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पुस्तकें
भारत
राजनीति
“अखंड भारत” बनाम भारत
महेश कुमार
24 Aug 2014

दीनानाथ बत्रा एक बार फिर अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडे को लेकर सुर्ख़ियों में हैं. इस बार उनका अंदाज़ ओर ज्यादा मुखर क्योंकि आज सत्ता में उनकी विचारधारा कि सरकार है वे बड़े स्तर पर शिक्षा को अपनी संकुचित और सांप्रदायिक सोच से ग्रसित करना चाहते हैं। वे भारतीय संस्कृति के “मूल्यों’ के आधार पर अखंड भारत की तस्वीर बना रहे हैं। दीनानाथ बत्रा जोकि राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ से काफी लम्बे अरसे से जुडे हैं और शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति के जरिए काम कर रहे हैं, वे लगातार शिक्षा के मुद्दों पर काम करते रहे हैं और किताबों से लेकर व्यक्तिगत आचरण में भारतीय संस्कृति को लाने की मौलिक बात करते हैं। उनका मानना है कि स्कूल में बच्चों को अखंड भारत की तस्वीर बनानी चाहिए जिसमें भारत के अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, तिब्बत, बर्मा, भूटान आदि देश शामिल है। वे कहते हैं कि प्राचीन काल से भारतीय सस्कृति ने इन देशों को प्रभावित किया है और एक समय में ये सब देश अखंड भारत का हिस्सा थे और आज भी सांस्कृतिक दृष्टि से एक है और अगर कोशिश की जाय तो भविष्य में ये सारे देश  अखंड भारत का हिस्सा बन सकते हैं।

बत्रा जी जब अखंड भारत या भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे हमारे अलावा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई और संस्कृति नहीं है और हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम इस “संस्कृति’ के ताने बाने में अपने आस-पास के सभी देशों को एक माला में पीरो लें। बत्रा जी की भारतीय संस्कृति का मतलब हिन्दू संस्कृति से है; यानी गाय को भोजन कराना, हवन-पाठ कराना, स्वदेशी कपडे पहनना, जन्मदिन पर केक न काटना आदि-आदि। इन्हें भारतीय संकृति कैसे कहा जा सकता है? यह सब तो एक ख़ास धर्म में अपनाई जाने वाली रीतियाँ हें इनका भारतीय संस्कृति से क्या लेना देना। शायद बत्रा जी को यह पता नहीं कि जब हम भारत की संस्कृति की बात करते हैं तो इसमें हिन्दूओं के अलावा मुस्लिम, इसाई, सिख, दलित व आदिवासी भी है। भारतीय संस्कृति मिलीजुली संस्कृति की धरोहर है ना कि किसी तथाकथित हिन्दू संस्कृति की जिसकी बात दीनानाथ बत्रा या आर.एस.एस. करती है।

एक तरफ नरेन्द्र मोदी हैं जोकि आर.एस.एस. के प्रचारक रहे हैं और आज देश के प्रधानमंत्री हैं। वे जिन आर्थिक नीतियों का प्रतिनधित्व कर रहें हैं उनमे ‘स्वदेशी’ विचार की तो वैसे भी कोई जगह नहीं हैं। क्योंकि वे तो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी को देश में लाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है, हाल में उन्होंने  बीमा उद्योग में विदेशी निवेश कि सीमा को 49 प्रतिशत करने की बात कही और इस बाबत वे संसद में एक विधेयक भी ला रहे हैं। रक्षा क्षेत्र में विदेशी मुद्रा के निवेश का प्रावधान तो उन्होंने पहले ही लागू कर दिया है। वे हर क्षेत्र में इस तरह के आर्थिक सुधार करना चाहते हैं चाहे वह रेलवे हो या संचार माध्यम। जब भाजपा और आर.एस.एस. इन नीतियों को देश में लागू करने में लगे हैं तो दीनानाथ बत्रा किस स्वदेशी जागरण की बात कर रहे हैं? या कैसी भारतीय संस्कृति और स्वदेशी कि बात करते हैं जब इन ही कि सरकार देश कि चल-अचल संपत्ति को बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों या बड़े शर्मायेदारों के हाथों में सौपना चाहते हैं।

