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कोविड-19
स्वास्थ्य
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भारत का स्वास्थ्य ढांचा वंचित नागरिकों की मदद करने में असमर्थ क्यों है?
"भारत आर्थिक संकट से सबसे बुरे तरीक़े से प्रभावित होने वाले देशों में से एक है, यहाँ बेहद कड़े और बिना योजना के लगाए गए लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था में सिकुड़ गई है। इसके चलते हमने लाखों लोगों को ग़रीबी की स्थिति में धकेल दिया गया है। हमारे यहाँ पहले से ही भूख और कुपोषण बड़ा मुद्दा है, ऐसे में आगे स्वास्थ्य पैमानों में और भी पतन की संभावना नज़र आ रही है।"
सागर कुम्भारे
29 Apr 2021
भारत का स्वास्थ्य ढांचा वंचित नागरिकों की मदद करने में असमर्थ क्यों है?

"बीते सालों में भारत, स्वास्थ्य पर्यटन का बड़ा केंद्र बनकर उभरा है। स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता कई वज़हों का मिलाजुला नतीज़ा होती है। कल्पना कीजिए कि किसी वैश्विक स्तर के अस्पताल में जाने-माने विशेषज्ञों द्वारा महज़ 10 से 20 फ़ीसदी कीमत में किसी जटिल सर्जरी को कर दिया जाता है। दरअसल ऐसा भारत में होता है।"

दरअसल यह शब्द स्वास्थ्य पर्यटन की वेबसाइट पर लिखी कुछ पंक्तियों का संक्षेप हैं। उन पंक्तियों में भारत के स्वास्थ्य पर्यटन में आगे होने की कहानी को बयां किया गया है। लेकिन स्वास्थ्य पर्यटन में आगे होने के बावजूद हम अपने नागरिकों को बुनियादी सेवाएं उपलब्ध कराने में बहुत पीछे हैं। कोरोना ने बहुत साफ़ कर दिया है कि भारतीय समाज में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में गहरी सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक असमानताएं हैं। हमने पिछले साल कोरोना की पहली लहर से होने वाली बर्बादी देखी थी। हम बिना योजना के लगाए जाने वाले लॉकडाउन से वंचित लोगों के सामने आई दिक्कतों के गवाह बने थे। एक साल गुजर चुका है और अब हम ज़्यादा ख़तरनाक लहर का सामना कर रहे हैं। क्या हमने कुछ सीखा था?

असमानता और कोरोना महामारी

गडचिरौली के रहने वाले 28 साल के प्राशिक ने पिछले साल अपने पिता को खो दिया था। अस्पताल ने इसके लिए हार्ट अटैक को ज़िम्मेदार बताया था। लेकिन मामले में और तहकीकात करने से पता चला कि उनकी मौत अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से हुई थी। महाराष्ट्र के जनजातीय जिले गडचिरौली में स्वास्थ्य केंद्र ना केवल ऑक्सीजन सिलेंडर उपलब्ध कराने में नाकामयाब रहे, बल्कि वक़्त पर सिलेंडर तक पहुंच के लिए एंबुलेंस भी उपलब्ध नहीं करवा पाए। 

वह कहते हैं, "मैं बेबस था, मैं जानता हूं कि अगर मैं अस्पताल प्रशासन के ख़िलाफ़ शिकायत भी दर्ज कराऊं, तो भी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी। वह लोग राजनीतिक और सामाजिक तौर पर प्रभुत्वशाली वर्ग से जुड़े हुए हैं।"

यह उन बहुत सारी घटनाओं में से एक घटना है, जिन्हें आसानी से टाला जा सकता था। इनकी कभी ख़बरों में चर्चा नहीं होती। ना ही इनकी कोई परवाह करता है। गोरखपुर में जब इसी वज़ह से बड़े पैमाने पर मौतें हुई थीं, तब देश में थोड़े वक़्त के लिए हलचल जरूर हुई थी। लेकिन तब भी इस तरह की आपराधिक लापरवाही में मुख्यमंत्री ने मेडिकल कॉलेज के प्रिसंपल पर दोष मढ़कर अपने हाथ खींच लिए थे। 

फिर जनजातीय इलाकों में तो हमारा रिकॉर्ड और भी ज़्यादा खराब है। ना तो इसकी कोई चर्चा होती है, ना ही किसी को जवाबदेह बनाया जाता है। यहां तक कि कोई इसकी गणना भी नहीं करता। इन इलाकों में केवल खनिज़ों को ढोने वाले चमचमाते राष्ट्रीय राजमार्गों को ही विकास का पर्याय मान लिया जाता है। सत्ता के गलियारों में बैठे लोग सिर्फ़ इन्हीं में दिलचस्पी दिखाते हैं।

