NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
आप क्या खाएंगे इसका फ़ैसला किसी बड़ी कंपनी के बोर्डरुम में तो नहीं हो रहा?
खाने के बाजार से जुड़ी दुनिया का नियंत्रण चंद लोगों के हाथों में कैद होते जा रहा है। यह आने वाले समय में कृषि क्षेत्र से पूरी तरह से किसानों को बाहर निकालने का जरिया भी बन सकता है।
अजय कुमार
04 Mar 2021
super market
Image Courtesy : Magicpin

अगर आप भारत के किसी बड़े और मझोले आकार वाले शहर में रहते होंगे तो आपने कुछ ऐसी दुकानें जरूर देखी होंगी, जहां पर खाने-पीने की सारी चीजें मिलती हैं। चमक- दमक और बेहतरीन पैकेजिंग से सजी उन दुकानों में घुसते ही आपको लगता होगा कि आप वहां आ गए जहां स्वाद और पेट के मिजाज से जुड़े सारे सामान हैं। आप बिल्कुल ठीक समझ रहे हैं मैं उन सुपर बाजारों की बात कर रहा हूं, जहां एक ही  छत के नीचे दूध की बोतल से लेकर उड़द की दाल तक और संतरे की जूस से लेकर आम के आचार तक सब मिलता है।

जबकि जानकारों का कहना है कि हकीकत यह नहीं है। हकीकत यह है कि पिछले कुछ सालों से खाने से जुड़े सामानों के विकल्प घटते जा रहे हैं। इसकी बड़ी वजह यह है कि खाद्य प्रसंस्करण और खाद्य खुदरा बाजारों से जुड़े उद्योग धंधे कुछ हाथों में कैद होते जा रहे हैं। इसलिए चमचमाती हुई दुकानों के अंदर शीशे के अलमारी में एक ही कंपनी के एक ही तरह के सामान अलग-अलग ब्रांड के नाम से रखे हुए मिलते हैं और हमें इसका एहसास भी नहीं होता।

साल 2017 के एग्री फूड एटलस का अनुमान है कि दुनिया की खाद्य निर्माण उद्योग से जुड़ी 50 सबसे बड़ी कंपनियां दुनिया की 50 फ़ीसदी से ज़्यादा खाद्य बाजार को नियंत्रित करती हैं।दुनिया की 500 सबसे बड़ी कंपनियों में अधिकतर कंपनियां खाद्य निर्माण से जुड़ी हुई है।

लोग गांव को छोड़कर रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ बढ़ रहे हैं। बहुत बड़ी आबादी अपने रोजगार की तलाश कृषि क्षेत्र में नहीं करती। लोग उस जीवनशैली को छोड़ रहे हैं,जो जीवन शैली में जमीन पर खेती कर अनाज उपजाकर जीने से जुड़ी हुई थी। बहुत बड़ी आबादी को महज अपने खाने के प्लेट में खाने से मतलब है। उस खाने का पैदावार कैसे होता है? पैदावार से जुड़े लोगों की जिंदगी कैसी है? अनाज उनके खाने के प्लेट तक आने से पहले कितनी लंबी यात्रा कर चुका होता है? ऐसे सवालों से कोई उनका मतलब नहीं। एग्री फूड एटलस का मानना है कि मध्यवर्ग बढ़ रहा है इसलिए खाद्य प्रसंस्करण उद्योग से जुड़े सामानों की मांगों का बढ़ना भी तय है।

खाद्य निर्माण से जुड़ी बड़ी-बड़ी कंपनियां खाद्य श्रृंखला यानी फूड चेन में मौजूद हर कड़ी के उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। बड़े-बड़े जमीनों को पट्टे पर लेती हैं। कॉन्ट्रैक्ट खेती के जरिए खेती करवाती हैं। ज्यादा जोर उसी उत्पाद का रहता है, जिसकी बाजार में मांग होती है। बीज से लेकर खेतों में डाले जाने वाले रासायनिक खाद तक सभी जगहों पर इन बड़ी-बड़ी कंपनियों का नियंत्रण है।

इसका मतलब यह है कि खाद्य निर्माण उद्योग में केवल खाद्य प्रसंस्करण और खाद्य खुदरा बाजार ही केवल कुछ लोगों के हाथ में नहीं जा रहा है बल्कि लोगों के प्लेट में मौजूद खाने से लेकर खेती करके खाद्यान्न उपजाने तक से जुड़ी सारी प्रक्रियाएं कुछ बड़ी कंपनियों के द्वारा की जा रही है। यानी बीज से लेकर बिस्कुट तक का निर्माण कुछ कंपनियों के जरिए किया जा रहा है। जानकारों की मानें तो इसका नुकसान यह होता है कि खाद्य पदार्थों से जुड़े विकल्प कम हो जाते हैं। कुछ लोगों के हाथों से होता हुआ खाद्य पदार्थ का नियंत्रण एकाधिकार की तरफ बढ़ निकलता है। जमीन जो उपजा सकती थी, वह नहीं उपजाती बल्कि वह उपजाती है, जो बड़ी-बड़ी कंपनियों के बोर्ड रूम में तय किया जाता है। खाद्य पदार्थ के विकल्पों जुड़ी संभावनाएं मरने लगती हैं। प्रतियोगिताएं मरने लगती हैं। सब कुछ बड़ी कंपनियों पर निर्भर होने लगता है।

