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भारत
राजनीति
महामारी और डूबती हुई अर्थव्यवस्था: मोदी की छमाही बैलेंस शीट
महामारी के सामने आत्मसमर्पण करने के बाद, मोदी प्रशासन उम्मीद कर रहा है कि अर्थव्यवस्था इस परेशानी से बाहर आ जायेगी। दुर्भाग्य से हम शायद एक बुरी स्थिति का सामना करने जा रहे हैं,जिसमें महामारी और एक सिकुड़ती अर्थव्यवस्था, दोनों ही एक बदतरीन हालात के शिकार हैं।
प्रबीर पुरकायस्थ
07 Sep 2020
मोदी

भारत को लेकर दो ख़बरें ख़ास तौर पर सुर्खियों में हैं। पहली ख़बर यह कि पिछली तिमाही में भारत की जीडीपी में लगभग 24% की गिरावट आयी है, और दूसरी ख़बर यह है कि भारत वैश्विक महामारी के नये एपिसेंटर के रूप में कोविड संक्रमण के अपने नए मामलों में अमेरिका से भी आगे निकल गया है। साल की दूसरी तिमाही में जीडीपी में 24% की गिरावट इस साल की तिमाही में दुनिया की किसी भी बड़ी अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी गिरावट है। इसी तिमाही में अमेरिकी जीडीपी में 9.5% और जापान की जीडीपी में 7.6% की गिरावट आयी है। चीन ने पहली तिमाही में 6.8% की जीडीपी में गिरावट दर्ज की थी, लेकिन दूसरी तिमाही में उस गिरावट को थामते हुए 3.2% की वृद्धि दर्ज की, और इसके अलावा उसने महामारी को भी पीछे छोड़ दिया है।

अन्य देशों के उलट, भारत की अर्थव्यवस्था महामारी से पहले ही धीमी पड़ने लगी थी, इसलिए कोविड-19 का यह असर पहले से ही लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में आयी यह गिरावट बहुत बड़ी है, जबकि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर सबसे ज़्यादा चोट पहुंची है, जिसे जीडीपी की गणना में शामिल भी नहीं किया जाता है। अगर इसका आकलन किया जाये, तो वास्तविक गिरावट और भी बड़ी होगी !

इसी तरह कोविड-19 के मोर्चे पर भी भारतीय आंकड़े साफ़ नहीं हैं। पूरे अगस्त महीने में अमेरिका के मुक़ाबले भारत में प्रति दिन नये मामले ज़्यादा संक्रमण दर से दर्ज होते रहे, और एक दिन में 78 हजार से ज़्यादा संक्रमण के मामलों का नया रिकॉर्ड बना है, जो दुनिया में किसी भी देश की तुलना में सबसे ज़्यादा है।

हालांकि, संक्रमण के रोज़वार मामलों में यह बढ़ोत्तरी कुछ हद तक धीमी तो हुई है, लेकिन यह अब भी उच्च बनी हुई है। वह दर, जिस पर कोविड-19 फैल रही है, उसका अनुमान डब्लिंग दर को देखकर लगाया जा सकता है। डब्लिंग दर वह दर होती है,जिसके साथ एक निश्चित दिनों में कुल मामले दोगुने हो जाते हैं। यह डब्लिंग दर भारत के लिए शुरू में तक़रीबन 12-14 दिन थी, और अब लगभग 25-30 दिन है। यह दर अब भी अन्य समान रूप से कोविड की चपेट में आने वाले अमेरिका, ब्राजील, मैक्सिको जैसे देशों के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा है, जहां यह डब्लिंग दर इस समय 50-60 दिनों की सीमा में है। भारत के ये आंकड़े किसी भी अन्य देश के मुक़ाबले दोगुने तेज़ी से बढ़ रहे हैं।

यह स्थिति उस चीन से उलट है, जहां महामारी के पहले चरण, यानी जनवरी से मार्च के दौरान संक्रमण की संख्या 82,000 थी, जिस दौरान इलाज किये जाने के साथ-साथ पूर्ण लॉकडाउन था, रोगियों पर नज़र रखी जा रही थी, क्वारंटाइन किया जा रहा था और इसके बाद महामारी पर क़ाबू पा लिया गया था। इसने बाद के पांच महीनों यानी अप्रैल से अगस्त के दौरान महज़ तीन हजार की ही बढ़ोत्तरी हो पायी।

