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क्यों कृषि को खुले बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए
खुले बाज़ार में उपलब्ध कृषि उत्पादों की मात्रा और क़ीमत, सामाजिक ज़रूरतों के हिसाब से बहुत दूर और कमतर होंगी। यह पूरी प्रक्रिया एक सामाजिक त्रासदी साबित होगी।
प्रभात पटनायक
14 Dec 2020
 कृषि

नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि क़ानूनों का देशभर में विरोध हो रहा है। आज ज़्यादातर टिप्पणीकार किसानों के पक्ष में खड़े नज़र आ रहे हैं। वहीं कुछ ऐसे लोग हैं, जो ज़रूरी तौर पर मोदी से सहमत नहीं हैं, लेकिन उन्होंने सवाल उठाया है कि क्यों कृषि में खुले बाज़ार की व्यवस्था लागू नहीं हो सकती? इस सवाल का जवाब बहुत जाना-पहचाना है, लेकिन आज इसका दोहराव ज़रूरी हो जाता है।

जैसा केन्स ने बताया भी है, खुले बाज़ार का समाधान निश्चित तौर पर अर्थव्यवस्था के लिए समग्र तौर पर पर्याप्त नहीं है। लेकिन हम फिलहाल इस मुद्दे पर केन्स के तर्कों को भूल जाते हैं। तब भी दो वजहों से कृषि क्षेत्र के लिए खुला बाज़ार समाधान सही साबित नहीं होता दिखाई पड़ता है। पहला, खुले बाज़ार में कृषि उत्पादों की जो क़ीमत होगी, वह सामाजिक ज़रूरत के हिसाब से बहुत दूर होंगी और यह एक सामाजिक त्रासदी साबित होगा। दूसरा, अगर कृषि को खुले बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाता है, तो उसके बाद कृषि उत्पादों की जो नई मात्रा बाज़ार में आएगी, मतलब अलग-अलग कृषि उत्पादों के लिए ज़मीन उपयोग करने की प्रवृत्ति, वह भी सामाजिक तौर पर बड़ा संकट साबित होगी।

इन दो मुद्दों पर विश्लेषणात्मक स्पष्टता के लिए हम मान लेते हैं कि कृषि में सिर्फ एक तरह का उत्पाद- "खाद्यान्न अनाज" उगाया जाता है। खाद्यान्न अनाज की मांग क़ीमत पर निर्भर नहीं करती। क्योंकि यह हर व्यक्ति के लिए बेहद ज़रूरी कृषि उत्पाद है। जबकि इसका उत्पादन कई उतार-चढ़ावों, जैसे मौसमी स्थितियों से प्रभावित होता है। (सामान्य तौर पर कृषि उत्पादों में यह गुण पाया जाता है।)

इसलिए सामान्य स्थितियों में मांग और आपूर्ति बराबर होने के स्तर के इर्द-गिर्द क़ीमतों में बड़ा उतार-चढ़ाव होगा। अगर क़ीमतें बहुत कम हो जाएंगी, तो किसानों पर कर्ज़ चढ़ जाएगा, जिससे वो हमेशा से जूझते रहे हैं। अगर क़ीमतें बहुत ज़्यादा हो जाएंगी, तो उपभोक्ताओं का कुछ हिस्सा बाज़ार से बाहर हो जाएगा। खाद्यान्न अनाज जैसी ज़रूरी वस्तुओं के मामले में यह बहुत ख़तरनाक हो सकता है। 

इस तरह की अति का एक उदाहरण "महान मंदी (ग्रेट डिप्रेशन)" के वक़्त क़ीमतों में आई भयानक गिरावट है, जिसके चलते किसान बहुत सारे किसान कर्ज़ में फंस गए थे। वहीं बंगाल के अकाल के दौरान 1943 में 30 लाख लोग मारे गए थे। इनमें से कोई भी घटनाएं आपूर्ति की तरफ से झटके के चलते पैदा नहीं हुई थीं और ना ही यह फ़सल खराब होने या फसल बहुत ज़्यादा होने की वज़ह से ऊपजी थीं। लेकिन मैंने इनकी बात यह बताने के लिए रखी कि खाद्यान्न क़ीमतों में तीखा बदलाव कितनी भयानक त्रासदियां ला सकता है।

ऐसा नहीं था कि 1930 की महान मंदी के दौरान खाद्यान्न उपभोक्ताओं को बहुत फायदा हुआ हो या खाद्यान्न उत्पादकों को बंगाल के अकाल के दौरान बहुत लाभ मिला हो। यह घटनाए स्पष्ट तौर पर सामाजिक त्रासदियां थीं। 

