NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
नीतीश कुमार का भूमिहीन को भूमि देने का बयान सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी क्यों है?
बिहार में भूमि जोत में असमानता को दूर करने के कई मौक़े आए हैं, क्योंकि भूमि एक ऐसा कारक है जो समाज में किसी की भी सामाजिक हैसियत को तय करता है। नीतीश के दावे भी टूटे वादों के मलबे के ढेर की तरह हैं।
सौरव कुमार
04 Mar 2020
Translated by महेश कुमार
BIHAR LAND

अपने जल-जीवन-हरियाली अभियान के तहत पर्यावरण संरक्षण पर हालिया समीक्षा बैठक में, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तालाबों, नहरों और नदियों के आस-पास रहने वाले भूमिहीन लोगों के लिए एक घोषणा की। उन्होंने कहा कि उन्हें या तो रहने के लिए ज़मीन मुहैया कराई जाएगी या ज़मीन ख़रीदने के लिए धन मुहैया कराया जाएगा ताकि वे अपने लिए घर बना सकें। उन्होंने अधिकारियों को राज्य भर में ऐसे लोगों की पहचान करने में तेज़ी लाने के आदेश जारी किए। पिछले महीने, राज्य सरकार ने इस योजना को प्रचारीत और लोकप्रिय बनाने के लिए ‘मानव श्रृंखला’ बनाई थी। 

2018 में, सीएम ने मुख्यमंत्री ग्राम आवास योजना के तहत बेघर लोगों की सहायता के लिए 60,000 रुपये की राशि की घोषणा की थी। भूमिहीन आबादी के लिए यह नवीनतम घोषणा भूमि सुधार ’के मामले में नीतीश कुमार की खोखली बातों की याद दिलाती है।

सर विलियम पेटी  (जिन्हें कार्ल मार्क्स आधुनिक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के संस्थापक के रूप मानते थे) ने एक बार कहा था: "श्रम पिता है और धन उसका सक्रिय सिद्धांत है, क्योंकि भूमि माता हैं।" यह इस संदर्भ में है कि ‘जोतदार को भूमि’ का मुद्दा उठाया जाना चाहिए। 2020 में बिहार के चुनाव के मद्देनज़र एक और चुनावी परीक्षा के मामले में, नीतीश कुमार का ‘भूमि सुधार’ लागू करने का वादा टूट गया है।

आज़ादी के बाद, बिहार देश का पहला ऐसा राज्य था जिसने ज़मींदारी प्रथा को ख़त्म किया था, लेकिन ज़मींदारों से उनकी अतिरिक्त भूमि नहीं छीनी गई क्योंकि सत्तारूढ़ दल उच्च जाति के ज़मींदारों से भरा था, जिन्होंने कृषि सुधारों का एक उदारवादी, ज़मींदार-उन्मुख मार्ग चुना था। प्रभावी ढंग यह भूमि सुधार का एक खोखला प्रयास था। 1962 में, भूमि सीमा अधिनियम पारित हुआ था, लेकिन उसमें मौजूद खामियों का उपयोग करते हुए, ज़मींदारों ने अपने बटाइंदारों को बड़े पैमाने पर बेदख़ल कर दिया था। अंडर-रैयतों और बटाइंदारों को अधिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए, 1970 में बिहार टेनेंसी एक्ट 1885  में संशोधन किया गया था। इसके अतिरिक्त, मज़दूरों और किसानों के हितों की रक्षा के लिए, बिहार विशेषाधिकार प्राप्त होमस्टेड टेनेंसी एक्ट और बिहार मनी लेंडर एक्ट लागू किया गया।

