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कोविड-19
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भूटान और अरुणाचल की तलहटी में डॉक्टर का इंतज़ार
उदलगुड़ी ज़िले में सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की आधारभूत संरचना अच्छी स्थिति में है। लेकिन यहां डॉक्टरों और दूसरे कर्मचारियों की कम संख्या हैरान करने वाली है। महामारी के दौरान भी सरकार ने कुशल कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने की परवाह नहीं की।
संदीपन तालुकदार
05 Jan 2022
भूटान और अरुणाचल की तलहटी में डॉक्टर का इंतज़ार

उदलगुड़ी का प्राकृतिक सौंदर्य अपनी तरफ हर किसी को आकर्षित करता है। बड़ी संख्या में लोग यहां ताजी हवा लेने और यहां के जंगल देखने आते हैं। यह लोग कुछ समय यहां बिताकर वापस चले जाते हैं। लेकिन उदलगुड़ी के लोगों को रोजाना संघर्ष करना होता है, चाहे वह अपनी आजीविका के लिए हो या फिर बीमारियों के खिलाफ़ होने वाली ज़द्दोजहद। उदलगुड़ी में भीतरी इलाकों में घूमने से अनोखा अनुभव होता है, जिसमें भिन्न परिदृश्य, अलग-अलग तरह के लोग और संस्कृति के साथ-साथ आजीविका के कई तरह के साधन देखने को मिलते हैं। बीटीआर (बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन) में स्थित इस जिले की अंतरराष्ट्रीय सीमा भूटान से लगती है। इसके उत्तर में अरुणाचल प्रदेश स्थित है।

लेकिन जब कोई इतनी सुंदर जगह स्वास्थ्य सेवाओं पर नज़र डालता है, तो कई तरह की चिंताएं सामने आती हैं। खासकर महामारी के दौर में यह चिंताएं बेहद गंभीर हो जाती हैं। जिले में सरकारी स्वास्थ्य तंत्र का अच्छा जाल मौजूद है। लेकिन इन स्वास्थ्य केंद्रों में मौजूद श्रमशक्ति की कमी किसी को भी हैरानी में डाल सकती है, वह भी तब जब कोरोना भी सरकार को इस तंत्र को ठीक करने के लिए नहीं जगा पाया है। बल्कि जिले के स्वास्थ्य तंत्र को बड़ी संख्या में डॉक्टर, नर्स और दूसरे स्टाफ की जरूरत है। 

2011 की जनगणना के मुताबिक़, जिले की आबादी करीब़ 8।32 लाख है। इतनी आबादी की तुलना में जब डॉक्टरों की संख्या पर नज़र डालते हैं, तो वो बहुत प्रभावी नज़र नहीं आती। ऊपर जिला प्रशासन की वेबसाइट द्वारा उपलब्ध डॉक्टरों की सूची में होमियोपैथिक, आयुर्वेदिक, जनरल एमबीबीएस, फिर एमबीबीएस करने के बाद अनिवार्य ग्रामीण नियुक्ति पर तैनात डॉक्टर, सब तरह के कर्मचारियों को शामिल किया गया है। दिलचस्प है कि इस सूची में विशेषज्ञों की संख्या बहुत कम है। इससे सरकारी स्वास्थ्य सुविधा तंत्र की हालात का पता चल जाता है। 

जब हम उदलगुड़ी सिविल हॉस्पिटल पहुंचे तो हमने वहां बेहद व्यस्त डॉ गणेश दास को पाया। डॉक्टर दास आर्थोपेडिक (हड्डियों के डॉक्टर) हैं। फिर ओपीडी (आउट पेशेंट डिपार्टमेंट) के घंटों में उन्हें हड्डी टूटने, मांसपेशियों में खिंचाव और दुर्घटनाओं के कई मामलों को देखना होता है। जब हम उनके केबिन में बैठे हुए थे, तभी कई ऐसे मरीज़ भी वहां आए, जिन्हें किसी दूसरे विभाग में जाकर देखना था। डॉ दास कहते हैं, "ग्रामीण लोग बुनियादी चिकित्सा शब्दावलियों से अब भी अपरिचित हैं। मुझे ऐसे लोगों के साथ व्यवहार का अनुभव है, जिन्हें फेफड़े या प्रसूति संबंधी दिक्कतें थीं। हम डॉक्टरों को लोगों को यह समझाने की जरूरत है कि उन्हें किन रोगों के लिए किन डॉक्टरों से मिलना चाहिए।" जब हमने पूछा कि इन लोगों में जागरुकता की कमी क्यों है और क्यों स्वास्थ्य विभाग इन लोगों को समझाने का काम नहीं कर रहा है, तो डॉक्टर दास ने जवाब में सिर्फ़ मुस्कुरा दिया। 

