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आंदोलन
भारत
राजनीति
साल 2021 : खेत से लेकर सड़क और कोर्ट तक आवाज़ बुलंद करती महिलाएं
इस साल महिलाओं ने पितृशाही और मनुवादी सोच को चुनौती देकर तमाम आंदोलनों में न सिर्फ़ अपनी हिस्सेदारी दिखाई बल्कि उन आंदोलनों की अगुवाई भी की। आज महिलाएं न सिर्फ़ अपने समुदाय के बल्कि सभी के अधिकारों के लिए सड़क की लड़ाई लड़ रही हैं।
सोनिया यादव
23 Dec 2021
Year 2021

साल 2021 खत्म होेने को है, ऐसे में इस साल कोरोना महामारी के बीच देश को कई बार महिलाओं ने अपने आंदोलन और संघर्षों से झकझोरा है। एक ओर किसान आंदोलन में नारे लगाती औरतों ने सत्ता की नींद उड़ा दी, तो वहीं दूसरी ओर प्रिया रमानी की जीत ने सत्ता में बैठे ताक़तवर लोगों के खिलाफ महिलाओं को खुलकर बोलने का हौसला दिया।

इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट में 33 जजों में से चार महिला जज की नियुक्ति की गई, जिसे न्यायिक व्यवस्था में लैंगिक समानता की ओर बढ़ते हुए कदम की तरह देखा गया। दूसरी ओर शैक्षणिक संस्थानों में जातिगतगत भेदभाव के खिलाफ दीपा मोहनन का संघर्ष अंधेरे में रोशनी की उम्मीद बनकर सामने आया। इसी साल भीमा कोरोगांव मामले में जमानत पर सुधा भारद्वाज की रिहाई का फरमान आया, तो वहीं आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वाली राजनीतिक और पर्यावरण एक्टिविस्ट हिडमे मरकाम की गिरफ्तारी भी हुई।

नारीवाद के लिए खट्टी-मीठी यादें दे गया ये साल

ये साल कई खट्टी-मीठी यादें दे गया, जूझने का संघर्ष, जीत की खुशी और हर परिस्थिति में डटे रहने की सीख इसके पीटारे में सबसे खास हैं। बीते साल शाहीन बाग़ की आग ने महिलाओं के आंदोलन की एक नई मिसाल पेश की, जो इस पूरे साल उदाहरण बनी रही। अपने हक़ से लेकर समाजिक सरोकार सभी मामलों में महिलाएं बड़ी संख्या में बाहर आईं, खुलकर सत्ता से लोहा लिया, जिसे कोई नज़रअंदाज़ नहीं कर पाया।

पितृसत्तात्मक समाज में जहां औरतों का दायरा घर की चारदीवारी ही समझा जाता है। वहीं अब महिलाओं ने इस मुनवादी सोच को चुनौती देकर तमाम आंदोलनों में न सिर्फ अपनी हिस्सेदारी दिखाई बल्कि उन आंदोलनों की अगुआई भी की। आज महिलाएं न सिर्फ़ अपने समुदाय के बल्कि सभी के अधिकारों के लिए सड़क की लड़ाई लड़ रही हैं।

आइए एक नज़र डालते हैं 2021 में महिला आंदोलन और उनके संघर्षों की कहानी पर...

किसान आंदोलन में महिलाएं

साल 2021 किसानों और उनके आंदोलन के नाम रहा। लगभग 378 दिन चले इस आंदोलन ने लोकतंत्र में संघर्ष के भविष्य को जिंदा रखने की उम्मीद कायम की। सरकारी फैसलों को आखिरी रास्ता ना मानकर विरोध की आवाज़ बुलंद करने का हौंसला दिया। और आखिरकार एकजूट होकर जीत का जश्न मनाने का मौका दिया। किसान आंदोलन का एक बड़ा हिस्सा महिलाएं भी रहीं जो अपने अधिकारों के लिए दिल्ली की सड़कों तक आईं।

