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क्या है एनडीए से अकाली दल की अलग होने की असल वजह?
शिवसेना और तेलगु देशम पार्टी के बाद शिरोमणि अकाली दल बीजेपी का तीसरा बड़ा सहयोगी दल है, जो एनडीए से अलग हुआ है।
सोनिया यादव
28 Sep 2020
क्या है एनडीए से अकाली दल की अलग होने की असल वजह?

“अगर 3 करोड़ पंजाबियों का दर्द और विरोध-प्रदर्शन भारत सरकार के कठोर रुख को बदलने में असफल रहा, तो ये वाजपेयी जी और बादल साहब (प्रकाश सिंह बादल) की परिकल्पना वाला NDA नहीं है। एक गठबंधन जो अपने सबसे पुराने सहयोगी की नहीं सुनता और देश के अन्नदाताओं की मांग पर आंखें मूंद लेता है, वो पंजाब के हित में नहीं है।”

ये ट्वीट शिरोमणि अकाली दल (शिअद) की नेता और कृषि बिल के मुद्दे पर केंद्रीय कैबिनेट से इस्तीफा दे चुकीं हरसिमरत कौर बादल का है। हरसिमरत कौर बादल के केंद्र सरकार से अलग होने के महज़ 9 दिन बाद ही 26 सितंबर को बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दल, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए से अलग हो गई। और सिर्फ अलग ही नहीं हुई बल्कि पार्टी ने मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा भी खोल दिया।

If Pain & Protests of 3 cr punjabis fail to melt the rigid stance of GoI, it's no longer the #NDA envisioned by Vajpayee ji & Badal sahab. An alliance that turns a deaf ear to its oldest ally & a blind eye to pleas of those who feed the nation is no longer in the interest of Pb. https://t.co/OqU6at00Jx

— Harsimrat Kaur Badal (@HarsimratBadal_) September 26, 2020

25 सितंबर को किसानों की तरफ से बुलाए गए भारत बंद के दौरान सुखबीर सिंह बादल और हरसिमरत कौर बादल ट्रैक्टर मार्च-चक्काजाम में शामिल हुए। सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि एक अक्टूबर को हमारी पार्टी तख्त दमदमा साहिब, अकाल तख्त और तख्त केशगढ़ साहिब से चंडीगढ़ की ओर किसान मार्च शुरू करेगी।

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हालांकि शिरोमणि अकाली दल इस अलगाव और विरोध का ठीकरा मोदी सरकार के ऊपर “किसान विरोधी” टैग लगाकर फोड़ रही है। तो वहीं विपक्ष और जानकार इसे शिरोमणि अकाली दल की अपनी ‘राजनीतिक मज़बूरी’ बता रहे हैं। बता दें कि शिवसेना और तेलगु देशम पार्टी के बाद अकाली दल बीजेपी का तीसरा बड़ा सहयोगी दल है, जो एनडीए से अलग हुआ है।

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क्या वाकई मुद्दा सिर्फ़ किसान हैं?

अगर पिछले एक-दो साल के राजनीतिक घटनाक्रम पर नज़र डालें तो शिरोमणि अकाली दल की नाराज़गी बीजेपी से सिर्फ किसानों के मुद्दे पर ही नहीं थी, अरसे से केंद्र सरकार में अपनी उपेक्षा को लेकर भी पार्टी नाराज़ चल रही थी। किसानों से संबंधित मौजूदा कानूनों को लेकर अकाली दल के नेता ही महीनेभर पहले तक किसानों को अध्यादेश के समर्थन में समझा रहे थे, इसे किसानों के लिए ‘हितकारी’ बता रहे थे, फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि अब उन्हें संसद में इससे पलटना पड़ा, एनडीए से अलग होने का निर्णायक फैसला लेने के लिए बाध्य होना पड़ा।

The three Ordinances about the marketing of agri produce will have no bearing on the existing policy of procurement by govt agencies at the #MSP. This assurance has come in an official communication to us from Union Agri min @nstomar, after our deliberations at the highest level. pic.twitter.com/gn2c9KyyDb

