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भारत
राजनीति
आरक्षण को लेकर आपके भ्रम और उनके जवाब
आरक्षण का इस्तेमाल सरकार अगर अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए करती है तो यह बिल्कुल ग़लत है।
अजय कुमार
10 Jan 2019
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy : Hari Bhoomi

आरक्षण की बात उठते ही हम में से कई लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि यह एक ऐसी नीति है जिसमें योग्यताओं को खारिज कर कुछ लोगों को सरकारी नौकरी मिल जाती है और कॉलेजों में दाखिला हो जाता है। जब आरक्षण को लेकर ऐसा रवैया अपनाया जाता है तभी यह मांग भी उठती है आरक्षण उनको भी दिया जाए जो आर्थिक तौर पर कमजोर हैं। यह हमारी आम धारणा है और इसके जरिये आम जनमानस को बरगालने का सबसे अधिक काम हमारी राजनीतिक पार्टियों द्वारा किया जाता है। मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान भी यही कर रहा है। सरकार द्वारा संसद में पास कराया गया 124वां संविधान संशोधन बिल भी यही है, जिसके तहत आर्थिक तौर पर कमजोर सामान्य वर्ग के वह लोग जिन्हें किसी भी तरह की सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षण संस्थान में अभी आरक्षण नहीं मिल रहा है,उन्हें 10 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा।

यहाँ यह समझ लेना जरूरी है कि आर्थिक तौर से कमजोर सामान्य वर्ग में केवल हिन्दू सवर्ण जातियां ही शामिल नहीं है बल्कि इनमें सिख, इसाई, मुसलमान सभी शामिल हैं। इस बिल के तहत आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों में वह शामिल होंगे जिनकी सलाना आया आठ लाख रुपये से कम होगी, पांच एकड़ से कम खेती लायक जमीन होगी, 1000 स्क्वायर फीट से कम आवासीय प्लाट होगा, अधिसूचित म्यूनिसिपलिटी में 100 गज और गैर अधिसूचित मुनिसिपिलिटी में 200 गज से कम  आवासीय प्लाट होगा। यह पैमाने ऐसा है जिस पर हंसी आ सकती है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) की रिपोर्ट, सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) की रिपोर्ट और लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट के अंतिम उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि भारत की लगभग 95 प्रतिशत आबादी प्रति वर्ष 8 लाख रुपये से कम कमाती है (जोकि लगभग 67,000 रुपये प्रति माह है)।

अब इसे ऐसे समझिये कि ये बिल जो लोकसभा के बाद अब राज्यसभा में भी पास हो गया है अगर इसे सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती न मिले और ये पूरी तरह लागू हो जाए तब क्या होगा। आरक्षण के लिए बनाये गये पैमाने के अनुसार यह होगा कि जो इनकम टैक्स में आठ लाख या इससे कम आमदनी दिखाए या जिसके पास पांच एकड़ या कम जमीन हो या बड़ा मकान न हो, उन सबको गरीब माना जाएगा। मतलब यह है कि हर महीने जिनकी आय एक लाख या इससे अधिक होगी, बहुत बड़े किसान और बहुत बड़े व्यापारी को छोड़कर इसके हकदार सब हो जायेंगे। कहने का मतलब यह है कि सामान्य वर्ग से जुड़े मजदूर और अध्यापक के बच्चे दोनों 10 फीसदी आरक्षण के लिए एक-दूसरे से प्रतियोगिता करेंगे। सरकारी पन्नों पर आरक्षण होगा और एक भी कैंडिडेट को नौकरी देने की जरूरत नहीं होगी। इस तरह से सरकार द्वारा उठाया गया यह एक ऐसा कदम है जिसका एक सीधा मकसद जनता को बरगला कर अपने लिए गोलबंदी करना है।

अब इसे थोड़ा दूसरे तरह से समझने की कोशिश कीजिये- आरक्षण सीधे तौर पर नहीं मिलता है कि हम आरक्षण के हकदार हैं और हमें आरक्षण मिल जाएगा। इसके लिए भी तय की गयी योग्यताओं और पैमानों को पार करना होता है। इसलिए हमारे बीच होने वाली वह बहसें जिसमें यह कहा जाता है कि तुम्हें तो आरक्षण की वजह से नौकरी या सीट मिली हैं, वह बिल्कुल बेतुकी होती है। प्रतियोगिताओं की वजह से भले ऐसा लगे कि एक दो नंबर इधर-उधर होने की वजह से किसी को नौकरी मिले या न मिले लेकिन एक ख़ास सीमा को पार करने के बाद सब किसी नौकरी के लिए जरूरी योग्यता को पार कर लेते हैं। इसलिए एक-दो नंबर इधर उधर होने पर आरक्षण की वजह से नौकरी कर रहे हैं लोगों को यह कहना यह किसी काबिल नहीं होते, यह बिल्कुल गलत है। लेकिन इस मसले में तय की गयी सीमा अजीब हैं। इस सीमा के अन्दर देश की 95 फीसदी आबादी आती है, यानी जैसे ही कोई कैंडिडेट परीक्षा में शामिल होगा वैसे ही वह इस आरक्षण का हकदार हो जाएगा क्योंकि इस आरक्षण में सभी शामिल हैं। इस लिहाज से भी इस नियम के ताम झाम का कोई मायने नहीं है सिवाय इसके कि इसकी वजह से कुछ चुनावी फायदा उठा लिया जाए।