डॉ दास ने अस्पताल के बारे में कुछ बुनियादी जानकारी दी। हालांकि इस अस्पताल में 200 बिस्तरों का अस्पताल है, लेकिन यहां सिर्फ़ड 100 बिस्तर ही सुचारू हैं। डॉ दास कहते हैं, "यह चौबीस घंटे चलने वाला अस्पताल है। रात में इमरजेंसी वार्ड में एक डॉक्टर की तैनाती भी होती है। हम यहां 16 डॉक्टर है और हमें अपने काम के घंटे इमरजेंसी और ओपीडी वार्ड के बीच बांटने होते हैं। लेकिन अस्पताल में पर्याप्त संख्या में नर्स हैं।" बता दें इस सिविल हॉ़स्पिटल को 8-9 लाख की आबादी को सेवा देनी होती है। सिविल हॉस्पिटल जिले में सर्वोच्च सरकारी अस्पताल होते हैं, जिनके अंतर्गत बीपीएसची (ब्लॉक पब्लिक हेल्थ सेंटर्स- ब्लॉक जनस्वास्थ्य केंद्र), सीएचसी (कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर- सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र), स्टेट डिस्पेंसरी और स्वास्थ्य उपकेंद्र होते हैं। इनमें से हर कोई क्षेत्र की आबादी के हिसाब से बनाया जाता है। उदलगुड़ी में तीन बीपीएसची हैं।

डॉ दास ने क्षेत्र में मौजूद बीमारियों और समस्यायों के बारे में भी बताया, "अप्रैल और मई से संक्रमण का उच्चतम सत्र चालू होता है, जो जुलाई-अगस्त तक हर साल चलता है। ज़्यादातर बीमारियों में अज्ञात स्त्रोत् से पैदा होने वाले बुखार, टाइफाइड, मलेरिया शामिल हैं।" डॉ दास ने बड़ी संख्या में रोड एक्सीडेंट में घायल होने वाले मरीज़ों की अस्पताल में बड़ी आवक के बारे में भी बताया। सिर्फ़ उन्होंने ही नहीं, हमने जितने भी अस्पतालों का दौरा किया, हमें इस तरह की दुर्घटनाओं में घायल मरीज़ों के बारे में बताया गया, जिले में इनकी संख्या बड़ी है। इसके साथ पेड़ से गिरकर घायल होने के मामले भी बड़ी संख्या में आते हैं। 

बता दें उदलगुड़ी असम में सबसे ज़्यादा मलेरिया से प्रभावित जिलों में से एक है। हर स्वास्थ्य केंद्र में आपको मलेरिया टेस्टिंग किट बिल्कुल तैयार मिलेगी। डॉ दास ने बताया कि 2009-10 में बड़े पैमाने पर मलेरिया फैला था। बाद में मलेरिया को बहुत हद तक काबू में कर लिया गया है। 

सिविल हॉस्पिटल में ही एमडी मेडिसिन और एसएमओ (सीनियर मेडिकल ऑफिसर) डॉ भागीरथ डे कोविड नोडल अधिकारी भी हैं। डॉ डे ने न्यूज़क्लिक से महामारी में स्वास्थ्य तंत्र की प्रतिक्रिया पर बात की। उन्होंने कहा, "पहली लहर के दौरान अस्पताल में 90 बिस्तरों की सुविधा थी, जिसमें 5 में सेमी-आईसीयू सुविधा उपलब्ध थी। लेबर रूम अलग से संचालित थे, अस्पताल में कोविड मरीज़ों का प्रसव बी करवाया गया। लेकिन जब भी मरीज़ों की संख्या बढ़ती, हमें उन्हें सीसीसी (कोविड सेवा केंद्र) भेजना पड़ता। अगर मरीज़ों की हालत गंभीर होती तो उन्हें तेजपुर मेडिकल कॉलेज या गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज भेजना पड़ता।" कोविड सुविधा केंद्र कोरोना के मरीज़ों के लिए बनाए गए विशेष अस्थायी केंद्र थे। इन्हें अलग-अलग परिसरों जैसे कॉलेज, स्कूलों में बनाया गया था। यहां ध्यान देने वाली बात है कि गुवाहाटी, उदलगुड़ी सिविल हॉस्पिटल से 100 किलोमीटर दूर, जबकि तेजपुर मेडिकल कॉलेज 60 किलोमीटर दूर स्थित है। डॉ डे ने बताया कि अस्पताल में एक एंबुलेंस है और कोरोना के चरम के दौरान 108 एंबुलेंस सेवा सुचारू थी, जिसके ज़रिए गंभीर मरीज़ों को लाने और ले जाने का काम किया गया।  

