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चुनाव 2022
भारत
राजनीति
यूपी चुनाव: धन-बल और सत्ता की ताक़त के शीर्ष पर बैठी भाजपा और विपक्ष का मुक़ाबला कितना? 
संसाधनों के मामले में और विशेष रूप से बेनामी संसाधनों के मामले में भारतीय जनता पार्टी का मुक़ाबला करने की हैसियत अभी दूर दूर तक किसी भी दल में नहीं है, लेकिन इस बार तस्वीर 2017 में हुए विधानसभा चुनावों की तुलना में थोड़ी बदली हुई ज़रूर है।
सत्यम श्रीवास्तव
07 Feb 2022
up elections
फ़ोटो साभार: दैनिक जागरण

हम एक ऐसे दौर में हैं जहां चुनाव ही लोकतन्त्र है। यही उसकी आत्मा है और यही उसकी अभिव्यक्ति भी। राजनीति में सिद्धान्त और विचारधारा का उतना ही महत्व है जितना गले में पड़े गमछे और उनके अलग अलग रंगों का है। टोपियों को भी इसी तरह सिद्धांतों और विचारधाराओं का प्रतीक माना जा सकता है। जिनकी अदला-बदली की जा सकती है।

अभी बहुत दिन नहीं हुए जब तेलंगाना राज्य के करीमनगर जिले की 13 विधानसभा निर्वाचन सीटों में से एक हजूराबाद विधानसभा क्षेत्र की जनता ने इस बात के लिए प्रदर्शन किया कि राजनैतिक दलों ने उन्हें उनके वोट के बदले बहुत कम राशि दी है। इसे बढ़ाया जाना चाहिए। इस घटना की खबर को कई समाचार पत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया।

इसी तरह की खबरें तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के दौरान भी सामने आयीं। तमिलनाडु के नमक्कलम जिले की राशीपुरम विधानसभा क्षेत्र में भी मतदाताओं ने अपने वोट के बदले नकद राशि न मिलने से राजनैतिक दलों के खिलाफ मोर्चा खोला।

दक्षिण भारतीय राज्यों से आईं इन खबरों की तरह उत्तर भारत में इस तरह के प्रदर्शनों या मांगों को लेकर मतदाताओं द्वारा धरना-प्रदर्शनों की खबरें प्राय: नहीं आतीं लेकिन यहाँ भी यह अनुमान लगाए जाते हैं बल्कि तमाम समाचार एजेंसियों द्वारा जब तब यह बतलाया जाता रहा है कि वो के बदले नकद राशि लेने-देने का चलन यहाँ भी ज़ोरों पर है। 

चुनाव के दौरान बेनामी नकदी, शराब और अन्य उपहार बड़ी मात्रा में पुलिस द्वारा पकड़े जाने की खबरें पूरे देश में आम हैं। आज के दौर की व्यावहारिक चुनावी राजनीति में एक खुला रहस्य है कि चुनावों में नकद राशि के बदले वोट खरीदे जाते हैं। इसलिए चुनाव लड़ना एक मंहगा उद्यम होता जा रहा है।

ज़ाहिर तौर पर इन खर्चों को वैधानिक मदों में जोड़ा नहीं जाता लेकिन यह समग्रता में चुनावी खर्चों में दिखलाई पड़ता है। 20 नवंबर 2021 को राजस्थान पत्रिका ने उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर एक खबर प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया कि 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में केवल भारतीय जनता पार्टी ने 55 से 60 हजार करोड़ खर्च किए। इस संदर्भ में भी पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों की दशा-दिशा को समझने की ज़रूरत है।

पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव अभियान ज़ोर पकड़ रहा है। पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के चुनाव दिल्ली की निगाह से थोड़े दूर हैं। लेकिन इन चारों राज्यों की कुल जनसंख्या पंजाब (30,501,026), उत्तराखंड (11,700,099), मणिपुर (3,436,948) और गोवा (1,521,992) की समूल जनसंख्या से लगभग छह गुना अधिक जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश (231,502,578) में हो रहे चुनावों पर दिल्ली और पूरे देश की नज़र है।

विधान सभा निर्वाचन सीटों की संख्या के लिहाज से भी देखें तो उत्तर प्रदेश इन चारों राज्यों पर भारी पड़ता है जहां अकेले उत्तर प्रदेश में कुल 403 सीटें हैं। वहीं शेष चार राज्यों पंजाब (117), मणिपुर (60), गोवा (40) और उत्तराखंड (70) की कुल सीटें इससे आधी हैं। 

राष्ट्रीय मीडिया और देश भर की निगाहें केवल इसलिए उत्तर प्रदेश पर नहीं हैं बल्कि इसके अन्य कई महत्वपूर्ण कारण हैं। इस प्रदेश से दिल्ली की सत्ता की दावेदारी तय होती है और यह प्रदेश भारत की संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा में किसी एक दल का दबदबा तय करता है।

