NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
भारत
राजनीति
क्यों 'नेतृत्व' और 'वैचारिक' संकट से जूझती कांग्रेस लोकतंत्र की सेहत के लिए भी नुकसानदेह है?
राजनीतिक दलों का कमजोर नेतृत्व, वैचारिक संकट और मूल्यहीनता जैसे कारक हमारे लोकतंत्र और संविधान की बार-बार परीक्षा लेते हैं। लोकतंत्र की सेहत के लिए सिर्फ सशक्त सरकार ही नहीं बल्कि सशक्त विपक्ष को भी जरूरी माना जाता है। ऐसे में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की मौजूदा हालत खतरनाक स्थिति की तरफ इशारा कर रही है।
अमित सिंह
11 Aug 2020
कांग्रेस

देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस में नेतृत्व का संकट 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से लगातार गहराता ही जा रहा है। सोमवार यानी 10 अगस्त को कांग्रेस पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस पद पर एक साल पूरा हो गया।

इस मौके पर कांग्रेस नेता शशि थरूर ने कहा, 'अब हमें पार्टी के नेतृत्व को आगे बढ़ाने के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। मैंने पिछले साल अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सोनिया जी की नियुक्ति का स्वागत किया था, लेकिन मेरा मानना है कि उनसे अनिश्चितकाल तक इस जिम्मेदारी को उठाने की उम्मीद करना उचित नहीं होगा।'

समाचार एजेंसी एएनआई से बातचीत करते हुए शशि थरूर ने कहा, 'यदि राहुल गांधी नेतृत्व को फिर से शुरू करने के लिए तैयार हैं, तो उन्हें केवल अपना इस्तीफा वापस लेना होगा। मुझे लगता है कि पार्टी कार्यकर्ता, कांग्रेस कार्य समिति और हर कोई यह स्वीकार करेगा, क्योंकि वह दिसंबर 2017 में निर्वाचित अध्यक्ष थे। अगर वह कहते हैं कि वो वापस पार्टी की कमान को संभालना नहीं चाहते हैं। तो बात अलग होगी। शशि थरूर ने कहा कि सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि पार्टी का हर नेता यह सवाल पूछ रहा है कि आखिरकार कब तक ऐसा ही चलता रहेगा।'

थरूर ने कहा कि एक पूर्णकालिक अध्यक्ष तलाशने की प्रक्रिया में तेजी लाकर कांग्रेस द्वारा फौरन इस मुद्दे का समाधान करने की जरूरत है। इसे एक भागीदारीपूर्ण और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से किया जाए जो विजेता उम्मीदवार को वैध अधिकार एवं विश्वसनीयता प्रदान करे, जो पार्टी में सांगठनिक एवं संरचनागत स्तर पर नई जान फूंकने के लिए बहुत जरूरी है।

हालांकि शशि थरूर ने पहली बार यह बात नहीं बोली है। इससे पहले भी संदीप दीक्षित, शर्मिष्ठा मुखर्जी, मिलिंद देवड़ा, जयराम रमेश और कपिल सिब्बल ने भी इसकी जरूरत पर जोर दिया है। गौरतलब है कि राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद सोनिया गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष चुनते हुए कहा गया था कि यह व्यवस्था नए अध्यक्ष के चुनाव तक की है लेकिन कांग्रेस ने इस दिशा में कदम नहीं उठाया है।

अभी कांग्रेस का दुर्भाग्य यह है कि इस टेम्पररी व्यवस्था के भी 1 साल बीत चुके हैं। फिलहाल कांग्रेस कार्यसमिति नये अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया कब तय करेगी, अभी यही निश्चित नहीं है। यह भी अजीब है कि कांग्रेस ने मार्च 2018 के बाद से एआईसीसी का सत्र आयोजित नहीं किया है, जबकि कांग्रेस संविधान के अनुसार साल में एक बार आयोजन अनिवार्य है। इस बीच कांग्रेसियों में बेचैनी बढ़ रही है तो दूसरी ओर कांग्रेस विरोधी ताकतें, विशेष रूप से भाजपा, इस कमजोरी का लाभ उठाने से नहीं चूक रही। ये बात भी साफ है कि ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का सपना देखने वाली भाजपा कांग्रेसी नेताओं के सहारे ही इस सपने को पूरा करना चाह रही है।

