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वक्त का पहिया घूमा और खुद ऑनलाइन ट्रोलिंग के निशाने पर आए कप्तान कोहली
क्रिकेट खिलाड़ी और भारतीय कप्तान विराट कोहली पर जारी ऑनलाइन गाली-गलौज की जड़, टीम द्वारा बनाई गई आक्रामक और अति राष्ट्रवादी छवि में देखी जा सकती है। एक प्रशंसक द्वारा आलोचना करने पर कोहली ने उनके ऊपर "देश छोड़ने" की भद्दी टिप्पणी की थी, वहीं एमएस धोनी ने सेना के प्रतीकों का इस्तेमाल मैदान पर और मैदान के बाहर किया।
प्रतीक
03 Nov 2021
Kohali
कप्तान विराट कोहली (फ़ोटो- HT, Twitter)

अपने अंतरराष्ट्रीय करियर के दौरान कोहली को प्रसिद्धि का सिर्फ़ अच्छा पहलू ही देखने को मिला है। लेकिन पिछले शनिवार से उन्हें इसका स्याह पहलू भी महसूस होना शुरू हुआ होगा। अगर उनकी आलोचना सिर्फ़ टी-20 वर्ल्ड कप में खराब प्रदर्शन पर हो रही होती, तो ठीक भी होता। लेकिन उन्हें मोहम्मद शमी के पक्ष में बोलने के चलते निशाना बनाया जा रहा है। लेकिन यहां सिर्फ़ कोहली की आलोचना ही नहीं हो रही है, बल्कि उनकी 10 साल की बेटी को भी निशाना बनाया जा रहा है।

लेकिन भारत में सिर्फ़ दक्षिणपंथी ट्रोल्स ही नहीं रहते हैं। कई लोग सोशल मीडिया पर कोहली की तारीफ़ भी कर रहे हैं। सबसे अहम इस बात पर मीडिया ने कोहली की प्रशंसा भी की है। बल्कि कई लोगों ने कोहली की तुलना सुनील गावस्कर से कर दी, जिन्होंने 1993 के दंगों में एक परिवार को हिंसक भीड़ से बचाया था। यह हमारे वक़्त में सही तुलना है। आभासी दुनिया हमारे ऊपर इतनी छा चुकी है कि हमें लगने लगा है कि शब्द, क्रिया के बराबर ही मायने रखते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। इसलिए हमें कोहली के गुस्से पर ज़्यादा कड़ाई से नज़र डालने की जरूरत है। 

कोहली के वक्तव्य में एक भी ऐसा शब्द नहीं है, जिससे कोई भी सामान्य व्यक्ति सहमति नहीं रखेगा। लेकिन उस पर आईं इतने सारे लोगों की प्रतिक्रियाओं को सिर्फ़ दो रुपये वाले ट्रोल्स की तरह नकारना लापरवाही होगी, खासतौर पर इसलिए क्योंकि इनमें से बहुत सारे एक दिन पहले तक कोहली और भारतीय टीम के कट्टर प्रशंसक थे। इसलिए हमें सोचना होगा कि आज के भारत में इतने सारे क्रिकेट प्रशंसकों को क्यों लगता है कि एक मैच हारना दुनिया का खात्मा होने की तरह है।

कड़वी सच्चाई यह है कि जो लोग भारतीय क्रिकेट को चला रहे हैं, उन्होंने ही प्रशंसकों के दिमाग में यह विचार भरा है कि क्रिकेट एक खेल से बढ़कर है और कोई भी दूसरी टीम हमारी प्रतिस्पर्धी नहीं, बल्कि दुश्मन है। कोहली ने भी इस विचार को गढ़ने में अपनी भूमिका अदा की है। 

