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राजनीति
हम, अपने लिए, शासकों द्वारा निर्धारित भविष्य से इनकार करते हैं : कार्ल मार्क्स जयंती पर विशेष
मार्क्स ने पूंजीवादी समाज की रचना तथा उसके विकास की नियमों का ढांचा उस समय तैयार किया था जब उसका संपूर्ण विकास सिर्फ एक देश इंग्लैंड में ही हुआ था और जिस समय दुनिया की आबादी का सिर्फ एक फीसद हिस्सा औद्यौगिक मज़दूर था। फिर भी उन्होंने देख लिया था कि यही वर्ग है जो भविष्य में युद्ध, गरीबी और उत्पीड़न से मुक्त समाज का निर्माण करेगा।
अनीश अंकुर
05 May 2021
कार्ल मार्क्स

मार्क्स कहा करते थे जितनी चीजें हमारे आस-पास हैं, पूंजीवाद सबको माल में तब्दील कर डालता है। 'कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो' में बहुत अच्छे तरीके से दिखलाया गया है कि जिन चीजों को तोहफे में दिया जाता था पर अदला-बदली नहीं होती थी, जिन चीजों को दिया करते थे उन्हें बेचा नहीं करते थे, जिन चीजों को हासिल किया जाता था, उसको खरीदा नहीं जाता था। पूंजीवाद ने इन सब पवित्र चीजों को पण्य वस्तु में यानी खरीदने-बेचने की चीज में बदल डाला है। 

मार्क्स हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम अपने आस-पास की दुनिया के बारे में सही ढ़ंग से, सही किस्म के सवाल उठाना सीखें। ब्रिटिश अर्थशास्त्री मॉरिस डॉब कहा करते थे कि ‘‘मार्क्सवाद के बारे में ये बताना ज्यादा कठिन है कि मार्क्सवाद क्या नहीं है बजाए इसके कि मार्क्सवाद है क्या?’’

आवश्यकता के क्षेत्र से स्वतंत्रता के क्षेत्र की ओर

मार्क्स के लिए दो चीजें सबसे प्रमुख थीं। पहली आवश्यकता का क्षेत्र और दूसरा स्वतंत्रता का क्षेत्र। हम आवश्यकता के क्षेत्र को पूरा कर लेने के बाद स्वतंत्रता के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। स्वतंत्रता का क्षेत्र आवश्यकता के क्षेत्र पर ही खड़ा होता है। आवश्यकता का क्षेत्र का मतलब हमारी भौतिक दुनिया है। हमारी सांसारिक जरूरतों के लिए जरूरी आवश्यक श्रम हो सके। इस भौतिक दुनिया को दो तरीकों से चलाया जा सकता है। पूंजीवाद या फिर समाजवाद या साम्यवाद। मार्क्स के अनुसार मानवता के विकास की जो असीम संभावनाएं हैं उनके सामने पूंजीवाद सबसे बड़ी बाधा के रूप में उपस्थित हो चुका है। 

खुद पैसे के मोहताज लेकिन 'पूंजी' की रचना की

मार्क्स के प्रिय लेखकों में थे गोथे, दांते, शेक्सपीयर, बाल्जाक इत्यादि। फ्रांसीसी लेखक बाल्जाक के बारे में मार्क्स एक किताब भी लिखना चाहते थे। मार्क्स ‘पूंजी’ के बाद बाल्जाक पर ही लिखना चाहते थे। पूंजी को तो उन्होंने ‘ इकॉनोमिक क्रैप ’ तक कह डाला था। जिस मार्क्स के पास जीवन पर पूंजी का अभाव रहा, पैसे-पैसे के मोहताज रहे, वही पूंजी के चरित्र को समझाने वाले दुनिया की सबसे अच्छी मशहूर किताब लिखते हैं। 

मार्क्स ने पूंजीवादी समाज की रचना तथा उसके विकास की नियमों का उदघाटन उस समय किया था जब उसका संपूर्ण विकास सिर्फ एक देश इंग्लैंड में ही हुआ था। जिस समय उन्होंने 'पूंजी' पर काम शुरू किया था उस समय दुनिया की आबादी का सिर्फ एक फीसद हिस्सा औद्यौगिक मज़दूर था। फिर भी उन्होंने देख लिया था कि यही वर्ग है जो भविष्य में युद्ध, गरीबी और उत्पीड़न से मुक्त समाज का निर्माण करेगा।