खुली बाज़ार अर्थव्यवस्था का मुख्यधारा का सिद्धांत ऐसी घटनाओं की कल्पना भी नहीं करता। सामान्य सिद्धांत एक "खुले बाज़ार संतुलन" के अस्तित्व में होने की बात मानता है, जहां हर तरह की वस्तुएं "ग्रॉस सब्सटिट्यूट्स" हैं। मतलब अगर किसी एक वस्तु की क़ीमत बढ़ती है, जब दूसरी सभी वस्तुओं की क़ीमत भी बिना परिवर्तन के स्थिर रह रही हो, तब दूसरी सभी वस्तुओं की मांग बढ़ जाएगी या फिर स्थिर रहेगी।

यह चीज खाद्यान्न अनाज जैसी वस्तुओं के अस्तित्व की तरफ ध्यान नहीं देती, जिसमें अगर क़ीमतों में वृद्धि होती है, तो सारी दूसरी चीजों की मांग कम हो जाती है, क्योंकि उपभोक्ता तब अपने पैसे का ज़्यादा हिस्सा खाद्यान्न अनाज खरीदने में लगाने लगते हैं। दूसरी चीजें खाद्यान्न का विकल्प नहीं हो सकतीं। जबकि एक "सही खुले बाज़ार संतुलन" में ऐसा किसी चीज के लिए दूसरा विकल्प होना चाहिए। 

इसलिए यह ज़रूरी है कि खाद्यान्न क़ीमतें बहुत ज़्यादा ऊंची ना हों या फिर बहुत नीचे ना चली जाएं। तब सरकारी हस्तक्षेप खुले बाज़ार संतुलन को बनने से रोकता है। इसलिए कुछ टिप्पणीकारों द्वारा यह कहना कि हस्तक्षेप की व्यवस्था पर खुले बाज़ार को लागू किया जाए, वह पूरी तरह गलत है। 

अब हम कृषि उत्पादों की मात्रा की तरफ चलते हैं। मतलब इस उत्पादन के लिए ज़रूरी ज़मीन का इस्तेमाल खुला बाज़ार करेगा। किसी तरह के विरल संसाधन का खुले बाज़ार में किस तरह इस्तेमाल होता है, यह इस चीज पर निर्भर करता है कि संभावित खरीददारों या उपयोगकर्ताओं के हाथों में कितनी क्रय शक्ति है। कृषि को खुले बाज़ार व्यवस्था पर छोड़ने का एक बुरा नतीज़ा यह होगा कि तब ज़मीन का उपयोग उन उत्पादों के लिए ज़्यादा होगा, जिनकी मांग पश्चिम या समाज के कुछ प्रभावकारी तबके में हैं। इससे खाद्यान्न अनाजों का उत्पादन कम हो जाएगा। 

दूसरे शब्दों में कहें तो विदेशों और देश में बैठे प्रभावी उपभोक्ताओं की ज़्यादा मजबूत क्रयशक्ति के चलते खाद्यान्न अनाज का उत्पादन छिन जाएगा। भले ही इससे खाद्यान्न अनाज की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी ना हो, क्योंकि विकसित देशों से इसका आयात किया जा सकता है। लेकिन इससे दो चीजें ज़रूर होंगी। पहली, कई दशकों में देश ने जो आत्मनिर्भरता विकसित की है, वह खत्म हो जाएगी और हमारे देश को खाद्यान्न आयातक या निर्भर देश बना देगी। दूसरा, बड़े पैमाने की भुखमरी होगी।

हम पहले दूसरा मुद्दा उठाते हैं। मान लेते हैं कि खाद्यान्न अनाज के उत्पादन के लिए कोई ज़मीन 10 लोगों को रोज़गार देती थी। अब उसी ज़मीन को किसी दूसरी फ़सल, जैसे फलों के उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो उसमें पांच लोगों को ही काम मिलता है। तब ज़मीन के इस्तेमाल में खाद्यान्न अनाज के उत्पादन से फल उत्पादन की तरफ जाने में पांच लोग बेरोज़गार हो गए। इन पांच लोगों के पास खाद्यान्न अनाज़ की मांग करने लायक क्रय शक्ति नहीं होगी। तो इसलिए अगर आयात असीमित मात्रा में उपलब्ध भी होंगे, भले ही देश के पास विदेशों से आयात करने लायक विदेशी मुद्रा होगी, तब भी भुखमरी में इज़ाफा होगा, क्योंकि लोगों के पास खाद्यान्न खरीदने लायक क्रयशक्ति ही नहीं है।

