NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
लोगों का असली दुश्मन कौन ?
भारत को राजनीतिक प्रक्रियाओं की पटरी पर वापस लाने के लिए देश के भीतर की उन ताक़तों की ओर देखना होगा, जिसमें विरोध, असहमति और विविधता शामिल हैं।
सुहित के सेन
21 Oct 2020
लोगों का असली दुश्मन कौन ?
फ़ोटो साभार: सबरंग इंडिया

जेसुइट पादरी और जनजातीय अधिकार कार्यकर्ता,स्टेन स्वामी को 9 अक्टूबर को रांची में गिरफ़्तार कर लिया गया था। गिरफ़्तारी को अंजाम देने वाली राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने दावा किया कि वह भाकपा (माओवादी) संगठन के सदस्य हैं। ऐसा लगता है कि जो कोई भी दलित अधिकारों के लिए काम करता है, या फिर संघ परिवार की ज़हरीली विचारधारा के साथ पूर्ण समझौते नहीं करता है, वे सबके सब माओवादी ही हों।

इस 83 वर्षीय पादरी और कार्यकर्ता की गिरफ़्तारी के दस दिन गुज़र चुके हैं,और इन दस दिनों के दौरान देश भर में लगातार विरोध प्रदर्शन हुए हैं। हालिया विरोध प्रदर्शन 17 अक्टूबर को रांची में हुआ था, जहां 5,000 लोगों ने एक मानव श्रृंखला बनायी थी। जेसुइट संगठन ने उनकी गिरफ़्तारी की निंदा की और और रिहाई की मांग की।

यह दावा करते हुए कि स्वामी एक सक्रिय माओवादी हैं, एनआईए ने यह भी कहा कि वह 31 दिसंबर 2017 को पुणे में आयोजित शांतिपूर्ण और सार्वजनिक एल्गार परिषद की बैठकों के सिलसिले में सरकार द्वारा पहले ही बंदी बनाये जा चुके बहुत सारे लोगों के संपर्क में थे। स्वामी एल्गार परिषद-भीमा कोरेगांव मामले के सिलसिले में गिरफ़्तार होने वाले सोलहवें व्यक्ति हैं।

इस मामले की संक्षिप्त पुनरावृत्ति से इन मुद्दों को स्पष्ट करने में मदद मिलेगी। एल्गर परिषद, दलित और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का एक ऐसा संगठन है, जिसकी बैठक पुणे में आयोजित की गयी थी और उस बैठक में दलित अधिकारों से जुड़े मुद्दों और दलित समुदायों के उत्पीड़न पर चर्चा की गयी थी, उसमें संघ परिवार की आलोचना की गयी और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया गया था। उस बैठक के अगले ही दिन,यानी 1 जनवरी 2018 को पेशवा सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई में ब्रिटिश रेजिमेंट की सहायता करने वाले दलित महार यूनिट की जीत का जश्न मनाने के लिए दलित भीमा-कोरेगांव गांव में इकट्ठे हुए। पेशवा ब्राह्मण थे,जो उस समय मराठा साम्राज्य व्यवस्था के शीर्षस्थ व्यक्ति होते थे।

हिंदुत्व समूहों से जुड़े बलवाइयों ने दलितों पर हमला कर दिया। पूरे महाराष्ट्र में हिंसा भड़क उठी और अगले कुछ दिनों तक यह जारी रही। शुरुआत में माना गया कि हिंदुत्व के दो नेताओं ने इस घटना को अंजाम दिया था।ये दो नेता थे-मिलिंद एकबोटे और मनोहर भिडे, जिन्हें संभाजी और गुरुजी के नाम से भी जाना जाता है। पुणे पुलिस कमेटी ने सबूत मिलने के बाद दोनों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कर ली थी कि उन्होंने हिंसा के आयोजन में प्रमुख भूमिका निभायी थी।

