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राजनीति
मोदी सरकार का कृषि सुधार आख़िर क्या है?
एक किसान विरोधी त्रुटिपूर्ण कृषि उत्पाद विपणन (Marketing) व्यवस्था की जगह और भी अधिक ख़तरनाक किसान-विरोधी बाज़ार व्यवस्था!

 
बी. सिवरामन
01 Jul 2020
 मोदी सरकार का कृषि सुधार आख़िर क्या है?

मोदी सरकार का कृषि सुधार (Agricultural Reforms) आख़िर क्या है? एक किसान विरोधी त्रुटिपूर्ण कृषि उत्पाद विपणन (Marketing) व्यवस्था की जगह और भी अधिक ख़तरनाक किसान-विरोधी बाज़ार व्यवस्था! आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम के तीसरे अंश के रूप में वित्तमंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने 15 मई 2020 को एक ऐसे पैकेज की घोषणा की जो अंधाधुंध कॉरपोरेट पक्षधर और किसान विरोधी है। कोविड-19 को बहाने के रूप में इस्तेमाल कर व झूठे तर्क गढ़कर कि ये कृषि सुधार अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर लाएगा, अचानक ही दूरगामी प्रभाव वाले कृषि उत्पाद संबंधी कृषि सुधारों को देश पर थोप दिया गया। तत्पश्चात 5 जून 2020 को आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम 2020, व्यापार और वाणिज्य संवर्धन और सुविधा अध्यादेश 2020, मूल्य आश्वासन पर किसान समझौता, अधिकार प्रदान करना और सुरक्षा और कृषि सेवा अध्यादेश 2020 पारित किये गए।

आवश्यक वस्तु कानून 1955 में सुधार किया गया था और अन्न, खाद्य तेल, तिलहन, दलहन, प्याज, आलू व अन्य हॉर्टिकल्चरल या उद्यनिकी उत्पाद, जैसे टमाटर, आदि के विपणन को नियंत्रण-मुक्त किया गया। कॉरपोरेट निर्यातकों, थोक व्यापारियों और अन्य बिचैलियों द्वारा इन कृषि उत्पादों के भण्डारण पर सीमा समाप्त कर दी गई। दूसरे अध्यादेश के माध्यम से लाए गए इस कदम से संघटित रूप से (ऑरगैनिकली) जुड़ा हुआ है यह निर्णय कि किसानों को और व्यापारियों को एपीएमसी से बाहर बेचने व खरीदने की अनुमति होगी। कृषि उत्पादों के अन्तर्राज्यीय आवागमन पर जो बंदिशें थी वे भी बिना राज्यों की अनुमति के हटा ली गईं। तीसरे अध्यादेश के माध्यम से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को कानूनी अनुमति दी गई है और कॉरपोरेट घरानों को छूट दी जा रही है कि वे स्वतंत्र कहे जाने वाले किसानों को बड़ी पूंजी के एजेन्ट उत्पादक बना लें।

यह काफी हद तक मज़दूर-विरोधी श्रम सुधारों जैसा कदम है। मोदी सरकार ने जिस तरह 44 श्रम कानूनों को 4 श्रम संहिताओं में समेटने की कोशिश की थी कि उन नेहरू दौर के औद्योगिक संबंध व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन कर दे, जो 1947 से अस्तित्व में थे और पूंजीपतियों का पक्ष ले, कुछ उसी तरह का परिदृष्य कृषि में है। ये कृषि सुधार बड़े कॉरपोरेटों और विशाल कृषि व्यापार कम्पनियों सहित बड़े थोक व्यापारियों के पक्ष में बने हैं। पर यह किनकी कीमत पर होगा? किसानों, उपभोक्ताओं और छोटे व्यापारियों के! यद्यपि पहले वाले एपीएमसी विपणन व्यवस्था भी किसानों के बजाय व्यापारियों और बिचैलियों के पक्ष में काम करती थी, नई ‘‘फ्री ट्रेड’’ व्यवस्था तो किसानों की कमर तोड़ देगी। यह इतना भयानक होगा कि लाखों छोटे किसानों की तबाही हो जाएगी, जबकि बड़े किसानों और कॉरपोरेटों को भारी मुनाफा होगा। अब हम पुराने और नए कृषि विपणन व्यवस्थाओं की तुलना करते हैं और विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं कि नई व्यवस्था का कैसा खतरनाक प्रभाव किसानों पर पड़ेगा।