— Sukhbir Singh Badal (@officeofssbadal) August 27, 2020

शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष और फिरोज़पुर से लोकसभा सांसद सुखबीर सिंह बादल ने 27 अगस्त 2020 को अपने ट्विटर पर केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की चिट्ठी हाथ में लिए एक फ़ोटो पोस्ट करते हुए ट्वीट में लिखा, “केंद्रीय कृषि मंत्री ने आधिकारिक तौर पर चिट्ठी लिख कर हमें आश्वस्त किया है कि किसानों से जुड़े तीनों अध्यादेश का सरकारी एजेंसियों की ओर से फ़सलों की ख़रीद पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। उन्हें अपनी फ़सलों का उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलेगा”

इसके बाद 17 सितंबर 2020 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से उनकी पत्नी और खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने अध्यादेश को किसान विरोधी बताते हुए इस्तीफ़ा दे दिया।

Strongly opposed the 3 agriculture-related Bills in #LokSabha, as they will sound death knell for 20 lakh farmers, 3 lakh ‘mandi’ labourers, 30 lakh khet mazdoor & 30,000 ‘arhatiyas’ besides destroying food grain procurement system established over 50 years.#ParliamentSession pic.twitter.com/naxz68Qbxp

— Sukhbir Singh Badal (@officeofssbadal) September 17, 2020

सुखबीर सिंह बादल ने लोकसभा में कहा, "हम इन अध्यादेशों का विरोध करते हैं क्योंकि 20 लाख किसान, 3 लाख मंडी में काम करने वाले मज़दूर, 30 लाख खेत में काम करने वाले मज़दूर और 30 हज़ार आढ़तियों के लिए ये ख़तरे की घंटी है। पंजाब की पिछली 50 साल की बनी बनाई किसान की फ़सल ख़रीद व्यवस्था को ये चौपट कर देगी।"

ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि क्या शिरोमणि अकाली दल 20 दिन पहले तक अध्यादेश से किसानों को होने वाली दिक़्क़तों से वाक़िफ़ नहीं था? किसान कई महीनों से इन नए कानूनों को लेकर सड़कों पर हैं। फिर आखिर 20 दिनों में ऐसा क्या हुआ, जिससे 20 साल से भी ज़्यादा पुरानी दोस्ती में दरार आ गई।

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जानकारों का क्या कहना है?

पंजाब की राजनीति को समझने वाले मानते हैं कि शिरोमणि अकाली दल का असल अस्तित्व केंद्र में नहीं बल्कि पंजाब में है। पंजाब में अकाली दल ही ऐसी इकलौती पार्टी है, जो दो बार लगातार चुनाव जीत कर सत्ता पर काबिज़ हुई है। ऐसे में पंजाब और हरियाणा के किसान इन कृषि अध्यादेशों, जो अब कानून बन गए हैं के विरोध में सड़कों पर हैं। अगर अकाली दल इस समय इनका समर्थन नहीं करती, तो किसान इसे अपने हितों के विरोध में खड़ी पार्टी मानने लगेंगे।

पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर रहे डॉ. शक्तिकांत दास मानते हैं कि शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी के रिश्तों में खटास बहुत पहले से आ गई थी। बीते समय में ऐसे कई मुद्दे सामने आए, जैसे जल संधि का, कश्मीर में पंजाबी बोली का जब एनडीए में अकाली दल की बिल्कुल नहीं सुनी गई। अकाली दल बहुत पहले से सरकार में बैकफुट पर था बस उसे एक सही मौके की तलाश थी इससे बाहर निकलने के लिए, जो अब उसे मिल गया है।

डॉ. शक्तिकांत दास के अनुसार, संसद में महज़ 5 सांसद अकाली दल के हैं जबकि पंजाब में ये बीती सरकार में सत्ता इनके हाथ में थी। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि शिरोमणि अकाली दल एक क्षेत्रीय पार्टी है और किसान इस पार्टी की रीढ़ हैं। हालांकि प्रकाश सिंह बादल से लेकर सुखबीर सिंह बादल के बदले नेतृत्व में पार्टी में बहुत कुछ जरूर बदल गया है, पार्टी के नेता अपने वोट बैंक से कट गए हैं। जमीनी हकीकत से दूर हो गए हैं।

पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वाली पत्रकार आरजू अहूजा कहती हैं, “अकाली दल के अगर इतिहास को देखें तो 1984 के दंगों के बाद अकाली दल अपने सिख वोट बैंक के साथ अकेले सत्ता में आने की स्थिति में नहीं थी। कांग्रेस के खिलाफ उसने बीजेपी को चुना क्योंकि बीजेपी उसके वोट बैंक को छीनता नहीं बल्कि बढ़ाता।

आरजू के मुताबिक अकाली दल के इतिहास को तीन बिंदुओं में देखने की जरूरत है। पहला की ये एक क्षेत्रीय पार्टी है जो संघीय ढांचे का समर्थन करती है। दूसरा, इसका असली वोट बैंक पंजाब है, जो एक खेती प्रधान राज्य है, इसलिए ये पार्टी किसानों से बैर नहीं ले सकती है। तीसरा ये कि ये एलायंस पॉलिटिक्स, जो पिछले 23 साल से जारी था, उसमें एक क्षेत्रीय पार्टी अपने मूल वोटरों के हितों से समझौता करके ज़्यादा दिन तक चल नहीं सकती। इसलिए अकली दल को ये क़दम मज़बूरी में लेना ही पड़ा।"

किसानों के अलावा और कौन से मुद्दे हैं जिस पर अकाली नाराज़ हैं?

* केंद्र सरकार ने इसी महीने कश्मीरी, डोगरी तथा हिन्दी को कश्मीर की आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया। अकाली दल इसमें पंजाबी को भी शामिल करने के पक्ष में था क्योंकि कश्मीर में पंजाबी बोलने वाले लोग हैं तथा यह राज्य की पुरानी भाषा रही है। पार्टी प्रमुख बादल ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भी लिखा लेकिन सुनवाई नहीं हुई।

* बीते साल संसद के मानसून सत्र में सरकार ने अकाली दल के विरोध के बावजूद अंतर-राज्यीय नदी जल विवाद (संशोधन) विधेयक को लोकसभा से पारित करा लिया। ये विधेयक अभी राज्यसभा में दूसरे कारणों से लंबित है। इसमें जल विवादों का तय समय के भीतर निपटारे का प्रावधान है। अकाली दल को लगता है कि इससे पंजाब के हिस्से का पानी अन्य राज्यों को जा सकता है।

* इसके अलावा नाराजगी का एक कारण हरियाणा में अकाली के एकमात्र विधायक का बीजापी में शामिल होना भी है। अकाली दल ने तब इसे ने गठबंधन की मर्यादा का उल्लंघन करार दिया था।

* लोकसभा चुनावों के दौरान अकाली दल को अपने मुताबिक कुछ सीटें नहीं मिली थीं। अमृतसर और होशियारपुर सीट पर बाजेपी ने अपने नेताओं को टिकट दिया। जबकि अकाली दल यहां अपने नेताओं को टिकट देना चाहता था।

* दिल्ली विधानसभा चुनाव और हरियाणा में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान भी अकाली दल और बीजेपी के बीच उठापटक दिखी थी। हरियाणा में अकाली दल ने बीजेपी की बजाय इनेलो के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था।

अकाली-बीजेपी गंठबंधन टूटने पर विपक्ष ने क्या कहा?

पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने एनडीए से अलग होने के अकाली दल के फैसले को बादल परिवार के लिए ‘राजनीतिक मजबूरी’ बताते हुए ट्वीट किया, “अकाली दल के एनडीए से अलग होने में कोई नैतिकता नहीं है। बीजेपी नेताओं के उन पर कृषि अध्यादेशों को लेकर किसानों को समझाने में नाकाम रहने के आरोप लगाने के बाद उनके पास एनडीए को छोड़ने के अलावा और कोई विकल्प रह भी नहीं गया था।”

Clearly @Akali_Dal_ was left with no choice after @BJP4India exposed that @Officeofssbadal and his SAD were fully party to Anti-Farmer legislations. The end of the coalition is only an outcome of 3 months of deceit...of defending the indefensible and misguiding the Punjab farmer.

