NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
आरटीआई  संशोधन को लेकर  सरकार के आधारहीन तर्क
ये संशोधन इस अधिनियम की संघीय प्रकृति का विरोध कर रहा है और प्रधानमंत्री द्वारा दिए जा रहे सहकारी संघवाद ( cooperative federalism) के सिद्धांत का उल्लंघन कर रहा है।
वजाहत हबीबुल्लाह
24 Jul 2019
RTI

 

सूचना वह मुद्रा है जिसकी समाज की व्यवस्था तथा जीवन में हिस्सेदारी के लिए प्रत्येक नागरिक को आवश्यकता होती है- एपी शाह, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, दिल्ली एवं मद्रास उच्च न्यायालय, 2010।

सिर्फ शाह ही नहीं बल्कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के कई न्यायाधीशों ने बार-बार ज़ोर दे कर कहा है कि सूचना का अधिकार लोकतंत्र की आधारशिला है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती ने वर्ष 1981 में कहा था कि एक समाज जिसने लोकतंत्र को अपने "धार्मिक आस्था" के रूप में चयन किया है उसके नागरिकों को यह जानना चाहिए कि उसकी सरकार क्या कर रही है ?

भगवती से पहले 1975 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस के.के. मैथ्यू ने कहा कि लोगों को "सरकारी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक रुप से किए गए हर सरकारी कार्य को जानने का अधिकार है। ख़र्च के हर एक सार्वजनिक लेनदेन के विवरण को जानने के वे हक़दार हैं।"

लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने एक ऐसे कानून के लिए प्रक्रिया शुरू कर दी जो नागरिक के जानने के अधिकार पर नियंत्रण करेगी। सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 की  प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान सुगबुगाहट महसूस हुई  जो सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम से पहले आया था। और सूचना के अधिकार कानून को 2005 में संसद में पारित किया गया था।

तीसरी बार बनी एनडीए सरकार इस अधिकार का अतिक्रमण करने की कोशिश कर रही है जो नागरिकों ने लंबी प्रक्रिया के बाद प्राप्त किया था। यह केंद्र और राज्यों में सूचना आयुक्तों के लिए तय किए गए वेतन, भत्ते और कार्यकाल को निर्धारित करने वाले आरटीआई अधिनियम में एक संशोधन लाकर इस अधिकार का अतिक्रमण कर रही है।

इस अधिनियम में ये संशोधन संसद में एक असाधारण अवसर साबित हुआ जहां विधेयक को टेबल पर रखने के लिए एक वोट और फिर एक वर्ग की आवश्यकता थी। अंत में 224 सांसदों ने लोकसभा में इस विधेयक को मंजूरी दी और सदन की संरचना और मतों को देखते हुए लोकसभा में हंगामे के बीच ये विधेयक 23 जुलाई को पारित करने के लिए पूरी तरह तैयार था।

आरटीआई अधिनियम में केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त, अन्य केंद्रीय सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयोगों के प्रमुखों का वेतन व भत्ता निर्वाचन आयोग के सदस्यों के वेतन और भत्ते के बराबर होता है। राज्य सूचना आयुक्त मुख्य सचिवों के वेतन और भत्ते के बराबर के हकदार हैं जो राज्यों में सर्वोच्च श्रेणी के नौकरशाह हैं। सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है, या जब तक वे 65 वर्ष के नहीं हो जाते।

केंद्र सरकार अब पूरे देश में सभी सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और कार्यकाल को खुद नियंत्रित करने जा रही है. जम्मू कश्मीर केवल इसका अपवाद है, जिसका अपना सूचना का अधिकार है।  

विधेयक को पटल पर रखते हुए कार्मिक, लोक शिकायत व पेंशन राज्य मंत्री (जितेंद्र सिंह) ने एक अजीब बात कही कि आरटीआई कानून जो 14 वर्षों से जारी है इसका कोई नियम नहीं था। उन्होंने यह समझाने की कोशिश की कि एक साधारण क़ानून द्वारा स्थापित ऐसे निकाय का वेतन और भत्ते तय करने को लेकर भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) जैसे संवैधानिक निकाय के साथ बराबरी नहीं की जा सकती है।

हमें निश्चित कार्यकाल को समाप्त करने को लेकर औचित्य का इंतजार करना होगा। लेकिन सरकार ने इस विधेयक को संसदीय स्थायी समिति के हवाले करने का भी विरोध किया है। यह एक मूल प्रश्न को अनुत्तरित छोड़ देता है: सरकार ये संशोधन क्यों कर रही है?