इस बार उत्तर प्रदेश चुनावों में दिलचस्पी के कुछ अन्य सामयिक कारण भी हैं। योगी आदित्यनाथ के रूप में उत्तर प्रदेश को एक विशुद्ध कट्टर हिंदुत्ववादी मुख्यमंत्री भारतीय जनता पार्टी ने दिया था। भारत की राजनीति में यह एक ऐसा कालखंड कहा जाएगा जिसने एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य को अपने उद्देश्यों से और विपथ करने में बड़ी भूमिका निभाई है। इसने भारत के समावेशी लोकतन्त्र के बुनियादी चरित्र को स्थायी तौर पर बदला है। योगी आदित्यनाथ को जिस दौर में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया उस दौर में किसी अन्य धर्म और संप्रदाय के पुरोहित मसलन किसी मौलाना या प्रीस्ट को यह सहूलियत नहीं मिल सकती थी।

ये भी पढ़ें: यूपी चुनाव: कांस्य युग में फंसा एक द्वीपनुमा गांव

यह वो दौर भी है जब भाजपा शासित एक राज्य में मुस्लिम लड़कियों को केवल इस बात पर कॉलेज में प्रवेश नहीं दिया जा रहा है क्योंकि वो हिजाब पहनकर आना चाहती हैं। खालिस्तान या खालिस्तानी शब्द को इसलिए गाली और देशद्रोह जैसा अपराध बना दिया गया है क्योंकि यह धर्म के आधार पर देश के एक सूबे को अलग राष्ट्र बनाने की विचारधारा से प्रेरित है। लेकिन यही तर्क हिन्दू राष्ट्र बनाने के घोषित एजेंडे और उसके लिए किए जा रहे प्रयासों पर लागू नहीं होता। सामान्य बुद्धि का तक़ाज़ा है कि इन दोनों ही मामलों को एक नज़र से देखा जाना चाहिए।

योगी आदित्यनाथ का मुख्यमंत्री बनना बल्कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिन्दू महासभा और हिन्दू युवा वाहिनी के बीच इस मामले में सहमति बनना और भारतीय जनता पार्टी द्वारा उसे लागू करवाया जाना, कायदे से एक राजनैतिक दल के तौर पर भाजपा की अर्हता पर सवाल उठाए जाने का सबब होना चाहिए था। लेकिन राष्ट्रवाद के घने कोहरे के इस दौर में ये सवाल बेमानी हैं। 

उत्तर प्रदेश के मतदाताओं से बात कीजिये तो वो कहते हैं कि उन्होंने योगी आदित्यनाथ को नहीं चुना बल्कि हमारे मतदान से मिले बहुमत के बल पर भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें हमारे ऊपर थोप दिया। उल्लेखनीय है कि योगी आदित्यनाथ 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं थे। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन होगा इसका फैसला करने में भी भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली स्थित मुख्यालय को बहुत समय लगा था। क्योंकि फैसला केवल दिल्ली मुख्यालय में नहीं होना था। नागपुर, झंडेवालान और हिन्दू महासभा के मुख्यालयों से भी इसके बारे में एक आम सहमति ज़रूरी थी।

इस चुनाव में योगी मुख्यमंत्री का चेहरा हैं। और यह बात इस चुनाव को दिलचस्प बनाती है कि इस बार जनता क्या यह जानते हुए भाजपा को समर्थन देगी या नहीं? आबादी के हिसाब से सबसे बड़े राज्य का प्रशासन चलाना वाकई एक सूझ-बूझ और संयम-विवेक का काम है। इसके लिए जिस दुनियावी समझ की ज़रूरत है वो क्या वाकई एक संत कहे जाने वाले व्यक्ति में हो सकती है या नहीं इसका भरपूर आंकलन और तजुर्बा इस बड़े प्रदेश की जनता ने पाँच साल लिया है। शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि योगी को अब एक औसत प्रत्याशी की तरह अपनी जात बताने और उस पर गर्व करने की ज़रूरत पड़ रही है। और पाँच सालों में उनके तमाम फैसलों से इस पर मुहर लगाई है कि वो अंतत: किस जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका संत होना इस चुनाव में ढेर हो गया है। 

योगी आदित्यनाथ और भाजपा के बीच औपचारिक संबंध को लेकर भी स्थिति कभी स्पष्ट नहीं रही है। क्या योगी ठीक उसी तरह भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं जिस तरह केशव प्रसाद मौर्या या लालकृष्ण आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी या जेपी नड्डा? यह सवाल थोड़ा अजीब है लेकिन इस समय पूछे जाने लायक है। योगी और भाजपा के संबंध अगर किसी से छिपे नहीं हैं तो उतना ही किसी की जानकारी में भी नहीं हैं।