दरअसल कांग्रेस में नेतृत्व संकट न होता और कमान मजबूत हाथों में होती, तो कांग्रेसी विधायकों को ‘तोड़ना’ इतना आसान नहीं होता। लेकिन सत्ता का भोग लगाने को व्याकुल भाजपा की राह कांग्रेस आसान करती जा रही है।

कांग्रेस के साथ समस्या यह भी है कि एक युग से कांग्रेसियों को नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व की आदत हो गयी है। हालांकि संकट इस बार बड़ा है। ऐसा पहली बार है जब गांधी परिवार के तीन सदस्य एक साथ कांग्रेस में तीन सबसे प्रभावशाली पदों पर हैं लेकिन फिर भी पार्टी अब तक की सबसे कमजोर हालत में है। इसके अलावा अंतरिम कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी उस पद को छोड़ने को बेताब हैं, जिसपर वे 21 साल से हैं। 17 महीने कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके उनके बेटे चाहते हैं कि कोई गैर-गांधी यह पद संभाले। लेकिन सभी कन्फ्यूज़ हैं और कुछ भी तय नहीं है।  

यहां पर गौर करने वाली बात यह भी है कि राजनीतिक दलों का कमजोर नेतृत्व, वैचारिक संकट और मूल्यहीनता जैसे कारक हमारे लोकतंत्र और संविधान की बार-बार परीक्षा लेते हैं। लोकतंत्र की सेहत के लिए सिर्फ सशक्त सरकार ही नहीं बल्कि सशक्त विपक्ष को भी जरूरी माना जाता है। ऐसे में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की मौजूदा हालत खतरनाक स्थिति की तरफ इशारा कर रही है।

ऐसे वक्त में जब अपार बहुमत पर सवार नरेंद्र मोदी ने देश की कमान संभाल रखी है तो मुख्य विपक्षी पार्टी का इस तरह के हालात से गुजरता लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए नुकसानदेह है।

आपको बता दें कि लोकतंत्र में विपक्ष इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि लोकतंत्र की जो भी आधारभूत मान्यताएं हैं वो विपक्ष के बिना सत्यापित नहीं हो सकती है। उदाहरण के लिए सरकार की अनियंत्रित शक्ति पर अंकुश लगाना, जनता के अधिकार व मांग को पूरा करवाना, विधि के शासन की स्थापना करना और स्वस्थ लोकतंत्र को बनाए रखना। मोदी सरकार द्वारा हालिया कुछ फैसलों के बाद विपक्ष के इस भूमिका की कमी खल रही है।

ऐसे में अब बहुत सारे सवाल उठ रहे हैं। क्या वाकई कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है? क्या कांग्रेस का कायाकल्प सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व में ही संभव है? कांग्रेस की ऐसी हालत का ज़िम्मेदार कौन है? इस स्थिति से उबरने का क्या कोई रास्ता नज़र आता है? क्या सॉफ्ट हिंदुत्व और सॉफ्ट सेकुलरिज़्म कांग्रेस को उबार सकते हैं? नए नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है? अभी के समय कांग्रेस की जो हालत है वह किस तरफ इशारा कर रही है? क्या कांग्रेस दिशाहीनता की शिकार है?

हालांकि किसी भी सवाल का जवाब तलाशने के पहले पार्टी आलाकमान द्वारा लिया गया हालिया एक निर्णय देख लेते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता रहे संजय झा ने कुछ दिन पहले एक लेख लिखा कि दो लोकसभा चुनावों में इतनी बुरी हार के बाद भी ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है जिससे लगे कि पार्टी खुद को पुनर्जीवित करने के प्रति गंभीर है।

उनका यह भी कहना था कि अगर कोई कंपनी किसी एक तिमाही में भी बुरा प्रदर्शन करती है तो उसका कड़ा विश्लेषण होता है और किसी को नहीं बख्शा जाता, खास कर सीईओ और बोर्ड को। संजय झा का कहना था कि कांग्रेस के भीतर ऐसा कोई मंच तक नहीं है जहां पार्टी की बेहतरी के लिए स्वस्थ संवाद हो सके। इसके बाद उन्हें प्रवक्ता पद से हटा दिया गया।