उदलगुड़ी सिविल हॉस्पिटल में स्थित कोविड आइसोलेशन वार्ड

डॉ डे ने आगे कहा, "दूसरी महामारी के दौरान, कोरोना मरीज़ों के लिए 35 जनरल बेड और 5 सेमी-आईसीयू बेड थे। इस दौरान हमें ऑक्सीजन की जरूरत पड़ी, जिसकी बहुत बड़ी कमी का सामना हमें नहीं करना पड़ा। हम उन सिलेंडरों को तेजपुर और गुवाहाटी में भरवाते थे। कुलमिलाकर अस्पताल में कोरोना से 18 की मौत हुई, जिनमें से ज्यादातर कोरोना के साथ सह-बीमारियों के चलते हुई थीं।"

शोध के दौरान न्यूज़क्लिक की टीम जहां गई, इस नक्शे में उन्हें चिन्हित किया गया है।

कोरोना जांच, संपर्क खोज और आइसोलेशन के बारे में डॉ डे ने बताया कि गांवों में आशा कार्यकर्ताओं की मदद से अनियमित कोरोना जांच भी की गईं, वहीं अस्पताल में नियमित जांच की गईं। आशा कार्यकर्ताओं ने बहुत मदद की और महामारी के दौरान कड़ी मेहनत की।

सिविल हॉस्पिटल से पश्चिम में जाने पर न्यूज़क्लिक की टीम हरिसिंगा मॉडल हॉस्पिटल पहुंची। ग्रामीण इलाके में स्थित यह मॉडल हॉस्पिटल महामारी की शुरुआत में 16 फरवरी, 2020 को स्थापित किया गया था। उस वक़्त लोगों को बिलकुल नहीं पता था कि यह महामारी कैसे दुनिया को रौंध देगी। हम लोग वहां दोपहर को पहुंचे, हमने पाया कि अस्पताल पूरी तरह खाली दिखाई दे रहा था। लेकिन कुछ डॉक्टर औरह नर्सें अस्पताल में मौजूद थे। 

मॉडल हॉस्पिटल के उपाधीक्षक डॉ बी के डायमरी ने न्यूज़क्लिक से बात की। उनके शब्दों में अस्पतालों में सुविधाओं की कमी साफ़ नज़र आ रही थी। उन्होंने कहा, "मॉडल हॉस्पिटल में 30 बिस्तर होने थे, लेकिन हमारे पास सिर्फ़ 2 नियमित डॉक्टर हैं, साथ ही एक अनिवार्य ग्रामीण सेवा योजना पर तैनात डॉक्टर हैं। इसके अलावा 10 जीएनएम (जनरल नर्सिंग एंड मिडवाईफ) हैं।" बता दें मॉडल हॉस्पिटल के अंतर्गत 6 उपकेंद्र हैं और इसे करीब़ एक लाख की आबादी को लाभ देना होता है। 

हरिसिंगा मॉडल हॉस्पिटल, उदलगुड़ी

डॉ डायमरी ने कहा कि कोविड के चरम के दौरान अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी थी। लेकिन जब जरूरत पड़ती थी, तो जिला अस्पताल से डॉक्टर यहां आते थे। मॉडल हॉस्पिटल के पास उस दौर में सिर्फ़ कोविड सुविधा केंद्र तक मरीज़ों को भेजने का ही विकल्प था। गंभीर मामलों में मरीज़ को सिविल हॉस्पिटल या तुमुकी (तेजपुर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल) भेजा जाता था। 

