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आख़िर व्हाट्सएप हैकिंग से किसको फ़ायदा है?
वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं (और शायद अन्य) के फ़ोन पर भी अवैध रूप से निगरानी  (स्नूपिंग) करने से केवल सरकार का भला हो सकता है।
सुबोध वर्मा
04 Nov 2019
Translated by महेश कुमार
whatsapp snooping

हाल ही में व्हाट्सएप हैकिंग कांड और भारत सरकार की प्रतिक्रिया ने शेरलोक होम्स और डॉ॰ वॉटसन के एक चुट्कुले की याद दिला दी: एक बार वे दोनों एक कैंपिंग पर थे और एक तम्बू में सो रहे थे। आधी रात को अचानक होम्स ने वाटसन को जगाया और पूछा, "वॉटसन, तुम्हें क्या नज़र आ रहा है?" वॉटसन ने कहा कि मैं आसमां के हज़ारों सितारों को देख रहा हूँ जिसका होम्स जवाब दिया कि "तुम बेवकूफ़ हो, किसी ने हमारा तम्बू चुरा लिया है!"

केंद्र सरकार में आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने मीडिया को बताया कि इस बारे में सरकार ने व्हाट्सएप (जिसका मालिक फ़ेसबुक है) से स्पष्टीकरण मांगा है। बेशक, व्हाट्सएप/फ़ेसबुक से इस बारे में जानकारी मांगी जानी चाहिए। लेकिन इज़रायल की निगरानी कंपनी के बारे में क्या कहेंगे जिसे एनएसओ ग्रुप ने पेगासस स्पाइवेयर को अज्ञात ग्राहकों बेचा है, ताकि उस स्पाइवेयर के ज़रीये वे कम से कम 17 भारतीय वकीलों, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के फ़ोन के व्हाट्सएप के डिजिटल इंफ़्रास्ट्रक्चर की ख़ामियों का इस्तेमाल कर फ़ोन पर चल रही गतिविधियों की जानकारी का पता लगा सकें?

ये बात तो सब जानते हैं कि मोदी सरकार के इज़रायलियों के साथ बहुत ही मैत्रीपूर्ण संबंध हैं। क्या उन्हें स्पाइवेयर के ग्राहकों का नाम जानने के लिए एनएसओ पर दबाव डालने के लिए प्रधानमंत्री नेतन्याहू या इज़रायली खूफ़िया तंत्र से नहीं कहना चाहिए? याद रखें कि इज़रायल सरकार ने कथित रूप से पेगासस को एक 'हथियार' के रूप में वर्गीकृत किया है क्योंकि इसमें बहुत ही शक्तिशाली विशेषताएँ हैं और इसका संभावित ख़तरनाक उपयोग हो सकता है या किया जा सकता है।

किसका फ़ायदा?

आख़िरकार बड़ा सवाल यह है: कि इस सब से फ़ायदा किसका हुआ? वो कौन है जो जगदलपुर लीगल एड ग्रुप की शालिनी गेरा का फ़ोन रिकॉर्ड/गतिविधि दर्ज करना चाहते हैं और भीमा कोरेगांव मामले की आरोपी सुधा भारद्वाज के वकील निहाल सिंह राठौड़ का, जो नागपुर में मानव अधिकार क़ानून नेटवर्क के प्रमुख में से एक हैं, और उसी मामले में आरोपी सुरेंद्र गडलिंग के वकील भी हैं; इस हैकिंग के दायरे में बेला भाटिया, जो छत्तीसगढ़ की आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता हैं; आनंद तेलतुम्बडे, दलित मुद्दों पर अकादमिक विशेषज्ञ और लेखक जो उसी मामले में एक अभियुक्त हैं; अंकित ग्रेवाल, जिन्होंने सुधा भारद्वाज का केस लड़ा; और कई अन्य कार्यकर्ता और पत्रकार शामिल हैं जिनकी हैकिंग की गई है या की जा रही है।

केवल भारत सरकार या उसकी एजेंसियों या कुछ हद तक राज्य सरकारों को ही उनके फ़ोन डाटा को हैक करने से कोई फ़ायदा होगा। भीमा कोरेगांव मामले में शामिल 10 लोगों पर पीएम मोदी की हत्या की योजना बनाने, सरकार को उखाड़ फेंकने जैसे गंभीर आरोप लगाए गए हैं। आज एक वर्ष से अधिक की जांच के बावजूद इस बारे में कुछ भी ऐसा सामने नहीं आया है, जो इन कार्यकर्ताओं के फ़ोन की हैकिंग के लिए एक मज़बूत केस बनाता हो।

यह कोई छोटी बात नहीं है कि कैसे सरकारों ने दुनिया भर में पेगासस का उपयोग किया है, इसकी पुष्टि उन रपटों से होती है जिनमें मेक्सिको में पत्रकारों पर जासूसी करने की बात कही गई है और रवांडा में भी एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की जासूसी करने की ख़बरें आ रही हैं और यहां तक कि सऊदी पत्रकार जमाल ख़शोगी की कुख्यात हत्या में भी यह एक कड़ी है।