प्रासिक के पिता की ही तरह, अहेरी ब्लॉक की चंदा माडावी ने एंबुलेंस ना होने की वज़ह से 2018 में अपने बच्चे को खो दिया था। 2019 में एटापल्ली ब्लॉक में एक गर्भवती महिला को वासमुंडी गांव से ट्रैक्टर-ट्रॉली में अस्पताल लाना पड़ा था। गडचिरौली जिले में जिंदगियां सस्ती हैं। दशकों से जो टूटी हुई व्यवस्था जारी है, कोरोना महामारी ने बस उसे सामने ला दिया है। 

गडचिरौली के रहने वाले राकेश कहते हैं कि "कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) में पेरासेटामॉल और आई ड्रॉप जैसी बुनियादी दवाइयां तक नहीं हैं। बड़ी संख्या में डॉक्टर दूर-दराज के गांवों में काम करना नहीं चाहते हैं।" वह कहते हैं कि स्थानीय पंचायतें कभी PHC पर ध्यान नहीं देतीं, जिनका "प्रबंधन" नेता करते हैं। ज़्यादातर स्वास्थ्यकर्मी अपने कर्तव्यों में लापरवाही के लिए किसी के डर का बहाना बता देते हैं।

राकेश कहते हैं, "अगर आप शाम 5 बजे के बाद किसी PHC में जाएंगे, तो वहां एक भी स्वास्थ्यकर्मी नहीं मिलेगा। ज़्यादातर मरीज़ों को तो रात में आपात सेवाओं के लिए एंबुलेंस भी नहीं मिलती। सरकारी अस्पतालों के खस्ताहाल होने के चलते निजी अस्पताल फल-फूल रहे हैं। लेकिन दिनों-दिन स्वास्थ्य सुविधाएं महंगी होती जा रही हैं। जिसके चलते ग़रीबों और वंचित तबके से आने वाले लोगों की इन तक पहुंच भी सीमित होती जा रही है।"

रिपोर्टों के मुताबिक़, भारत में 78 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है। लेकिन इन इलाकों में सिर्फ़ 2 फ़ीसदी स्वास्थ्यकर्मी ही उपलब्ध होते हैं। कोरोना की दूसरी लहर और नए लॉकडाउन के चलते लोग स्वास्थ्य सेवाओं के लिए परेशान हो रहे हैं।

खराब सेवा की कीमत

लांसेट के एक अध्ययन के मुताबिक़, भारत में हर साल, हर एक लाख लोगों में से 122 लोग ख़राब गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवा के चलते जान गंवा देते हैं। ख़राब गुणवत्ता से ऊपजने वाली मृत्यु दर के मामले में भारत की स्थिति ब्रिक्स देशों; ब्राजील (74), रूस (91), चीन (46) और दक्षिण अफ्रीका(93) से पीछे है। यहां तक कि पाकिस्तान (119), नेपाल (93), बांग्लादेश (57) और श्रीलंका (51) भी भारत से बेहतर स्थिति में हैं।

लांसेट का अध्ययन, भारत की जननी सुरक्षा योजना का उदाहरण देते हुए कहता है कि सिर्फ़ स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच ही काफ़ी नहीं है; बेहतर नतीजों के लिए अच्छी गुणवत्ता की भी जरूरत होती है। यह योजना 2005 में शुरू की गई थी, इसके तहत स्वास्थ्य केंद्रों पर बच्चे को जन्म देने वाली महिलाओं को नकद प्रोत्साहन दिया जाता है। इससे "स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसव संख्या बढ़ गई है, लेकिन इससे प्रसव के दौरान महिलाओं या शिशु मृत्यु दर कम नहीं हुई है।"

लांसेट के मुताबिक़, हर साल लगभग 16 लाख भारतीय खराब गुणवत्ता वाली सेवा के चलते जान गंवा देते हैं। मतलब हर दिन 4300 मौतें खराब इलाज के चलते होती हैं। दुनियाभर में होने वाली ऐसी 86 लाख मौतें, जिनका इलाज स्वास्थ्य सेवाओं द्वारा किया जा सकता था, उनमें से खराब गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाओं के चलते 50 लाख मौतें, जबकि बची हुई 36 लाख मौतें स्वास्थ्य सेवाओं तक ख़राब पहुंच के चलते होती हैं। यह स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता पर किया गया दुनिया का पहला विश्लेषण है। 