महिलाएं ‘दिल्ली चलो’ आंदोलन की महज़ समर्थक ही नहीं बल्कि उसमें बराबर की भागीदार भी रहीं। उन्होंने दिल्ली के सिंघु, टिकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपने हक़ की लिए लड़ाई लड़ी और अंत में सरकार को झुका दिया।

इस पूरे साल को समयानुसार देखें तो बहुत कुछ ऐसा होता रहा जिसने वर्तमान समय में भारतीय नारीवादी आंदोलन को मजबूती देने के साथ-साथ अलग-अलग तरह से विचार-विमर्श करने पर उसके समावेशी होने की आवश्यकता को और बढ़ा दिया है।

इसे भी पढ़ें: महिला किसान दिवस: खेत से लेकर सड़क तक आवाज़ बुलंद करती महिलाएं

एम.जे. अकबर के ख़िलाफ़ प्रिया रमानी की जीत

इसी साल फरवरी में अदालत से प्रिया रमानी की जीत का फैसला आया। ये जीत सिर्फ प्रिया की नहीं बल्कि उन तमाम महिलाओं की जीत और उम्मीद थी, जिन्होंने वर्क प्लेस पर शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की थी। इंडिया टुडे, द इंडियन एक्सप्रेस और द मिंट का हिस्सा रह चुकी वरिष्ठ पत्रकार प्रिया रमानी ने मीटू अभियान के दौरान तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री एमजे अकबर पर यौन दुर्व्यवहार का आरोप लगाया था। वो एमजे अकबर पर यौन शोषण का आरोप लगाने वाली पहली महिला थीं। हालांकि प्रिया के यह पोस्ट करने के कुछ घंटों के अंदर ही कई और महिलाओं ने उनकी बात से हामी भरते हुए अकबर पर उनके साथ अनुचित व्यवहार करने के आरोप लगाए। प्रिया के बाद #MeToo अभियान के तहत ही 20 महिला पत्रकारों ने अकबर पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे।

चारों ओर से घिरे एमजे अकबर को इन आरोपों के बाद 17 अक्तूबर 2018 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देना पड़ा था। तब अदालत ने अपने फ़ैसले में साफ़ तौर पर कहा था कि सामाजिक प्रतिष्ठा वाला व्यक्ति भी यौन शोषण कर सकता है। अदालत के मुताबिक, “किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा की सुरक्षा किसी के सम्मान की क़ीमत पर नहीं की जा सकती है।” ये फ़ैसला इन्हीं मायनो में अहम था।

इसे भी पढ़ें: प्रिया रमानी की जीत महिलाओं की जीत है, शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सच्चाई की जीत है!

सुप्रीम कोर्ट में महिला न्यायधीशों की नियुक्ति

न्यायपालिका में लैंगिग समानता का मुद्दा बीते काफी समय से सुर्खियों में रहा है। ऐसे में इस साल सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार 3 महिलाओं का जस्टिस पद के लिए शपथ लेना ऐतिहासिक रहा। 31 अगस्त को जस्टिस हिमा कोहली, जस्टिस बीवी नागरत्न और जस्टिस बीएम त्रिवेदी ने सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस पद की शपथ ली। जिसके बाद पहली बार किसी महिला के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बनने की संभावना बनी है। सुप्रीम कोर्ट में जजों के कुल स्वीकृत 34 पदों में अब 33 पद भर चुके हैं। जस्टिस बीवी नागरत्ना वरिष्ठता के हिसाब से साल 2027 में भारत की पहली महिला चीफ जस्टिस बन सकती हैं।

भारत में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना 1950 में हुई थी। यह 1935 में बनाए गए फ़ेडरेल कोर्ट की जगह स्थापित हुआ था। इसके बाद से अब तक 48 मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति हो चुकी है लेकिन अभी तक कोई महिला भारत की चीफ जस्टिस नहीं बनी है। सीजेआई रमाना कई बार न्यायपालिका में 50% से अधिक महिलाओं के प्रतिनिधित्व की मांग को उठाते हुए कह चुके हैं कि महिला आरक्षण 'अधिकार' का विषय है 'दया' का नहीं।

