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लखनऊ: हर तस्वीर डराती है... हर मंज़र रुलाता है... अब तो सब्र ने भी साथ देना छोड़ दिया!
राजधानी लखनऊ तो पूरी तरह टूट चुकी है, मंज़र इस कदर भयावह हो चला है जिसकी कोई इंतहा नहीं। अस्पतालों से लेकर श्मशानघाटों तक की तस्वीरें सरकार की ‘सफलता’ की कहानी कहने के लिए काफ़ी हैं।
सरोजिनी बिष्ट
23 Apr 2021
लखनऊ
लखनऊ में बेड और ऑक्सीजन के लिए लोगों को करना पड़ रहा है संघर्ष। फोटो साभार : आजतक

लखनऊ: सरकार दावे तो लाख करती थी लेकिन त्रासदी के इस दौर में सारे सरकारी दावों की पोल खुल गई। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का तो यहां तक दावा था कि पिछले दौर से अब तक कोरोना को काबू करने, लोगों को बेहतर से बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देने, उनकी जिंदगी बचाने के लिए जितने भी कदम उठाए गए उन सब प्रयासों और कदमों में यूपी अन्य राज्यों के मुकाबले अव्वल रहा और उनके मुताबिक इसकी चर्चा न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी खूब रही। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ने एक कार्यक्रम के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पीठ जमकर थपथपाई, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस पूरे घोर संकटकाल में भी मुख्यमंत्री ने बहुत बेहतरीन काम किए हैं और राज्य को एक त्रासदीपूर्ण हालात से बचाए रखा। लेकिन कोरोना के इस कहर के बीच आए दिन मानव त्रासदी और बुरी तरह ध्वस्त होती स्वास्थ्य सेवाओं की जो तस्वीरें हमारे सामने आ रहीं हैं उसे ये सरकार किन झूठ के पर्दों में छुपाएगी।

राजधानी लखनऊ तो पूरी तरह टूट चुकी है, मंज़र इस कदर भयावह हो चला है जिसकी कोई इंतहा नहीं। अस्पतालों से लेकर श्मशानघाटों तक की तस्वीरें सरकार से इतना पूछने के लिए काफी हैं कि जिन बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर आप यूपी को अव्वल बनाने का दावा करते नहीं थकते थे और इस बात से फूले नहीं समाते थे कि उनके कार्यकाल में ही प्रदेश को सबसे ज्यादा मेडिकल कॉलेजों की सौगात मिली हैं, तो आख़िर आज इलाज और लाइफ सपोर्ट सिस्टम के अभाव में लोग क्यों मर रहे हैं?

क्यों अस्पतालों में जीवन रक्षक दवाएं उपलब्ध नहीं, क्यों ऑक्सीजन के लिए मरीज के तीमारदारों को ही दर दर भटकना पड़ रहा है।

आज सरकार से यह सवाल करना बेहद जरूरी हो जाता है कि माघ मेला, कुंभ मेला जैसे बड़े बड़े आयोजन करवाने के लिए तो सरकार के पास एक बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर था, पैसा था और ईमानदार नीयत थी लेकिन आज जब जनता मर रही है तो सरकार के पास सिवाय तसल्ली और आश्वासन देने के और कुछ नहीं। दवा, इंजेक्शन, ऑक्सीजन, जब सारा इंतजाम लोगों को अपने बूते ही करना है तो सरकार की भूमिका पर सवाल उठना लाजिमी है।

सरकार कहती है कि उसने लखनऊ शहर के बहुत सारे प्राइवेट अस्पतालों को कोरोना मरीजों का इलाज करने का आदेश दे दिया है। प्रशासन की ओर से एक लंबी चौड़ी लिस्ट उन निजी अस्पतालों की जारी कर दी गई है जिन्हें कोविड अस्पताल में तब्दील कर दिया गया है। सरकार के मुताबिक जो भी निजी अस्पताल इलाज या मरीज की भर्ती की मनाही करेगा उसके खिलाफ़ सख्त कार्रवाई होगी यहां तक कि यदि किसी में केवल कोरोना जैसे लक्षण ही दिखाई दें तब भी भर्ती करना होगा। सरकार लोगों को आश्वासन देती है कि सरकारी अस्पतालों में भी बेड बढ़ा दिए गए हैं लेकिन इन सब के बावजूद राजधानी लखनऊ के लोग बेतहाशा तकलीफ में क्यों हैं?