डॉ डायमरी कहते हैं, "मॉडल हॉस्पिटल में डॉक्टरों के पांच पद स्वीकृत हुए थे, लेकिन उनमें से तीन सिविल हॉस्पिटल में काम कर रहे हैं। अब तक बाकी दो पदों पर डॉक्टरों ने नियुक्ति नहीं ली है।" यहां दिक्कत यह है कि मॉडल हॉस्पिटल को 5 पद आवंटित हैं, लेकिन इनमें से 3 सिविल हॉस्पिटल में नियुक्त हैं, ऐसे में मॉडल हॉस्पिटल डॉक्टरों की कमी की बात नहीं कह सकता। लेकिन वास्तविकता यह है कि यहां डॉक्टर सेवाएं नहीं दे रहे हैं और मॉडल हॉस्पिटल अपनी जस की तस स्थिति में बना हुआ है। डॉ डायमरी ऐसी स्थिति के बने रहने पर चिंता जताते हैं। जबकि अभी महामारी का दौर जारी है और जल्द ही ओमिक्रॉन से कोरोना के मामले बढ़ने की आशंका जताई जा रही है। 

डॉ डायमरी कहते हैं कि आसपास के इलाके में जांच, संपर्क खोज और टीकाकरण मुश्किल है। ग्रामीण लोगों वैक्सीन लगवाने को लेकर प्रतिकूल स्वाभाव रखते हैं। उन्हें पॉजिटिव आने का डर लगता है, इसलिए जिन लोगों को बुखार आता है, उन्होंने अस्पताल आना बंद कर दिया है। हालांकि टीकाकरण पर शंकाओं का समाधान किया गया है और अब स्थिति थोड़ी बेहतर है। पूरे उदलगुड़ी में इस तरह की स्थिति देखी जा सकती है। 

हरिसिंग से आगे हम उदलगुड़ी के बिल्कुल उत्तर में कोर्रामोर टी एस्टेट पहुंचे। यहां की कच्ची सड़कें आपको एस्टेट के भीतर ले जाती हैं। यह असम के सबसे बड़े चाय बागानों में से एक है, इसका स्वामित्व विलियमसन मेगोर समूह के पास है। यह बागान करीब़ 488 हेक्टेयर में फैला हुआ है और यह भूटान पहाड़ियों के पास है। इस तरह यह इलाका अंतरराष्ट्रीय सीमा को भी छूता है। 

टी एस्टेट के अस्पताल में डॉ नबाजित हतिबरुआ की नियुक्ति हैं, जो सीनियर मेडिकल ऑफिसर हैं। इस अस्पताल की देखरेख चाय कंपनी द्वारा की जाती है। बल्कि हर टी एस्टेट में इस तरह के अस्पताल हैं, जो वहां काम करने वाले कामग़ारों के लिए बने हैं। लेकिन इस अस्पताल में सिर्फ एक ही डॉक्टर है। बाकी एस्टेट के अस्पतालों में भी कमोबेश यही स्थिति है। डॉ हातिबरुआ के मुताबिक़ इस एस्टेट में 5000 से ज़्यादा कामगार हैं, इसलिए यहां एकमात्र अस्पताल पर्याप्त नहीं है। उनके मुताबिक़ कोर्रामोर अस्पताल 45 बिस्तरों का अस्पताल है। 

डॉ हातिबरुआ ने कोरोना जांच, संपर्क खोज और टीकाकरण में बहुत मुश्किलें आने की बात कही। उन्होंने कहा, "लोग बहुत विरोध करते हैं और कोई उन्हें नहीं मना सकता। दूसरी लहर के दौरान यहां 69 पॉजिटिव केस आए थे। लेकिन बिना लक्षण वाले मरीज़ के घरवाले यहां आकर हमारे ऊपर साजिश का आरोप लगाते। वे कहते कि अगर व्यक्ति में लक्षण नहीं दिखाई दे रहे हैं, तो वो पॉजिटिव कैसे हो सकता है? डॉ हातिबरुआ ने यह भी कहा कि उन्हें एक बिंदु पर आकर जांच रोकनी पड़ी थी। टीकाकरण कार्यक्रम के साथ भी यही हुआ था। डॉ हातिबरुआ कहते हैं, "विश्वास मानिए एस्टेट के भीतर टीकाकरण के 50 अभियान चलाए गए।" लेकिन डॉ हातिबरुआ बताते हैं कि एस्टेट के भीतर कोरोना का कोई भी गंभीर मरीज़ नहीं आया। लेकिन उनके शब्दों से साफ़ पता चलता है कि कोर्रामोर के भीतर सरकार की तरफ से टीकाकरण और टीकाकरण टीमें उपलब्ध कराने के अलावा कोई विशेष अभियान नहीं चलाया गया। 