प्रधान मंत्री के क़रीबी,भिडे को तो उत्सुकतावश भी कभी पूछताछ नहीं की गयी, जबकि एकबोटे को तभी गिरफ़्तार किया गया,जब उच्चतम न्यायालय ने पुणे पुलिस बल को अपने फ़र्ज़ को पूरा करने में नाकाम रहने के लिए फटकार लगायी। हालांकि, कुछ ही महीनों के भीतर पुलिस ने हिंसा भड़काने में हिंदुत्व तत्वों की उत्तेजक भूमिका में चल रही अपनी जांच से मुंह मोड़ लिया और एल्गार परिषद की घटनाओं के साथ एक फ़र्ज़ी माओवादी कनेक्शन को जोड़ दिया, हास्यास्पद तरीक़े से पुलिस इस हद तक चली गयी कि उसने इस घटना से प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश तक को जोड़ दिया। जैसा कि पहले ही ज़िक़्र किया जा चुका है कि अब तक 16 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है, जिनमें शिक्षाविद, वक़ील, कार्यकर्ता और अब एक पादरी हैं।

असल में भीमा-कोरेगांव मामला उस सत्तावादी, बहुसंख्यकवादी, प्रगतिविरोधी शासन व्यवस्था की कुछ प्रमुख विशेषताओं को उजागर करता है, जो इस समय भारत में सत्ता में है। कोई शक नहीं कि इस समय मुसलमानों और दलितों का व्यवस्थित तौर पर उत्पीड़न हो रहा है और इस उत्पीड़न के साथ उन लोगों का लगातार  दमन भी हो रहा है, जो उनके अधिकारों का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं। यह मकड़जाल उन लोगों को बुरे तत्व क़रार दिये जाने और उनका उत्पीड़न किये जाने वाली उस बड़ी परियोजना का हिस्सा है, जो इस मकज़जाल के केंद्र में स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और संघ परिवार की व्यवस्था को चुनौती देते हैं।

असहमति रखने वालों को अपराधी बताया जा रहा है और उन्हें सताया जा रहा है, जबकि इसके साथ-साथ 2014 से ही संस्थाओं को ख़त्म करने की परियोजना को लगातार आगे बढ़ाया जा रहा है। इसमें लोकतांत्रिक और संवैधानिक संरचनाओं और मूल्यों का ख़ात्मा भी शामिल है। इस तरह, चुनाव आयोग, केंद्रीय सतर्कता आयोग, और न्यायिक और क़ानून-प्रवर्तन एजेंसियों जैसे प्रमुख संस्थानों को या तो ध्वस्त कर दिया गया है या कमज़ोर कर दिया गया है।

इस व्यवस्था का घोषित उद्देश्य एक पार्टी के पूर्ण प्रभुत्व को स्थापित करना है। जो कुछ अघोषित है,वह यह कि यह एक राजनीतिक प्रणाली की स्थापना के रास्ते का एक ऐसा ठहराव है जिसमें लोकतांत्रिक अधिकार पूरी तरह आकस्मिक होंगे और जब कभी इसका टकराव व्यवस्था यानी एक अधिनायकवादी, हिंदुत्व-प्रभुत्व वाली राजनीतिक व्यवस्था के उद्देश्यों के साथ होगा, मानवाधिकार हर बिंदु पर थोड़ा-थोड़ा करके समाप्त होता जायेगा।

अगर किसी को ये दावे काल्पनिक लगते हैं, तो उसे केवल कश्मीर में व्यवस्था के इस रिकॉर्ड की जांच कर लेनी चाहिए और कोविड-19 महामारी के प्रकोप के सिलसिले में प्रवासी श्रमिकों के साथ हुए बर्ताव की भी पड़ताल कर लेना चाहिए। दूसरी घटना में ख़ुद के नागरिकों के ख़िलाफ़ सरकार की तरफ़ से मनमाने, ग़ैर-क़ानूनी हिंसा से भरी हुई एक ऐसी ऐतिहासिक सख़्ती थोप दी गयी थी, जिसका इस्तेमाल औपचारिक तौर पर सिर्फ़ सत्तावादी (और सज़ा देने वाली) सरकारें ही करती हैं।

न्यायपालिका के नागरिकों के अधिकारों को स्थापित करने और उनकी रक्षा करने में अपनी भूमिका के निर्वाह से अलग होने की स्थिति से भी असहमति या सवाल उठाने को लेकर मौजूदा शासन की असहिष्णुता को बढ़ावा मिला है। जिस तरह से सरकार ने वैश्विक मानवाधिकार की निगरानी करने वाली संस्था,एमनेस्टी इंटरनेशनल को देश से बाहर जाने के लिए मजबूर कर दिया है, वह किसी भी तरह की आलोचना और बाधा से ख़ुद को मुक्त करने के अधिकार को लेकर सरकार के अहंकार की एक मिसाल भर है।

