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बॉम्बे हाईकोर्ट की जज गनेदीवाला के फ़ैसलों की आलोचना क्यों ज़रूरी है?
पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज यौन उत्पीड़न मामलों में जस्टिस गनेदीवाला के विवादित फ़ैसलों का विरोध करने वालों का कहना है कि उनके फ़ैसले न सिर्फ़ ग़लत नज़ीर पेश करेंगे बल्कि उन महिलाओं के आत्मबल को भी कमज़ोर करेगें जो हिम्मत कर के अपने ख़िलाफ़ हो अत्याचारों को रिपोर्ट करती हैं।
सोनिया यादव
30 Jan 2021
Pushpa Virendra Ganediwala
Image courtesy: NewsBytes

बॉम्बे हाईकोर्ट की जज, जस्टिस पुष्पा गनेदीवाला बीते कई दिनों से यौन उत्पीड़न मामले में अपने फैसलों को लेकर सुर्खियों में हैं। खबरों के मुताबिक इन विवादित फैसलों के चलते सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जस्टिस पुष्पा गनेदीवाला को बॉम्बे हाईकोर्ट में परमानेंट जज बनाने का फैसला भी वापस ले लिया है।

एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक सूत्रों ने बताया, "जस्टिस पुष्पा गनेदीवाला के खिलाफ कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है। उनको एक्सपोज़र की ज़रूरत है और हो सकता है कि जब वह वकील थीं, तो इस प्रकार के मामलों से निपटा नहीं गया। जज को ट्रेनिंग की ज़रूरत है।"

आपको बता दें कि पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज मामलों में जस्टिस गनेदीवाला द्वारा सुनाए फैसलों को कानूनी विशेषज्ञों से लेकर सोशल मीडिया तक के आम लोग दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक बता रहे हैं। तो वहीं नागरिक समाज और महिलावादी संगठनों ने इन फैसलों की आलोचना करते हुए इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।

जस्टिस गनेदीवाला के फ़ैसले का ज़बरदस्त विरोध

न्यूज़क्लिक को एक वीडियो के माध्यम से दिए अपने संदेश में अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन (ऐपवा) की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन ने कहा था कि ऐसे फैसलों को महज़ ख़ारिज करना ही काफी नहीं है। जिन महिला जज ने ये फैसले सुनाए हैं उन्हें जेंडर मामलों में आगे से फैसला देने से रोका जाना भी जरूरी है।

पूर्व सांसद और अखिल भारतीय जनतांत्रिक महिला संगठन (एडवा) की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुभाषिनी अली ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा था “बॉम्बे हाईकोर्ट की जज ने बहुत ही अजीब फैसला दिया है, जो समझ से परे है। इस फैसले से बच्चियों को न्याय देने की प्रक्रिया में रुकावट पैदा हो सकती है। हमारा मानना है कि कोई भी बेंच इसे सही नहीं ठहराएगी क्योंकि ये कानून की आत्मा के बिल्कुल विपरीत है। ये फैसला तार्किक आधार पर भी बिल्कुल कमज़ोर है।”

सुभाषिनी आगे कहती हैं कि इस फैसले ने ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर जो न्यायपालिका में जज की कुर्सी पर बैठते हैं, वो किस सोच के लोग हैं और न्याय के बारे में उनका ज्ञान कितना कमज़ोर है।

ग़लत फैसलों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं

महिलाओं के मुद्दों पर सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी बेबाक राय रखने वाली गीता यादव कहती हैं कि लिखकर-बोलकर दबाव बनाते रहना चाहिए, काम आता है, असर पड़ता है। लेकिन बात सिर्फ कोर्ट के ऑर्डर पर रोक लगाने से खत्म नहीं हो जाती।

क्या है पूरा मामला?

