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कला
विवान सुंदरम की कला : युद्ध और मानव त्रासदी की मुखर अभिव्यक्ति
विवान सुंदरम की कलाकृतियां बेहद समसामयिक रहती हैं। वो दिखाती हैं मानव जीवन में सुकून नहीं है। स्थितियां अनुकूल नहीं हैं तो कलाकार कला में मिथ्या सौंदर्य का सृजन कहाँ से करे। सुंदरम की ये कलाकृतियां दादावाद की याद दिलाती हैं।
डॉ. मंजु प्रसाद
10 Oct 2021
painting
कलाकार: विवान सुंदरम, शीर्षक- डेथ ऑफ एन एकेडियन किंग, एंजिन ऑयल और कागज पर चारकोल, साभार : भारत की समकालीन कला एक परिपेक्ष्य

कला और संस्कृति भारी भरकम शब्द। गहन - मनन और बहस का विषय । कलाकार और संस्कृतिकर्मी नाचीज मनुष्य। कलाकार हो तो पोस्टर बनाने आना चाहिए, कलैंडरनुमा चित्र बनाने आ जाए। बहुत खूब। मैंने एक प्रतिष्ठित कलाकार को देखा, उन्हें समाज के ख्याति प्राप्त संस्था प्रमुख द्वारा संस्था का प्रतीक चिन्ह ( लोगो ) बनाने विशेष आदर के साथ बुलाया जाता था। वह जाते थे चित्र बनाने लेकिन 'लोगो' बना नहीं पा रहे थे। मास्टरपीस बन नहीं पा रहा था। संस्था प्रमुख संतुष्ट नहीं थे। कलाकार महोदय क्षुब्ध। कहने का मतलब यही है की दबाव में और कला की समझ न रखने वाले तथाकथित पथप्रदर्शक और जबरन निर्देशित करने वाले निर्देशकों से किसी कलाकार का पाला पड़े तो भगवान ही मालिक है। मेरे एक परिचित कलाकार का किसी पोस्टर प्रिय सामाजिक कार्यकर्ता से पाला पड़ा। सामाजिक कार्यकर्ता को किसी प्रोग्राम में कुछ लेखन सामग्री छपवाने की जरूरत पड़ी। दुर्भाग्यवश प्रिंटर ने 'लोगो' छापा ही नहीं। फिर क्या था सामाजिक कार्यकर्ता ने कलाकार बंधु का साथ लिया और प्रोग्राम स्थल पर ही लगे साधारण कलम से कलाकार बंधु से 'लोगो' बनवाने। जाहिर था कलाकार मित्र ऐसे समाजसेवक से किनारे हो लिए।

कला सिद्धांत गढ़ना और बात है कला प्रवीणता और बात है। उसी प्रकार कला आलोचक होना और बात है। मैं फिर कहती हूँ  कला मर्मज्ञ होने के लिए जरूरी नहीं है आप विद्वान हों, शास्त्रों के ज्ञाता हों । समझ का फेर है।  बहुधा कलाकार नवीन कल्पना से ओत प्रोत ही होते हैं । वे ऐसे आडम्बरों से दूर ही रहते हैं । समकालीन भारतीय कलाकार केवल प्रायोगिक शिल्पी नहीं है वह प्रतिभावान है।  विचारवान है। लेकिन मुट्ठी भर ही। उनमें झिझक है, कमी है अपनी बातों को शब्दों में व्यक्त करने का। संवेदनशील कला समीक्षक कलाकृतियों को सकारात्मक ढंग से देखता है।

