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सीएए विरोध इलाहाबाद : पुलिस हिंसा पर हाई कोर्ट ने दिया सरकार को नोटिस
यह मामला तब प्रकाश में आया जब बॉम्बे हाईकोर्ट के वकील अजय कुमार ने मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर को लिखित तौर पर इस घटना की जानकारी देते हुए न्यायिक जांच की मांग की थी।
तारिक़ अनवर
10 Jan 2020
allahabad high court
चित्र सौजन्य: विकिपीडिया

नई दिल्ली: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादास्पद नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के मद्देनज़र हुए विरोध प्रदर्शनों और उसके उपरांत प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिसिया बर्बरता की घटना, जो कि “बुनियादी संवैधानिक उसूलों के पूरी तरह विरुद्ध है” पर न्यायिक हस्तक्षेप की माँग करता है। इसके बारे में उत्तर प्रदेश में वास्तविक स्थिति क्या है, इसे तय करने में अदालत की सहायता के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता एस.एफ़.ए. नक़वी और अधिवक्ता रमेश कुमार को एमिकस क्यूरी के रूप में नियुक्त किया है। 

ऐसा तब हो सका, जब बम्बई उच्च न्यायालय में वकालत करने वाले एक वकील, अजय कुमार ने ई-मेल के ज़रिये इलाहबाद उच्च नयायालय के मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर को इस बाबत लिखा। अपने ई-मेल में उन्होंने 2 जनवरी को प्रकाशित हुए न्यूयॉर्क टाइम्स के लेख और 29 दिसंबर के टेलीग्राफ़ में प्रकाशित लेखों का हवाला दिया है, जिसमें आंदोलनकारियों पर की गई कथित पुलिसिया ज़्यादती की कार्यवाहियों पर विस्तार से लिखा गया है।

उच्च न्यायालय की खंडपीठ जिसमें मुख्य न्यायाधीश माथुर और न्यायमूर्ति विवेक वर्मा शामिल हैं, ने इस ई-मेल को एक जनहित याचिका (पीआईएल) के रूप में स्वीकार किया है। इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी कर इस बात का जवाब मांगा गया है कि क्यों न इस कथित पुलिसिया हिंसा के मामले पर न्यायिक जांच की माँग होनी चाहिए। अदालत ने सुनवाई की अगली तारीख 16 जनवरी को मुक़र्रर की है।

न्यायालय के अनुसार “पत्र में जिन बातों का उल्लेख है और इस संबंध में जिन दस्तावेज़ों को इसके साथ नत्थी किया गया है, उस पर विचार करने के बाद, हमने पाया है कि इस पत्र को याचिका दाखिल करने के समकक्ष माना जाये। तदनुसार रजिस्ट्री ने इस जनहित याचिका को पंजीकृत कर लिया है। सुनवाई के दौरान इस अदालत के वरिष्ठ अधिवक्ता एसएफ़ए नक़वी ने द इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संस्करण में दिनांक 7 जनवरी 2020 को प्रकाशित एक खबर की रिपोर्ट को भी पीठ के संज्ञान में लाया है। इसे भी रिकॉर्ड में ले लिया गया है। ऐसे में इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश की सरकार को एक नोटिस जारी किया जाये, जैसा कि निवेदन किया गया है, कि आवश्यक दिशा-निर्देश क्यों नहीं जारी किये गए।"

सुनवाई के दौरान नक़वी की ओर से इसी विषय पर 7 जनवरी को प्रकाशित द इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संस्करण की एक अतिरिक्त नई रिपोर्ट को पेश किया गया था, और उसे भी रिकॉर्ड में शामिल कर लिया गया है।

इससे पहले भी उत्तरप्रदेश मानवाधिकार आयोग (यूपीएचआरसी) ने मीडिया में आई खबरों पर स्वतः संज्ञान लिया था, और राज्य के मुख्य सचिव को निर्देश दिया था कि वे सीएए के विरोध प्रदर्शनों के दौरान यूपी पुलिस से संबंधित सभी संबंधित घटनाओं की विस्तृत जांच करें और इस बारे में चार हफ़्तों के भीतर अपनी रिपोर्ट पेश करें।

इस बात के आरोप हैं कि इस विवादास्पद क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध दर्ज कराने के लिए आयोजित रैलियों और धरना-प्रदर्शनों पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज और गोलियाँ चलाई गईं हैं, जिससे कई लोगों के मारे जाने और कई अन्य लोगों के जख्मी होने की बात संज्ञान में आई है।