बिहार मुख्य रूप से ग्रामीण और कृषि प्रधान प्रदेश है, जहां राज्य की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी गांवों में रहती है और बड़े पैमाने पर कृषि में लगी हुई है। चूंकि राज्य में एक मज़बूत पहचान-आधारित समाज है, यह सामाजिक संरचना है जो संसाधनों तक पहुंच निर्धारित करती है। सभी संसाधनों के बीच, भूमि पर क़ब्ज़ा उसका एक ऐसा पैरामीटर है जो किसी व्यक्ति या परिवारों को समाज में उनकी हैसियत से जोड़ता है।

बिहार में, भूमि को सामाजिक स्थिति यानी वर्ग और जाति की पहचान (अमीर-ग़रीब या ऊँची-पिछड़ी जाती) का निर्धारक माना जाता है। सामाजिक स्वीकृति के लिए इसका संबंध सीधे तौर पर आनुपातिक है-विरासत या अधिग्रहीत तरीक़ों से मिली भूमि और अधिक भूमि की जोत होने से एक और सम्मान मिलता है जबकि अक्सर जाति पहचान कारक की भी अनदेखी होती है।

नीतीश कुमार के समय में भूमि सुधार एक बार राजनीतिक हलकों में एक बहुचर्चित मुद्दा बन गया था, जब बिहार भूमि सुधार आयोग (2006-08) द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट, जिसकी अध्यक्षता देवब्रत बन्धोपाध्याय ने की थी, और रपट को अप्रैल 2008 में प्रस्तुत किया गया था। मुख्यमंत्री ने इस रिपोर्ट के प्रति अपनी अस्वीकृति की घोषणा अक्टूबर 2009 में की थी। बांघोपाध्याय को पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार के तहत भूमि सुधार के वास्तुकार के रूप में श्रेय दिया जाता है।

भूमि सुधारों से जानबूझकर मुँह मोड़ना 

जुलाई 2010 में, भूमि सुधारों पर डी.बंडोपाध्याय आयोग ने भूमि की हदबंदी में सुधारों को लागू करने और भूमि रिकॉर्ड के कम्प्यूटरीकरण के अलावा, बटाईंदारों की रक्षा के लिए नया  अधिनियम लाने के लिए कुछ सुझाव दिए थे। आयोग की रिपोर्ट के तुरंत बाद, एक शक्तिशाली लॉबी जिसमें ज्यादातर उच्च जाति और कुछ पिछड़ी जाति के लोग शामिल थे, ने ऐसे कदम का विरोध किया जो बटाईंदारों को कानूनी अधिकार देता हो।

अपनी पार्टी और सत्तारूढ़ गठबंधन यानि जद (यू)-बीजेपी गठबंधन के भीतर इसे लेकर उठा-पठक ने नीतीश को आसानी से भूमि सुधारों के अपने अपने चुनावी वादे से पीछे हटने को मजबूर कर दिया। उन्होंने जनता को भरोसा दिलाया कि बटाईदारों की सुरक्षा के लिए कोई नया कानून नहीं आएगा।

भूमि सुधार आयोग की तीन प्रमुख सिफ़ारिशें थीं:

  1. हर प्रकार की भूमि को 15 एकड़ से भिन्न हद वाली छह श्रेणियों में भूमि के वर्गीकरण की वर्तमान प्रणाली को खत्म करना।

  2. 16.68 लाख घरों में से प्रत्येक को न्यूनतम कृषि योग्य श्रमिकों को 0.66 एकड़ और 1 एकड़ सीलिंग की अतिरिक्त भूमि आवंटित करना, और 5.48 लाख गैर-कृषि ग्रामीण श्रमिकों में से प्रत्येक को कम से कम 10 डेसीमल भूमि (एक एकड़ का दशमलव = 100 वां भाग) आवंटित करना।

  3. बटाईंदार को उपज का 60 प्रतिसत इससा मिले (यदि भूस्वामी उत्पादन की लागत वहन करता है) नहीं तो उसे 70 से 75 प्रतिशत मिले (अगर बाटीदार उत्पादन का खर्च वहन करता है), इसके लिए बटाईदार एक्ट लागू किया जाए। 

आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि भूमि के स्वामित्व के बहुत ही विचित्र पैटर्न के कारण बिहार की कृषि में एक संरचनात्मक अड़चन थी और इसका कारण समझना मुश्किल नहीं था। आयोग के अनुसार, भूमि सुधारों के अभाव में न केवल बिहार के भीतर निरंतर सामंती वर्चस्व कायम है, बल्कि राज्य में सस्ते श्रम की निरंतर आपूर्ति भी आसानी से उपलब्ध है।

2009 में भूमि सुधार के विचार को खारिज करने के बाद, नीतीश कुमार ने 2013 में राज्य के महादलित परिवारों को तीन डेसीमल भूमि वितरित करने का एक कार्यक्रम शुरू किया। सरकार ने इस योजना के तहत 2.52 लाख लाभार्थियों की पहचान करने का दावा किया है। अगले वर्ष, उनके उत्तराधिकारी जीतन राम मांझी (मुसहर समुदाय से आने वाले पहले मुख्यमंत्री) ने इसे 5 दशमलव तक बढ़ा दिया था और दक्खल देहानी कार्यक्रम को भी लागू किया, जो दलितों और महादलितों को घर बनाने के लिए भूमि प्रदान करता था और उनका  स्वामित्व भी देता था। हालांकि, यह केवल एक टोकन चाल थी।

आदिवासी और महादलित भूमि के अभाव के सबसे प्रमुख शिकार हैं। बिहार की आदिवासी  आबादी मुख्य रूप से बिना भूमि के है और राज्य सरकार के डेटा रिकॉर्ड से बाहर ही रहती है। यदि भूमिहीन आबादी के एक बड़े हिस्से का जनगणना की रिपोर्ट में कोई उल्लेख नहीं मिलता है, तो नीतीश का भूमिहीनों की सेवा का दावा केवल झूठा है।

एक अवास्तविक सामाजिक न्याय

न्यूजक्लिक, ने बेतिया में स्थित भूमि-अधिकार कार्यकर्ता पंकज से बात की, जो ऑपरेशन दक्खनी के सदस्य भी थे, (भूमिहीनों की मदद करने के लिए राज्य सरकार की पहल) ने कहा कि बिहार के राजस्व विभाग के अनुसार, राज्य में 1,65,400 परचाधारी या जिन लोगों को अधिनियम के तहत भूमि आवंटित की गई थी है। वह कहते हैं कि पश्चिम चंपारण से सरकार डेटा भी गलत है। विभाग का दावा है कि पश्चिमी चंपारण में केवल 12,000 लोगों को ही कब्जा मिलना बाकी है, लेकिन यह संख्या 50,000 है।

न्यूजक्लिक ने अतिरिक्त मुख्य सचिव ‘राजस्व और भूमि सुधार’, विवेक कुमार सिंह द्वारा लिखे एक पत्र (दिनांक 21/03/2017) को हासिल किया, जिसे सभी डिवीजन कमिश्नरों को संबोधित किया गया था। इसने उन्हें उन लोगों को भूमि आवंटन पर कार्रवाई करने के लिए कहा, जो उसके हकदार थे। हालांकि, तीन साल के बाद, किसी भी पर्चाधारी को भूमि नहीं मिली है।

BIHAR  01.PNG

 BIHAR 02.PNG

अतिरिक्त मुख्य सचिव ने भूमि पात्रता पर उपर्युक्त आदेश जारी किए

ग्रामीण आबादी द्वारा भूमि के स्वामित्व और उसके नियंत्रण से ही गरीबी में कमी का निर्धारण होता है, जो अपने वास्तविक अर्थों में सामाजिक न्याय के साथ खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करता है। अकेले पश्चिम चंपारण में, लगभग 55,500 हेक्टेयर भूमि पर जमींदारों, उद्योगपतियों और मिलों का अवैध कब्जा है; इस प्रकार भूमि सुधार एक दूर का सपना है।