दीनानाथ बत्रा वही व्यक्ति हैं जिन्होंने शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति के अभियान के जरिए पेंगुइन इंडिया को मजबूर कर दिया कि वह वेंडी दोनिगेर की प्रमुख किताब द हिन्दू : एन अल्टरनेटिव हिस्टरी को वापस ले क्योंकि बत्रा और शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति के मुताबिक़ यह किताब हिन्दू विरोधी है। ये साहब स्कूलों में यौन शिक्षा के भी खिलाफ हैं। वे कहते हैं कि यौन आधारित शिक्षा “युवाओं के विरुद्ध अपराध है”। इन साहब ने आर.एस.एस. की विद्यार्थी शाखा ए.बी.वी.पी. के साथ मिलकर दिल्ली विश्वविधालय से ए.के.रामानुजन के निबंध थ्री हंड्रेड रामायण : फाइव एक्जाम्पल और थ्री थॉट्स 2011 में इतिहास पुस्तक के पाठ्यक्रम से हटवा दिया। अब वे यह नया शिगूफा लेकर आयें हैं जिसमें वे कह रहे हैं कि भारतीय संस्कृति के लिए 14 अगस्त को अखंड भारत के रूप में मनाना चाहिए जिसे कि पाकिस्तान अपने स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता है। वे कहते है कि वे विस्तारवादी नहीं लेकिन संस्कृति के बल पर इन सभी देशों में भारतीय संस्कृति ने छाप छोड़ी हैं इसलिए हमें बच्चों से अखंड का नक्शा बनाने के लिए कहना चाहिए। अगर हम स्कूलों में इस तरह की ओछी बातों को पाठ्यक्रम में शामिल करेंगें तो हम न जाने कितनी संस्कृतियों को नीचा दिखा रहें होंगे और कितने देशों के स्थायित्व पर निशाना साध रहे होंगें। क्या हम इन देशों को कह सकते हैं कि आप अपनी संस्कृति छोडिये और हमारे साथ आइये क्योंकि भारतीय संस्कृति महान है। और भारतीय संस्कृति माहन किस लिए है? यह महान इसलिए है क्योंकि हम समाज को जातीय आधार पर बांटते हैं? हम जात को सर्वोपरि मानते हैं इसलिए हम जात के आधार पर दलितों और आदिवासियों का शोषण कर सकते हैं। हमारी संस्कृति राजे-रजवाड़ों से प्रभावित है जोकि सामंती आडम्बरों से चलती हैं और हम उसे ही भारतीय संस्कृति मानते हैं, न कि आम जनता द्वारा अभ्यास में लायी जा रही संस्कृति को? जिसे आम आदमी अपने कार्यों, और प्राकर्मों से जीवित रखता है। आपसी मेल-मिलाप और सहयोग से कायम करता है। धार्मिक सद्भाव, आपसी भाईचारा कायम रखने को भारतीय संस्कृति कहा जाता है। वर्ण व्यवस्था और धर्म के आडम्बर से भारतीय संस्कृति नहीं बनती है।

इन पर पहले भी चर्चा हुयी है और बहुत विद्वानों ने बत्रा और शिक्षा बचाओ आन्दोलन तथा आर.एस.एस. जैसी संस्थाओं को आड़े हाथो लिया और देश में बहुलवाद यानी अकेतावाद के पक्ष की बात की। हमारे देश में आम लोग हमेशा से ही बहुलवादी संस्कृति के पक्षधर रहे हैं न कि ऐसी संस्कृति जो केवल एक ही धर्म या कहिये उस धर्म के कुछ ख़ास तबके के आचरण और अभिव्यक्ति को भारतीय संस्कृति की पहचान मान ले। और सबसे बड़ी खुसी की बात यह है कि देश की जनता बहुलवादी  संकृति को अपनी धरोहर मानती है। लेकिन फिर भी गाए-बजाहे इस तरह की कवायदों को सुनना पड़ता है और कभी-कभी बत्रा जैसे लोगों समाज में बिखराव कि राजनीति करते हैं।  हाल ही में उनका एक और बयान आया जिसमें उन्होंने एन.सी.ई.आर.टी. से मांग की है कि वह हिंदी की पुस्तकों से अंग्रेजी और उर्दू के शब्द हटाये। उनके मुताबिक़ हिंदी में किसी भी अन्य भाषा का इस्तेमाल भी भारतीय संस्कृति का अपमान है। एक बहुत बड़े हिंदी के जाने माने लेखक हैं जिन्होंने कहा है कि भाषा तो एक निर्मल बहती धारा है जिसमें रोज़ कोई न कोई नया शब्द शामिल हो जाता है। यानी एक तरफ ऐसे विद्वान लेखक हैं जो भाषा को भी बहुलवादी दृष्टि से देखते हैं और किसी और अन्य भाषा के शब्द को हिंदी शामिल किये जाने पर उस भाषा की माहानता को ही प्रकट करती है। दीनानाथ बत्रा साहब हिंदी पर बड़ी चिंता व्यक्त करते हैं लेकिन मुझे कहीं भी उन भारतीय भाषाओं के प्रति उनकी चिंता नहीं नज़र आती जो हिंदी के प्रचार-प्रसार की वजह से या प्रशासनिक वजह से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं या अन्य कई कारणों से दम तोड़ रही है। आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाएं लुप्त हो रही हैं लेकिन उनके चिंता किसी को नहीं है जिनमे भारतीय संस्कृती कि जड़ें मौजूद है।