वर्तमान एपीएमसी व्यवस्था

APMC यानी Agricultural produce market committee. दरअसल राज्य सरकारों द्वारा राज्य में एपीएमसी कानूनों के तहत स्थापित किये गए विनियमित बाज़ार होते हैं। इन कानूनों में आपसी छाटे-मोटे फर्क होते हैं। ये क्षेत्रीय स्तर की समितियां होती हैं जिनका अधिकार क्षेत्र कानूनी रूप से परिभाषित होता है। कानून के अनुसार उत्पाद का बड़ा हिस्सा केवल एपीएमसी बाजारों से ही बिक सकता है। किसान अपने उत्पाद के छोटे हिस्से को ही उपभोक्ताओं और खुदरा व्यापारियों को सीधे बेच सकते हैं, और यह हर राज्य और उत्पाद के लिए पृथक होता है। यदि वे निर्धारित मात्रा से अधिक एपीएमसी व्यवस्था से बाहर थोक विक्रताओं को सीधे बेचते हैं तो यह गैरकानूनी होगा और उनके व थोक विक्रेताओं के विरुद्ध केस दर्ज हो सकता है।

एपीएमसी व्यवस्था को एफसीआई खरीद केंद्रों और राज्यों के अन्य खरीद एजेंसियों, जैसे राज्य सिविल सप्लाइज़ कॉरपोरेशनों (जो पीडीएस व्यवस्था के लिए अन्न आदि खरीदते हैं) से अलग देखा जाना चाहिये। तथापि अन्न एपीएमसी द्वारा निजी व्यवसायियों को भी बेचा जा सकता है, जिसे वे खुले बाज़ार में बेच सकते हैं। गन्ना किसानों के लिए अलग विपणन व्यवस्था है। ये राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित मूल्य पर उत्पाद को चीनी मिलों को बेचते हैं। कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) सीधे किसानों से खरीदकर स्पिनिंग मिलों को बेचता है। इसी तरह तंबाकू, शहतूत और टैपियोका जैसे उत्पादों के लिए कुछेक राज्यों में अलग विपणन व्यवस्था है। निर्मला जी के सुधार केवल एपीएमसी व्यवस्था पर लागू हैं और उनके बारे में चुप है जो पहले से ही कॉरपोरेट्स को लाभ दे रहे हैं।

वर्तमान समय में अन्न, दलहन, खाद्य तेल, और बागवानी की उपज, जैसे आलू, टमाटर, प्याज आदि का मुख्य तौर से एपीएमसी द्वारा विपणन होता है। किसान अपने उत्पादन को एपीएमसी यार्ड लाते हैं और अढ़तियों को या एजेन्टों को बेचते हैं, जोकि बिचैलिये होते हैं, फिर जिम्मेदारी देते हैं कि वे थोक व्यापारियों को बेचें, फिर थोक विक्रेता उत्पाद को खुदरा व्यापारियों को बेचते हैं। किसान सीधे भी थोक व्यापारियों और खुदरा व्यापारियों को उत्पाद बेच सकते हैं यदि वे खरीददार को एपीएमसी में पंजीकृत करें और उसका कमीशन अदा करें। किसान आम तौर पर धनी किसानों के वर्चस्व वाले एपीएमसी समितियों द्वारा तय दामों पर बेचते हैं; ये धनी किसान अढ़तिया या व्यापारी भी बन जाते हैं। वे कृषि उत्पादन से अधिक अपने व्यापार के माध्यम से कमाते हैं इसलिए दाम को कम रखते हैं और किसानों को घाटा लगाते हैं। महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्य किसानों को एपीएमसी में नीलामी द्वारा कुछ उत्पादों की बिक्री करने देते हैं। व्यापारी और किसान एपीएमसी को कमीशन देते हैं, जो बिके उत्पाद के मूल्य का 5-6 प्रतिशत होता है।

केवल खरीददार ही नहीं, बल्कि कृषि में संलग्न प्रत्येक किसान को पंजीकरण शुल्क देकर अपना पंजीकरण कराना होता है। हां, एपीएमसी के नियमित चुनाव होते हैं और समितियों का चुनाव कहने को सभी किसान करते हैं; पर बड़े व धनी किसान माफिया, जिन्हें शासक दल का संरक्षण मिलता है, चुनाव प्रक्रिया पर वर्चस्व कायम कर समितियों में बहुमत अपने हिसाब से बना लेते हैं। इसलिए समितियों के निर्णय अक्सर किसानों के हितों के अनुकूल नहीं होते।