कलाकारों और आम लोगों, प्रबुद्ध जनों के बीच एक दूरी सी है। चंद छिटपुट साहित्यिक पत्रिकाएं और कला पत्रिकाओं के द्वारा किये गये प्रयास भी खास प्रभाव नहीं डाल पा रहे हैं। बावजूद इसके समकालीन कलाकार समसामयिक विषयों को अपने चित्रों का खास विषय बना कर  चित्रण कर रहे हैं। दिल्ली जब जाना होता है मण्डी हाउस स्थित कला विथिकाओं के एक चक्कर जरूर लगाया करते हैं। ताकि कुछ नयी कलाकृतियों को हम देख सकें । ऐसे ही घुम्मक्कड़पन वाली वृत्ति करने के दौरान हमें भारत के प्रख्यात कलाकार विवानसुंदरम की नवीन कृतियों को देखने का अवसर मिला, हमें 'रवीन्द्र भवन कला विथिका' ललित कला अकादमी में। कला विथिका में घूमते - घूमते हम एक अंधेरा किये हुए कक्ष में पहुंचे। दरअसल वहां एक विडियो इंस्टालेशन दिखाया जा रहा था जिसमें प्लास्टिक के कचरे का बड़ा सा ढेर था। ढेर पर एक बच्चा बैठा था । एक क्रेन बच्चे को प्लास्टिक के ढेर पर नीचे ऊपर किए जा रहा था। मेरे अनुसार, मानो प्लास्टिक वो भी रिजेक्टेड हमारे जीवन में बहुत ही ज्यादा व्याप्त हो गया। जिधर नजर दौड़ाओ जहरीले प्लास्टिक का ढेर  फैला है। बच्चे को हम भविष्य का प्रतीक भी मान सकते हैं, जिसका जीवन जहरीला प्लास्टिक लील रहा है। बहुत ही डराने वाला और सचेत करने वाला संस्थापन था यह। हद तो ये कुछ अरसा पहले मुझे किसी गाँव में जाने का मौका मिला। वैसा गांव जहाँ एक निरीह गाय की बछिया मेरे सामने ही प्लास्टिक खाने की वजह से  दम तोड़ देती है। वैसा गांव जहाँ पहले उपले से लकड़ी का चूल्हा जलता था ,अलाव जलता था। अब प्लास्टिक के कचरे से  गांव की औरतें चूल्हा जलाती हैं।

मैं और श्याम विवान सुंदरम के इस प्रदर्शनी में रविन्द्र भवन के दूसरे कक्ष में प्रवेश किये। कला विथिका में लकड़ी की कुछ चारापाइयाँ बिछी हुई थीं लेकिन उन पर चमड़े के चप्पल बतौर विस्तर जड़े हुए थे। दरअसल विवान सुंदरम यूरोपीय दादावाद, अतियथार्थवाद और अभिव्यंजनावाद से काफी प्रभावित थे।  प्रथम विश्व युद्ध के दौरान युद्ध की विभिषिका चरम पर थी। लोगों के बड़े पैमाने पर संहार से, कलाकार विचलित थे, किसके लिए सृजन करें। कला सौंदर्य बोध ध्वस्त था। ऐसे में ही निर्भीक कलाकारों , साहित्यकारों, रंग मंच कलाकारों ने ज्यूरिख, स्विटजरलैण्ड में  एक सांस्कृतिक आंदोलन (1916 - 1922) शुरू किया था। जिनका मुख्य उद्देश्य था युद्ध का विरोध करना , पूंजीवाद का विरोध करना।