मूल्य का श्रम सिद्धांत बहुत खतरनाक

इंग्लैंड में अठारहवीं सदी में पूंजीवाद का विकास हो रहा था। इसी वक्त एडम स्मिथ आते हैं जिन्होंने ' वेल्थ ऑफ नेशन्स' जैसी युगांतकारी किताब लिखी। उन्होंने बताया कि मूल्य लेबर यानी श्रम से पैदा होता है। सभी प्रकार के मूल्यों का सृजन श्रम करता है। मार्क्स के नोटबुक में एडम स्मिथ की ये बात लिखी हुई थी " सोना और चांदी नहीं बल्कि श्रम है, धन का मुख्य कारण।" ये बहुत ही बहुमूल्य बात थी और अर्थशास्त्र में बहुत बड़ी छलांग। मूल्य का श्रम सिद्धांत मार्क्स ने नहीं खोजा था बल्कि सिर्फ़ उसे परिष्कृत किया था । बाद में ‘‘ मूल्य के श्रम सिद्धांत’ को बेहद खतरनाक माना जाने लगा। एडम स्मिथ के इन विचारों को आगे नहीं बढ़ाया गया। बुर्जआ इस विचार से आतंकित हो गए थे। यह सिद्धांत पूंजीवाद के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। जब' श्रम ही मूल्य का स्रोत होता है’’ तो फिर क्यों नहीं श्रम के प्रतिनिधियों के हाथ में नियंत्रण होना चाहिए। ये विचार समाजवाद की तरफ ले जा सकता है। 

बुर्जआ अर्थशास्त्री इस सच्चाई पर पर्दा डालते हैं।

इसलिए येन केन प्रकारेण बुर्जआ अर्थशास्त्री इस सच्चाई पर पर्दा डालने के काम में लग गए। बुर्जुआ अर्थशास्त्री मानते थे कि मार्क्स के ये सिद्धांत भले वैज्ञानिक हैं लेकिन हैं खतरनाक । इन्हीं वजहों अर्थशास्त्र अब विज्ञान के रूप में नहीं पढ़ाया जाता । विश्विद्यालय में एडम स्मिथ के लेबर थ्योरी ऑफ वैल्यू को नहीं पढ़ाया जाता। वे मार्जिनल यूटिलिटी का सिद्धांत पढ़ाते हैं जिसमें मुनाफा आगे कैसे पढ़ाया जाए, सिस्टम को कैसे चलाते रहा जाए इन सब बातों पर अधिक जोर रहता है। इन्हीं वजहों से ये जिम्मा कार्ल मार्क्स के कंधे पर गया कि ‘लेबर थ्योरी ऑफ वैल्यू’ को आगे बढ़ाकर उसकी तार्किक परिणत तक ले जाया जाए। 

कमोडिटी फेटिसिज्म 

एडम स्मिथ के बाद अर्थशास्त्र में बेहद प्रतिष्ठित नाम डेविड रिकार्डो का आता है। इन लोगों ने मार्क्स के पूर्व एक मजबूत आधार तैयार किया था। लेकिन इन लोगों की दिक्कत थी कि वे संबंधों को लोगों के मध्य आपसी संबंधों के रूप में नहीं बल्कि वस्तुओं के मध्य के संबंध के रूप में देखा करते थे। इन लोगों को लगता था वस्तुएं, चीजों की आवाजाही ही प्रमुख है इसके पीछे मनुष्यों के संबंध को नहीं देख पाते थे। इसे मार्क्स ने ‘कमोडिटी फेटिसिज्म’ कहा है। आदिम कबीलाई समाज में चीजों के प्रति जादुई आकर्षण के मोहपाश में बंधे हुआ करते थे। ठीक ऐसा ही पूंजीवाद में वस्तुओं के प्रति, माल के प्रति होता है। हर चीज माल में बदल जाती है। जैसे अस्पताल में आप मरीज नहीं ग्राहक हैं। एडम स्मिथ व डेविड रिकार्डो माना करते थे कि पूंजीवाद एक हमेशा मौजूद रहने वाली शाश्वत प्रणाली है। जबकि मार्क्स ने पूंजीवादी समाज को खत्म किये जाने की अनिवार्यता और सर्वहारा वर्ग के विश्व ऐतिहासिक मिशन को रेखांकित किया था। पूंजीवादी समाज के विकास के नियमों के उदघाटन के क्रम में उन्होंने समाजवाद को भी सदा-सदा के लिए' दिवा-स्वप्न' से एक विज्ञान में परिवर्तित कर दिया ।

पूंजीवाद की कोशिका है 'माल'

पूंजीवादी व्यवस्था का मुख्य आधार, बुनियादी कोशिका है ‘माल’। माल, ‘वस्तु’ यानी उस चीज का उत्पादन जिसकी बिक्री की जा सके। मार्क्स ने बहुत सारा वक्त माल को समझने में लगाया है। आखिर ये क्या बला है ‘माल’? 