इसे भी पढ़ें: सुप्रीम कोर्ट में महिला न्यायाधीशों की संख्या बढ़ना, लैंगिग समानता के लिए एक उम्मीद है

तीन साल बाद जेल से रिहा हुईं अधिवक्ता-कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज

एल्गार परिषद-माओवादी संबंध मामले में आरोपी अधिवक्ता, सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज तीन साल कैद में बिताने के बाद आख़िरकार 9 दिसंबर को जमानत पर जेल से रिहा हो गईं। सुधा को इस मामले में पुणे पुलिस ने कसावे वाले भाषण के आरोप में अगस्त 2018 में गिरफ्तार किया था। सुधा जब जेल से बाहर आईं तो उनके चहरे पर एक बड़ी मुस्कान थी, जो इस बात का प्रतीक थी कि वो जुल्मों-सितम के आगे अभी हारी या डरी नहीं हैं, वो अपनी लड़ाई, अपने संघर्ष के लिए तैयार हैं।

मालूम हो कि सुधा अमेरिका में पैदा हुई थीं, लेकिन जब सिर्फ 11 साल की थीं तभी भारत आ गईं थीं। उन्होंने आईआईटी से गणित की डिग्री ली। और पढ़ाई के दौरान ही वो सुदूर अंचलों में आने-जाने लगीं और 1986 में छत्तीसगढ़ जनमुक्ति मोर्चा के मज़दूर नेता शंकर गुहा नियोगी से मिलीं और ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों के संघर्ष में शामिल हो गईं।

सुधा ने ग्रामीण आदिवासियों की आवाज सुनी, गरीबों मजलूमों का सहारा बनी, उनके हक़ के लिए कानूनी पढ़ाई पूरी की। और लगातार समाज के सबसे निचले तबके के लिए काम करती रहीं। जिस महिला ने सुखों को त्यागकर अमेरिका की नागरिकता छोड़ भारत के एक ऐसे क्षेत्र के लोगों के न्याय के लिए लड़ना चुना जो कारपोरेट, प्रशासन नक्सलवाद का शिकार हैं उस महिला को जेल में रखकर किनका भला हो रहा यह भलीभांति समझा जा सकता है।

इसे भी पढ़ें: एल्गार परिषद मामला: तीन साल बाद जेल से रिहा हुईं अधिवक्ता-कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज

पर्यावरण एक्टिविस्ट हिडमे मरकम की गिरफ़्तारी

हिडमे मरकम छत्तीसगढ़ के आदिवासियों और सरकार में शामिल आला अधिकारियों के बीच बीते कुछ सालों से एक जाना-पहचाना नाम हैं। 28 वर्षीय हिड़मे छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित गांव बुर्गुम (दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा) से आती हैं और आदिवासियों की समस्याओं को सरकार और मिडिया के समक्ष जोरदार तरीके से रखती रही हैं। वो छत्तीसगढ़ के महिला अधिकार मंच से भी जुड़ी हुई हैं जहां पर वह आदिवासी महिलाओं के हक़ के लिए आवाज़ उठाती हैं। हिडमे उन महिलाओं पर हो रहे पुलिसिया हिंसा की बात भी कई बड़े मंचों पर रखती रही हैं।

हिडमे की गिरफ्तारी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के ठीक एक दिन बाद 9 मार्च 2021 को दंतेवाड़ा के समेली गांव से हुई। यहां दो युवा लड़कियों की याद में एक सभा आयोजित की गई थी, जो कथित तौर परलिस कस्टडी में यौन हिंसा की शिकार हुई थी। इस उत्पीड़न के बाद दोनों ने कथित रूप से आत्महत्या कर ली थी। इसी सभा से पुलिस बिना वारंट हिड़मे को करीब 300 गांव वालों के सामने घसीटते हुए अपने साथ ले गई। तब से वह जगदलपुर जेल में बंद हैं।

हिडमे पर कई मामले दर्ज हुए हैं, जिसमें यूएपीए भी शामिल है। यह सच है कि तमाम एक्टिविस्ट जो जेलों में बंद हैं उनके लिए निरंतर मुख्यधारा से आवाजें उठती रही हैं लेकिन हिड़मे मरकाम के लिए वे आवाज़ें तीव्रता से नहीं उठीं तब क्या यह भी समझ लेना चाहिए कि सत्ता विरोधी आवाजें भी हाशिए किए गए समुदायों की लड़ाइयों में भेदभाव करती हैं?