हाल ही में जब उन्हें भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी में शामिल किया गया तब यह बात जगजाहिर हुई कि उन्होंने औपचारिक रूप से भाजपा का दामन थाम लिया है। भाजपा के प्रत्याशी के तौर पर सांसद चुने जाते रहे हैं लेकिन भाजपा की औपचारिक सदस्य के रूप में न तो उनकी पहचान ही है और न ही वो इस पहचान पर गर्व करते हुए इसका उल्लेख कभी करते हैं।

उत्तर प्रदेश के लोग और राजनीति के जानकार यह मानते हैं कि योगी एक आयातित प्रत्याशी हैं जिन्हें भाजपा इसलिए अपने साथ जोड़ती है ताकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समक्ष हिन्दू युवा वाहिनी, हिन्दू महासभा के साथ मिलकर कोई बाधा खड़ी न करे। यह एक संधि है। इस संधि में योगी 2017 में अपना पलड़ा भारी रख सके। और एक जीत लिए गए सूबे के मुखिया के रूप में खुद को स्थापित करवा सके।

देखा जाए तो यह खुद को दुनिया की सबसे बड़ी राजनैतिक दल कहने वाली भाजपा की कमजोरी की ही निशानी है जिसे एक ऐसे व्यक्ति को सबसे ज़्यादा तवज्जो देनी पड़ रही है जो उस दल में पूरी तरह आस्था भी नहीं रखता। बहरहाल।

एक और महत्वपूर्ण पहलू है जिस पर सबसे ज़्यादा तवज्जो देने की ज़रूरत है और वो है जिसकी पटकथा 8 नवंबर 2016 को रात आठ बजे लिखी जा चुकी थी। जब नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय टेलीविज़न पर अवतरित हुए और पाँच सौ और एक हज़ार के नोटों को चलन से बाहर कर दिया था। इसे ‘नोटबंदी’ के नाम से जाना जाता है जिसके घोषित उद्देश्य पल-पल बदलते रहे।

ऊपर जिन खबरों का ज़िक्र किया गया है उनके आलोक में इस व्यावहारिक चुनावी राजनीति में अगर कोई यह नहीं मानता कि चुनाव में बेनामी नकदी का इस्तेमाल किस पैमाने पर होता है तो वाकई उसे राजनीति के बारे में मासूम कहा जा सकता है। नवंबर 2016 के बाद पूरे देश में जो अफरा-तफरी मची और ज़ाहिर सी बात है उत्तर प्रदेश में प्रतिद्वंद्वी दलों को भी ये तो पता था ही कि चुनाव सर पर हैं और उन्होंने भी कुछ इंतज़ाम किए ही होंगे। लेकिन पूरे देश के साथ साथ वो भी अफरा-तफरी में आ गए। हालांकि भाजपा इस वक़्त न केवल निश्चिंत ही रही बल्कि पूरे इत्मीनान और आत्म-विश्वास से यह चुनाव लड़ा जिसके परिणाम अनुकूल रहे। इस तथ्य को आंखो से ओझल रखकर उत्तर प्रदेश के चुनावों को शायद नहीं समझा जाना चाहिए।

इन पाँच सालों में देश ने ऐतिहासिक रूप से बुरा दौर देखा है। उत्तर प्रदेश की जनता ने देश के संघीय ढांचे के खिलाफ भाजपा द्वारा गढ़ी गयी शब्दावली ‘डबल इंजन’ की सरकार के काम-काज को इस सबसे बुरे दौर में जांचा परखा है। इस बीच अन्य दलों के पास भी प्रतिद्वंद्विता लायक संसाधन ज़रूर जमा हो गए होंगे और इस वजह से इस बार प्रतिद्वंदी दलों के पास जनता तक पहुँचने और अपनी पहुँच बनाने की दो सक्षम वजहें हैं।

संसाधनों के मामले में और विशेष रूप से बेनामी संसाधनों के मामले में हालांकि भारतीय जनता पार्टी का मुक़ाबला करने की हैसियत अभी दूर दूर तक किसी भी दल में नहीं है, लेकिन इस बार तस्वीर 2017 में हुए विधानसभा चुनावों की तुलना में थोड़ी बदली हुई ज़रूर है। देखना दिलचस्प होगा कि बाकी दल इस मौके का इस्तेमाल कैसे करते हैं।

 ____________________

(लेखक सत्यम श्रीवास्तव पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

ये भी पढ़ें: यूपी चुनाव: क्या पश्चिमी यूपी कर सकता है भाजपा का गणित ख़राब?

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