कई जानकारों का मानना है कि यह आर्थिक मंदी दरअस्ल लॉकडाउन के कारण है, और जैसे ही लॉकडाउन हटा लिया जायेगा, तो अर्थव्यवस्था सामान्य हो जायेगी। लेकिन, दूसरी तरफ़ यह धारणा भी है कि इस मामले में स्वीडन ने बिना किसी लॉकडाउन के इस्तेमाल और सामूहिक प्रतिरक्षा (Herd Immunity) का निर्माण करते हुए महामारी पर क़ाबू पा लिया। यह यूके जैसे कई देशों के लॉकडाउन के शुरुआती विरोध का आधार भी था, क्योंकि इसके पीछे उनका तर्क था कि चीन का लॉकडाउन एक "सत्तावादी" प्रतिक्रिया थी, जबकि ये देश "लोकतांत्रिक" हैं और ये चीन की नकल नहीं कर सकते। यह लॉकडाउन, मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के शुरुआती ट्रम्पवादी प्रतिरोध का भी आधार था। अमेरिका में यह विज्ञान विरोधी विचारों की एक गहरी लहर, और विभिन्न दक्षिणपंथी नागरिक सेना के साथ राज्य विरोधी मान्यताओं से मिलकर प्रतिध्वनित हो गया था।

आइए हम पहले उस प्रश्न का हल करें कि या तो हम सभी प्रतिबंधों को हटा दें और अर्थव्यवस्था को सामान्य होने दें, या फिर हम इस महामारी को नियंत्रित करें और अर्थव्यवस्था को प्रभावित होने दें। इस सवाल को इस तरह से रखने के बजाय, हम इसे कुछ इस तरह पूछें कि क्या अर्थव्यवस्था सामान्य हो सकती है, जबकि महामारी का क़हर अब भी जारी है?

स्वीडन का मामला काफ़ी सीख देने वाला मामला है। स्वीडन ने सामूहिक प्रतिरक्षा विकसित करने में भरोसा जताते हुए लॉकडाउन को लागू नहीं किया। अगर हम स्वीडन की तुलना उसके नॉर्डिक पड़ोसियों- डेनमार्क, नॉर्वे की जीडीपी में आने वाली गिरावट और वहां के लोगों के ख़र्च के स्तर में करें, जिसकी तुलना की जा सकती है, तो इसका मतलब है कि लॉकडाउन लागू नहीं करने से अर्थव्यवस्था को कोई मदद नहीं मिली। लेकिन, स्वीडन में संक्रमण की संख्या कहीं ज़्यादा थी। प्रति मिलियन (12 अगस्त के मुताबिक़) नॉर्वे में 1,780 और डेनमार्क में 2,560 की तुलना में वहां 8,200 मामलों की पुष्टि हुई। स्वीडन में काफ़ी ज़्यादा मौतें भी हुई हैं। प्रति 100,000 में नॉर्वे में पांच और डेनमार्क में 11 मौतों की तुलना में यहां 57 मौतें हुई हैं।

स्वीडन की नीति के वास्तुकार, एंडर्स टेग्नेल इस समय यह पूछे जाने पर कड़ी आलोचना का सामना कर रहे हैं कि सामूहिक प्रतिरक्षा तक तेज़ी से पहुंचने के लिए क्या बुज़ुर्गों की उच्च मृत्यु दर स्वीकार्य है। रक्त सीरम में मापे जाने वाले जनसंख्या का एक रोगज़नक़ का स्तर का परीक्षण (Seroprevalence testing) से पता चलता है कि सामूहिक प्रतिरक्षा, जिस लक्ष्य को पाने की उम्मीद की गयी थी, वह भी हासिल नहीं हुई है। स्वीडन के जो लोग संक्रमित और एंटीबॉडी हैं, उनके आंकड़े 15-20% की सीमा में हैं, और यूके, स्पेन या दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों से यह आंकड़ा अलग नहीं हैं।

