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लॉकडाउन असंवैधानिक नहीं है तो सरकार का संवैधानिक कर्तव्य क्या है?  
सरकार का संवैधानिक कर्तव्य सामजिक और नैतिक कर्तव्य से अलग क़िस्म की बात है। सरकार के संवैधानिक कर्तव्य में सरकार को क़ानूनन भी ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। कोरोना वायरस के संकट में सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है कि वह लोगों को वह सुविधायें दे जो उसकी मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ज]रूरी है।
अजय कुमार
20 Apr 2020
लॉकडाउन

नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत देश भर में लॉकडाउन लगाया गया है। जरूरी सामानों के खरीद बिक्री के सिवाय किसी भी तरह की आवाजाही पर पूरी तरह से रोक लगा दिया गया है। ठीक इसी तरह साल 1867 के एपिडेमिक एक्ट का इस्तेमाल कर कई राज्यों ने भी कोरोना वायरस से लड़ने के लिए पूरी तरह से तालाबंदी की है। इस तालाबंदी की वजह से बहुत ने जीविका के साधन को गंवा दिया है।  

इसलिए नागरिकों के मूल अधिकार से जुड़े सवाल भी उठ रहे हैं। पहली नजर में सोचने पर लगता है कि कोरोना एक तरह की आपदा है, जिससे लड़ने के लिए सबकी भागीदारी की जरूरत है। अगर नागरिकों के मूल अधिकार का हनन होता भी हो तो 'इसे कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है' वाली कहावत मानकर अपना लेना चाहिए। फिर भी एक बार सिलसिलेवार तरीके से उन पहलुओं को भी समझने की कोशिश करते हैं जो लॉकडाउन की वजह से  संवैधानिक सवाल बनकर खड़ा हो रहा है। शायद कुछ निकलकर आए।  

भारत में डिजास्टर मैनजेमेंट एक्ट और एपिडेमिक एक्ट जैसे कानून हैं। जो आपदा से बचाव के लिए बिना किसी भेदभाव के निष्पक्ष तरीके से सभी लोगों पर लागू होते हैं। साथ में कार्यकालिका को बड़े स्तर पर पावर देते हैं कि आपदा से लड़ने के लिए कुछ भी करे। लेकिन कानून को लागू करवा देना ही सबकुछ नहीं होता है। यह भी कानून का जरूरी हिस्सा होता है कि कानून का प्रभाव क्या पड़ रहा है?

समानता की बहुत सारी बहसों से एक सिद्धांत यह भी निकल कर आया कि ऐसा कानून नहीं बनाया जाएगा जो सब पर बिना किसी भेदभाव के लागू होने के बावजूद भी असर ऐसा डालता हो जिसमें बहुत बड़े समुदाय पर भेदभाव साफ-साफ़ दिखता हो। जैसे कोरोना के मामले में दिख रहा है। कुछ मुठ्ठी भर लोगों के सिवाय भारत का बहुत बड़ा समूह वर्क फ्रॉम होम नहीं कर सकता है। उस की जीविका के साधन ने उसका साथ छोड़ दिया है। उसे अपनी रोजाना की जिंदगी चलाने में परेशानी हो रही है।  

संविधान के अनुच्छेद 14 की भाषा समझिये। अनुच्छेद 14 कहता है कि 'भारत के राज्य में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा ' विधियों के समान संरक्षण का मतलब है कि ऐसा कानून नहीं लागू हो जिससे सब पर अलग-अलग प्रभाव पड़े।  

समानता के अधिकार वाले अनुच्छेदों में इसके कुछ अपवाद भी हैं। लेकिन अपवाद का मकसद यह है कि ऐसा भेदभाव किया जाए जिसका असर समान हो। लेकिन लॉकडाउन का असर सब पर बराबर नहीं है। यहाँ पर साफ़ तौर पर क्लास का अंतर दिख जा रहा है। अमीर इससे निपट ले रहे हैं लेकिन गरीबों को परेशानी हो रही हो। यानी लॉकडाउन का असर भेदभाव से भरा हुआ है।  

संविधान का अनुच्छेद 21 गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अधिकार का मतलब नहीं है कि लोगों को जानवरों की  तरह समझा जाए। जैसे कोरोना वायरस की लड़ाई में देखने को मिल रहा है झुंड में इकठ्ठा कर प्रवासी मजदूरों पर केमिकल का छिड़काव कर दिया गया। क्वारंटाइन के नाम पर स्कूलों में लोगों को जानवरों की तरह ठूंस कर रखा जा रहा है। खाने को लेकर दंगे तक की खबर आ रही है।  जेब में पैसे नहीं है कि लोग अपने घर पर बात कर पाए। ऐसी तमाम हाड़ कंपा देने वाली ख़बरें संविधान के अनुच्छेद 21 से सवाल-जवाब कर रही हैं।  

देश के जाने-माने कानून के स्कॉलर गौतम भाटिया हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर बहुत सारे विषेशज्ञों का कहना है कि लॉकडाउन जरूरी है। लोकहित को ध्यान रखकर ही यह कदम उठाया गया है इसलिए भले ही लॉकडाउन की वजह से कुछ संवैधानिक सवाल खड़े होते हैं लेकिन यह कहना गलत होगा कि लॉकडाउन असंवैधानिक है।

सरकार को पूरा हक़ है कि वह कोरोना से सुरक्षा के लिए जरूरी कदम उठाये। लेकिन हम यह भी देख रहे हैं कि कोरोना से लड़ने में सबकी सहभागिता एक जैसी नहीं है। भारत के एक बहुत बड़े हिस्से को जरूरत से ज्यादा बोझ सहन करना पड़ रहा है। इसलिए भले ही लॉकडाउन का फैसला भले ही असंवैधनिक न हो लेकिन सरकार जितनी मदद कर रही है, उससे अधिक मदद की जरूरत है।  यह सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है।  

गौतम भाटिया आगे लिखते हैं कि सरकार का संवैधानिक कर्तव्य सरकार के सामजिक और नैतिक कर्तव्य से अलग किस्म की बात है। सरकार के संवैधानिक कर्त्तव्य में सरकार को कानूनन भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। कोरोना वायरस के संकट में सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है कि वह लोगों को वह सुविधायें दे जो उसके मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी है। जैसे ब्रिटेन में रोजाना के कामगारों को उनके रोजाना की कमाई का अस्सी फीसदी पैसा दिया जा रहा है। ऐसे बेसिक उपायों की जरूरत भारत में भी है, जिस तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जा रहा है।  

डिजास्टर मैनजमेंट और एपिडेमिक एक्ट से महामारी रोकने के लिए कुछ भी करने की शक्ति कार्यपालिका को मिल जाती है। विधायिका यानी की संसद ठप्प है। इसलिए न्यायपालिका यानि की सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी बनती है कि जिनकी जिंदगियां लॉकडाउन की वजह से तंगहाली में गुजर रही हैं, उनकी उचित मदद करने के लिए हर संभव कोशिश करती रहे।

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