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चीन-रूसी सैन्य गठबंधन के मायने क्या हैं! 
चीन-रूसी गठबंधन किसी भी तरह से वैसा नहीं है जैसा कि अमेरिका अपने किसी भी पश्चिमी साथी के साथ होने का दावा कर सकता है। इस मामले की खास बात यह है कि चीन-रूसी गठबंधन अपनी समकालीनता में अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी गठबंधन प्रणाली से गुणात्मक रूप से काफी बेहतरीन है।
एम. के. भद्रकुमार
18 Dec 2021
Translated by महेश कुमार
Sino-Russian
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग (दाएं) 15 दिसंबर, 2001 को वीडियो लिंक के माध्यम से रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से बात कर रहे हैं। 

न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस कहानी को सही पाया जब उसके मॉस्को ब्यूरो ने कल (बुधवार) रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई वीडियो कॉन्फ्रेंस के नतीजों का आकलन किया कि अमेरिका के दो मुख्य प्रतिद्वंदी देशों ने पश्चिम के साथ "खुद के टकरावों के प्रति आपसी समर्थन की मांग की है लेकिन अभी तक कोई औपचारिक गठबंधन की घोषणा नहीं की गई है।"

चीन-रूसी गठबंधन आज एक भू-राजनीतिक वास्तविकता बन गई है और इसके शानदार रंगों को न देख पाने का मतलब किसी का रंगहीन-दृष्टिहीन होना होगा। फिर भी, यह (अभी तक) एक सैन्य गठबंधन नहीं है। इस पृष्ठभूमि में पश्चिम जैसी समानता को लागू करने तथा चीन-रूसी साझेदारी में यूरोपीयन यूनियन जैसे मॉडल को बनाने की काफी संभावनाएं हैं, लेकिन फिर न तो मास्को और न ही बीजिंग इसके लिए तालमेल बनाने के लिए यूरेशियन नाटो की इच्छा रखते हैं।

पश्चिमी लोगों में समझ न पाने की बड़ी समस्या है। मूल रूप से, यह नासमझी उनके औपनिवेशिक अतीत के कारण है। फिर भी, छह यूरोपीयन यूनियन के सदस्य देशों, जिन्होंने सैन्य गठबंधनों के प्रति अपनी गुटनिरपेक्षता की घोषणा की है, ने दिखाया दिया है कि नाटो से परे भी एक जीवन है। इसमें ऑस्ट्रिया, साइप्रस, फिनलैंड, आयरलैंड, माल्टा और स्वीडन शामिल हैं। मजे की बात यह है कि इनमें से किसी का भी औपनिवेशिक इतिहास नहीं है।

न तो रूस और न ही चीन का औपनिवेशिक अतीत रहा है। वे साम्राज्यवादी शक्तियाँ रही हैं, लेकिन उनकी महानता गुलामों के श्रम या अफ्रीका, पश्चिम एशिया या दक्षिणी गोलार्द्ध से लूटी गई संपत्ति से नहीं आई है। यह महत्वपूर्ण अंतर आज के भू-राजनीतिक पहेली के मूल में है।

पुतिन-शी वीडियो कांफ्रेंसिंग क्षेत्रीय राजनीति के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हुई है, जिसमें यूक्रेन और ताइवान पर तनाव बढ़ रहा है। लेकिन दो महाशक्तियों का आकलन है कि जैसे-जैसे चीजें सामने आएंगी, प्रत्येक पक्ष अपने मूल हितों को अपने दम पर हासिल करने में पूरी तरह सक्षम होगा।

वास्तव में, कई अमेरिकी विश्लेषक यह भी स्वीकार करते हैं कि न केवल संभावित हार के कारण, बल्कि विश्व व्यवस्था में विनाशकारी परिणामों के कारण भी, अमेरिका यूक्रेन या ताइवान में सैन्य हस्तक्षेप का ज़ोखिम नहीं उठाएगा। दरअसल, अगर दोनों क्षेत्रों में एक साथ संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तो यह बाइडेन प्रशासन के लिए एक बुरे सपने जैसा होगा।

कल शी-पुतिन की आभासी बैठक को समर्पित किए गए एक संपादकीय में, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के दैनिक ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि, “चीन और रूस को एक साथ नियंत्रित करने की सोच एक अभिमानी सोच है। हालांकि अमेरिका को ताक़त के मामले में फ़ायदा है, लेकिन वह न तो चीन को कुचल सकता है और न ही रूस को। दोनों देशों में से किसी के साथ भी होने वाले रणनीतिक टकराव में अमेरिका को असहनीय क्षति होगी। यह वाशिंगटन के लिए एक बुरा सपना है खासकर जब चीन और रूस ने हाथ मिला लिया है ... एक बड़ी शक्ति को धमकाना और मजबूर करना एक बुरा विकल्प है। दो प्रमुख शक्तियों के विरुद्ध ऐसा करना विशेष रूप से नासमझी की बात होगी। वाशिंगटन को अन्य प्रमुख शक्तियों के मूल हितों का सम्मान करना सीखना चाहिए।"