यही कारण है कि किसी महामारी के जारी रहने से अर्थव्यवस्था पर साफ़ तौर पर असर पड़ता है। भारत में तो हम साफ़ तौर पर देख सकते हैं कि लोग अपने ख़र्चों में कटौती कर रहे हैं, या फिलहाल ख़र्च को टाल रहे हैं, और महामारी के दौरान अपने सामाजिक सम्बन्धों को भी कम कर रहे हैं। सिर्फ़ नौजवान ही सामूहिक रूप से एक दूसरे को कुछ समय दे रहे हैं, लेकिन वह भी बहुत तेज़ी से मिलना जुलना तब छोड़ देते हैं, जब संक्रमितों की संख्या में फिर से बढ़ोत्तरी होनी शुरू हो जाती है। इस तरह, ख़र्च पर फिलहाल रोक लगाने का मतलब होगा कि कम से कम खपत, जिससे मांग में कमी आती है और मांग में कमी आने से उत्पादन में भी कमी आती है। इससे औपचारिक और अनौपचारिक, दोनों ही अर्थव्यवस्था में नौकरियां जाती हैं, और इससे भी आख़िरकार मांग में ज़बरदस्त कमी आती है।  

लॉकडाउन से बाहर आ चुके इटली, स्पेन और फ़्रांस जैसे ज़्यादातर देशों में संक्रमण की एक दूसरी लहर दिखायी देने लगी है। यूंकि यहां सर्दियां शुरू हो चुकी हैं, इसलिए संक्रमण के मामले यहां बढ़ सकते हैं और इसलिए, सर्दियों में ज़्यादतर गतिविधियां घर के भीतर स्थानांतरित हो सकती हैं। अब तक तो यह साफ़ हो चुका है कि सीमित जगहों के भीतर होने वाले बड़े-बड़े समारोहों से संक्रमण के बहुत तेज़ी से फ़ैलने की घटनायें सामने आ रही हैं और इससे संक्रमण के मामले भी बढ़ रहे हैं।

चीन का उदाहरण बताता है कि अर्थव्यवस्था को बचाने का एकमात्र तरीक़ा लोगों को संक्रमण से बचाना ही है। चीन के सख़्त लॉकडाउन और अन्य उपायों के अपनाये जाने के बाद कोविड-19 के ख़िलाफ़ संघर्ष में सभी लोगों को शामिल करते हुए चीन सामान्य स्थिति में आ गया है। हैरत नहीं कि चीन की अर्थव्यवस्था भी पटरी पर आने लगी है, दूसरी तिमाही में सकारात्मक बढ़ोत्तरी दिखाने वाली यह एकमात्र बड़ी अर्थव्यवस्था है।

क्यूबा, न्यूज़ीलैंड, वियतनाम और अन्य देश भी इस महामारी को "कुचलने" के लिए यही रास्ता अपना रहे हैं। जो देश अर्थव्यवस्था और महामारी के बीच दुविधा में पड़े हुए हैं, उनके लिए यह सबक बिल्कुल साफ़ है कि महामारी को नियंत्रित करना आर्थिक सुधार का एकमात्र तरीक़ा है। अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने और महामारी को नियंत्रित करने के बीच की दुविधा से तो दोनों में से किसी पर भी नियंत्रण नहीं पाया जा सकता है।

हम देख सकते हैं कि मोदी सरकार ने महामारी को लेकर जो नज़रिया अपनाया था,वह पूरी तरह से नाकाम हो चुका है। 21 दिनों में इस नये महाभारत युद्ध को जीतने के अपने शुरुआती सख़्त लॉकडाउन और उल्टी-सीधी घोषणाओं के बाद, लॉकडाउन को दो बार बढ़ाया गया और अब यह उस चरण में है, जिसे "अनलॉक" कहा जा रहा है। इस समय हम अनलॉक के चौथे चरण में हैं। तीन लॉकडाउन और 4 अनलॉक चरणों को मिलाकर इन सभी सात चरणों में जो कुछ नहीं दिखता है, वह है- महामारी की स्थिति से उनका किसी तरह के सम्बन्ध का नहीं होना।