प्रवर्तन निदेशालय की तरफ़ से 10 सितंबर को अपने सभी खातों को फ़्रीज़ किये जाने के बाद 29 सितंबर को एमनेस्टी को भारत में अपने परिचालन और कार्यालयों को बंद करने की घोषणा करने के लिए मजबूर किया गया था। तक़रीबन एक महीने पहले एमनेस्टी ने दो रिपोर्टें प्रकाशित  की थीं,जिसके बाद इस संगठन को आर्थिक रूप से पंगु बना दिया गया था।

उन दो रिपोर्टों में से एक रिपोर्ट 5 अगस्त 2019 को राज्य के विशेष दर्जे को ख़त्म करने के एक साल बाद इस सिलसिले में अधिनियम पारित होने के एक साल पूरा होने के मौक़े पर जम्मू और कश्मीर के हालात पर थी। भाजपा के राजनीतिक विरोधियों की नज़रबंदी, मीडिया पर पाबंदी और इंटरनेट तक पहुंच को निलंबित किये जाने की ओर इशारा करते हुए यह रिपोर्ट बेहद आलोचनात्मक थी। अपनी इस रिपोर्ट की प्रस्तावना में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने  सभी राजनीतिक नेताओं, पत्रकारों और प्रशासनिक बंदियों की रिहाई, 4 जी मोबाइल इंटरनेट सेवाओं की बहाली, जेलों की मरम्मत और पत्रकारों पर हमलों की एक त्वरित और स्वतंत्र जांच की मांग की थी।

दूसरी रिपोर्ट दिल्ली दंगों के सिलसिले में थी। इस रिपोर्ट में दिल्ली पुलिस की तरफ़ से किये गये मानवाधिकारों के उल्लंघन और उसके द्वारा की गयी अभद्रता के मामले दर्ज किये गये थे। इसमें कहा गया है, '' ...एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की तरफ़ से की गयी यह खोजी जानकारी दिल्ली पुलिस की ओर ले की जा रही जांच-पड़ताल को लेकर नहीं है। यह ख़ुद दिल्ली पुलिस को लेकर है। जैसा कि दिल्ली पुलिस जांच कर रही है कि इन दंगों के लिए कौन ज़िम्मेदार है, मगर अब तक दंगों के दौरान ख़ुद दिल्ली पुलिस की तरफ़ से किये गये मानवाधिकार के उल्लंघन को लेकर कोई जांच नहीं हुई है।”

अब वास्तव में यह कोई ढकी छुपी बात तो रही नहीं कि भीमा-कोरेगांव मामले में वही तरीक़े अपनाये जा रहे हैं,जो कि दिल्ली दंगों के मामले में अपनाये गये थे। वास्तव में हिंसा को भड़काने वाले तो वही भाजपा नेता थे,जो मुख्य रूप से हत्या और मारपीट के लिए ज़िम्मेदार थे। हिंदुत्व के तूफ़ानी दस्ते को अब तक किसी भी तरह की व्यावहारिक कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ा है।उन्हें मार्च में मनमानी करने का मौक़ा दिया गया, जबकि जो मुस्लिम युवा, छात्र, शिक्षाविद् और दूसरे लोग,जो नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, उन्हें गृह मंत्रालय की देखरेख में दिल्ली पुलिस की तरफ़ से निशाना बनाया गया है।

इस समय एमनेस्टी 70 देशों में चल रही है। इसके कार्यालयों को भारत के अलावा सिर्फ़ उस रूस में बंद करना पड़ा है, जहां से इसने अपनी दुकानें 2016 में समेट ली थीं। इस संस्था पर अक्सर पाश्चात्य पूर्वाग्रह का आरोप लगाया जाता रहा है। लेकिन,यहां एमनेस्टी के पक्षपात या उसकी कमी की बात नहीं है। असली बात तो उन तरीक़ों की है,जिस तरीक़े से भारत का मौजूदा शासन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा चलाया जा रहा है,यह तरीक़ा भारत में संवैधानिक लोकतंत्र को ख़त्म कर रहा है।