कुछ राज्यों में, जैसे तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में, किसानों को अनुमति है कि वे उल्हवर संथई (किसानों का बाज़ार) या रयतु बाज़ारों के माध्यम से उपभोक्ताओं को सीधे अपना उत्पाद बेचें। ऐसे ही दिल्ली में मदर डेयरी, कर्नाटक में अमूल की भांति हॉपकॉम्स या तमिलनाडु में कामधेनु भी हैं। पर यह कुल कृषि उत्पादन का बहुत छोटा हिस्सा होता है। अधिकतर किसान अपना अधिकतम कृषि उत्पाद एपीएमसी से ही बेचते हैं।

तो आप देख रहे हैं कि एपीएमसी व्यवस्था पहले से ही किसान-विरोधी है, खासकर लघु किसान विरोधी। कई अध्ययन आए हैं, जिनमें एक आईआईएम अहमदाबाद के वसन्त पी गांधी और एन वी नंबूदरी का है, जिसमें दिखाया गया है कि किसान को उपभोक्ता द्वारा दिये गए बाज़ार भाव का मात्र 20-30 प्रतिशत मिलता है। इसलिए जब मध्य प्रदेश में किसानों को 2-4 रुपये प्रति किलो प्याज दिया जा रहा था, और उस समय भोपाल में रेट 25-30 रुपये प्रति किलो चल रहा था, किसानों ने एपीएमसी बाज़ारों के सामने सड़क पर अपना सारा प्याज उड़ेलकर आग लगा दी थी। जब किसान कुल बिक्री मूल्य का 2-5 प्रतिशत लोडिंग और परिवहन में खर्च कर देता है और 5 प्रतिशत एपीएमसी कमीशन पर, तो बिचैलियों और व्यापारियों का लाभ 50-60 प्रतिशत होता है और किसानों को अंतिम मूल्य का केवल 40 प्रतिशत मिलता है।

नई ‘फ्री मार्केट’ व्यवस्था

एपीएमसी की जो भी कमियां हों, उसमें किसानों के लिए कुछ फायदे जरूर थे। यहां व्यापारी एपीएमसी को किसानों के उत्पाद का दाम देते हैं। तुरंत दाम अदा होता है (स्पॉट पेमेंट) या उसी दिन या एक-दो दिनों में दाम अदा हो जाता है। किसानों को दाम मिलने की गारंटी होती है। दाम भी पूर्वनिर्धारित होते हैं, और जहां नीलामी होती है, वहां भी एक न्यूनतम दाम (फ्लोर प्राइस) होता है, जिससे नीचे खरीददार बोली नहीं लगा सकता। पर नई व्यवस्था में ऐसे कोई बचाव नहीं हैं।

बड़े पूंजीपति अपने द्वारा निर्धारित दाम पर खरीदना तय कर सकते हैं। वे बड़े जोत वाले उर्वर खेतों के मालिकों को निम्न उत्पादन वाले पिछड़े इलाकों के किसानों के बरखिलाफ खड़ा कर उन्हें उत्पाद को कम और अलाभकारी मूल्यों पर बेचने के लिए मजबूर करते हैं। किसान ऋण पर ऑल इंडिया डेट ऐण्ड इन्वेस्टमेंट सर्वे के अनुसार 2013 में भारतीय किसानों का 74 प्रतिशत हिस्सा ऋण में डूबा था। दो हेक्टेयर से कम भूमि वाले छोटे और सीमांत किसान 10वें कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार भारत के किसानों में 86.2 प्रतिशत हैं। क्या वे अपने उत्पाद को इस आशा में रखे रह सकते हैं कि उन्हें बेहतर दाम मिलेंगे? अन्त में उन्हें संकट बिक्री करनी होगी! व्यापारी और व्यापारिक कम्पनियां अक्सर किसानों को कृषि व अन्य कार्यों के लिए इस शर्त पर लोन देते हैं कि वे अपना उत्पाद पूर्व-निर्धारित दाम पर बेचेंगे, जो बाज़ार मूल्य से कम होगा।

बाज़ार केवल डिमांड-सप्लाई से नहीं चलता न ही यहां समतामूलक सिद्धान्त चलता है। यहां डार्विन का ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ का सिद्धान्त लागू है, और जो कमज़ोर या दबे हैं वे मरते हैं। केवल व्यापारी ही नहीं, छोटे किसान बड़े धनी किसानों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते, क्योंकि उनकी पैदावार इतनी अधिक होती है कि वे कम दाम में उत्पाद बेचने पर भी लाभ कमा सकते हैं।