शैक्षणिक संस्थानों में जातिगतगत भेदभाव के ख़िलाफ़ दीपा मोहनन का संघर्ष

बीते कई सालों से अलग-अलग तरीकों से शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव के मामले सामने आए हैं। ऐसे ही एक भेदभाव के खिलाफ़ महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी, कोट्टायम, केरल की एक दलित पीएचडी स्कॉलर दीपा मोहनन ने ग्यारह दिन की भूख हड़ताल की। दीपा लंबे समय से भेदभाव से जूझ रहीं थी। इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर नेनोसाइंस एंड नैनोटेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट के डायरेक्टर डॉक्टर नंदकुमार कालरिक्कल ने खुलेआम दीपा मोहनन के साथ जातिगत भेदभाव एक दशक तक जारी रखा। एडमिनिस्ट्रेशन ने इस माममे को कभी गंभीरता से नहीं लिया और आखिरकार दीपा को भूख हड़ताल करनी पड़ी जिसे ग्यारह दिन बाद नेशनल न्यूज ने कवर किया। महिला सशक्तिकरण, शिक्षा की बात करने वाले इस समाज में दलित छात्रों को, शोषित वर्ग से आनेवाले छात्रों को अपने बुनियादी अधिकार के लिए इतना संघर्ष करना पड़ता है। ऐसी तमाम घटनाएं ये सवाल छोड़ती हैं कि क्या सभी महिलाएं भारतीय परिपेक्ष्य में एक समान हैं? क्या उनके संघर्ष एक समान हैं? अगर नहीं हैं तब न्याय के हर मुद्दे को हर समुदाय की नज़र से देखने, समझने की ज़रूरत है।

महिला आंदोलन की मज़बूत स्तंभ कमला भसीन नहीं रहीं

इसी साल 25 सितंबर को 'आज़ाद देश’ में महिलाओं की आज़ादी मांगने वालीं कमला भसीन हमें छोड़ कर चली गईं। कमला का निधन नारीवादी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका है। लेकिन उनका संघर्ष, उनके लेख अन्य कई आंदोलनों की ज़मीन तैयार कर गए हैं, जो हमारी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।

कमला भसीन एक नारीवादी सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जो लैंगिक समानता, शिक्षा, गरीबी-उन्मूलन, मानवाधिकार और दक्षिण एशिया में शांति जैसे मुद्दों पर साल 1970 से लगातार सक्रिय थीं। कमला एक कवि, लेखक, समाजसेवी होने के साथ लंबे समय से महिला अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती रहीं। और लगभग चार दशकों से देश और विदेश में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहीं थीं।

कमला भसीन का पूरा जीवन ही उनके काम का परिचय है। वो अपनी और सभी महिलाओं की आज़ादी की बात समाज के सामने मुखर ढंग से रखती थीं, पितृसत्तातमक विचारों से लोहा लेती हुई खुद को 'आवारा' कहती थीं। समाज द्वारा शोषित-पीड़ित महिलाओं के लिए धरातल पर काम करने वालीं कमला हमेशा अपने नारीवादी विचारों और एक्टिविज़्म के कारण जानी जाती रहीं। साल 2002 में उन्होंने नारीवादी सिद्धांतों को ज़मीनी कोशिशों से मिलाने के लिए दक्षिण एशियाई नेटवर्क ‘संगत’ की स्थापना की। ये संस्था ग्रामीण और आदिवासी समुदायों की वंचित महिलाओं के लिए काम करती है। दुनियाभर में महिलाओँ के खिलाफ हो रही हिंसा के खिलाफ आवाज़ बुलंद करता कैंपेन 'वन बिलियन राइजिंग' भी कमला की पहचान है। कमला ‘दीदी’ दुनिया से जरूर चली गईं लेकिन वो हमेशा जिंदा रहेंगी हमारी आवाज़ों में, संघर्षों में।