कुछ कामग़ारों से हमने बात की, उन्होंने बताया कि यहां काम करने वाले कामग़ार बहुत कम दैनिक वेतन (205 रुपये) पर काम करते हैं। ऐसे में उन्हें बीमारी से इतर रोजना के संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। सभी कामगारों ने अपनी बात नाम ना छापने की शर्त पर कहीं।

असम के साथ-साथ भारत की सीमा पर स्थित भैराबकुंडा एचडबल्यूसी

कोर्रामोर से आगे हम जिले के एकदम उत्तरी बिंदु भैराबकुंडा पहुंचे। यह एक अहम पर्यटन केंद्र है और इसकी सीमा भी भूटान और पड़ोसी अरुणाचल प्रदेश से लगती है। इस हिसाब से देखें तो भैराबकुंडा स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र ना केवल असम, बल्कि भारत का भी इस इलाके में आखिरी स्वास्थ्य केंद्र है।

स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र (HWC- हेल्थ एंड वेलफेयर सेंटर) पहले उपकेंद्र थे। इस केंद्र की सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी (कम्यूनिटी हेल्थ ऑफिसर- CHO) बिदिशा दास कहती हैं कि उपकेंद्र और एचडब्ल्यूसी में यह अंतर है कि उपकेंद्र में प्रसव सेवा उपलब्ध नहीं होती। इस केंद्र में कोई डॉक्टर नहीं है। लेकिन यहां 2 एएनएम (ऑक्सीलरी नर्सिंग मिडवाइफ) की नियुक्ति है। बिदिशा दास ने न्यूज़क्लिक को बताया कि "हमें 7 गांवों में 5,356 की आबादी को स्वास्थ्य लाभ देना होता है।" एचडब्ल्यूसी शिशु सेवा भी उपलब्ध करवा सकते हैं और नियमित टीकाकरण भी करवा सकते हैं। बिदिशा ने हमें यह भी बताया कि यहां कोविड टीकाकरण अभियान भी चलाया गया था। साथ ही गांवों में कुछ अनियमित कोरोना जांच भी करवाई गई थीं। लेकिन यह केंद्र सिर्फ़ प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा ही उपलब्ध करवा सकते हैं।  

वहां मौजूद स्वास्थ्य निगरानी कर्मचारी प्रणय नरज़ारी ने हमें कुछ दिलचस्प बताया। वे अपने इलाके में मलेरिया के कहर को याद कर रहे थे। उन्होंने कहा, "पिछले साल हमारे यहां मलेरिया का कोई मामला नहीं आया।" नरज़ारी ने हमें बताया कि मलेरिया को नियंत्रित करने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाए गए थे, जैसे मुफ़्त में मच्छरदानी देना, गांवों में डीडीटी का छिड़काव करना। नरज़ारी हंसते हुए बताते हैं, "कुछ शोध टीम अपने साथ मलेरिया के मच्छरों को ले गईं और पता नहीं उन्होंने उनके साथ क्या किया।"

एकराबाड़ी एचडब्ल्यूसी

हमने ऐसे ही एक स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र एकराबाड़ी एचडब्ल्यूसी का दौरा भी किया। यह उदलगुड़ी के दक्षिण-पश्चिम इलाके में स्थित था। वहां की सीएचओ पायल बानिक ने केंद्र में एक भी नर्स ना होने पर चिंता जताई। पायल ने कहा, "मुझे और केंद्र में तैनात फार्मासिस्ट को ही रोजोना आने वाले मरीज़ों को देखना होता है। औसत तौर पर हमारे यहां 30-40 मरीज़ आते हैं, जो बीमारी के चरम दौर में बढ़ जाते हैं।

