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भारत
राजनीति
क्यों मोदी को सिर्फ़ समाजवाद ही हरा सकता है?
भारत में आडंबरों से भरी बयानबाज़ी करने वाले मोदी निज़ाम को रोकने का एकमात्र तरीक़ा यही है कि एक ऐसी योजना लाई जाए जिसके मूल में पुनर्वितरण का समाजवादी स्वरूप हो।
शुभम शर्मा
03 Jun 2021
Translated by महेश कुमार
 मोदी

कोविड-19 संकट से निपटने में पूरी तरह से लड़खड़ाई नरेंद्र मोदी सरकार को कई निराशाओं का सामना करना पड़ा है। सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के मुद्दे को लेकर सांप्रदायिक जहर फैलाने के कठोर प्रयासों के बावजूद, केरल में उनका ‘एकमात्र खाता’ बंद हो गया, पश्चिम बंगाल में उनका सांप्रदायिक रथ दुर्घटनाग्रस्त हो गया, तमिलनाडु में मुह दिखाने लायक नहीं रहे, और धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील गठबंधन की जीत स्पष्ट रूप से इस बात कि ओर इशारा करती है कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को चुनावी मैदान में हराया जा सकता है. दरअसल, अब 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 14 में गैर-भाजपा सरकारें हैं।

हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों में, दुर्भाग्य से असम के परिणाम इस प्रवृत्ति से भिन्न रहे हैं, मुख्यतः इसलिए कि कांग्रेस पार्टी किसान नेता अखिल गोगोई और अन्य प्रगतिशील सामाजिक ताकतों को अपने बैनर तले लाने में विफल रही। गठबंधन को व्यापक बनाने के बजाय, वह बदरुद्दीन अजमल की एआईडीयूएफ के साथ गठजोड़ कर साधारण राजनीतिक गणित में बह गई। ऐसा कर, कांग्रेस पार्टी ने भाजपा के चुनावी अभियान को सांप्रदायिक पतवार दे दी और उसे मतदाताओं को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने का मौका मिल गया  जिसके परिणामस्वरूप भाजपा असम में विजयी रही। 

हाल ही में, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव, सीताराम येचुरी ने मौजूदा हालात का जायज़ा कुछ यह कर किया कि, "दीवार पर स्पष्ट लिखा है- कि लोग एक धर्मनिरपेक्ष सरकार चाहते हैं।" दीवार पर कुछ ऐसा ही कुछ मोटे अक्षरों में लिखा हो सकता है, और वह यह है कि भारत के लोग समाजवादी सरकार चाहते हैं।

"समाजवाद" शब्द को संविधान में 1976 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शामिल किया था उनका मक़सद संयुक्त विपक्ष के नीचे से उस ज़मीन को खींचना था जो समाजवाद के कुछ अपरिभाषित संस्करण को लेकर एकजुट हुए थे। तब से, यह शब्द बिना किसी व्यावहारिकता के एक संवैधानिक अभिरुचि बन गया है और जिससे देस के गरीबों को कोई लाभ नहीं हुआ है।  हालांकि, धर्मनिरपेक्षता के विपरीत, समाजवाद का निर्मम उपहास नहीं किया गया या किया जा सकता है। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों? क्योंकि इसमें मेहनतकश जनता के साथ-साथ मध्यम वर्ग के मौजूदा हालात को काफी हद तक बदलने की क्षमता है।

यहां तक कि भाजपा ने भी अपनी स्थापना के समय पंगु गांधीवादी समाजवाद का ही एक रूप अपनाया था। उग्र हिंदुत्व रूप तब उभर कर आया था जब मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया गया था, खासकर तब जब लोकप्रिय आंदोलन ने सामाजिक ताकतों को नीचे से ऊपर की ओर उभारा था। भाजपा के कार्यकर्ता और किसान संघ अभी भी "आत्म-निर्भरता" के नारे के तहत समाजवाद के एक मौन रूप के बारे में डींग हाँकते हैं। हालाँकि, भाजपा को अन्य दलों की तुलना में सबसे बड़ा लाभ अभी भी उसके सोशल मीडिया (गलत) प्रबंधन से है। व्हाट्सएप, ट्विटर या फेसबुक के माध्यम से एक साधारण मीडिया फॉरवर्ड के जरिए दुनिया के किसी भी हिस्से में गाय को मारने का वीडियो, मुस्लिम सब्जी विक्रेता का थूकते हुए वीडियो या कथित "भीड़ द्वारा हिंसा" को दिखाने का वीडियो महत्वपूर्ण संवैधानिक मूल्य को धता बताने की क्षमता रखता है, और —धर्मनिरपेक्षता को —सड़कों पर-एक तुछ बनाकर पेश करता है। 