हालांकि, चीन-रूसी सैन्य गठबंधन की संभावना खतरे की तलवार की तरह लटकी हुई है, लेकिन यह जुदा बात है कि चीन और रूस के विश्व शक्तियों के रूप में तेजी से उभरने से मॉस्को और बीजिंग को कभी भी उस तलवार की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन पुतिन-शी वीडियो कांफ्रेंसिंग इसकी एक कड़ी याद दिलाने वाली थी।

बाइडेन प्रशासन रूस या चीन को धमका नहीं सकता है। यूक्रेन के मामले में पुनर्विचार की हलचल पहले से ही दिखाई दे रही है। रिपोर्टों के अनुसार, बाइडेन प्रशासन कीव को आत्म-संयम बरतने, पूर्वी यूक्रेन में अलग हुए प्रांतों को स्वायत्तता देने पर काम करने और मिन्स्क समझौतों के ढांचे के भीतर एक राजनीतिक समाधान की तलाश करने का परामर्श दे रहा है (जो पहले से मॉस्को का सुझाव भी रहा है।)

समान रूप से, अमरीका की कोरी बयानबाजी के पीछे, वाशिंगटन, नाटो के पूर्व दिशा की ओर विस्तार और रूस की सीमाओं के करीब पश्चिमी सैन्य तैनाती पर रूस द्वारा दिखाई गई "लाल रेखाओं" के संबंध में मास्को के साथ वार्ता कर सकता है। उप विदेश मंत्री सर्गेई रयाबकोव ने कल मास्को का दौरा करने वाले अमेरिकी उप विदेश मंत्री कैरन डोनफ्राइड को सौंपे गए एक पत्र में अमेरिका को रूस के सुरक्षा गारंटी सुझावों से अवगत कराया है।

बीजिंग इन घटनाक्रमों से पूरी तरह सहमत है। फिर भी, महत्वपूर्ण रूप से, शी जिनपिंग ने पुतिन से कहा कि चीन, रूस और सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (सीएसटीओ) के सदस्य देशों के साथ मिलकर क्षेत्र में सुरक्षा को बढ़ाने के लिए सहयोग का विस्तार करने की योजना बना रहा है। शी के हवाले से चीनी विदेश मंत्रालय के बयान के अनुसार सटीक बात इस प्रकार है, "चीनी पक्ष, रूस और सीएसटीओ सदस्य देशों के साथ लचीला और विविध सहयोग विकसित करना जारी रखना चाहता है ताकि क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता को बनाए रखा जा सके। क्रेमलिन के शीर्ष सहयोगी यूरी उशाकोव ने बाद में मॉस्को में संवाददाताओं को बताया कि पुतिन और शी ने यूरोप में रूस के लिए सुरक्षा गारंटी से लेकर एशियाई-प्रशांत क्षेत्र में नए गठबंधनों के निर्माण तक "सचमुच सभी महत्वपूर्ण और खास मुद्दों" पर भी चर्चा की है।

चीन-रूसी गठबंधन किसी भी तरह से वैसा नहीं है जैसा कि अमेरिका अपने किसी भी पश्चिमी साथी के साथ होने का दावा कर सकता है। शी और पुतिन द्वारा कल की गई टिप्पणियां इसकी गवाही देती है। इस मामले की खास बात यह है कि चीन-रूसी गठबंधन अपनी समकालीनता में अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी गठबंधन प्रणाली से गुणात्मक रूप से काफी बेहतरीन है।

वाशिंगटन को इसका मिलान करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, जैसा कि हाल ही में AUKUS के मामले में अनाड़ीपन दिखाया गया है। बाइडेन प्रशासन अपनी गलतियाँ छिपाने और डींग मारने का सहारा ले रहा है कि अमेरिका के पास चीन या रूस की तुलना में अधिक "सहयोगी" हैं।

चीन-रूस गठबंधन में आपसी सम्मान और आपसी विश्वास एशिया-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा को भी लगातार प्रभावित कर रहा है। संयोग से या नहीं, रूस के सुरक्षा परिषद के सचिव निकोले पेत्रुशेव, रूस के रक्षा मंत्रालय, संघीय सुरक्षा सेवा, विदेश मंत्रालय और सैन्य-तकनीकी सहयोग के लिए संघीय सेवा के प्रतिनिधियों के एक उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के साथ कल नोम पेन्ह की "कामकाज़ी" यात्रा पर गए हैं।

रूस की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि, "रूसी-कंबोडियन सैन्य सहयोग और आतंकवाद विरोधी मामले पर बातचीत के मुद्दों पर चर्चा की गई है। पार्टियों ने नोट किया कि शक्ति संरचनाओं और विशेष एजेंसियों और सेवाओं की तर्ज पर सहयोग रूस और कंबोडिया के बीच द्विपक्षीय संबंधों की बड़ी नींव है।