ऐसे ही जब कोरोना मरीजों के परिवारवालों से मेरी बातचीत हुई तो उनका कहना था केवल आदेश दे देने भर से समस्या का समाधान नहीं होता सरकार को संज्ञान भी लेना होगा कि जो आदेश उसने दिए हैं उसका पालन हो भी रहा है या नहीं।

भले ही सरकार ने निजी अस्पतालों को इलाज का आदेश दे दिया हो लेकिन सच्चाई यह है कि अधिकांश निजी अस्पतालों के पास इलाज करने की सुविधाएं नहीं, किसी तरह की कोई व्यवस्था नहीं और जो इलाज दे भी रहे हैं उनके लंबे चौड़े बिलों का भुगतान हर किसी के बूते की बात नहीं। वे कहते हैं सरकारी अस्पतालों में भी केवल बेड बढ़ाने से क्या होगा जब स्वास्थ्य सुविधाएं ही पूरी तरह से ढह चुकी हैं। लखनऊ की इस बदहाल  हालत को दिखाती कुछ तस्वीरें यहां पेश हैं -----

तस्वीर-1

वह परेशान था, बहुत परेशान, उसकी मां कोरोना की चपेट में थी और हालत बिगड़ती जा रही थी। अपनी गाड़ी से ही मां को लेकर वह तीन चार दिन से लखनऊ के अस्पतालों के चक्कर लगा रहा था लेकिन हर जगह से उसे मायूस होकर लौटना पड़ रहा था। हर अस्पताल कोविड मरीज की भर्ती के लिए सीएमओ कार्यालय की पर्ची मांग रहे थे। वह मां को लेकर कोविड कमांड सेंटर आ गया, यहां भी घंटों इंतजार किया लेकिन भर्ती लेटर नहीं मिला इसी बीच सीएमओ डॉ. संजय भटनागर कार से निकले, मां की बिगड़ती हालत और सिस्टम की बेरुखी ने उसे इतना तोड़ दिया था कि उसके सामने केवल एक ही विकल्प बचा था, कार के आगे लेट जाने का और वह सीएमओ की गाड़ी के आगे लेट गया।

एक युवक लखनऊ सीएमओ की गाड़ी के आगे यह गुहार करते हुए लेट गया कि उसकी मां को अस्पताल में भर्ती कराया जाए। फोटो साभार : दैनिक जागरण

बावजूद इसके सीएमओ साहब गाड़ी से नहीं उतरे लेकिन जब युवक टस से मस नहीं हुआ तो आखिरकार सीएमओ को न केवल गाड़ी से उतरना पड़ा बल्कि उन्होंने उसकी मां को भर्ती करवाने के लिए अनुमति पत्र बनवाया।

तस्वीर-2

लखनऊ के राजाजीपुरम स्थित तालकटोरा के गढ़ीकनौरा में आयुध ऑक्सीजन प्राइवेट लिमिटेड के बाहर बदहवास लोगों की भीड़। सबको ऑक्सीजन चाहिए अपनों की जिंदगी बचाने के लिए। हर तरफ अफरा तफरी का माहौल है। आने वाला हर शख्स जल्द से जल्द ऑक्सीजन लेकर जाना चाहता है क्योंकि कोई उसका अपना जिंदगी की जंग लड़ रहा है। यदि समय पर ऑक्सीजन नहीं मिली तो मौत जीत जाएगी। अपनों की सांसे चलाए रखने के लिए हर कोई मुंह मांगी कीमत देने को भी तैयार हैं फिर भी ऑक्सीजन नहीं मिल रही।

लोग घंटों से लाइन में खड़े हैं। धीरे धीरे धैर्य भी जवाब देने लगा है। वे कभी अपनों को फोन लगाते हैं यह जानने के लिए कि मरीज की हालत कैसी है तो उन्हें दिलासा भी देते हैं कि वे जल्दी ही ऑक्सीजन लेकर आ रहे हैं। लेकिन ऑक्सीजन प्लांट का फाटक बंद है। नाराजगी बढ़ती जा रही है और आखिरकार लोगों का सब्र टूट गया। लोगों ने प्लांट का घेराव कर दिया और वहां मौजूद ड्रग इंस्पेक्टर को भी घेर लिया हर कोई इस सवाल का जवाब चाहता है कि आखिर ऑक्सीजन क्यों नहीं दी जा रही जबकि वे कई गुना कीमत चुकाने को तैयार हैं।