संशोधन के लिए मंत्री का तर्क एनडीए के पहले कार्यकाल के दौरान अर्थात वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में इसी मुद्दे पर उठाए गए कदम का विरोध करता है। वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान 1998 में इस सरकार ने केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) विधेयक पेश किया था। ये विधेयक लोकसभा के विघटन के साथ समाप्त हो गया था और इसे दिसंबर 1999 में फिर से पेश किया गया था। आखिरकार चार साल बाद संसदीय स्थायी समिति में और संसद के दोनों सदनों में विचार-विमर्श के बाद सीवीसी विधेयक क़ानून बन गया।

सीवीसी अधिनियम की धारा 5 (7) केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के वेतन और भत्ते को संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के अध्यक्ष द्वारा लिए जाने वाले वेतन-भत्ते के बराबर करता है। बेशक, यूपीएससी संविधान के अनुच्छेद 315 के तहत स्थापित किया गया था। सीवीसी में दो सतर्कता आयुक्त यूपीएससी के सदस्यों के बराबर वेतन-भत्ते पाने के हक़दार हैं।

सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लिए धन्यवाद जिसे एनडीए सरकार ने 2017 में स्वीकार किया और यूपीएससी के अध्यक्ष तथा सदस्यों के वेतन में वृद्धि की गई। इनका वेतन अब उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश के बराबर है।

सीवीसी स्थापित करने के लिए संसद को संविधान की आवश्यकता नहीं है। केंद्र सरकार और केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक निकाय की आवश्यकता को सबसे पहले 1964 में के संथानम समिति ने पहचान किया था। इसलिए सीवीसी कानून के संवैधानिक अनिवार्यता को बनाए रखने और भ्रष्टाचार मुक्त शासन के लिए पूर्ण रूप से वैधानिक कार्य करता है।

दूसरी ओर निरंतर न्यायिक आदेशों में केंद्र और राज्यों के सूचना आयोग संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत वाक्य तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में सुरक्षित रखने के लिए अपील करने की अंतिम अदालत हैं। (इनमें से कुछ उपर दिए गए हैं।)

इसके अलावा ये आरटीआई अधिनियम पारदर्शिता की व्यवस्था को अपनाता है जो भ्रष्टाचार मुक्त शासन के लिए पहला शर्त है। इसका प्रस्तावना एक पारदर्शी व्यवस्था को भ्रष्टाचार रोकने के लिए एक पहल के रूप में काम करता है। यह इस विषय को सशक्त करता है कि जनता सरकार और इसकी संस्थाओं को जवाबदेह बनाने में सक्षम बने।

हालांकि सीवीसी के पास केवल सिफारिशी शक्तियां हैं जबकि सूचना आयोग के फैसले बाध्यकारी हैं। केवल उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक समीक्षा जो अनुच्छेद 226 और 32 के तहत प्राप्त है अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए, उसके फैसले को निरस्त कर सकती है। अदालतें लोक सूचना अधिकारी पर जुर्माना भी लगा सकती हैं। यह उन नागरिकों को क्षतिपूर्ति कर सकता है जो गलत तरीके से सूचना देने से इनकार करने या इसे देने में किसी अनुचित देरी के कारण हानि उठाते हैं।

इन संशोधनों की खामियों पर सरकार का ध्यान खींचने की आवश्यकता को देखते हुए मैंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है। सेवानिवृत्त सिविल सेवकों के एक समूह ने मेरे पत्र का समर्थन किया है। पत्र में लिखा गया हैः “जैसा कि आपने आरटीआई अधिनियम की 10 वीं वर्षगांठ पर राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए अक्टूबर 2015 में कहा था कि आरटीआई प्रशासन के कार्य के बारे में जानकारी मांगने के अलावा उससे सवाल पूछने के लिए सामान्य नागरिक को अधिकार देता है, ये एक जीवंत लोकतंत्र की नींव है।”

आरटीआई अधिनियम सरकार को अपने कामकाज की निगरानी करने और अपने कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने का अवसर प्रदान करता है। मैंने पत्र में लिखा "बड़े पैमाने पर स्वीकार किए गए आपके मिनिमम गवर्नमेंट एंड मैक्सिमम गवर्नांस के वादे के लिए केंद्र और राज्यों में सूचना आयोगों को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की आवश्यकता है।"

हर साल सूचना आयोग दो लाख से अधिक अपील और शिकायतों पर निर्णय देता है जिनमें से मामूली संख्या में ही इन्हें अदालतों के सामने चुनौती दी जाती है।

मेरे द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे पत्र का एक अन्य पहलू यह है कि संसद ने 2005 के आरटीआई अधिनियम के तहत सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और कार्यकाल को स्वयं निर्धारित किया है। यह उस महत्वपूर्ण भूमिका की मान्यता थी जिसे निभाना है। संसद ने इस योजना को यह सुनिश्चित करने के लिए तैयार किया कि वे बिना किसी डर या पक्ष और स्वायत्तता से काम करेंगे।