अब बात करते हैं इससे जुड़े संवैधानिक मसले की। सितम्बर 1991 में तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने भी ऐसा ही आदेश जारी किया था। सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी गयी। 1992  में इंदिरा सहानी के मामले में नौ जजों की बेंच ने इसे दो आधार पर खारिज कर दिया। पहला संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था है, न कि आर्थिक आधार पर। बिना ऐतिहासिक पिछड़ेपन के पुख्ता सुबूत के, केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान की भावना के खिलाफ है। साथ में कोर्ट ने यह भी कहा कि आरक्षण का लक्ष्य आर्थिक उत्थान और गरीबी उन्मूलन नहीं है। दूसरा, 10 फीसदी आरक्षण की वजह से यह 59.50 फीसदी हो जाएगा। जो 50 फीसदी आरक्षण की सीमा से अधिक है जिसका मतलब यह है कि सुप्रीम कोर्ट की पहले वाली सीमा भी यहाँ लागू होती है। इसके साथ संविधान का अनुच्छेद 16 राज्य को यह इजाजत देता है कि वह राज्य के उन नागरिकों के लिए सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था कर सके जिनका पिछड़ेपन की वजह से राज्य की सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व कम है। यहाँ यह समझने वाली बात है कि इस पिछड़ेपन का आधार समाज के भीतर बनी ऐतिहासिक संरचनाएं हैं जिनकी वजह से अवसर की समानता नहीं मिल पाती है और सरकारी नौकरी से लेकर हर जगह पिछड़ापन रहता है। न्याय की गलियारे में यह कहा जाता है की उन्हीं लोगों को आरक्षण मिलेगा जिन्हें सरकारी नौकरी में पिछड़ेपन की वजह से नौकरी नहीं मिलती है और इनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार कारक भी पिछड़ापन ही होता है।

इसे भी पढ़ें : 10 प्रतिशत कोटा: एक चुनावी तिकड़म है इससे कोई फायदा नहीं होगा

आरक्षण सामजिक न्याय का तरीका है। यानी समाज में मौजूद ऐतिहासिक संरचनाओं की वजह से स्वाभाविक तौर पर अन्याय बसा हुआ है, जिसे दूर करने के लिए आरक्षण जैसे तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं। जैसे जातियों की सामाजिक स्थिति। एक मुसहर जाति का व्यक्ति अब भी हमारे समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है, जिसकी वजह से पढ़कर नौकरी करना तो दूर की बात है उसे सरकारी स्कूल में दाखिला तक लेने में परेशानी आती है। और ऐसी परेशानी उसे अपने जीवन के हर दौर में सहनी पड़ती है। इसलिए उसकों अवसरों की समानता की जगह अन्याय का समाना करना पड़ता है। इस अन्याय को दूर करने के लिए उसे आरक्षण दिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि अभी भी मौजूदा आरक्षण के तहत सरकारी नौकरियों में जातियों का सही प्रतिनिधित्व नहीं है। हालांकि, काफी समय से मोदी  सरकार केंद्र सरकार में आरक्षित पदों की स्थिति का खुलासा नहीं कर पाई है, लेकिन लोकसभा में दिए एक जवाब के अनुसार (# 4500, 14 दिसंबर 2016) में, सरकार ने कहा कि समूह ए के पदों में, एससी अधिकारी/स्टाफ सिर्फ 12.75 प्रतिशत थे जबकि एसटी केवल 4.7 प्रतिशत और ओबीसी अधिकारी 13.09 प्रतिशत थे। जबकि वैधानिक आरक्षण के अनुसार  16.5 प्रतिशत एससी, 8 प्रतिशत एसटी और 27 प्रतिशत ओबीसी होना चाहिए।

अंत में सबसे जरूरी बात यह है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन का माध्यम नहीं है। यानी गरीबी आरक्षण द्वारा दूर नहीं की जाएगी। अगर ऐसा किया जाए तो न्याय की मूलभूत अवधारणा अन्याय में बदल जायेगी जिसके तहत राज्य की नजर में सभी व्यक्ति बराबर हैं। अगर व्यक्तियों के बीच गैर बराबरी है तो उसे बराबरी में बदलने के लिए सरकार काम करेगी लेकिन ऐतिहासिक गैरबराबरी है तो उसे दूर करने के लिए आरक्षण का इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए आरक्षण का इस्तेमाल सरकार अगर अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए करती है तो यह बिल्कुल ग़लत है।

इसे भी पढ़े : 'खाते में 15 लाख' की तरह अब सवर्णों के लिए आरक्षण का जुमला!

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