सुबह से तीमारदार ऑक्सीजन लेने के लिए प्लांट के बाहर खड़े थे, दोपहर करीब दो बजे ड्रग इंस्पेक्टर प्लांट पर पहुंची और सबको जाने को कहा और फैक्ट्री संचालक को हिदायत दी की ऑक्सीजन केवल अस्पताल को सप्लाई की जाए इस हिदायत पर तीमारदारों का आक्रोश इतना बढ़ गया कि उन्होंने प्लांट का घेराव कर दिया हालांकि बाद में आलमबाग पुलिस इंस्पेक्टर द्वारा लोगों को शांत कराया गया और उन्हें सिलिंडर उपलब्ध कराए गए। पुलिस कहती है कि रोकने का कारण केवल इतना है कि ऐसे सब लोग ऑक्सीजन ले जाएंगे तो अस्पतालों  तक आपूर्ति बाधित हो जाएगी तो वहीं लोग कहते हैं कि अस्पताल खुद कहता है अपने से ऑक्सीजन का प्रबंध करो तब वे क्या करें।

तस्वीर-3

"मुझे अस्पताल से निकाल लो नहीं तो यह लोग मुझे मार देंगे"। जिस दिन अमीनाबाद निवासी मोहम्मद कलाम ने अपने परिवार वालों से फोन पर यह बात कही ठीक उसकी अगली सुबह कलाम की सांसे थम गईं। कलाम की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव थी। उन्हें शहर के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया था। घर वालों का आरोप है कि अस्पताल की घोर लापरवाही ने कलाम की जान ले ली।

उन्होंने अस्पताल पर बेतहाशा वसूली का भी आरोप लगाया। वे कहते हैं वेंटिलेटर पर रखकर भी धन उगाही की कोशिश की गई।

वहीं राजाजीपुरम में रहने वाले जितेंद्र मेहरोत्रा के 16 वर्षीय बेटे सिद्धार्थ को दो तीन दिन से तेज बुखार आ रहा था। बालागंज जल निगम रोड पर स्थित एक निजी अस्पताल में सिद्धार्थ की जांच कराकर जितेंद्र उसे भर्ती कराने पहुंचे। डाक्टर ने जांच सैंपल लेने के बाद कोरोना के लक्षण देखते हुए भर्ती से इंकार कर दिया। अस्पताल की इस बेरुखी से टूट चुके जितेंद्र बेटे को भर्ती कराने के लिए गिड़गिड़ाते रहे लेकिन उनकी नहीं सुनी गई। आखिरकार वे बेटे को लेकर ट्रामा सेंटर पहुंचे जहां अंततः सिद्धार्थ ने दम तोड़ दिया।

भरे गले से पिता कहते हैं यदि अस्पताल ने बेटे को भर्ती कर लिया होता तो आज उनका बेटा उनकी आंख के सामने होता। निजी अस्पताल की तरफ भागने वाले लोग कहते हैं सरकारी अस्पतालों में बेड नहीं, दवाइयां नहीं, ऑक्सीजन नहीं तो मरीज बचेगा कैसे। लेकिन दूसरी तरफ सरकार के आदेश के बावजूद या तो निजी अस्पताल इलाज से हाथ खड़े कर रहे हैं या जो थोड़ा बहुत इलाज भी दे रहे हैं उनके लंबे चौड़े बिल मरीज के परिवार की कमर तोड़ दे रहे हैं।

तस्वीर-4

अस्पतालों से शव निकलने का सिलसिला और श्मशान घाटों से उठता काला धुआं शांत होने का नाम नहीं ले रहा। मरीजों की मौतों का सिलसिला बढ़ने के बाद से शवों के अंतिम संस्कार में भी दिक्कतें आ रही है। शवों की संख्या बढ़ने से दिन भर दूर-दूर से आए लोगों को दाह संस्कार के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। आए दिन लखनऊ के भैसाकुंड स्थ‍ित विद्युत शवदाह गृह में लंबी लाइनें लगी हैं। यहां रोजाना रात में दो-दो बजे तक अंतिम संस्कार हो रहा है।