19वीं शताब्दी के अंत में पहला एग्रीकल्चर कॉर्पोरेशन ब्रिटेन में बना। इसकी मुख्य वजह यह थी कि धीरे-धीरे कृषि मशीनीकृत होते जा रहा था। दुनिया में यातायात की सुविधाएं बढ़ी। बंदरगाह और वायु-पतन बने। खेती में रासायनिक खाद का इस्तेमाल किया जाने लगा। इन सब की वजह से जहां खूब पैसा था, वहां एग्रीकल्चर क्षेत्र में बड़े कॉर्पोरेशन की शुरुआत हुई।

उसके बाद साल 1950 के आसपास हाइब्रिड बीज का जमाना आया। इसकी वजह से कंपनियों का और विस्तार हुआ। साल 1980 के बाद जब पूरी दुनिया ग्लोबल को अपनाने लगी। तब तो कृषि क्षेत्र से जुड़ी बड़ी-बड़ी कंपनियां पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने के लिए दौड़ पड़ी। साल 1980 के बाद से बहुत छोटी-छोटी कंपनियां के बड़ी-बड़ी कंपनियों में जाकर मिलने की शुरुआत हुई। तकनीकी भाषा में कहें तो खाद्य निर्माण उद्योग में मर्जर और एक्विजिशन खूब हुआ। इस दौरान कंपनियों का आपस में मिल जाने और बड़ी कंपनियों द्वारा छोटी कंपनियों को अपने अंदर समाहित कर लेने का यह खेल खूब चला। पूरी दुनिया में फैला हुआ खाद्य और पेय पदार्थों का बाजार कोको कोला, पेप्सिको, क्राफ्ट हिंज, 3G कैपिटल, नेस्ले जैसी बड़ी कंपनियों के हाथों में सिकुड़ने लगा।

इसका परिणाम यह दिखा कि जो कंपनियां खाद्य पदार्थों में लगी हुई हैं, वही दवाई उत्पादन में भी लगी हुई हैं। उनका वित्तीय तंत्र बैंकों में घुसा हुआ है। उनके काम का जाल इतना बड़ा है कि दुनिया की सभी सरकारों से उनकी अच्छी गठजोड़ है।

जब अर्थव्यवस्था कुछ लोगों के हाथों में कैद होकर रह जाती है। तो सत्ता और तकनीक दोनों कुछ मुट्ठियों में कैद हो कर रह जाती है। प्रतियोगिता खत्म होती है और पूरा बाजार चंद लोगों से नियंत्रित होने लगता है। परंपरागत खाद्य पदार्थों से पैदा होने वाला विकल्प पहले से ही कब से खत्म होने के कगार पर पहुंच चुका है। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के जरिए प्रयोगशाला में खाद्य प्रसंस्करण हो रहा है। कई दिनों तक सुंदर पैकेट में पड़ा हुआ खाना लोगों के पेट में पहुंचकर लोगों के शरीर को बीमार कर रहा है।

कृषि मामलों के जानकार देवेंद्र शर्मा द ट्रिब्यून अखबार में लिखते हैं कि पिछले कुछ सालों से टेक्नोलॉजी, ट्रेड और रिटेल से जुड़ी बड़ी-बड़ी कंपनियां कुछ हाथों में सिकुड़ती जा रही है। इसलिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने अनुकूल नीति बनाने के लिए इनकी पकड़ मजबूत होती जा रही है। अमेरिका में साल 1970 के दशक में गेट बिग ऑर गेट आउट यानी या तो बड़ा बनिए या बाहर निकल जाइए विचार का सिक्का उछाला था। लोक नीति यानी पब्लिक पॉलिसी की दुनिया में यही विचार इस समय नीतियां बना रहा है। जो मजबूत और बड़ा है। उसी के अनुकूल नीतियां बन रही हैं।

पूरे फूड चेन भी पर इन्हीं की पकड़ है। शायद यह भी वजह है कि किसान आंदोलित हैं। वह अपनी उपज के लिए वाजिब कीमत और आमदनी मांग रहे हैं ताकि वे इनके चंगुल में न फंसे। सालों से किसानों और बड़ी खाद्यान्न कंपनियों के बीच एक असंतुलित रिश्ता बना है। जिसमें किसान का पलड़ा बहुत अधिक झुका हुआ है। किसान खाद्य तंत्र में मौजूद इस असंतुलन को खत्म करने की लड़ाई लड़ रहा है।