पायल के मुताबिक़, यह केंद्र 10 हजार की आबादी को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाता है। इस इलाके में मिश्रित आबादी रहती है, जिसमें मुस्लिम, बोडो और दूसरे लोग शामिल हैं। पायल ने कहा कि अल्पसंख्यक वर्ग में तुलनात्मक तौर पर वैक्सीन पर प्रतिक्रिया सकारात्मक रही है। यहां टीकाकरण अभियान जिला अस्पताल की मदद से चलाया गया था। 

महामारी जैसी स्थिति में एचडब्ल्यूसी जैसे स्वास्थ्य ढांचे बेहद अहम हो सकते हैं, क्योंकि स्वास्थ्य तंत्र में सबसे निचले स्तर, मतलब आधार में स्थित होते हैं। आईसीयू को छोड़िए, रात के दौरान आपात मामलों के लिए यहां प्राथमिक सेवा भी उपलब्ध नहीं होगी। ऊपर से एकराबाड़ी तक आसानी से पहुंच भी उपलब्ध नहीं है, ऐसे में एक एंबुलेंस को पहुंचने में भी यहां वक़्त लगता है। 

जब हम एकराबाड़ी केंद्र पहुंचे थे, तो पास की ही एक एचडब्ल्यूसी से एक दूसरा सीएचओ भी वहां मौजूद था। ख्याम नेवार, अमीनपाड़ा एचडब्ल्यूसी के सीएचओ हैं। उन्होंने हमें बताया कि उनके केंद्र को 7000 की आबादी को स्वास्थ्य लाभ देना होता है, लेकिन उनके यहां भी सिर्फ़ एक ही एएनएम की तैनाती है। 

ओरांग सीएचसी

जिले के बिल्कुल दक्षिणपूर्व में ओरांग सीएचसी (सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र) स्थित है। डॉ बिनीता सरमा वहां एसएमओ हैं। उन्होंने हमें बताया कि यह सीएचसी, ब्लॉक पीएचसी के साथ सम्मिलत है। उन्होंने हमें बताया कि "सीएचसी और ओरांग बीपीएचसी, दोनों ही एक परिसर से चल रही हैं।"

लगभग दो बजे, तुलनात्मक तौर पर बेहतर बिल्डिंग वाले इस अस्पताल में सिर्फ़ एक ही डॉक्टर मौजूद था। डॉ बिनिता ने यहां डॉक्टरों की कमी पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि यहां सिर्फ़ दो पूर्णकालीन डॉक्टर हैं, साथ ही 10 नर्सों की तैनाती है। डॉ बिनिता कहती हैं, "हम कुछ लोग ही मिलकर यह अस्पताल चला रहे हैं।"

वह कहती हैं कि ज़्यादातर उन्हें सड़क दुर्घटनाओं और दूसरी घटनाओं में घायल होने वाले मरीज़ों को देखना होता है। ओरांग सीएचसी के अंतर्गत बड़े पैमाने पर फैले चाय बागान आते हैं (जैसे- मज़बात टी गार्डन, प्रांग टी एस्टेट आदि)। आसपास मुस्लिम आबादी रहती है। डॉ बिनिता ने हमें बताया कि उन्हें यहां चाय बागान के अस्पतालों से आए मरीज़ों को देखना होता है। ओरांग सीएचसी में सिर्फ़ एक ही एंबुलेंस है और यह चौबीस घंटे चलती है। वह कहती हैं, "हम कैंपस में बने क्वार्टर में ही रहते हैं, जब भी कोई दुर्घटना का मामला आता है, तो चाहे रात हो या दिन हो, हम यहां पहुंच जाते हैं।" हम वहां कोई दूसरे डॉक्टर से नहीं मिल सके, जो हमें बताता कि कोरोना के चरम के दौरान क्या-क्या कदम उठाए गए थे। क्योंकि डॉ बिनिता का कहना है कि उनकी कोविड से जुड़े कामों में ज्यादा ड्यूटी नहीं लगाई गई। लेकिन बड़े सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों और दूसरे कर्मचारियों की कमी चिंताजनक है। 

फतेमा खातून पास के ही जंगलपाड़ा गांव की रहने वाली हैं, वे यहां अपनी टूटी हड्डी का इलाज़ कराने आई हैं। वह कहती हैं, "अस्पताल में एक्स-रे की सुविधा नहीं है। हमें यह निजी केंद्रों में करवाना पड़ता है। ज़्यादा गंभीर मामलों में हमें तुमुकी जाना पड़ता है।"