अलग-अलग एजेंसियां स्पाइंग में रुचि रखती हैं

दिसंबर 2018 में, सरकार ने अधिसूचित किया था कि 10 केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों और अधिकारियों को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 के तहत सशक्त सभी इलेक्ट्रॉनिक संचार, माध्यमों, इंटरनेट-आधारित गतिविधियों और कंप्यूटर की निगरानी करने की अनुमति है। इस मामले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई थी जहां मार्च 2019 में, सरकार ने कहा था कि उसके पास इस तरह की निगरानी के लिए एक विस्तृत मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) है। लेकिन लब्बोलुआब यह था कि नौकरशाह निगरानी के लिए दिए गए आवेदनों की समीक्षा करेंगे- और हम सभी जानते हैं कि नौकरशाह काम कैसे करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं ने बताया था कि 2017 में, प्रवर्तन अधिकारियों ने विभिन्न क़ानूनों के तहत 2,00,000 से अधिक खातों के डाटा को हासिल करने के लिए फ़ेसबुक, गूगल और ट्विटर को आदेश दिया था। इससे पहले, श्रीकृष्ण समिति ने कहा था कि समीक्षा अधिकारी दो महीने में एक बार मिलते हैं और 15,000-18,000 से अधिक निगरानी आदेशों की समीक्षा करने का काम करते हैं। इसलिए, इस खेल में बहुत सारी एजेंसियां शामिल हैं और ज़्यादातर मामलों में इन्हे ग्रीन सिग्नल दे दिया जाता है।

वास्तव में, यह सिर्फ़ केंद्र सरकार और उसकी एजेंसियों का मामला नहीं है जो कार्यकर्ताओं के मौजूदा झुंड की जासूसी करने में दिलचस्पी रखते हैं। जैसा कि हैकिंग टीम (अब विकिलीक्स में संग्रहित है) से लीक हुई ईमेल से पता चला है कि राज्य पुलिस विभाग भी अपने लक्ष्यों पर निगरानी रखने के लिए सक्रिय रूप से उपकरण तलाश रहे हैं। यह मामला आंध्र प्रदेश पुलिस का है, जो 2015 में निगरानी उपकरणों के लिए इधर-उधर घूम रही थी। हाल ही में इस साल मार्च में यह ख़बर थी कि आंध्र प्रदेश राज्य सरकार के खूफ़िया विभाग ने एक इज़रायली डिवाइस या टूल को व्हाट्सएप एन्क्रिप्शन को तोड़ने के लिए अधिग्रहित कर लिया है। इसे इस साल मई में यानी लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हासिल किया गया था।

तो, सवाल उठता है कि इस निगरानी से किसे फ़ायदा होगा? पेगासस को हासिल करने के लिए केंद्र और राज्य स्तर की सभी घातक जिज्ञासु एजेंसियां शामिल है। कौन जानता है कि निगरानी की सेवा को प्रदान करने के लिए कुछ निजी एजेंसियों को भी शामिल कर लिया गया हो! आख़िरकार, कई अकल्पनीय सेवाएं इन दिनों छायादार एनजीओ को आउटसोर्स की जाती हैं, जैसे कि हाल ही की एमईपी कश्मीर यात्रा को एक एनजीओ के ज़रिये संभाला गया है।

झूठ का पर्दा

मंत्रालय के अधिकारियों ने मीडिया रिपोर्टों के बाद यह शिकायत की है कि व्हाट्सएप के वरिष्ठ अधिकारियों ने इस साल मई में उनके साथ हुई बैठकों में इस लीक का उल्लेख ही नहीं किया था। व्हाट्सएप ने जल्दी से इसका जवाब देते हुए कहा कि उन्होंने इसका उल्लेख किया था। अन्य रिपोर्टों से पता चलता है कि अधिकारियों ने इस बात कि शिकायत की है कि व्हाट्सएप ने उन्हें केवल 'तकनीकी शब्दजाल' (एसआईसी) दे दिया जो आईटी मंत्रालय को समझ ही नहीं आया। 

यह सब सुनना अजीब सा लगता है, इस पागलपन में एक विधि है। इस पूरे मसले में प्रसाद लूप में हो भी सकते और नहीं भी। लेकिन व्हाट्सएप और प्रसाद के बारे में सभी अटकलों ने घोटाले के खुलने के समय को एक कोहरे में तब्दील कर दिया है। यह धोखे का खेल बन गया है। प्रसाद के माध्यम से सरकार, उचित रूप से नाराज़ होने और न्याय परायणता का नाटक कर रही है, जैसा कि उसने मार्च 2018 में किया था, जब यह पता चला था कि ब्रिटेन की एक डाटा एनालिटिक्स कंपनी कैंब्रिज एनालिटिका (सीए) ने 87 मिलियन फ़ेसबुक उपयोगकर्ताओं का डाटा चुरा लिया है। प्रसाद उसी तरह फ़ेसबुक के ख़िलाफ़ बोले और क़ानूनी कार्रवाई की धमकी दी है।

डेढ़ साल के बाद भी कम से कम कैंब्रिज एनालिटिका का भारत में कुछ नहीं हुआ है, हालांकि ब्रिटेन में इसे बंद कर दिया गया है और फ़ेसबुक ने ब्रिटेन के सूचना आयुक्त कार्यालय (आईसीओ) को 500,000 पाउंड का भुगतान किया है, ताकि बाद में घोटाले की जांच हो सके। भारत का केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो अभी भी फ़ेसबुक और बंद कैम्ब्रिज एनालिटिका के साथ 20-प्रश्न वाला दोषपूर्ण खेल खेल रहा है।

जैसा कि भारत और व्हाट्सएप के बीच यह जद्दोजहद जारी है, लेकिन कोई भी इस बात पर ध्यान नहीं दे रहा है कि अलग अलग भारतीय नागरिकों को निशाना बनाने के लिए पेगासस का इस्तेमाल किसने किया। हो सकता है कि सरकार ऐसा चाहती हो।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Who Benefits? The Question Nobody’s Asking in the WhatsApp Hacking Case

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