ये सभी चरण गृह मंत्रालय द्वारा जारी दिशानिर्देशों के तहत लागू किये गये हैं। राज्यों द्वारा क्या किया जाना चाहिए या नहीं किया जाना चाहिए, इन तमाम बातों को केन्द्र सरकार पूरी तरह नियंत्रित कर रही है, जबकि उसकी नीतियों को लागू किये जाने की अपेक्षा इन्हीं राज्यों से की जा रही है। जो स्वास्थ्य मंत्रालय और उसके अधिकारी हमें बता सकते थे कि क्या चल रहा है या क्या योजना बनायी जा रही है, वे भी हमारे सामने नहीं आ पा रहे हैं। वे जनता की नज़रों से पूरी तरह ओझल हो चुके हैं। अनिवार्य रूप से एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट को लेकर यह स्थिति गृह मंत्रालय और केंद्र द्वारा अभूतपूर्व स्तर पर शक्तियों का सही मायने में केंद्रीकरण है।

इन लॉकडाउन और अनलॉक चरणों के दौरान संक्रमणों की संख्या, उन क्षेत्रों में जहां रोग फ़ैल रहा है, और जो कुछ उपाय किये जा रहे हैं, इनके बीच के सम्बन्ध के बारे में हमें कुछ भी पता नहीं चल पा रहा है। मौजूदा नीतियों से हमें क्या कुछ हासिल होने वाला है, इसके बारे में कोई विवरण नहीं है और इन नीतियों में से क्या कुछ कारगर रही है और क्या कारगर नहीं रही है, इसका कोई सबूत आधारित विश्लेषण तक नहीं है। जो कुछ हुआ है और जो कुछ नहीं हो पाया है, उसे लेकर विभिन्न राज्यों के अनुभव को भी टटोलने की कोई कोशिश नहीं की गयी है और इसे अन्य राज्यों के साथ साझा भी नहीं किया गया है। इसके बजाय, हम पूरी तरह से अपारदर्शी नौकरशाही को ऐसी घोषणायें करते हुए देखते हैं,जिसका ज़मीनी हक़ीक़त से कोई लेना-देना नहीं है।

हम वैक्सीन को लेकर भारत की योजनाओं पर भी इसी तरह की चुप्पी देख रहे हैं। हमारे पास पहले से ही किसी भी सफल वैक्सीन की नक़ल करने और इसे बड़े पैमाने पर उत्पादित करने की वैज्ञानिक और औद्योगिक क्षमता है। भारत में वैक्सीन के कम से कम तीन प्रमुख निर्माता हैं- सीरम इंस्टीट्यूट पुणे, ज़ाइडस कैडिला और भारत बायोटेक। भारत में वैक्सीन को लेकर भारत बायोटेक, इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी, पुणे के साथ भी भागीदारी कर रहा है। सवाल है कि भारत सरकार इस बात को लेकर क्या कर रही है कि कम से कम इन वैक्सीन निर्माताओं के उत्पादन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भारत के लोगों को भी उपलब्ध हो? इसके अलावा, दुनिया के उन हिस्सों के लोगों के लिए क्या किया जा रहा है, जो भारत को विश्व के तमाम ग़रीबों का दवाखाना मानते हैं? क्या सरकार या पीएम केयर्स ने हमारे वैक्सीन उत्पादन के बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने के लिए कोई धनराशि मुहैया करायी है? क्या हमारे पास इस समय इस तरह की किसी कार्यप्रणाली की तैयारी की कोई दृष्टि है और इसे पूरा करने को लेकर क्या हमारे पास कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति है? या क्या हम मानते हैं कि ट्रम्प भारत के साथ उदारता के साथ उस वैक्सीन को साझा करेंगे, जिसे अमेरिका निर्माताओं से आधिकारिक तौर पर लिया जा रहा है?

महामारी के सामने आत्मसमर्पण करने के बाद मोदी प्रशासन उम्मीद कर रहा है कि अर्थव्यवस्था इस मुसीबत से बाहर आ जायेगी। दुर्भाग्य से हम महामारी की बिगड़ती स्थिति और लगातार डूब रही अर्थव्यवस्था के दोनों ही मोर्चे पर शायद बदतर स्थिति का सामना करने जा रहे हैं। महामारी कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका हल बाज़ार दे सके, सच्चाई तो यही है कि यह समाधान राज्य के हस्तक्षेप और एक सार्वजनिक स्वास्थ्य दृष्टिकोण की मांग करता है, दुर्भाग्य से मोदी शासन की दृष्टि में दोनो ही नज़र नहीं आते।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Worsening Epidemic and a Sinking Economy: Modi’s Mid-year Balance Sheet

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