देश में पॉक्सो एक्ट  बच्चों को यौन अपराधों से बचाने के लिए लाया गया था। लेकिन बीते दिनों जस्टिस गनेदीवाला के फैसलों में निचली अदालत के आदेश को पलटते हुए आरोपियों को इस एक्ट के तहत बरी कर दिया गया। अपने जजमेंट में जज साहिबा ने जो बातें कहीं, उसने इस पूरे कानून की व्याख्या को ही सवालों के घेरे में ला खड़ा किया। आइए, ज़रा इन फैसलों पर नजर डालते हैं...

15 जनवरी को जस्टिस पुष्पा ने पहला विवादित फैसला सुनाया। 50 साल के एक शख्स पर पांच साल की एक बच्ची के यौन शोषण का आरोप था। बच्ची की मां ने अपनी शिकायत में कहा था कि आरोपी बच्ची को पकड़कर एक कमरे में ले गया। इस समय बच्ची का हाथ उसके हाथ में था और उसकी पैंट की चेन खुली हुई थी।

पैंट की चेन खुला होना पॉक्सो एक्ट के तहत यौन अपराधों की श्रेणी में नहीं

इस मामले में सेशन कोर्ट ने उस शख्स को पॉक्सो एक्ट के तहत दोषी माना था। इस फैसले को पलटते हुए जस्टिस पुष्पा गनेदीवाला ने कहा कि बच्चों का हाथ पकड़ते समय पैंट की चेन खुला होना पॉक्सो एक्ट की धारा 7 के तहत यौन अपराधों की श्रेणी में नहीं आता।

हाईकोर्ट ने कहा कि यह मामला आईपीसी की धारा 354A (1) (i) के तहत आता है, इसलिए पॉक्सो ऐक्ट की धारा 8, 10 और 12 के तहत सजा को रद्द कर दिया गया। अदालत ने माना कि अभियुक्त पहले से ही 5 महीने की कैद काट चुका है जो इस अपराध के लिए पर्याप्त सजा है।

स्किन टू स्किन टच नहीं, इसलिए पॉक्सो एक्ट के तहत यौन हमला नहीं!

दूसरा फैसला जिसकी सबसे ज्यादा आलोचना हो रही है, वो 19 जनवरी का है। एक शख्स पर आरोप था कि उसने 12 साल की बच्ची के स्तन दबाए। यहां भी निचली अदालत ने आरोपी को पॉक्सो के तहत दोषी पाया था। लेकिन जस्टिस गनेदीवाला ने कहा कि आरोपी ने पीड़िता के कपड़े के अंदर हाथ डालकर उसके स्तन नहीं दबाए। स्किन टू स्किन टच नहीं हुआ, इसलिए यह पॉक्सो एक्ट की धारा 7 के तहत यौन हमला नहीं है। इस मामले में भी जस्टिस पुष्पा गनेदीवाला ने आरोपी को आईपीसी की संबंधित धाराओं के तहत दोषी पाया, लेकिन पॉक्सो की धारा हटा दी।

कई सामाजिक और बाल अधिकार कार्यकर्ताओं ने इस फैसले की तीखी आलोचना की थी। कार्यकर्ताओं का कहना था कि यह बिल्कुल अस्वीकार्य, अपमानजनक और घृणित है और इसे वापस लिया जाना चाहिए।

विवाद बढ़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस फैसले पर रोक लगा दी। इसके अलावा शीर्ष अदालत ने आरोपी और महाराष्ट्र सरकार को नोटिस भी जारी किए और दो सप्ताह में जवाब देने को कहा है।

इसे भी पढ़ें: यौन उत्पीड़न मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट का बयान दुर्भाग्यपूर्ण क्यों है?