कोहली और धोनी की तरह के लोग इस तरह से ऐसा नहीं चाहते होंगे, लेकिन उनकी जिंदगी, उनके प्रशंसकों के लिए उनका संदेश है। प्रशंसक न केवल अपने सितारों के बल्लेबाजी का तरीका या उनके सलीके की नकल उतारते हैं, बल्कि मैदान से बाहर उनके व्यवहार को भी दोहराने की कोशिश करते हैं। हो सकता है वे एक राजनेता के शब्दों को बहुत गंभीरता से ना लेते हों, लेकिन वे अपने पसंदीदा क्रिकेटर के हर शब्द पर गंभीरता से विश्वास करते हैं। आज 24 घंटे चलने वाली खेल की कवरेज में प्रशंसक खिला़ड़ियों के जश्न मनाने, गुस्सा करने, चीखने समेत दूसरी चीजों के साथ किए गए व्यवहार को अपनाते हैं। क्या यह करना सही है या नहीं, यह दूसरा सवाल है?

तीन साल पहले विराट कोहली ऐप लॉन्च किया गया था। इस दौरान प्रचार के लिए एक वीडियो जारी किया गया था, जिसमें कोहली कई लोगों के सवालों का जवाब दे रहे थे। एक व्यक्ति ने लिखा कि उसका सोचना है कि कोहली जितने बेहतर बल्लेबाज हैं, उससे ज्यादा प्रचारित हैं, उसे अंग्रेजी और ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को देखना ज़्यादा पसंद है। कोहली ने जवाब में कहा, "ठीक है। तब मुझे लगता है कि आपको भारत में नहीं रहना चाहिए....आपको कहीं और जाकर रहना चाहिए। आप क्यों हमारे देश में रह रहे हैं और दूसरे देशों को प्यार कर रहे हैं? मुझे यह बुरा नहीं लगा कि आप मुझे पसंद नहीं करते, पर मुझे नहीं लगता है कि आपको हमारे देश में रहना चाहिए और दूसरी चीजों को पसंद करना चाहिए। अपनी प्राथमिकताएं ठीक करिए?"

साफ़ है कि यह टिप्पणी क्रिकेट की मूल भावना के खिलाफ़ जाती है, जहां कैरिबियाई लोगों ने गावस्कर की प्रशंसा में गीत लिखे, ऑस्ट्रेलियाई लोगों ने सचिन के नाम पर अपने बच्चे का नाम रखा और पाकिस्तानी उमर द्राज ने तिरंगा फहराया, क्योंकि वो कोहली का फैन है। लेकिन तब ना तो बीसीसीआई और ना ही किसी पूर्व भारतीय क्रिकेटर ने कोहली को बताया कि उनका व्यवहार खेल की मूल भावना के खिलाफ़ है। साफ़ है कि इस घटना से आम प्रशंसक तक यह संदेश जाता है कि दूसरे देशों के क्रिकेटरों की तारीफ़ करना ईशनिंदा की तरह है।

लेकिन कोहली की उस टिप्पणी में खेल भावना की अनुपस्थिति से कहीं ज़्यादा चीजें मौजूद थीं। वह टिप्पणी, 2014 के बाद से केंद्र सरकार की निंदा करने वालों के खिलाफ़ "पाकिस्तान चले जाने" के व्यंग्य की तरह थी। भारत में आम तौर पर उदार रहने वाले क्रिकेट लेखकों ने किसी वजह से यह बिंदु छोड़ दिया और अब एक दूसरी टीम को समर्थन देने के लिए लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है। 

क्रिकेट को सिर्फ़ एक खेल ना समझने की भावना 2019 में तब चरम पर पहुंच गई, जब कोहली और कंपनी ने रांची में 8 मार्च को आर्मी की तरह की कैप पहनकर एक अंतरराष्ट्रीय मैच खेला। ऐसा पुलवामा आतंकी हमले के पीड़ितों को श्रद्धांजलि देने के लिए किया गया था। दिलचस्प यह रहा कि भारतीय सेना या सरकार में किसी को भी इस पर आपत्ति नहीं हुई कि इन आर्मी कैप पर ना केवल बीसीसीआई, बल्कि स्पॉन्सर का लोगो भी था। टीम ने सेना के बारे में अपने प्यार के बारे में बात की और बताया कि कैसे इंडियन टेरिटोरियल आर्मी में मानद लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर सुशोभित महेंद्र सिंह धोनी के दिमाग में यह विचार आया। 