सूचना आयुक्तों की स्वायत्तता विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, यह देखते हुए कि सरकार या सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम आरटीआई मामलों में हर दस अपील में से नौ में पार्टी है। ये संशोधन इस वैधानिक सुरक्षा को हटा देते हैं और उनके वेतन और कार्यकाल को निर्धारित करने की शक्ति को सौंपते हैं। वे इन निर्धारणों के लिए केंद्र सरकार को सशक्त बनाना चाहते हैं। इस तरह वे इस अधिनियम की संघीय प्रकृति का विरोध करते हैं जो कि मैंने अपने पत्र में लिखा हूं कि बड़े पैमाने पर स्वीकार किए गए प्रधानमंत्री के कोऑप्रेटिव फेडरलिज्म सिद्धांत का उल्लंघन कर रहा है।

(वजाहत हबीबुल्लाह 2005 से 2010 तक भारत के मुख्य सूचना आयुक्त थे और कंस्टिट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप के सदस्य हैं जो सामाजिक-राजनीतिक विकास के मुद्दे पर सक्रिय है।)

( इस लेख के लिए कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के एक्सेस टू प्रोग्राम इनफार्मेशन के हेड वेंकटेश नायक ने जानकारी मुहैया करायी है ) 

RTI
RTI Act
NDA Govt
Delhi High court
Supreme Court
BJP

Related Stories

दिल्ली उच्च न्यायालय ने क़ुतुब मीनार परिसर के पास मस्जिद में नमाज़ रोकने के ख़िलाफ़ याचिका को तत्काल सूचीबद्ध करने से इनकार किया

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

ज्ञानवापी मस्जिद के ख़िलाफ़ दाख़िल सभी याचिकाएं एक दूसरे की कॉपी-पेस्ट!

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट


बाकी खबरें

  • left
    अनिल अंशुमन
    झारखंड-बिहार : महंगाई के ख़िलाफ़ सभी वाम दलों ने शुरू किया अभियान
    01 Jun 2022
    बढ़ती महंगाई के ख़िलाफ़ वामपंथी दलों ने दोनों राज्यों में अपना विरोध सप्ताह अभियान शुरू कर दिया है।
  • Changes
    रवि शंकर दुबे
    ध्यान देने वाली बात: 1 जून से आपकी जेब पर अतिरिक्त ख़र्च
    01 Jun 2022
    वाहनों के बीमा समेत कई चीज़ों में बदलाव से एक बार फिर महंगाई की मार पड़ी है। इसके अलावा ग़रीबों के राशन समेत कई चीज़ों में बड़ा बदलाव किया गया है।
  • Denmark
    पीपल्स डिस्पैच
    डेनमार्क: प्रगतिशील ताकतों का आगामी यूरोपीय संघ के सैन्य गठबंधन से बाहर बने रहने पर जनमत संग्रह में ‘न’ के पक्ष में वोट का आह्वान
    01 Jun 2022
    वर्तमान में जारी रूस-यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में, यूरोपीय संघ के समर्थक वर्गों के द्वारा डेनमार्क का सैन्य गठबंधन से बाहर बने रहने की नीति को समाप्त करने और देश को ईयू की रक्षा संरचनाओं और सैन्य…
  • सत्यम् तिवारी
    अलीगढ़ : कॉलेज में नमाज़ पढ़ने वाले शिक्षक को 1 महीने की छुट्टी पर भेजा, प्रिंसिपल ने कहा, "ऐसी गतिविधि बर्दाश्त नहीं"
    01 Jun 2022
    अलीगढ़ के श्री वार्ष्णेय कॉलेज के एस आर ख़ालिद का कॉलेज के पार्क में नमाज़ पढ़ने का वीडियो वायरल होने के बाद एबीवीपी ने उन पर मुकदमा दर्ज कर जेल भेजने की मांग की थी। कॉलेज की जांच कमेटी गुरुवार तक अपनी…
  • भारत में तंबाकू से जुड़ी बीमारियों से हर साल 1.3 मिलियन लोगों की मौत
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    भारत में तंबाकू से जुड़ी बीमारियों से हर साल 1.3 मिलियन लोगों की मौत
    01 Jun 2022
    मुंह का कैंसर दुनिया भर में सबसे आम ग़ैर-संचारी रोगों में से एक है। भारत में पुरूषों में सबसे ज़्यादा सामान्य कैंसर मुंह का कैंसर है जो मुख्य रूप से धुआं रहित तंबाकू के इस्तेमाल से होता है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License