यानी कांग्रेस की हालत अभी ऐसी है कि उसमें संवाद की गुंजाइश कम ही है। इसके पराभव की तरफ बढ़ते जाने का यह प्रमुख कारण है। अपने एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, 'लोकतांत्रिक पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस ने कार्यकर्ताओं को सुनना बंद कर दिया है। आर्टिकल 370, ट्रिपल तलाक, सीएए-एनआरसी और गलवान घाटी आदि मुद्दों पर ही पार्टी का रुख देख लीजिए। ऐसी बुदबुदाहटें और आवाजें थीं, जो ज्यादा सूक्ष्म दृष्टिकोण चाहती थीं लेकिन राहुल और सोनिया ने जिला या राज्य स्तर के पार्टी प्रतिनिधियों की बातों पर ध्यान दिए बिना अपने विचार थोपे। अपने ही कार्यकर्ताओं को न सुनना शायद पार्टी के लगातार गिरने का बड़ा कारण है।'

दूसरी समस्या कांग्रेस के भीतर नये और पुराने नेताओं के आसन्न टकराव की है। ये टकराव हमने राजस्थान और मध्य प्रदेश में देखा। राजस्थान में पार्टी किसी तरह सरकार बचाने में सफल दिख रही है लेकिन मध्य प्रदेश की इसकी कीमत सरकार गवांकर चुकानी पड़ी। कांग्रेस में नई पीढ़ी पुराने कांग्रेसियों को खुली चुनौती दे रही है। राहुल गांधी की ताजपोशी के बाद नयी पीढ़ी को ताकत भी मिली थी, किंतु स्वयं राहुल युवा नेतृत्व को राज्यों की कमान देने का साहस नहीं दिखा पाये। उनके अध्यक्ष रहते भी युवा कांग्रेसी नेताओं को दूसरे पायदान से ही संतोष करना पड़ा।

इसके पीछे शायद राहुल का खुद का भी परफारमेंस रहा होगा। उपाध्यक्ष बनने के बाद से ही राहुल को लगातार हार का सामना करना पड़ा। बाद में जब वो अध्यक्ष बने तो सिर्फ तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पार्टी को जीत हासिल हुई है। इसके बाद भी लोकसभा में पार्टी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा है। यानी राहुल पार्टी की नई पीढ़ी बनाम पुरानी पीढ़ी की लड़ाई का हल नहीं ढूढ़ पाए और पद छोड़ दिया।

तीसरी समस्या कांग्रेस के वैचारिक द्वंद्व की है। लंबे समय तक कांग्रेस का रुझान सेंटर टू लेफ्ट रहा है। लेकिन अब बीजेपी की बहुसंख्यकवाद की राजनीति के दबाव में कांग्रेस का दक्षिणपंथी झुकाव उसे वह कांग्रेस नहीं रहने दे रहा है।

इसका परिणाम यह हो रहा है कि कांग्रेस न तो आर्थिक फ्रंट पर किसी नये विचार का जन्म हो रहा है और न ही सामाजिक संदर्भो में वह कोई करिश्मा दिखा पा रही है। इसके अलावा अनेक मामलों में उसके नेताओं की धर्मनिरपेक्ष छवि कमजोर हुई है। इसके अलावा कांग्रेस की बड़ी चूक यह भी है कि किसी भी मसले पर वह भाजपा जैसा संदेश अपने कार्यकर्ताओं को देने में असफल रही है।

फिलहाल आज कांग्रेस विचारधारा और नेतृत्व दोनों मामलों में दोराहे पर खड़ी है। उसे अपनी इसी समस्या से निजात पाना है। 

Congress
Rahul Gandhi
sonia gandhi
Congress crisis
Indian constitution
democracy
modi sarkar
Narendra modi

Related Stories

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक

ख़बरों के आगे-पीछे: केजरीवाल के ‘गुजरात प्लान’ से लेकर रिजर्व बैंक तक

यूपी में संघ-भाजपा की बदलती रणनीति : लोकतांत्रिक ताकतों की बढ़ती चुनौती

बात बोलेगी: मुंह को लगा नफ़रत का ख़ून

ख़बरों के आगे-पीछे: क्या अब दोबारा आ गया है LIC बेचने का वक्त?

ख़बरों के आगे-पीछे: गुजरात में मोदी के चुनावी प्रचार से लेकर यूपी में मायावती-भाजपा की दोस्ती पर..

ख़बरों के आगे-पीछे: पंजाब में राघव चड्ढा की भूमिका से लेकर सोनिया गांधी की चुनौतियों तक..

ख़बरों के आगे-पीछे: राष्ट्रीय पार्टी के दर्ज़े के पास पहुँची आप पार्टी से लेकर मोदी की ‘भगवा टोपी’ तक

कश्मीर फाइल्स: आपके आंसू सेलेक्टिव हैं संघी महाराज, कभी बहते हैं, और अक्सर नहीं बहते


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License