एक बार फिर ना किसी पूर्व क्रिकेटर, ना विशेषज्ञ, ना ही आईसीसी को इसमें कुछ भी आपत्तिजनक लगा। आईसीसी ने इसे सिर्फ़ "दानार्थ निवेश इकट्ठा करने की एक कोशिश माना।" क्योंकि टीम ने अपना मैच शुल्क राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दिया था। लेकिन आईसीसी के लिए भी तब यह ज़्यादा हो गया, जब महेंद्र सिंह धोनी ने अपने विकेट कीपिंग ग्लब्स पर अपनी रेजीमेंट के खंजर का लोगो लगवा लिया। जब आईसीसी ने इस पर आपत्ति जताई, तो धोनी की तरफ से बीसीसीआई कमेटी ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेटर के प्रमुख विनोद राय और खेल मंत्री किरण रिजिजू ने धोनी के पक्ष में बात रखी। राय का तर्क था कि यह सेना का चिन्ह नहीं है। वहीं मंत्री ने ट्वीट करते हुए कहा, "यह मुद्दा देश की भावनाओं के साथ जुड़ा हुआ है, देश के हितों को दिमाग में रखना होगा।"

मतलब, एक ऐसा क्रिकेट खिलाड़ी जो एक अर्द्धसैनिक बल का सिर्फ़ मानद सदस्य है, उसके दस्तानों पर बना लोगो भी देश की भावनाओं से जुड़ा हुआ है। वह भी इतना कि जब उसे हटाने के लिए कहा जाता है तो एक मंत्री हस्तक्षेप करता है। भारत की तरफ से सेना के कई जवानों ने अलग-अलग खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है, जिसमें मेजर ध्यान चंद और टोक्यो ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले नीरज चोपड़ा भी शामिल हैं। जब उनमें से किसी को सेना के चिन्ह की जरूरत नहीं पड़ी, तो धोनी को क्यों पड़ी? इसका सिर्फ़ एक ही जवाब हो सकता कि धोनी क्रिकेटर से ज़्यादा बनना चाहते हैं। या फिर बोर्ड क्रिकेट खिलाड़ियों को अलग स्तर पर उठाना चाह रहा है। अगर खिलाड़ी प्रशंसकों द्वारा उन्हें सेना के जवानों की तरह मानने का दबाव झेल सकें, तो इसमें कोई बुराई नहीं है।  

अब भारतीय खिलाड़ियों के साथ लगभग वही हो रहा है, जो किसी सेना को युद्ध में हारने के बाद होता है। हारी हुई सेना के सैनिकों को शायद ही कहीं अपने देश में प्यार और इज्जत मिलती है। फिर सबसे बुरी बेइज्जती सेना के जनरल के लिए बची हुई रहती है। कोहली और कंपनी के लिए सिर्फ़ यही आशा है कि उनकी ट्रोलिंग सिर्फ़ ऑनलाइन ही रहे। लाखों भारतीय जानते हैं कि जब ऑनलाइन बांटी गई नफ़रत सड़कों पर आती है, तो क्या होता है। कोहली की कप्तानी में इस भारतीय टीम ने लड़ाकों के हावभाव बनाए हैं, वे जो रूट और कंपनी के खिलाफ़ चल सकते हैं, लेकिन पिछले साल दिल्ली में जैसी हिंसक भीड़ देखी, उसके सामने नहीं चलेंगे। कोई गावस्कर की तरह का साहस खेल के मैदान पर अपनी क्षमता और कड़ी मेहनत से तो दिखा सकता है, लेकिन दंगाईयों के सामने हिम्मत दिखाना बहुत मुश्किल होता है।

(प्रतीक स्वतंत्र पत्रकार हैं, वे कोलकाता में रहते हैं। उन्हें राजनीति, समाज और खेल पर लिखना पसंद है।)

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

The Troll Comes Full Circle for Virat Kohli and How

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