— Capt.Amarinder Singh (@capt_amarinder) September 26, 2020

शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने कहा, “शिवसेना को मजबूरन एनडीए से बाहर निकलना पड़ा, अब अकाली दल निकल गया। NDA को अब नए साथी मिल गए हैं। मैं उनको शुभकामनाएं देता हूं। जिस गठबंधन में शिवसेना और अकाली दल नहीं हैं, मैं उसको NDA नहीं मानता हूं।”

NDA के मजबूत स्तंभ शिवसेना और अकाली दल थे। शिवसेना को मजबूरन NDA से बाहर निकलना पड़ा, अब अकाली दल निकल गया। NDA को अब नए साथी मिल गए हैं, मैं उनको शुभकामनाएं देता हूं। जिस गठबंधन में शिवसेना और अकाली दल नहीं हैं मैं उसको NDA नहीं मानता: संजय राउत, शिवसेना pic.twitter.com/nVhtbRwRfv

— ANI_HindiNews (@AHindinews) September 27, 2020

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट कर अकाली दल के एनडीए से अलग होने का स्वागत किया। अखिलेश यादव ने ट्विटर के माध्यम से कहा, ''किसानों को भाजपा की शोषणकारी नीतियों से बचाने के लिए एक जिम्मेदार दल की तरह अकाली दल के एनडीए से अलग होने का स्वागत है।''

अखिलेश ने आगे कहा, ''भाजपा के विरोध में न केवल जनता, विपक्ष व उनके सहयोगी दल हैं बल्कि उनके अपने कार्यकर्ता भी हैं क्योंकि उन्हें ही जनता के आक्रोश का सीधा सामना करना पड़ रहा है।''

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अकाली-बीजेपी गठबंधन का इतिहास

बीजेपी और अकाली दल की दोस्ती दो दशकों से ज्यादा पुरानी है। 1992 तक बीजेपी और अकाली दल अलग-अलग चुनाव लड़ती थी, और चुनाव के बाद साथ आते थे। 1996 में अकाली दल ने 'मोगा डेक्लरेशन' जिसमें पंजाबी आईडेंटिटी, आपसी सौहार्द और राष्ट्रीय सुरक्षा की बात था, उस पर साइन किया और 1997 में पहली बार साथ में चुनाव लड़। तब से अब तक इनका साथ बरक़रार था।

वहीं अगर पंजाब की बात करें तो अकाली दल का राज्य में ग्राफ़ बड़ी तेजी से गिरा है। 2017 में 117 सीटों में से पार्टी केवल 15 सीटों पर सिमट कर रह गई। इतनी पुरानी पार्टी को मुख्य विपक्ष का तमग़ा भी नहीं मिला। अकाली दल का 'जाट वोट बैंक' भी खिसक गया है। जाट ही ज़्यादा संख्या में पंजाब में खेती करते हैं। जिसके चलते अकालियों को इस बार का डर था कि किसानों के इस मुद्दे पर किसानों का विरोध करके वो अपने रहे सहे वोट बैंक से भी हाथ ना धो बैठे।

पंजाब में क्या हैं अकालियों की समस्या?

  • आम आदमी पार्टी की एंट्री ने अकाली दल के लिए पहले से ही मुश्किलें खड़ी कर रखी है।
  • कैप्टेन अमरिंदर सिंह ख़ुद को ऑल इंडिया लीडर के बजाए पंजाब के लीडर के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे हैं।
  • पार्टी में फूट का सामना भी अकाली दल को करना पड़ रहा है। पार्टी के पुराने नेता सुखदेव सिंह ढींडसा ने अपनी अलग पार्टी बना ली है।

गौरतलब है कि पंजाब में मार्च 2022 में विधानसभा चुनाव हैं। माना जा रहा है कि अकाली दल किसानों का वोट बैंक खोना नहीं चाहता। पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वाले जानकारों की मानें, तो अकाली दल के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकलना ही एक मात्र विकल्प था। क्योंकि अकाली दल अगर मंत्रिमंडल में शामिल रहता, तो कैबिनेट का फ़ैसला मानना उनकी बाध्यता होती। उनके पास इस्तीफ़ा देने के अलावा कोई दूसरा चारा ही नहीं बचा था। अकाली दल इस पूरे घटनाक्रम को भले ही किसानों के समर्थन में 'त्याग' बना कर पेश कर रही हो लेकिन जानकार इसे पार्टी की मज़बूरी ही मान रहे हैं।

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