हालात इस क़दर खराब है कि बीते दोनों जब एक परिवार को भैंसा कुंड श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार करने की जगह नहीं मिल पाई तो उसने लोगों के बैठने के लिए बनाए चबूतरे पर ही शव जला दिया।

संक्रमित शवों की अधिक संख्या को देखते हुए लकड़ी से भी अब अंतिम संस्कार किया जा रहा है। इसके लिए कान्हा उपवन की गोशाला के कंडे भी लखनऊ नगर निगम उपलब्ध करा रहा है।

नगर निगम के मुख्य अभियंता विद्युत यांत्रिक राम नगीना त्रिपाठी ने बताया कि विद्युत शवदाह गृह के अंतिम संस्कार पर एक से डेढ़ घंटे लगता है इसमें 45 मिनट मशीन में लगते हैं और उतना ही वक्त सैनिटाइेजशन और तैयारी में इस समय बैकुंठधाम पर दो और गुलाला घाट पर एक विद्युत शवदाह गृह है इसके अलावा संक्रमित शवों को जलाने के लिए आठ-आठ अतिरिक्त लकड़ी वाले स्थल भी शुरू किए गए हैं।

भैंसाकुंड श्मशानघाट के महापात्र राजेंद्र मिश्र कहते हैं कि अभी तक सामान्य दिनों में 15 से बीस शव ही आते थे। पिछले साल कोरोना काल में तो यह संख्या भी घट गई थी और अधिकांश शव कोविड के विद्युत शवदाह गृह पर ही आते थे लेकिन इस बार मामला काफी बिगड़ा है। प्रत्येक दिन ज्यादा संख्या में सामान्य शवों के पहुंचने से महापात्र भी हैरान हैं। वह कहते हैं आख़िर यह कैसे हो रहा है? सचमुच यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है कि कोविड के साथ साथ नॉन कॉविड मरीजों का शव आखिर इतनी बड़ी संख्या में कैसे आ रहे हैं, कुल मिलाकर महापात्र का यह सवाल ही इस हकीकत पर भी मुहर लगा रहा है कि कोरोना संक्रमण की जांच न होने और इलाज मिलने के अभाव में भी लोग घरों में दम तोड़ रहे हैं। घर वाले भी नॉन कोविड शव बताकर उनका दाह संस्कार सामान्य श्मशानघाट पर कर रहे हैं। महापात्र कहते हैं कि अधिकांश पर्चे पर लिखकर आ रहा है कि हार्ट अटैक से या सामान्य मौत बता रहे हैं।

गुलालाघाट पर भी सामान्य दिनों में सात से आठ शव ही पहु़ंचते थे लेकिन कोरोना के इस कहर के बीच नॉन कोविड शवों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है। वहां के महापात्र विनोद पांडेय का कहना है कि पहली बार इतने शव आ रहे हैं। वैसे गुलालाघाट पर सामान्य दिनों में सात से आठ शव ही आते थे और कभी-कभी यह संख्या दस के करीब हो जाती थी लेकिन हर दिन चालीस से पचास शव आ रहे हैं और एक दिन तो यह आंकड़ा 61 तक पहुंच गया था। सरकारी तंत्र के लचर इंतजाम से लोग घरों में ही दम तोड़ रहे हैं। ऐसे लोगों की कोरोना जांच न होने से उनकी मौत का कारण भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। जांच रिपोर्ट कई दिन बाद आने से पहले ही लोगों का दम निकल रहा है। ऐसे में कोविड से मौत का प्रमाण न होने से उसे नगर निगम भी कोविड संक्रमित शव नहीं मान रहा है और कोविड शवों के अंत्येष्टि स्थल पर जाने से रोका जा रहा है।

