्र को ही डीम्ड फॉरेस्ट मान रही है यानी जो बहुत घना-बेहतरीन जंगल ही जंगल माना जाएगा। या फिर कहीं पर जंगल की कैनोपी कम हो गई है तो वो डिग्रेडेड फॉरेस्ट है। जो झाड़ियां उगने या बायो डायवर्सिटी का दबाव बढ़ने, जंगल में आग लगने जैसी घटनाओं से भी होता है। ऐसी सूरत में हमें बीमार जंगल का उपचार किया जाना चाहिए या उसे मार देना चहिए?
 
दो घने जंगलों के बीच में एक बिखरे हुए जंगल का पैच भी हो सकता है। विनोद कहते हैं कि ये पैच  रिजर्व फॉरेस्ट को आपस में जोड़ते हैं। उनके कॉरीडोर हैं। ऐसी जगह को आप किसी अन्य उद्देश्य से इस्तेमाल करेंगे तो जंगल बिखर जाएंगे। उनका संपर्क टूट जाएगा। उनके मुताबिक नई परिभाषा प्रकृति के दुर्लभ क्षेत्रों पर कब्जा करने की होड़ दर्शाती है।
 
क्या जानबूझ कर तय किए गए ऐसे मानक

देहरादून में सेंटर फॉर इकोलॉजी, डेवलपमेंट एंड रिसर्च संस्था से जुड़े विशाल सिंह कहते हैं डीम्ड फॉरेस्ट तय करने के लिए राज्य सरकार के मापदंड के चलते जंगल का एक बहुत बड़ा हिस्सा इससे बाहर हो जाएगा। वह कहते हैं कि राज्य के रिजर्व फॉरेस्ट भी बहुत सारी जगहों पर 60 प्रतिशत कैनोपी घनत्व वाले नहीं होंगे। उनके मुताबिक न्यूनतम एक एकड़ और 40 प्रतिशत कैनोपी घनत्व को डीम्ड फॉरेस्ट की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए। विशाल सिंह आशंका जाहिर करते हैं कि जानबूझ कर ऐसे मानक तय किये हैं जिससे टिंबर और बिल्डिंग माफिया की हमारे जंगलों में घुसपैठ हो सके। वह कहते हैं कि घास के मैदान और ओपन फॉरेस्ट की भी अपनी इकोलॉजी होती है और वे पर्वतीय क्षेत्रों के पारिस्थतकीय तंत्र का अहम हिस्सा होते हैं।
 
ऐसे तो कम हो जाएगा ग्रीन बोनस

एक तरफ अपने जंगलों के आधार पर उत्तराखंड सरकार जीडीपी की तुलना में जीईपी (ग्रॉस इनवायरमेंटल प्रोडक्ट) का आंकलन करवा रही है। जिसके आधार पर केंद्र से ग्रीन बोनस की मांग की जाती है। वहीं व्यवसायिक गतिविधियों के लिए आप बहुत से जंगल को, जंगल से बाहर कर रहे हैं। जबकि जलवायु परिवर्तन हर साल वीभिषिका के तौर पर सामने आ रहा है। ये समय डेवलपमेंट यानी विकास को परिषाभित करने का है। दिल्ली के कंक्रीट के जंगल की हवा आज सांस लेने लायक नहीं रही। उत्तराखंड को कंक्रीट के जंगल की जरूरत नहीं है।

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