भारत अनुदार लोकतांत्रिक देशों की बढ़ती श्रेणियों में शुमार होता जा रहा है। यह रूस, इज़राइल, बेलारूस और पाकिस्तान जैसे उन देशों की तरह होता जा रहा है, जहां चुनाव केवल सत्तावाद, दमन और एक खुले समाज को बर्बाद करने के प्रयास पर पर्दा डालने के तौर पर कराये जाते हैं। समस्या व्यवस्था का पटरी से उतरते जाने की है और लगातार रसातल में जा रही इस स्थिति को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की तरफ़ से अलग निगाहों से देखे जाने की है,जो कि विश्वसनीयता का एक बड़ा नुकसान है।

कोई शक नहीं कि भारत अंतर्राष्ट्रीय गठबंधनों के उस ताने-बाने का हिस्सा बनना पसंद करेगा,जिसमें दुनिया के लोकतंत्र शामिल हैं। भारत के सबसे प्रमुख सहयोगी देश भारत को दक्षिण गोलार्ध की लोकतांत्रिक परकोटे में से एक की तरह देखते हैं।ऐसे में भारत का उस हैसियत से दूर होते जाने की कार्यप्रणाली सही मायने में एक भयावह कल्पना ही होगी। भारत को राजनीतिक प्रक्रियाओं की पटरी पर वापस लाने के लिए देश के भीतर की उन ताक़तों की ओर देखना होगा, जिसमें विरोध, असहमति और विविधता शामिल हैं।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Who is Really the Enemy of the People?

Bhima-Koregaon
Sambhaji brigade
Narendra modi
Stan Swami
Amnesty India

Related Stories

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

भाजपा के लिए सिर्फ़ वोट बैंक है मुसलमान?... संसद भेजने से करती है परहेज़

हिमाचल में हाती समूह को आदिवासी समूह घोषित करने की तैयारी, क्या हैं इसके नुक़सान? 


बाकी खबरें

  • Modi
    अनिल जैन
    PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?
    01 Jun 2022
    प्रधानमंत्री ने तमाम विपक्षी दलों को अपने, अपनी पार्टी और देश के दुश्मन के तौर पर प्रचारित किया और उन्हें खत्म करने का खुला ऐलान किया है। वे हर जगह डबल इंजन की सरकार का ऐसा प्रचार करते हैं, जैसे…
  • covid
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में पिछले 24 घंटों में 2,745 नए मामले, 6 लोगों की मौत
    01 Jun 2022
    महाराष्ट्र में एक बार फिर कोरोना के मामलों में तेजी से वृद्धि देखी जा रही है। महाराष्ट्र में आज तीन महीने बाद कोरोना के 700 से ज्यादा 711 नए मामले दर्ज़ किए गए हैं।
  • संदीपन तालुकदार
    चीन अपने स्पेस स्टेशन में तीन अंतरिक्ष यात्रियों को भेजने की योजना बना रहा है
    01 Jun 2022
    अप्रैल 2021 में पहला मिशन भेजे जाने के बाद, यह तीसरा मिशन होगा।
  • अब्दुल अलीम जाफ़री
    यूपी : मेरठ के 186 स्वास्थ्य कर्मचारियों की बिना नोटिस के छंटनी, दी व्यापक विरोध की चेतावनी
    01 Jun 2022
    प्रदर्शन कर रहे स्वास्थ्य कर्मचारियों ने बिना नोटिस के उन्हें निकाले जाने पर सरकार की निंदा की है।
  • EU
    पीपल्स डिस्पैच
    रूसी तेल आयात पर प्रतिबंध लगाने के समझौते पर पहुंचा यूरोपीय संघ
    01 Jun 2022
    ये प्रतिबंध जल्द ही उस दो-तिहाई रूसी कच्चे तेल के आयात को प्रभावित करेंगे, जो समुद्र के रास्ते ले जाये जाते हैं। हंगरी के विरोध के बाद, जो बाक़ी बचे एक तिहाई भाग ड्रुज़बा पाइपलाइन से आपूर्ति की जाती…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License