दुनिया की चार बड़ी बीज कंपनियां दुनिया के 59 फ़ीसदी बीज के बाजार पर अपना हक रखती हैं। ट्रेड रिलेटिड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइटस यानी ट्रिप्स दुनिया के देशों पर यह दबाव डाल रही है कि वह परंपरागत बीजों का इस्तेमाल बंद करें। यानी आने वाले दिनों में बीज कंपनियां का बाजार पूरी दुनिया में और फैलेगा। यही हाल कृषि रासायनिक पदार्थ से जुड़ी कंपनियों का है। दुनिया के तीन सबसे बड़ी कंपनियां दुनिया के तकरीबन 64% कीटनाशकों के बाजार को नियंत्रित करते हैं।

तीनों कृषि कानूनों का विरोध करने वाले लोग भी यही कह रहे हैं कि तीनों कृषि कानून के आपस में मिलने से पहले सरकारी मंडी खत्म होंगी। उसके बाद एमएसपी महज कागजों पर दिखेगी। बची-खुची एमएसपी भी ख़तम होगी। किसानों को कॉन्ट्रैक्ट खेती की रस्सी पकड़ा कर धीरे-धीरे उन्हें कॉरपोरेट खेती के जमाने की तरफ ले जाया जाएगा। अगर कानून वापस नहीं लिए जाते हैं तो यह जमाना जल्द ही आएगा। फिर यह सवाल हिंदुस्तान के सामने भी खड़ा होगा की उनका भोजन किस के मुताबिक हो? सौ से अधिक जलवायु क्षेत्र में बैठे हिंदुस्तान की जलवायु के मुताबिक या चंद कारपोरेट के हाथों में सिकुड़ चुके कंपनियों के बोर्डरूम के मुताबिक?

market
Super Market
food security
food items
Inflation
Food Inflation
privatization

Related Stories

डरावना आर्थिक संकट: न तो ख़रीदने की ताक़त, न कोई नौकरी, और उस पर बढ़ती कीमतें

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

आर्थिक रिकवरी के वहम का शिकार है मोदी सरकार

क्या जानबूझकर महंगाई पर चर्चा से आम आदमी से जुड़े मुद्दे बाहर रखे जाते हैं?

मोदी@8: भाजपा की 'कल्याण' और 'सेवा' की बात

गतिरोध से जूझ रही अर्थव्यवस्था: आपूर्ति में सुधार और मांग को बनाये रखने की ज़रूरत

मोदी के आठ साल: सांप्रदायिक नफ़रत और हिंसा पर क्यों नहीं टूटती चुप्पी?

जन-संगठनों और नागरिक समाज का उभरता प्रतिरोध लोकतन्त्र के लिये शुभ है

वाम दलों का महंगाई और बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ कल से 31 मई तक देशव्यापी आंदोलन का आह्वान

महंगाई की मार मजदूरी कर पेट भरने वालों पर सबसे ज्यादा 


बाकी खबरें

  • विजय विनीत
    ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां
    04 Jun 2022
    बनारस के फुलवरिया स्थित कब्रिस्तान में बिंदर के कुनबे का स्थायी ठिकाना है। यहीं से गुजरता है एक विशाल नाला, जो बारिश के दिनों में फुंफकार मारने लगता है। कब्र और नाले में जहरीले सांप भी पलते हैं और…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटों में 3,962 नए मामले, 26 लोगों की मौत
    04 Jun 2022
    केरल में कोरोना के मामलों में कमी आयी है, जबकि दूसरे राज्यों में कोरोना के मामले में बढ़ोतरी हुई है | केंद्र सरकार ने कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए पांच राज्यों को पत्र लिखकर सावधानी बरतने को कहा…
  • kanpur
    रवि शंकर दुबे
    कानपुर हिंसा: दोषियों पर गैंगस्टर के तहत मुकदमे का आदेश... नूपुर शर्मा पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं!
    04 Jun 2022
    उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था का सच तब सामने आ गया जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के दौरे के बावजूद पड़ोस में कानपुर शहर में बवाल हो गया।
  • अशोक कुमार पाण्डेय
    धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है
    04 Jun 2022
    केंद्र ने कश्मीरी पंडितों की वापसी को अपनी कश्मीर नीति का केंद्र बिंदु बना लिया था और इसलिए धारा 370 को समाप्त कर दिया गया था। अब इसके नतीजे सब भुगत रहे हैं।
  • अनिल अंशुमन
    बिहार : जीएनएम छात्राएं हॉस्टल और पढ़ाई की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर
    04 Jun 2022
    जीएनएम प्रशिक्षण संस्थान को अनिश्चितकाल के लिए बंद करने की घोषणा करते हुए सभी नर्सिंग छात्राओं को 24 घंटे के अंदर हॉस्टल ख़ाली कर वैशाली ज़िला स्थित राजापकड़ जाने का फ़रमान जारी किया गया, जिसके ख़िलाफ़…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License