कंबोडिया चीन का सबसे करीबी पड़ोसी है और आसियान का प्रमुख साझेदार है। कंबोडिया की भू-राजनीति अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति से अविभाज्य है। थाईलैंड की खाड़ी पर स्थित रीम नेवल बेस दक्षिण पूर्व एशिया का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा है।

10 दिसंबर को, वाशिंगटन ने कंबोडिया के खिलाफ नए प्रतिबंधों की घोषणा की है, जिसमें कंबोडिया में पीएलए के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए एक हथियार प्रतिबंध भी शामिल था। उसके एक हफ्ते बाद पेत्रुशेव का दौरा हुआ है।

नोम पेन्ह में पेत्रुशेव के वार्ताकार जनरल हुन मानेट थे जो रॉयल कंबोडियन सेना के कमांडर, विशेष बलों के प्रमुख और देश के आतंकवाद विरोधी बल के कमांडर भी हैं। हुन मानेट कंबोडियाई प्रधानमंत्री हुन सेन के सबसे बड़े बेटे हैं।

संक्षेप में कहें तो कंबोडिया चीन-रूसी गठबंधन का एक और नमूना बन गया है। ऐसा ही एक नाटक ईरान को लेकर वियना में हो रहा है। यही कुछ समय से उत्तर कोरिया के बारे में भी चल रहा है। बेशक, यह अफ़गानिस्तान में बहुत स्पष्ट दिखाई देता है।

दरअसल, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हाल ही में रूस-भारत-चीन (आरआईसी) मंत्रिस्तरीय बैठक में कहा था कि आरआईसी देशों के लिए आतंकवाद, कट्टरपंथ और मादक पदार्थों की तस्करी के खतरों पर अपने दृष्टिकोण का समन्वय करना आवश्यक है।

स्पष्ट रूप से, भारत में भी, जो अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति चीन-रूस गठबंधन के नकारात्मक नतीजों के बारे में अमेरिका की बातों में आ रहा है, आज शांति और वैश्विक स्थिरता के कारक के रूप में उस गठबंधन की सराहना की जा रही है। इस प्रकार, 13 दिसंबर को, रूस, चीन और भारत ने साहेल क्षेत्र में आपसी सहायता पर 13 दिसंबर को सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का मसौदा दायर किया है, जहां अफ़गानिस्तान, इराक, सीरिया, लीबिया और यमन की तरह पश्चिमी हस्तक्षेप ने आश्चर्यजनक रूप से खराब असर डाला है।

लब्बोलुआब यह है कि 21 वीं सदी में एक सैन्य गठबंधन अनावश्यक हो जाता है खासकर जब छोटे और बड़े देशों की सुरक्षा और संप्रभुता की गारंटी को निश्चित करने के लिए, एक अधिक लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था बनाने और उभरती बहुध्रुवीयता को मजबूत करने के उद्देश्यों को भी कूटनीति के माध्यम से शांतिपूर्वक हासिल किया जा सकता है।

हालांकि, यहां एक चेतावनी की जरूरत है। पुतिन ने अमेरिकी पक्ष को रूसकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए भेजी गई कानूनी गारंटी की मांग को शी के साथ विशिष्ट सुझावों के साथ साझा किया है। आज के इज़वेस्टिया में एक रिपोर्ट के अनुसार, पत्र में शामिल मुख्य मुद्दे "यूरोप में सैन्य-राजनीतिक स्थिति को अपने पक्ष में बदलने के लिए अमेरिका और नाटो द्वारा किए गए प्रयासों" पर केंद्रित थे।

यहीं पकड़ है। यहां कानूनी रूप से जो सबसे बाध्यकारी मुद्दा है वह 1949 की उत्तरी अटलांटिक संधि में संशोधन के बारे में है, जो गठबंधन के भौगोलिक दायरे को परिभाषित करता है। ऐसा करने से कहना आसान है, क्योंकि इसके लिए नाटो सहयोगियों के बीच आम सहमति और अमेरिकी कांग्रेस द्वारा अनुमोदन की जरूरत होगी।

किसी भी मामले में, अंतरराष्ट्रीय संधियों की पवित्रता पर वाशिंगटन का ट्रैक रिकॉर्ड अत्यधिक संदिग्ध रहा है। ऐसे में यह सब कैसे होता है, यह देखना अभी बाकी है। रूस-चीन गठबंधन इससे अटूट रूप से जुड़ा हुआ है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें: 

A Sino-Russian Military Alliance is Gratuitous (as of now)

Sino-Russian Military Alliance
vladimir putin
Xi Jinping
Collective Security Treaty Organization
Asian-Pacific region
ASEAN
Russia-India-China

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