रविन्द्र भवन की कला विथिका में वास्तव में ये चारपाइयां बिछी जरूर थीं लेकिन, 'आप उस पर बैठ नहीं सकते , आराम नहीं कर सकते '। काफी उद्वेलित और विचारोत्तेजक अभिव्यक्ति थी। विवान सुंदरम की कलाकृतियां बेहद समसामयिक रहती हैं। वो दिखाती हैं मानव जीवन में सुकून नहीं है। स्थितियां अनुकूल नहीं हैं तो कलाकार कला में  मिथ्या सौंदर्य का सृजन कहाँ से करे। विवान सुंदरम की ये कलाकृतियां दादावाद की याद दिलाती हैं। इसी से प्रेरित  मुझे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक और बड़ौदा आर्ट्स काॅलेज से मूर्तिकला में स्नातकोत्तर करने वाली दिल्ली की युवा मूर्तिकार रीता का एक संस्थापन जो श्रीधराणी आर्ट गैलरी में प्रदर्शित हुआ था की याद बरबस हो आती है। जिसमें एक बड़े से गद्देदार शय्या,  जिसपर हरी काई लगी  हुई थी। स्वाभविक था यह प्रभाव पैदा किया गया था। काफी मार्मिक और विचलित करने वाली कलाकृति थी। विषय बड़े शहरों में कैरियर को लेकर संघर्ष कर रहे युवा वर्ग की व्यस्तता को लेकर ही था। दरअसल समकालीन दौर में कलाकार विचारवान है आत्मविश्लेषी है। वह अपने निजी अनुभवों को प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत कर रहा है।

विवान सुंदरम का जन्म 1943 में शिमला में हुआ था।  इनकी माँ इंदिरा शेरगिल अमृता शेरगिल की बड़ी बहन थीं। इनके पिता कल्याण सुंदरम थे। प्रसिद्ध कला इतिहासकार और कला समीक्षक गीता कपूर इनकी पत्नी थीं। दून स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करके विवान सुंदरम ने उच्च शिक्षा एम एस विद्यालय बड़ौदा और लंदन के स्लेड स्कूल ऑफ आर्ट से किया। विवान सुंदरम ने विषम सामाजिक घटनाओं विशेषकर हिंसा पर निर्भिकता से अपनी कला अभिव्यक्ति करते नजर आते हैं। उनके मूर्तिशिल्पों के विषय  निर्दोष तथा कमजोर लोगों पर शक्तिशाली मनुष्यों द्वारा किये अत्याचारों पर आधारित हैं। उदाहरण स्वरूप संस्थापन 'मेमोरियल और मासोलिअम आदि। उनकी चित्र श्रृंखला- साइंस ऑफ फायर , लांग नाइट यथार्थवादी शैली के हैं। एंजिन ऑयल एंड चारकोल खाड़ी युद्ध पर आधारित है। इन चित्रों में युद्ध से विनष्ट और पिड़ित धरती का चित्रण है।

प्रसिद्ध कला समीक्षक और चित्रकार प्राणनाथ मागो के अनुसार ' लांग नाइट में एक अजीब तरह की बेचैनी महसूस की जा सकती है, जो अमूर्त टेक्सचर से पैदा होती है ( युद्ध के ध्वस्त भूदृश्य, संतप्त धरती) और चारकोल में गतिशील हस्तलेख चित्रों के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है।अतीत तथा वर्तमान की विध्वंसात्मक घटनाओं और भविष्य में मंडराते खतरों के बिंबों विश्लेषण बड़े अभिव्यंजक ढंग से किया गया है। लांग नाइट आधुनिक सभ्यता की  विफलता पर एक टिप्पणी है , और संदेहों , व्यथाओं तथा तथा दुश्चिंताओं को साथ लिए - लिए दीर्घ संकट के एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गई है  कि अब मानव , प्रकृति व अन्य मानवों के प्रति उदासीन हो गया है ' - साभार : भारत की समकालीन कला एक परिप्रेक्ष्य, लेखक - प्राणनाथ मागो देश के प्रमुख स्थल चौराहे, प्रतिष्ठित संस्थान  जबकि अनुपयोगी, स्तरहीन  कलाकृतियों से अंटे और सजे पड़े हैं ऐसे में, सच्चाई से रूबरू कराने वाले संस्थापन निर्मित करके विवान सुंदरम ने बड़ी जोखिम से भरी महत्वपूर्ण कलाकृतियां बनाकर भारतीय कला को एक आयाम दिया है। वे देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थापन कलाकार हैं एवं  विचार सम्पन्न  कलाकार हैं।

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों पटना में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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