ओरांग से आते हुए हम रोवला मॉडल हॉस्पिटल पहुंचे, जो 2016 में स्थापित किया गया था। हमारी यात्रा के दौरान वहां एक डॉक्टर मौजूद था, जिन्होंने नाम ना छापने की शर्त पर हमसे बात की। उन्होंने हमें बताया कि इस मॉडल हॉस्पिटल में जिले में सबसे ज़्यादा प्रसव के मामले में आते हैं। लेकिन अस्पताल में भर्ती करने के लिए बहुत कम सुविधाएं उपलब्ध हैं। अस्पताल के पास सिर्फ़ एक ही एंबुलेंस मौजूद है, जो काम नहीं करती। 

डॉक्टर ने हमें बताया कि कोरोना के चरम के दौरान भी सुविधाओं की कमी बनी रही। उन्होंने कहा, "दूसरी लहर में तीन महीने तक पीपीई किट मौजूद नहीं थीं।" हॉस्पिटल में एक्स-रे, सोनोग्राफी की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है, स्कैनिंग के बारे में तो भूल ही जाइये। डॉ ने आगे कहा, "जिला प्रशासन द्वारा दिए गए लक्ष्य को पूरा करने के लिए अनियमित कोरोना जांच की गई थी। पॉजिटिव मरीज़ों कोविड सेवा केंद्र, तुमकी या फिर जिला अस्पताल भेज दिया गया था।" मॉडल हॉस्पिटल को 5 गांवों की करीब़ 35,000 की आबादी को स्वास्थ्य लाभ देना होता है। यहां भी डॉक्टर ने वही बात दोहराई, जो डॉ नरज़ारी ने हमे कही थी। डॉक्टर ने कहा, "मुझे भी हफ़्ते में तीन दिन जिला अस्पताल जाना होता है। लोगों का यहां स्थानांतरण हो जाता है, लेकिन वे शहरों में रहना चाहते हैं। इसलिए वे खुद को शहरों के अस्पतालों में अटैच करवा लेते हैं। जबकि इनकी नियुक्ति यहां होती है।"

उदलगुड़ी जिले में स्वास्थ्य का अच्छा ढांचा होने के बावजूद श्रमशक्ति की कमी है। हमने जिले के जिन नागरिकों से बात की, उन्होंने भी यही चिंता जताई। गेरुआ गांव के एक युवा बिक्रम बासुमातारे ने हमसे कहा, "हमें दरअसल ज़्यादा डॉक्टर और नर्सों की जरूरत है। जिला अस्पताल में भी एक दांत का डॉक्टर बुखार या दूसरे रोग से पीड़ित रोगी का इलाज़ कर सकता है। लोग जागरुक नहीं हैं, लेकिन स्वास्थ्य ढांचा भी स्थिति सुधारने की दिशा में कदम नहीं उठाता। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर जल्दबाजी में अपनी ड्यूटी करते हैं, लेकिन जब वे निजी अस्पतालों में जाते हैं, तो उनका व्यवहार बदल जाता है। ऊपर से डॉक्टर वहीं दवाईयां लिखते हैं, जो एमआर (मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव) द्वारा प्रायोजित की जाती हैं। उन्हें अस्पताल में मौजूद दवाईयां लिखनी चाहिएं। दवाईयों की आपूर्ति भी पर्याप्त नहीं है।"

यहां दूसरे मुद्दे भी हैं। कुछ अस्पतालों में एक्स-रे किया जाता है। लेकिन कोई ऐसा डॉक्टर मौजूद नहीं है, जो उन्हें पढ़ सके और समस्या बता सके। एक्स-रे फिल्मों को तब विशेषज्ञों के पास भेजा जाता है और वे ऑनलाइन उसे पढ़कर बताते हैं। अल्ट्रासाउंड के लिए व्यक्ति को तारीख़ लेनी पड़ती है, कई बार यह बहुत लंबी प्रक्रिया बन जाती है। 

रिपोर्ट्स का शोध ठाकुर फ़ैमिली फाउंडेशन से मिले अनुदान से समर्थित है। इस शोध की सामग्री पर ठाकुर फैमिली फाउंडेशन का कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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