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि डी॰ बोंडोपाध्याय के नेतृत्व में भूमि सुधार आयोग की सिफ़ारिशों को जानबूझकर डब्बे में डालने के बाद, नीतीश सरकार ने अपनी असफलता को छिपाने के लिए "ऑपरेशन दक्खल-देहनी" की शुरूवात की, जिसका उद्देश्य सरकारी, सर्वोदय और सीलिंग भूमि उन लोगों को सौंपना था जो इसे पाने के हकदार थे। हालांकि, यह भी जमीन पर औंधे मुह गिरा लगता है।

जम्मू और कश्मीर में भूमि सुधार-

एक राष्ट्रव्यापी चुनौती के रूप में, जम्मू और कश्मीर और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में अतीत में भूमिहीनता को राजनीतिक दृढ़ता के साथ नेस्तनाबूद किया गया था। जम्मू में डॉ॰ आशीष सक्सेना के घाटी में हुए भूमि सुधार पर शोध के अनुसार - 1950 और 1970 के बीच - 672 कनाल की कुल अतिरिक्त भूमि का 70.24 प्रतिशत, जो मुख्य रूप से राजपूतों और महाजनों से लिया गया था, उन्हें एससी (अनुसूचित जाति) के बटाईदारों को आवंटित किया गया था। एससी के भूमि कब्जे के पैटर्न से  पीढ़ियों के बीच का बड़ा बदलाव घाटी में हुआ, जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्र में दो पीढ़ियों की तुलना में भूमि के मामले में में 0 से 47.1 प्रतिशत संख्या बढ़ गई थी।

हसीब ए॰ डबरू के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में गरीबों का आर्थिक उत्थान, जिसके कारण राज्य में घरेलू आय का 25 प्रतिशत से अधिक भूमिहीन श्रम और भूमि के स्वामित्व के अभाव के कारण था।

बिहार सरकार का वंचितों की सेवा करने पर जोर देने का बाड़ा तब औंधे मुह गिर गया जब वह   भूमिहीन लोगों को भूमि देने में नाकामयाब रहे और गरीबी को कम करने में बुरी तरह विफल रहे। ज़रूरतमंदों के पुनर्वास में जम्मू-कश्मीर से समतावाद पर आधारित सबक विकास का एक व्यवस्थित शोषक संस्करण था जिसने प्रभावी कृषि संक्रमण को कोई स्थान नहीं दिया और उलटे  नव-सामंती व्यवस्था की जड़ें गहरी कर दीं।

पहले के शासकों ने भी 'जोतदार को ज़मीन’ को संबोधित करने में बहुत कम काम किया था। कर्पूरी ठाकुर (जो 1977 में मुख्यमंत्री बने थे) के शासन के दौरान लोगों में बेहतरी की उम्मीद जगाई लेकिन ठाकुर, उन्ही उच्च भूमि स्वामी और प्रमुख जातियों से घिरे थे, इसलिए वे भी भूमि सुधार के मुद्दे पर बहुत कुछ नहीं कर सके। 1980 में, जब कांग्रेस राज्य की सत्ता में वापस आई, तो बदलाव की सभी उम्मीदें बिलकुल दूर हो गईं क्योंकि राज्य उच्च जाति गठबंधन को पुचकारने में व्यस्त था। 90 के दशक में, जब बिहार का शासनकाल लालू यादव के हाथों में आया, तो लोगों उनके बहुप्रचारित कार्यकाल से बड़ी उम्मीदें थी, जिसने सामाजिक न्याय का वादा किया था। ऑपरेशन टोडरमल को राजस्व और भूमि के लिए तत्कालीन मंत्री इंदर सिंह नामधारी द्वारा लॉन्च किया गया था, और इसका उद्देश्य सामंती जमींदारों द्वारा छिपाई अतिरिक्त  भूमि का पता लगाना था और इसे समय-सीमा के भीतर जरूरतमंदों में वितरित करना था।