जर्नल में शामिल एक संपादकीय लेख में कहा गया, "इस अध्ययन का आधार यह तर्क है कि कम और मध्यम आय वाले देशों में अक्सर अस्पताल की सेवा पर्याप्त नहीं होती। डॉयग्नोसिस कई बार गलत साबित होते हैं और इन्हें जल्दबाजी में किया जाता है। खुद सेवा भी बहुत धीमी होती है। मरीज़ के लिए सम्मान ना होना आम चीज होती है। मरीज़ के साथ संचार भी बहुत खराब होता है। यहां तक कि कई बार मरीज़ के साथ खराब व्यवहार भी किया जाता है।"

जनजातीय लोगों को सरकार की संवेदनहीनता का सामना करना पड़ रहा है। मल्कानगिरी में एनसेफलाइटिस सिंड्रोम और जापानी एनसेफलाइटिस से सितंबर और दिसंबर, 2016 के बीच 100 से ज़्यादा बच्चों की मौत हो गई थी। ओडिशा के लिए शिशु मृत्यु दर 41 है, वहीं मल्कानगिरी में यह 50 है, जो भारत की शिशु मृत्यु दर के आंकड़े 32 से काफ़ी ज़्यादा है।

स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव

राजनीतिक संवेदनहीनता के बीच हम एक बार फिर प्रवासी मज़दूरों को शहर छोड़ते हुए देख रहे हैं। फुटपाथ पर अंतिम संस्कार किए जा रहे हैं, वहीं शमशान घाट के चारों तरफ दीवार बनाई जा रही है। सरकार द्वारा मौतों से इंकार और इस पर मीडिया की चुप्पी भी खुलकर सामने दिख रही है। लेकिन इस बीच पहले से ही वंचित तबके में मौजूद लोगों को ज़्यादा बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। 

एक अध्ययन में पता चला कि दलितों को स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं से ज़्यादा भेदभावकारी व्यवहार, ज़्यादा संवेदनहीनता का सामना करना पड़ता है और उन्हें ज़्यादा नज़रअंदाज़किया जाता है। इससे स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच में बाधा आती है। छुआछूत का व्यवहार, जैसे दलित मरीज़ों को छूने या उनके घरों में जाने से इंकार करना जारी है। इस बीच दलितों की स्वास्थ्य जरूरतों पर प्रतिक्रिया भी धीमी होती है और उन्हें वक़्त भी कम दिया जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा बहुत ही बुरी स्थिति में है, बल्कि यह प्रभुत्वशाली जातियों की जरूरतें ही पूरी करती नज़र आती है।

स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में भारतीय महिलाओं को भी लैंगिक भेद का सामना करना पड़ता है। इसका भी महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। इसकी वजह आर्थिक स्थिति या उनके समाज और परिवार का पुरातन मूल्यों, आदतों और परंपराओं में जकड़े होना है।

स्वास्थ्य ग़रीबी के इस जाल में मुस्लिम तो और भी बुरे तरीके से निशाना बनते हैं। देश में हाल में जो बदलाव हुए हैं, उनसे तो वे और भी संकट में आ गए हैं। जैसे राजस्थान में एक घटना हुई, जहां एक मुस्लिम महिला को अपने बच्चे को खोना पड़ा, क्योंकि डॉक्टर ने महिला की मुस्लिम पहचान के चलते उसे भर्ती करने से इंकार कर दिया था। यह घटना बताती है कि कैसे हमारा समाज संवेदनहीन होता जा रहा है।

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधार्थियों का अनुमान है कि महामारी से पैदा होने वाले आर्थिक संकट से 26 करोड़ लोग ग़रीबी के दलदल में फंस सकते हैं। भारत इस आर्थिक संकट से सबसे बुरे तरीके से प्रभावित होने वाले देशों में से एक है। यहां बेहद कड़े और बिना योजना के लगाए गए लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था में बहुत सिकुड़न आई है। इसके चलते हमने लाखों लोगों को गरीबी की स्थिति में धकेल दिया है। हमारे यहां पहले से ही भूख और कुपोषण बड़ा मुद्दा है, ऐसे में ग़रीबों के स्वास्थ्य पैमानों में आगे और भी पतन होगा। आखिर यह ग़रीब लोग एक अकुशल स्वास्थ्य तंत्र के बीच रहने के लिए मजबूर हैं। ऊपर से ऐसा लग रहा है जैसे कोरोना भारत में लंबे समय तक, बल्कि निकट भविष्य तक तो निश्चित जारी रहेगा। 

(लेखक सेंटर फ़ॉर इक्विटी स्टडीज़ में शोधार्थी हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why India’s Health Care Systems Fail to Provide for Marginalised Citizens

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Discrimination in Healthcare
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