वे कहते हैं कि हर चीज माल नहीं होती माल वही होता है जिसे बिक्री के लिए उत्पादित किया जाए। आप अपने बाग में सब्जी अपने उपभोग के लिए उगाते हैं लेकिन वो माल नहीं है । माल वही है जिसका विनिमय होता है। पूंजीवाद की सबसे मुख्य बात यही है कि माल का उत्पाद विनिमय के लिए होता है। फिर मार्क्स ये बताते हैं कि हर माल का दो चरित्र होता है। पहला उपयोग मूल्य और दूसरा विनिमय मूल्य है। अब मार्क्स ये प्रश्न उठाते हैं कि एक माल दूसरे माल से किस आधार पर विनिमय होता है। दोनों के भौतिक स्वरूप में काफी फर्क होता है । उसके रंग, रूप आदि में अंतर हो सकता है। मार्क्स कहते हैं विनिमय का आधार उसमें निहित श्रम की मात्रा से होता है। उसके कितना श्रमकाल, ‘लेबर टाइम’ लगा है उससे उसका मूल्य निर्धारित होता है।

सोशली नेसेसरी लेबर टाइम

मार्क्स के पहले के बुर्जुंआ अर्थशास्त्र इन्हीं बातों को कहा करते थे लेकिन मार्क्स ने उसमें एक नई अवधारणा जोड़ी। मार्क्स कहते हैं कि मात्र एक सामान बनाने में श्रम की मात्रा से ही निर्धारित नहीं होता । मान लीजिए कोई मजदूर आलसी है, कोई मेहनती है तो दोनों के श्रम का निर्धारण कैसे होगा ? अतः एक खास ऐतिहासिक चरण में औसत श्रम होता हैं। वो ‘सोशली नेसेसरी लेबर टाइम’ यानी ‘सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम काल ’। मार्क्स कहते है सोशली नेसेसरी लेबर टाइम एक खास समय में उपलब्ध तकनीकी दक्षता, श्रम की तीव्रता से निर्धारित होता है। यदि कोई उद्योग एक खास माल को ‘सोशली नेसेसरी लेबर टाइम’ से अधिक वक्त लेगा को तो उसका माल महंगा होता चला जाएगा। 

पूंजीवाद के हरेक छिद्र से रक्त और गंदगी बहती रही है

अपने प्रांरभिक दिनों में पूंजीवाद ने ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील भूमिका को स्वीकार किया करते थे कि उसने सामंती व्यवस्था को ध्वस्त किया, उत्पादन के बिखरे तत्वों को एकत्रित किया। विज्ञान, व्यापार, वाणिज्य और वैश्विक बाजार का निर्माण किया। 

लेकिन मार्क्स ने नैतिकरूप से पूंजीवाद की बहुत आलोचना की इसने किस प्रकार पुराने स्वतंत्र उत्पादकों को उजाड़कर, उन्हें शहरों में फैक्ट्रियों के नजदीक लाकर बेहद गरीबी में नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर दिया। और इस काम में उसने राज्य की काफी मदद ली। मार्क्स कहते हैं कि ‘पूंजीवाद के हरेक छिद्र से रक्त और गंदगी बहती रही है।’

थियरी माई फ्रेंड इज ग्रे, एंड ग्रीन इज द एटरनल ट्री ऑफ लाइफ

मार्क्स से हमें यह भी सीखना है कि हम साहित्यकारों के बारे में अपनी राय कैसे कायम करें ? बाल्जाक मार्क्स के प्रिय लेखकों में थे जबकि वे राजशाही के समर्थक और रिएकशनरी थे। लेखक के राजनीतिक विचार से ज्यादा उसकी रचनाएं महत्वपूर्ण हैं। 

गोथे कि एक पंक्ति मार्क्स को बेहद पसंद थी कि ‘ थियरी माई फ्रेंड इज ग्रे, एंड ग्रीन इज द एटरनल ट्री ऑफ लाइफ’ (यानी दोस्तों सिद्धांत ग्रे रंग का है जबकि जीवन का पेड़ बेहद हरा-भरा है) मार्क्स को जीवन से, लाइफ से बेहद लगाव था। पूंजीवाद से सबसे अधिक इसी बात की शिकायत थी कि वो ‘लाइफ’ का लाइफलेस बना देता है, जीवन से उसकी जीवनीशक्ति छीन उसे जीवनहीन बना देता है। यह न सिर्फ सर्वहारा को बल्कि पूंजीपतियों को भी जीवन से महरूम कर हृदयहीन बना देता है। पूंजीपति के अंदर भी मनुष्योचित संस्कार तब तक नहीं पा सकते , जीवन को हासिल नहीं कर सकते जब तक कि पूंजीपति और सर्वहारा निजी संपत्ति का अतिक्रमण न कर ले।