हां यह बिलकुल है कि इस तर्क के सही साबित होने के लिए यह मानना पड़ेगा कि ज़मीन के बदलते नए उपयोग में पहले से कम लोगों को रोज़गार मिलेगा। यहां यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि शहरी मांग के चलते जिन फ़सलों का उत्पादन बढ़ेगा, या प्रभावी सामाजिक हिस्से की मांग से जो उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी, उसमें औसत तौर पर निश्चित ही कम रोज़गार लगेगा। यह उस हद तक भी हो सकता है कि ज़मीन का उपयोग फ़सल उत्पादन से रियल एस्टेट या गोल्फ कोर्स बनाने की तरफ भी चला जाए, जिसमें प्रति ईकाई रोज़गार और भी कम होगा, जिससे बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी और भुखमरी पैदा होगी। मुख्यधारा का अर्थशास्त्र इस सीधे तथ्य को पहचान नहीं पाता, क्योंकि उसकी धारणा है कि हर वक़्त पूर्ण रोज़गार उपलब्ध होगा और इस खुले बाज़ार संतुलन में हर कोई जिंदा रह सकता है।

अब हम पहले मुद्दे पर आते हैं, मतलब खाद्यान्न में आत्म निर्भरता का खात्मा। मतलब अब देश खाद्यान्न अनाज का उत्पादन नहीं करेगा, उसे विदेशों से आने वाले आयात पर निर्भर रहना होगा। इससे दो समस्याएं उभरेंगी। पहली बात यह है कि हमारी मांग के अनुरूप खाद्यान्न अनाज बाज़ार में हमेशा उपलब्ध नहीं होगा। यह एक बड़े देश के मामले में खास हो जाता है, जिसकी ज़रूरतें बेहद बड़ी हो सकती हैं। जब भारत जैसे आकार के देश वैश्किक बाज़ार में कोई चीज खरीदने जाते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर क़ीमतें बढ़ जाती हैं। 

दूसरी समस्या यह है कि असल दुनिया का बाज़ार किताबों की तस्वीर से बहुत अलग होता है। किताबों की दुनिया में बड़ी संख्या में खरीददार और विक्रेता होते हैं, जिनका आपस में कोई अच्छा-बुरा संबंध नहीं होता। 

लेकिन वैश्विक अनाज बाज़ार में किसी देश को अपनी मांग की चीजें मिलेंगी या नहीं, यह अमेरिका या यूरोपीय सरकारों से उसके अच्छे संबंधों पर निर्भर करता है। यह लोग प्रतिबंध लगा सकते हैं, यह देश सामने वाले देश को अपनी विदेश नीति के हिसाब से परिवर्तन के लिए दबाव डाल सकते हैं। या फिर यह ताकतवर देश सामने वाले देश से उनकी मांग के बदले, खुद के देश की कंपनियों के लिए रियायतें मांग सकते हैं। इसलिए अगर किसी देश के पास खाद्यान्न अनाज खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा हो और वैश्विक बाज़ार में वह चीज उपलब्ध हो, तब भी किसी देश को इन्हें खरीदने के लिए मुद्रा से इतर दूसरी चीजों में क़ीमत चुकानी पड़ती है।

इन सभी वज़हों से अगर किसी बड़े देश को खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करनी है, तो उसको खुद अपना खाद्यान्न अनाज उगाना पड़ेगा। इसलिए क्या उगाना चाहिए, मतलब भूमि उपयोग का ढांचा, खुले बाज़ार पर नहीं छोड़ा जा सकता। सामाजिक तार्किकता की मांग है कि किस चीज का उत्पादन किया जाए, उसके लिए सरकार हस्तक्षेप करे। और इसे हासिल करने का एक स्वाभाविक तरीका यह है कि बाज़ार में क़ीमतों के निर्धारण के लिए सरकार द्वारा तय की गई नीतियां हों, ना कि इन्हें बाज़ार द्वारा तय किया जाए।

भारत में बहुत कोशिशों के बाद एक पूरी व्यवस्था बनाई गई है, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य, ऊपार्जन मूल्य, खाद्यान्नों के लिए क़ीमतें और सब्सिडी शामिल हैं। इससे बाज़ार से इतर और सामाजिक तार्किकता के निकट नतीज़े हासिल करने की कोशिश होती है। इस चीज का विकसित देशों ने पूरे दम से विरोध किया है, जो चाहते हैं कि भारत जैसे देश को वो अपने हाथों से खाना खिला सकने की स्थिति में आ सकें। इसका विरोध घरेलू कॉरपोरेट ने भी किया है, जिनकी तार्किकता अपने हितों के आसपास घूमती है, जो नहीं चाहते कि सरकार अपने कर्तव्यों को पूरा करे। मोदी सरकार यहां कॉ़रपोरेट और साम्राज्यवादियों कि हितों के लिए क़ानूनों के ज़रिए इस प्रबंध को तोड़ना चाहती है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Agriculture Shouldn’t Be Left to Free Market

Farm Legislations
Farmers Rights under Modi Government
Free market for Agriculture
MSP
Farmers Protest Against Farm Laws
farmers movement
Dangers of Free Market
Corporate Entry in Agriculture

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