बावजूद इसके भारत में समाजवाद को मारना असंभव है। समाजवाद को बदनाम करने के लिए बीजेपी की ट्रोल सेना क्या कर सकती है? क्या इसके लिए वह शून्य खर्च वाले शीर्ष-श्रेणी के सार्वजनिक-वित्त पोषित अस्पतालों की नकली तस्वीरें भेजेगी? सभी के लिए मुफ्त शिक्षा का मज़ाक उड़ाएगी? सार्वजनिक क्षेत्र की मजबूती की बात पर हँसेगी, जिसके अभाव में टीके का उत्पादन दुर्घटनाग्रस्त हो गया है? व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करने की आलोचना करेगी? भूमिहीन दलित कृषि श्रमिकों को कृषि योग्य भूमि के वितरण का विरोध करेगी? या भारत के मजदूरों और किसानों की स्थिति में समग्र सुधार का विरोध करेगी? ऐसी तमाम कोशिशों में ट्रोलर्स का धूल चाटना तय है. चूंकि उनमें से कई बेरोजगार युवा होते हैं, इसलिए हो सकता है कि वे इन प्रस्तावों का पक्ष ले, बजाय इसके की थोड़े से पैसे में वे उसके बारे में आभासी जहर फैलाएं। यह भी याद रखें कि भाजपा और मोदी सरकार भारत के काम के अधिकार कार्यक्रम, मनरेगा को बहुत नापसंद करते हैं, फिर भी वे इन्हे खत्म करने में विफल रहे हैं। इस योजना ने लोगों को महामारी के दौरान बेरोजगारी के संकट से कुछ हद तक निपटने में मदद की है और जैसे-जैसे संकट बढ़ता जा रहा है, योजना के तहत काम की मांग में भी वृद्धि हुई है।

इसी में अन्य प्रांतों में भाजपा सरकार को गिराने का रहस्य छिपा है। इस दिशा में पहला कदम भारत के लोगों को पूंजीवाद और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर की पहेली से  निकालना होगा और उन्हें अपनी व्यापक सामाजिक-आर्थिक बीमारियों के अन्य समाधानों के प्रति सचेत करना होगा। मोदी सरकार 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था और व्यापार करने में आसानी के बारे में सोच रही है। मोदी के नेतृत्व में, विश्व बैंक की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में भारत की स्थिति 79 पायदान ऊपर चढ़ गई है और 190 देशों में से इसका स्थान 63वां है। जबकि अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने वायु गुणवत्ता के मामले में भारत को 180 देशों में 179वें स्थान पर पाया, पानी की गुणवत्ता में 122 में से 120वें स्थान पर और ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 107 में से 94वें स्थान पर पाया है। अंतिम आँकड़ा सबसे आश्चर्यजनक है क्योंकि भारत के पास विशाल खाद्य भंडार है, लेकिन पूरा अनाज सरकारी जमाखोरी के तहा गोदामों में बंद हैं।