इसने अपने 30 दिसम्बर 2019 के आदेश उल्लेख करते हुए कहा है कि “मीडिया सहित कुछ हलकों से ऐसे आरोप लगाए गए हैं कि इन मौतों और भारी संख्या में लोगों के घायल होने और तदनुसार मानवाधिकारों के उल्लंघन की वजह पुलिसिया ज्यादती और लापरवाही का नतीजा थीं। आयोग इस केस को स्वतः संज्ञान वाला मामला मानते हुए जांच के लिए उपयुक्त मामला मानता है।"

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने भी पिछले महीने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक डॉ. ओम प्रकाश सिंह को इस संबंध में एक नोटिस जारी किया था, जिसमें एनएचआरसी को शिकायतें प्राप्त हुई थीं, और पुलिस की ओर से विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की कथित घटनाओं पर उनके द्वारा हस्तक्षेप करने की मांग की गई थी। इस मामले में एनएचआरसी ने चार सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा है।

एनएचआरसी के समक्ष प्रस्तुत शिकायत में कहा गया है कि “मानवाधिकारों के उल्लंघन की कई घटनाएं हुई हैं। नौजवान मारे गए हैं, इंटरनेट की सेवाएं रोक दी गईं हैं और पुलिस खुद ही सार्वजनिक संपत्ति के तोड़-फोड़ में लगी है। शांतिपूर्ण ढंग से एकत्र होने के अधिकार का भी उल्लंघन किया गया है।“

इससे पूर्व इसी डिवीज़न बेंच ने मोहम्मद अमन खान की ओर से दायर एक अन्य जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए एनएचआरसी को निर्देश दिया था कि वह 15 दिसम्बर की रात हुए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में हुए सीएजी विरोध प्रदर्शनों के दौरान कथित पुलिस की हिंसा की जांच के काम को पूरा करे।

याचिकाकर्ता ने अदालत से पुलिसिया हिंसा के मामलों की न्यायिक जांच कराने के लिए कोर्ट की निगरानी में एक कमेटी के गठित किये जाने के सम्बन्ध में निर्देश दिए जाने की गुहार लगाई थी। उनकी ओर से यह भी माँग की गई है कि एएमयू के उन छात्रों और नागरिकों के नामों का खुलासा करने के निर्देश राज्य सरकार को दिए जाएँ, जिन्हें पुलिस हिरासत में लिया गया था। जनहित याचिका में उन्होंने अदालत से इस बात का भी निवेदन किया है कि उन पुलिस और अर्धसैनिक कर्मियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू की जाये, जिन्हें वीडियो और ऑडियोज़ में छात्रों के खिलाफ हिंसक कृत्य करते हुए पहचाना जा सकता है।

उच्च न्यायालय ने अधिकार आयोग को इस सम्बन्ध में एक महीने के भीतर अपनी जाँच को पूरा करने के निर्देश दिए हैं। इस मामले की सुनवाई 17 फरवरी के लिए सूचीबद्ध की गई है।

इस बीच, राज्य सरकार की ओर से लगातार इस बात को स्थापित किया जाता रहा है कि राज्य की पुलिस ने लखनऊ सहित पूरे राज्य में प्रदर्शनकारियों द्वारा की गई आगजनी और हिंसा की स्थिति में भी बेहद संयमित ढंग से अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया है। यद्यपि पुलिस ने जहाँ इस बात का दावा किया है कि पुलिस की फ़ायरिंग से किसी की भी मौत नहीं हुई है, लेकिन इसके बावजूद कई जगहों पर सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों के दौरान भड़की हिंसा के दौरान कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था।

सरकार ने चेतावनी दी है कि हिंसा की घटनाओं और सार्वजनिक संपत्तियों को नष्ट किये जाने के लिए ज़िम्मेदार पाए गए लोगों को बख़्शा नहीं जाएगा और उनके खिलाफ कुर्की का नोटिस जारी किए जाएंगे। इस सिलसिले में उत्तरप्रदेश में अभी तक सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को नुक़सान पहुंचाने के मामलों में क़रीब 500 लोगों की पहचान की गई है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Allahabad High Court
CAA
NRC
NPR
anti-NRC protests
Yogi Adityanath
AMU
UP Human Rights Commission
Uttar pradesh

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