फिर, एपीएमसी मार्केट यार्ड में भण्डारण व्यवस्था होती है। हिमाचल जैसे राज्यों मे सेब के लिए कोल्ड-स्टोरेज व्यवस्था है। पर फ्री मार्केट व्यवस्था में किसानों को निजी कंपनियों से ये सेवाएं लेनी होंगी, यानी ऊंचे दाम देने होंगे।

कृषि पर पूंजी का बढ़ता दबाव 

और भी एक कारक है जो किसानों को मिलने वाले दाम को गिरा सकता है। यह है ‘फ्यूचर्स ट्रेडिंग’। फ्यूचर मार्केट में जो भारी मात्रा में वित्तीय पूंजी काम करती है, वह अक्सर अपने हित में कृषि मूल्यों को दबा देती है।

इसे इस तरह समझा जा सकता है-

कृषि माल (commodity) फ्यूचर, भविष्य के अनुबंध वित्तीय साधन हैं जो बड़े कृषि थोक विक्रेता और व्यापारी यानी स्टॉकिस्टों द्वारा बेचे जाते हैं। इन कॉन्ट्रैक्ट दस्तावेजों के अनुसार इन वायदा दस्तावेज़ों या फ्यूचर दस्तावेजों के विक्रेता को भविष्य की निर्धारित किसी तारीख को पहले से तय मूल्य पर माल बेचना पड़ेगा। यदि फ्यूचर में निर्धारित रेट से बाज़ार के भाव अधिक हैं, तो विक्रेता को लाभ होगा। यदि वे कम हैं,तो फ्यूचर के खरीददार को या भविष्य की निर्धारित तारीख पर फ्यूचर जिसके पास होंगे, उसीको लाभ होगा। यह खरीददारों के एक सेट और विक्रेताओं के एक सेट के बीच का संबंध नहीं है। इन वायदा दस्तावेज़ों पर भी कई पर्त की सट्टेबाज़ी (लेयर्स ऑफ स्पेकुलेशन) होती है। इनका दूसरों के साथ व्यापार भी होता है और लोग इन्हें उनके भविष्य के मूल्य और भविष्य के लाभ (माल के दाम के बढ़ने पर) के आकलन के आधार पर खरीदते हैं।

वर्तमान समय में शेयर बाज़ार की भांति भारत में 25 माल फ्यूचर विनिमय बाज़ार हैं। 81 कृषि, बागवानी और बागान के माल को इनके माध्यम से बेचा जाता है। इनमें चने की दाल, मक्का, अरंडी का तेल, सोयाबीन व उसके उत्पाद, पीनी, हल्दी, मिर्च, ताड़ का तेल और रबड़, गोलमिर्च, खोपरा, इलायची, आदि बागान के उत्पाद शामिल हैं। फिर, और भी डेरिविटिव हैं जैसे यह विकल्प कि फायनैंसर स्वये फ्यूचर के भविष्य के मूल्य पर अटकलें लगा सकते हैं। इसमें वित्तीय पूंजी की बहुत बड़ी भूमिका है। कम दामों पर हेजिंग भी होती है और इन वायदों व विकल्पों के लिए घाटे भी। इनपर प्राप्त अन्य किस्म की प्रतिभूतियां भी होती हैं जो और भी ऊंचे दर्जे के वित्तीय सट्टेबाज़ी के लिए होती हैं। उक्त माल के लिए किसानों को जो मूल्य प्राप्त होता है अंत में सट्टेबाज़ी में लगी वित्तीय पूंजी द्वारा निर्धारित होता है। यदि माल के दाम को कम रखने से उनका वित्तीय स्वार्थ सधेगा तो वे ऐसा ही करेंगे। पर यदि कृषि माल के दाम को बढ़ाने से कृषि जिंस फ्यूचर, विकल्प और डिरिवेटिव के लिए उन्हें भारी मुनाफा प्राप्त होगा, तो वे कृत्रिम रूप से उन्हें बढ़ा सकते हैं। पर ऐसी स्थिति में किसानों की जेबों में एक पाई नहीं जाएगी। लेकिन उपभोक्ता को पानी की तरह पैसा बहाना पड़ेगा।