इसे भी पढ़ें: नहीं रहीं ‘आज़ाद देश’ में महिलाओं की आज़ादी मांगने वालीं कमला भसीन

यूं तो इस साल और भी कई मामलों ने अपनी छाप छोड़ी, जैसे टोक्यो ओलंपिक्स में शानदार प्रदर्शन करने वाली महिला हॉकी प्लेयर वंदना कटारिया के परिवार को कुछ लोगों ने जातिसूचक गालियां यह कहते हुए दीं कि हार की जिम्मेदार वंदना कटारिया और उन जैसे दलित खिलाड़ी हैं। वंदना को उनकी जाति के लिए बुरी तरीके से सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया।

इसी साल एक और अनहोनी ने इमोज़ी की तर्ज पर हिंदी में हिमोजी बनाने वाली, अपने किरदारों से महिलाओं के हक़ की आवाज़ बुलंद करने वाली 'अलबेली' अपराजिता शर्मा को हम से छिन लिया। अपने किरदारों के जरिए लोगों के दिल में जगह बनाने वाली अपराजिता, बिना किसी हो-हल्ला के प्रतिरोध की एक बुलंद आवाज़ बन गईं थीं। उनका व्यक्तित्व जितना चुलबुला था उनकी कलम उतनी ही गंभीर। अपने किरदारों के जरिए लोगों के दिल में जगह बनाने वाली अपराजिता, बिना किसी हो-हल्ला के प्रतिरोध की एक बुलंद आवाज़ बन गईं थीं। उनका व्यक्तित्व जितना चुलबुला था उनकी कलम उतनी ही गंभीर।

इसे भी पढ़ें: मुसीबतों से कभी नहीं हारने वाली अपराजिता, 'अलबेली' बनकर हमेशा के लिए अमर हो गईं

गौरतलब है कि आज़ादी की लड़ाई से लेकर चिपको आंदोलन तक देश में महिलाओं के संघर्ष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। यूं तो निर्भया मामले से लेकर किसान मोर्चे तक महिलाओं में ये सजगता और साहस पहले भी कई मौक़ों पर दिखा है। साल 2012 में निर्भया मामले के बाद बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चियां इंडिया गेट पर जमा हुईं। उन्होंने पुलिस की लाठियां और वॉटर कैनन झेले, लेकिन अपने हौसले और दृढ़ता से महिलाओं ने सरकार को यौन हिंसा के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून बनाने के लिए बाध्य किया।

महाराष्ट्र में मार्च 2018 में महिला किसानों के छिले हुए नंगे पैरों की तस्वीरें आज भी इंटरनेट पर मिल जाती हैं। ये नासिक से मुंबई तक किसानों की एक लंबी रैली थी। इसमें महिला किसानों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उनके इसके बाद नवंबर 2018 में क़र्ज़ माफ़ी की माँग को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों से किसान महिलाएं विरोध प्रदर्शन के लिए दिल्ली पहुँची थीं।

रूढ़ीवादी परंपरा को तोड़ती हुई औरतें, सबरीमाला मंदिर हो या हाजी अली दरगाह, हिंसक प्रदर्शनकारियों के सामने अपनी जान जोख़िम में डालकर भी मंदिर पहुँचीं। महिलाओं की इस ताक़त में उम्र की कोई सीमा नहीं है। युवा, उम्रदराज़ और बुज़ुर्ग, हर उम्र की महिला के हौसले बुलंद नज़र आते हैं।

यूं तो महिलाओं के संघर्ष ने एक लंबा सफ़र तय किया है लेकिन साल 2020 में जिस तरह नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ महिलाएं बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरीं और जिस तरह साल 2021 की सर्द रातों में महिलाओं ने किसान आंदोलन में अपनी आवाज़ बुलंद की, उसने आने वाले दिनों में महिला आंदोलनों की एक नई इबारत लिख दी है।

इसे भी पढ़ें: 2020 : सरकार के दमन के बावजूद जन आंदोलनों का साल

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