यह देश का दुर्भाग्य ही कि भारत की संस्कृति को मिथ्या में ढूँढा जा रहा है जबकि भारतीय संस्कृति आम जनता कि भाषाओँ, उनके आचरण, उनकी कृषि, उनके काम, उनके नृत्य और उनकी सांझी विरासत नमें बसी हैं। लेकिन यह बात दीनानाथ बत्रा या आर.एस.एस. नहीं समझ पायेगो क्योंकि वे एक ख़ास राजिनितक मुद्दे के तहत काम कर रहें हैं। इसलिए अपने अवैज्ञानिक सोच को वे तुच्छ हितों के लिए समाज और खासतौर पर बच्चों पर थोपना चाहते हैं। गुजरात चूँकि भाजपा, आर.एस.एस. और दीनानाथ बत्रा के लिए एक प्रयोगशाला है, यहाँ के 35,000 स्कूलों में गुजरात सरकार ने दीनानाथ बत्रा कि 7 पुस्तकें सन्दर्भ पाठ्यकर्म के रूप में लगा दी हैं। इससे आप अंदाजा लगा सकते यहीं कि देश के शैक्षणिक माहौल को खराब करने के लिए कितनी बड़ी साज़िश चल रही है। जब से भाजपा सत्ता में आई है तब से कोने से कोई न कोई आवाज़ या हिन्दू राष्ट्र की हिमायत करते उठती है तो कहीं धारा 370 को हटाने के लिए उठती है तो कहीं सामान नागरीक संहिता को लागू करने की बात उठती है। अभी हाल ही में देश के अलग-अलग हिस्सों में साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं। सहारानपुर और अहमदाबाद के दंगें हाल ही में थामे हैं। पूरे देश में साम्प्रदायिक सद्भावना खतरे में पड गयी है। दिल्ली में हाल में हुए सम्मेलन में देश के अलग-हिस्सों से आये लोगों ने बताया कि जगह-जगह छोटे-छोटे झगडे साम्प्रदायिक रूप ले रहे हैं। बहुलवादी संस्कृति वाले इस देश में इस तरह घटनाएँ एकदम अच्छे भविष्य की ऑर इशारा नहीं करती है। देश वास्तव में एक बड़े खतरे की तरफ बढ़ रहा है। हमें बहुलवादी भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए दीनानाथ की “भारतीय संस्कृति” से अपने बच्चों को बचाना होगा और देश की एकता और अखंडता की हिफाजत करनी होगी। क्योंकि यह लड़ाई “अखंड भारत” बनाम उस भारत की है जिसमे हम सब लोग शामिल हैं जो देश में बहुलवादी संस्कृति को बचाना चाहते हैं। यह लड़ाई उस भारत को बचाने की है जिसके लिए सेंकडों क्रांतिकारियों ने राष्ट्रिय आन्दोलन में अपनी जानों की आहूति दी थी। भारत देश कम-से-कम उन संघियों की विचारधार के आधार पर तो नहीं चलेगा जिन्होंने राष्ट्रिय आन्दोलन एक भी कुर्बानी नहीं दी।

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

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