“... रेप करना एक अकेले आदमी के लिए बेहद असंभव लगता है”

अब उन्हीं जस्टिस का एक और फैसला सामने आया है। ये भी रेप से जुड़ा मामला है। इस मामले में भी निचली अदालत ने 26 साल के आरोपी को रेप का दोषी पाया था। लेकिन जस्टिस पुष्पा ने उसे बरी कर दिया। जस्टिस पुष्पा ने तर्क दिया, “बिना हाथापाई किये युवती का मुंह दबाना, कपड़े उतारना और फिर रेप करना एक अकेले आदमी के लिए बेहद असंभव लगता है।”

जस्टिस पुष्पा ने कहा कि नि:संदेह पीड़िता की गवाही आरोपी की दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त है। हालांकि यह इस कोर्ट को भी भरोसा करने लायक होनी चाहिए। यह वास्तविक होना चाहिए।  इस मामले में सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की बात सही लगती है। युवती ने आरोप लगाया था कि उसका पड़ोसी सूरज कसारकर जबरन उसके घर में घुस आया था। फिर उसने जबरदस्ती की।

कॉलेजियम के फ़ैसले पर बॉम्बे हाईकोर्ट एक बार पहले आपत्ति जता चुका है!

आपको बता दें कि जस्टिस पुष्पा गनेदीवाला का पूरा नाम पुष्पा वीरेंद्र गनेदीवाला है। वे साल 2007 में जिला जज बनीं। बाद में वे नागपुर में मुख्य जिला और सेशन जज बनीं। इसके बाद जल्द ही वो बॉम्बे हाईकोर्ट की रजिस्ट्रार जनरल नियुक्त हुईं।

खबरों के मुताबिक साल 2018 में जस्टिस पुष्पा गनेदीवाला को बॉम्बे हाईकोर्ट में जज के तौर पर नियुक्त करने के लिए रेकमेंड किया गया। हालांकि, बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसपर आपत्ति जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की आपत्ति का संज्ञान लेते हुए जस्टिस गनेदीवाली की नियुक्ति आगे बढ़ा दी। साल 2019 में एक बार फिर से उनके नाम पर विचार हुआ। इस बार उन्हें बॉम्बे हाईकोर्ट में अतिरिक्त जज के तौर पर नियुक्त कर दिया गया।

इस बार सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने 20 जनवरी को स्थायी न्यायाधीश के रूप में उनकी पुष्टि की सिफारिश की थी, लेकिन बच्चों के साथ यौन शोषण के दो मामलों में विवादास्पद निर्णयों के बाद, एससी कोलेजियम ने अपनी सिफारिश को वापस लेते हुए अपने फैसले को पलट दिया है।

आंकड़ों की भयावह तस्वीर

जिस देश में लगातार बलात्कार जैसी घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ रही हो, अख़बार के पन्ने रोज़ किसी महिला उत्पीड़न-शोषण की खबरों से पटे पड़े हों। वहां इस तरह के फैसले निश्चित तौर पर अपराधियों के मनोबल को बढ़ाने का काम करते हैं, उनके संरक्षण का जरिया माने जाते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में साल 2017 में पॉक्सो के तहत यौन अपराधों के कुल 32,608 मामले दर्ज किए गए तो वहीं साल 2018 में ये आंकड़ा बढ़कर 39,827 हो गया। डाटा के मुताबिक 39,827 में से नाबालिगों से रेप के कुल 21,000 मामले रिपोर्ट किए गए थे। यानी विक्टिम छोटी बच्चियां थीं।

गौरतलब है कि एनसीआरबी की 2019 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में बलात्कार के कुल 31,755 मामले दर्ज किए गए, यानी औसतन प्रतिदिन 87 मामले। ऐसे में महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले लोगों का कहना है न्यायधिश की कुर्सी पर बैठी एक महिला जज की तरफ़ से इस तरह का फैसला आना उन महिलाओं के बल और साहस को कमज़ोर करेगा जो हिम्मत कर के अपने खिलाफ़ हो रहे गलत को गलत कहने का साहस रखती है। मामले को पुलिस में रिपोर्ट करती हैं।

Justice Pushpa Virendra Ganediwala
Bombay High Court
Sexual Assault
Posco Law
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AIDWA
AIPWA
Posco Act
Crime against Minor
Supreme Court Collegium
Controversial judgement

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