सिक्का मुद्रा के रूप में ढ़ाली गयी आजादी है।

पूंजीवाद को बहुत चालाकी के साथ स्वतंत्रता से जोड़ दिया गया है। यदि आपको आजादी चाहिए तो आपको पूंजीवाद दे सकता है। रूस के महान साहित्यकार दोस्तोव्स्की की चर्चित रचना है ‘सेलेकशन्स ऑफ प्रिजन नोट बुक’ जिसमें उन्होंने एक कैदी की चर्चा की है। जेल में एक कैदी है वो जेल से भागने की तैयारी कर रहा है और इसके लिए वह सिक्के जमा कर रहा है। यहां कहा जा रहा है कि यदि जेल से आजाद होना चाहते हो तो तुम्हारे पास सिक्के चाहिए। दोस्तोव्स्की आगे लिखते हैं ‘मनी इज मिंटेड फ्रीडम’ यानी 'सिक्का मुद्रा के रूप में ढ़ाली गयी आजादी है'। पूंजीवाद की सबसे बड़ी सफलता है कि वो आजादी को पूंजी से जोड़ देता है। इसलिए हम जब भी मुक्ति की बात करें तो हमको उसकी वैकल्पिक अवधारणा पेश करना होगा। 

टू बी ऑर नॉट टू बी

मार्क्स के प्रिय लेखक थे शेक्सपियर। शेक्सपीयर के नाटकों के कुछ दृश्यों का अपनी बेटी और दामाद के साथ प्रदर्शन करना प्रिय शगल था। शेक्सपीयर का महान नाटक है ‘हैमलेट’। ‘हैमलेट’ नाटक का मुख्य नायक खुद ‘हैमलेट’ है। हैमलेट के पिता की हत्या कर दी जाती है। हैमलेट की मां अपने पति के हत्यारे से ही विवाह करने को इच्छुक है। जोकि दरअसल हैमलेट का चाचा है। यानी हैमलेट की मां अपने देवर और पति के हत्यारे से शादी करना चाहती है। हैमलेट का चाचा, उसकी मां को उपहार देकर, मीठी-मीठी बातें करके बहलाता-फुसलाता है।

ठीक इसी तरह शेक्सपीयर के ‘ऑथेलो’ नाटक में ‘इयागो’ का चरित्र है। इयागो का मशहूर वाक्य है ‘आई एम नॉट, व्हाट आई एम’। यानी जो मैं हूॅं नहीं वो खुद को दिखलाता हूँ। ये जो नकली दुनिया है, ये पूंजीवाद की देन है। 

'हैमलेट' अपने चारों ओर की दुनिया में ये सब देखता है। उसके पिता पुराने ख्यालों वाले सच्चरित्र व्यक्ति थे लेकिन मां को धोखा देने वाला, ऊपर से मुस्कराने और भीतर से कपटी व्यक्ति अधिक पसंद आता है। अपनी मॉं के कामातुर व्यवहार से हैमलेट हतप्रभ है। तब हैमलेट जो वाक्य बोलता है वह पिछले चार सौ वर्षों से गूंज रहा है। 'टू बी ऑर नॉट टू बी’ ‘जियें कि न जियें’ ‘ये जीवन जीने लायक है या नहीं'? 

शेक्सपियर के वक्त पूंजीवाद अपने अभ्युदयशील अवस्था में था आज वो अपने वृद्धावस्था में आ चुका है। अपनी उम्र से अधिक जिए जा रहा है मनुष्य का जीवन नरक बना चुका है। इसलिए इसका शीघ्र जाना जरूरी है। 

मार्क्स हमें ये बताते हैं कि कोई चीज जब तक घटित नहीं होता तब तक अपरिहार्य नहीं है। इसलिए संघर्ष में हम कभी भी शामिल हो सकते हैं, कभी भी देर नहीं होती। मार्क्सवादी दर्शन में कहा भी जाता है 'है नहीं, हो रहा है’ अतः यदि कोई चीज घटित हो रही है तो उसमें हस्तक्षेप कर उसे बदला भी जा सकता है'।

मार्क्स की सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि शासकों ने हमारे लिए जो भविष्य निर्धारित किया हुआ है हम उस भविष्य को मानने से इंकार करते हैं । हम अपना भविष्य, अपनी नियति खुद निर्धारित करेंगे।

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