मामलों को और खराब करने की कोशिश में, नीति आयोग ने हाल ही में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 में संशोधन की सिफारिश की है, ताकि खाद्य सब्सिडी पर किए जा रहे खर्च  47,229 करोड़ रुपये की वार्षिक बचत की जा सके। और साथ ही यह ग्रामीण क्षेत्रों में राशन कवरेज को 75 प्रतिशत से 60 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत से 40 प्रतिशत कम करके पूरा करना चाहती है। प्रस्तावित कृषि कानून भारत भूख की समस्या सबसे अधिक जोखिम पैदा करते हैं और यदि इन्हे वर्तमान स्वरूप में लागू कर दिया गया तो यह भूख के संकट को ओर अधिक बढ़ा देगा क्योंकि बड़े पूंजीपति आवश्यक खाद्य पदार्थों के आधार मूल्यों को बढ़ाने के लिए निजी सीलोज/गोदामों में खाद्यान्न का स्टॉक जमा कर लेंगे

मोदी अपने अनुयायियों और आम हिंदुओं के सामने खुद को हिंदू हृदय सम्राट के रूप में पेश करते हैं। और ऐसा खुद को पेश करने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। उनकी सनक देखो की साहब लंबी पूंछ वाली पगड़ी (पगड़ी) गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस के दौरान खास तौर पर पहनते है। लेकिन यह सम्राट अपने अन्य बादशाहों-बड़े पूंजीपतियों की अनुकंपा की वजह से है। और उन्होंने इस बात को तब स्पष्ट कर दिया था जब फरवरी 2021 में बजट सत्र चल रहा था।

उन्होंने सदन में "धन निर्माताओं" की तीन प्रमुख सफलताओं के आधार पर उनका पुरजोर समर्थन किया- मोबाइल निर्माण, वैक्सीन उत्पादन और फार्मास्यूटिकल्स। विडंबना यह है कि भारत में मोबाइल निर्माण में दस गुना की वृद्धि, 2014-15 में 2.9 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2019-20 में 30 बिलियन जो हुई है, वह बड़े पैमाने पर आयातित चीनी मोबाइल घटकों द्वारा संचालित है। 85 प्रतिशत से अधिक घरेलू उत्पादन चीनी मोबाइल कंपनियों जैसे ओप्पो, वीवो, श्याओमी, आदि के पास है। दूसरे, बहुप्रचारित निजी वैक्सीन निर्माता जिनकी महिमा मोदी गा रहे थे, भारतीयों को दूसरी लहर के कारण होने वाले नरसंहार से बचाने में विफल रहे। नकदी की कमी हो गई, उन्होंने उत्पादन बढ़ाने के लिए जनता के पैसे की भीख मांगना शुरू कर दिया। इसके लिए बाजार काम नहीं आया बल्कि करदाताओं का पैसा हुकूमत के हस्तक्षेप के माध्यम से दिया गया, जिसने काफी हद तक बचा लिया। 

मोदी द्वारा बाजार की ताकतों की सराहना या समर्थन ने भारत में बड़े पैमाने पर वैक्सीन की कमी पैदा कर दी है। जब सभी अफ्रीकी देश जॉनसन एंड जॉनसन से 220 मिलियन खुराक की खरीद का सौदा अफ्रीकी यूनियन ट्रस्ट की तरफ से संयुक्त रूप से कर रहे थे और यूरोपीयन यूनियन के 27 देश सामूहिक रूप से बातचीत कर रहे थे तो उस वक़्त मोदी राज्यों को टीके खरीदने की जिम्मेदारी लेने के लिए कह रहे हैं उन्हे और टीको को अंतरराष्ट्रीय बाजार से खरीदने की सलाह दे रहे थे, एक ऐसी रणनीति जिसे विफल होना ही है।

तीसरा, भारतीय फार्मा की सफलता ट्रिप्स-स्वीकृत उत्पाद पेटेंट पर आधारित नहीं है, बल्कि प्रक्रिया पेटेंट पर आधारित है। पैटंट आधारित प्रणाली ने भारतीय फार्मास्युटिकल दिग्गजों को जेनेरिक और जीवन रक्षक दोनों दवाओं के उत्पादन पर एकाधिकार करके कीमतें बढ़ाने की अनुमति नहीं दी है, जैसा कि अन्य देशों में होता है, मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में। इसके विपरीत, इसने भारतीय फार्मा को बड़ी मात्रा में जेनेरिक दवाओं के उत्पादन के लिए बेहतर प्रक्रियाओं का आविष्कार करने के लिए मजबूर किया, जिनकी कीमतें नीचे रही हैं। 