अपने शासन के दौरान, नीतीश ने भूमिहीनों के विकास और सामाजिक न्याय की एक मृगतृष्णा का उदाहरण प्रस्तुत किया। उनका सुशासन का नारा आया ओर चला भी गया लेकिन उनकी  डेढ़ दशक लंबे कार्यकाल प्रति जवाबदेही तो बनती है। जबकि इस बीच बिहार में भूमि सुधार एक टूटे वादे के मलबे के ढेर की तरह है।

Bihar land reforms
Nitish Kumar
D.Bandopadhyay Commission
Jal Jeevan Hariyali Campaign

Related Stories

बिहार: पांच लोगों की हत्या या आत्महत्या? क़र्ज़ में डूबा था परिवार

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बिहार : दृष्टिबाधित ग़रीब विधवा महिला का भी राशन कार्ड रद्द किया गया

बिहार : नीतीश सरकार के ‘बुलडोज़र राज’ के खिलाफ गरीबों ने खोला मोर्चा!   

बिहार : सरकारी प्राइमरी स्कूलों के 1.10 करोड़ बच्चों के पास किताबें नहीं

बिहार : गेहूं की धीमी सरकारी ख़रीद से किसान परेशान, कम क़ीमत में बिचौलियों को बेचने पर मजबूर

बिहारः मुज़फ़्फ़रपुर में अब डायरिया से 300 से अधिक बच्चे बीमार, शहर के विभिन्न अस्पतालों में भर्ती

कहीं 'खुल' तो नहीं गया बिहार का डबल इंजन...

बिहार: नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने समान नागरिक संहिता का किया विरोध

बिहार में 1573 करोड़ रुपये का धान घोटाला, जिसके पास मिल नहीं उसे भी दिया धान


बाकी खबरें

  • विजय विनीत
    ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां
    04 Jun 2022
    बनारस के फुलवरिया स्थित कब्रिस्तान में बिंदर के कुनबे का स्थायी ठिकाना है। यहीं से गुजरता है एक विशाल नाला, जो बारिश के दिनों में फुंफकार मारने लगता है। कब्र और नाले में जहरीले सांप भी पलते हैं और…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटों में 3,962 नए मामले, 26 लोगों की मौत
    04 Jun 2022
    केरल में कोरोना के मामलों में कमी आयी है, जबकि दूसरे राज्यों में कोरोना के मामले में बढ़ोतरी हुई है | केंद्र सरकार ने कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए पांच राज्यों को पत्र लिखकर सावधानी बरतने को कहा…
  • kanpur
    रवि शंकर दुबे
    कानपुर हिंसा: दोषियों पर गैंगस्टर के तहत मुकदमे का आदेश... नूपुर शर्मा पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं!
    04 Jun 2022
    उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था का सच तब सामने आ गया जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के दौरे के बावजूद पड़ोस में कानपुर शहर में बवाल हो गया।
  • अशोक कुमार पाण्डेय
    धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है
    04 Jun 2022
    केंद्र ने कश्मीरी पंडितों की वापसी को अपनी कश्मीर नीति का केंद्र बिंदु बना लिया था और इसलिए धारा 370 को समाप्त कर दिया गया था। अब इसके नतीजे सब भुगत रहे हैं।
  • अनिल अंशुमन
    बिहार : जीएनएम छात्राएं हॉस्टल और पढ़ाई की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर
    04 Jun 2022
    जीएनएम प्रशिक्षण संस्थान को अनिश्चितकाल के लिए बंद करने की घोषणा करते हुए सभी नर्सिंग छात्राओं को 24 घंटे के अंदर हॉस्टल ख़ाली कर वैशाली ज़िला स्थित राजापकड़ जाने का फ़रमान जारी किया गया, जिसके ख़िलाफ़…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License