यह भी भण्डारण और कोल्ड स्टोरेज को नियंत्रित करने वाले वित्तीय पूंजी द्वारा प्रबन्धित होता है। उत्तरोतर आ रही सरकारें वित्तीय पूंजी और बड़े ट्रेडिंग कॉरपोरेट्स के लिए रास्ता सुगम बना रही हैं। यूपीए ने भण्डारण (विकास व विनियमन) कानून 2007 बनाया और 2010 में भण्डारण विकास व विनियमन पा्रधिकरण स्थापित किया। इनके तहत, 2011 में भण्डारण रसीदों को विनिमय और व्यापार-योग्य बना दिया। इसके तहत भण्डारण रसीदों की मिल्कियत खरीददारों और विक्रताओं के बीच ऐसे दामों पर हस्तांतरित की जा सकती है जो वे आपस में तय करें। यह फ्यूचर ट्रेडिंग को बढ़ाने के लिए था। 2013-14 तक 115 कृषि माल और 26 उद्यानिकी माल के लिए 365 भण्डारों द्वारा जारी किये गए रसीदों का व्यापार करने लगे थे कृषि-फ्यूचर व्यापार तथा कृषि माल व्यापार में लगे बड़े वित्तीय खिलाड़ी और बड़े कॉरपोरेट घराने।

भारतीय कृषि का देश की जीडीपी में हिस्सा अब करीब 13 प्रतिशत तक गिरा होगा और 2019-20 में अर्थव्यवस्था में जोड़े गए सकल मूल्य में उसका  हिस्सा घटकर 16.5 प्रतिशत हो गया होगा (आर्थिक सर्वे 2019-20) पर 2013-14 में ही भारत चावल, गेहूं, गन्ना, काजू, गोलमिर्च, कपास, जूट, मसाले, आलू, टमाटर और चाय के उत्पादन में चीन के बाद विश्व के दूसरे स्थान पर था (कृषि मंत्रालय की 2013-14 की वार्षिक रिपोर्ट)। इसलिए वैश्विक फ्यूचर मार्केट में भी भारत की भूमिका होगी।

कमोडिटी मार्केट में जितना कारोबार नहीं होता उससे अधिक पूंजी वित्तीय सट्टेबाजी में लगती है। नैश्नल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) पहले ही विश्व का सबसे बड़ा व्युतपन्न (डेरिवेटिव्स) एक्सचेंज बन चुका था और डेरिवेटिव्स, विशेषकर कृषि-फ्यूचर्स और उनके डेरिवेटिव्स, जिनका व्यापार 2020-21 में हुआ, का कुल मूल्य 2700 लाख करोड़ रुपये था। कुल 4.83 कॉन्ट्रैक्ट का व्यापार हुआ। भारत में कृषि फ्यूचर व्यापार का कुल मूल्य 2012 में 18 लाख करोड़ तक पहुंच चुका था, यद्यपि बाद के वर्षों में कारोबार घट गया। इसकी तुलना में कृषि उत्पादन 18 लाख करोड़ तक 2019-20 में ही पहुंच पाया। आईटीसी, हल्दीराम, डाबर, और गोदरेज जैसे प्रधान एक्सपोर्ट, प्रोसेसिंग व मार्केटिंग कंपनियां और पेप्सिको, कारगिल और नेस्ले जैसे कृषि-खाद्य या ऐग्रो-फूड बहुराष्ट्रीय कम्पनियां फ्यूचर मार्केट में बड़े खिलाड़ी हैं। पर बड़े बैंक और वित्तीय कम्पनियां, जिनका खेतों पर कृषि कार्य से कोई लेना-देना नहीं है, वे आज संपूर्ण फ्यूचरर्स मार्केट पर शिकंजा कसे हुए हैं।

 कॉरपोरेट खेती भी इससे जुड़ा हुआ कदम है। कई राज्य अपने यहां एपीएमसी कानून का उदारीकरण करते रहे हैं और अब पेप्सिको, हिंदुस्तान यूनिलिवर, कारगिल, नेस्ले और आईटीसी जैसे बड़े कॉरपोरेट घराने कॉरपोरेट खेती में लगे हुए हैं। आईटीसी ने अपने ई-चैपाल को लांच किया और 40,000 गांवों में कॉरपोरेट खेती में लगा है। अब निर्मला सीतारमण ने एपीएमसी के पक्ष में लगी सारी बंदिशों को खत्म कर दिया है और कॉरपोरेट घरानों को हरी झंडी दिखा दी है कि कृषि विपणन और कॉरपोरेट खेती पर अपना कब्जा पूरी तरह जमा लें।

 

(लेखक कृषि और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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