बड़ी पूंजी और मुक्त बाजार के साथ मोदी का रोमांस इस कद्र है कि उन्होने भारतीय फार्मास्युटिकल क्षेत्र में खुदरा ई-कॉमर्स दिग्गजों जैसे कि अमेज़ॅन को हरी झंडी दे दी है। यह व्यवस्था सीधे तौर पर 8,50,000 छोटे और मध्यम स्तर के फार्मास्युटिकल आउटलेट्स और उनके एक मिलियन से अधिक कर्मचारियों को खतरे में डाल सकता है। संक्षेप में कहें तो, मोदी का मुक्त बाजार का विचार छोटे व्यापारियों को लहूलुहान करने और उनकी मौत का समान है।

मोदी विरोधी गठबंधन के बादल चारो ओर मंडरा रहे हैं. कुछ दिनों पहले ट्विटर पर #MamataforPM ट्रेंड कर रहा था. और 2022 के उत्तर प्रदेश चुनावों में भाजपा को काफी संभावित झटके लगने के इशारे मिल रहे हैं, इसके लिए नए हैशटैग का ट्रेंड होना तय है। लेकिन जैसा कि भारतीय राजनीति का इतिहास रहा है, जन-समर्थक और समाजवादी कार्यक्रम पर आधारित एक मुद्दा-आधारित गठबंधन नहीं होगा। यह वह जगह है जहां मोदी सिर्फ खोखली बयानबाजी की अपनी अद्वितीय क्षमता का फायदा उठा सकते हैं, हिंदू धर्म को काल्पनिक खतरे को हवा दे सकते हैं, और "मोदी बनाम कौन?" का संदर्भ देकर मुकाबले का आगाज कर सकते हैं। इसे रोकने का एक ही तरीका है कि किसी व्यक्ति को तैयार करने के बजाय एक कार्यक्रम तैयार किया जाए। एक कार्यक्रम जिसके मूल में पुनर्वितरण का समाजवादी स्वरूप हो। इसी तरह का  एक कार्यक्रम जो गेम-चेंजर हो सकता है, वह है सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज।

ऐसी प्रणाली के कई सफल उदाहरण मौजूद हैं। क्रांतिकारी समाजवाद से जन्मे, क्यूबा में स्वास्थ्य सेवा अपने सभी नागरिकों के लिए निःशुल्क है। क्यूबा में शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) 4.2 प्रति हजार जन्म है जबकि भारत में यह 2018 में 32 प्रति हजार जन्म था। संयुक्त राज्य अमेरिका, पृथ्वी पर सबसे बड़ी और सबसे धनी पूंजीवादी शक्ति है जहां प्रति हजार जन्म पर 6.5 मौतों के साथ क्यूबा से पीछे है। क्यूबा 3.5 के आईएमआर के साथ यूनाइटेड किंगडम से पीछे है, इंग्लंड इस स्थिति में पूंजीवाद के कारण नहीं, बल्कि एक मजबूत सार्वजनिक वित्तपोषित राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल (एनएचएस) योजना की वजह से है। क्यूबा की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि वह स्वास्थ्य देखभाल पर प्रति व्यक्ति 300-400 डॉलर खर्च करता है, डॉक्टरों को वेतन के रूप में 64 डॉलर प्रति माह की मामूली राशि का भुगतान करता है, और विदेशी चिकित्सा मिशनों के परिणामस्वरूप सालाना 8 बिलियन डॉलर हासिल करता है,  और इस कमाई का एक बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं में वापस निवेश किया जाता है।

सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली उन कई समाजवादी नीतियों में से एक है, जिन्हें विपक्षी राजनीतिक दल अपना कार्यक्रम बना सकते हैं। भारत के लोग हिंदुत्व और उसके दाढ़ी वाले शुभंकर से थक चुके हैं। वे अपने छुटकारे के दिन का बेताबी से इंतज़ार कर रहे हैं।

लेखक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में विश्व इतिहास विभाग में शोधार्थी हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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