भयावता को पेश करती तस्वीरें असंख्य हैं। सरकार के लाख आश्वासनों के बाद भी लोग बेहाल हैं। कहीं वेंटिलेटर के अभाव में जिंदगियां दम तोड़ रही हैं तो कहीं समय पर एम्बुलेंस न मिलने के कारण कोरोना मरीज अस्पताल पहुंचने से पहले ही जान गंवा रहे हैं तो कहीं मरीजों को ऑक्सीजन नहीं मिल पा रहा। अस्पतालों में बेड की भारी किल्लत का खामियाजा लोगों को भुगतना पड़ रहा है। एक तरफ अस्पतालों में बेड और वेंटिलेटर के लिए कोरोना मरीज तड़प रहे हैं तो दूसरी तरफ होम आइसोलेशन में दवा और एम्बुलेंस के इंतजार में कराहते लोग।

जरा सोचिए जब यह खौफ़नाक तस्वीर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की है तो अन्य जिलों का क्या हाल होगा। स्थिति इस हद तक भयावह हो चली है कि घर पर कोरोना से हुई मौत के बाद बार बार बुलाने पर भी कोई शव उठाने तक नहीं आ रहा। एक तरफ कोरोना विकराल रूप लेता जा रहा है तो दूसरी तरफ इस भारी अव्यवस्था के बीच कोरोना संक्रमितों का दर्द भी बढ़ता जा रहा है। हालात इस क़दर बिगड़ते जा रहे हैं कि ऑक्सीजन सिलेंडर लूटने की फिराक में 22 अप्रैल की रात सिविल अस्पताल में कुछ लोग ऑक्सीजन प्लांट की रेकी करते देखे गए। वह अस्पताल के कुछ लोगों से ऑक्सीजन प्लांट और उसके अंदर रखे गए सिलेंडरों के बारे में जानकारी जुटा रहे थे जब कर्मचारियों को शक हुआ तो उन्होंने इसकी जानकारी निदेशक को दी सिविल अस्पताल के निदेशक डॉक्टर सुभाष चंद्र सुंदरियाल ने पुलिस बुला ली पुलिस की खबर मिलते ही रेकी करने वाले लोग भाग खड़े हुए। इसमें दो राय नहीं की हालात अब लोगों को अपराधी बना रहे हैं।

शहर में ऑक्सीजन संकट लगातार गहराता जा रहा है। बलरामपुर, लोक बंधु कोविड अस्पताल समेत 5 दर्जन से अधिक निजी अस्पतालों में ऑक्सीजन की भारी किल्लत पैदा हो गई है। कई अस्पतालों ने तो भर्ती मरीजों को बाहर निकालना शुरू कर दिया है वहीं अन्य अस्पतालों ने अपने यहां ऑक्सीजन खत्म होने की सूचना देखकर मरीजों की जिम्मेदारी लेने से हाथ खड़े कर दिए हैं। अधिकांश अस्पतालों में 10 से 24 घंटे तक कहीं ऑक्सीजन बचा है। प्राप्त जानकारी के अनुसार ऑक्सीजन खत्म होने के बाद कह कर अस्पताल भर्ती मरीजों की जबरन छुट्टी कर रहे हैं जिससे लोगों में हाहाकार मच गया है।

हम जानते हैं कि हम बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं। हम यह भी देख रहे हैं कि इसी बुरे दौर में कोई इंसानियत का फरिश्ता बनकर आ रहा है तो कोई इंसानियत का गला घोंट कर जीवन रक्षक दवाओं, इंजेक्शन, ऑक्सीजन की कालाबाजारी में लग गया है। बेशक इंसानियत की हत्या करने वाले ऐसे लोगों से समय आने पर हिसाब किताब जरूर बराबर किया जाएगा लेकिन इन सबके बीच एक पीड़ा जो बार-बार दिल को भेदती हैं और यह पूछती है कि जो लोग आज हर रोज मर रहे हैं क्या सचमुच वे मौतें निश्चित थीं, क्या उन्हें जीवन नहीं दिया जा सकता था और सबसे बड़ा सवाल, क्या सचमुच इस त्रासदी ने हमारे स्वास्थ्य सेवाओं को ध्वस्त कर दिया है या तस्वीर यही थी बस हमें सरकार की ओर से बरगलाया जाता रहा। नहीं यह मौतें नहीं, हत्याएं हैं जिसका हिसाब भविष्य में सरकार से जरूर लिया जाना चाहिए।

(लखनऊ स्थित लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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