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भारत
राजनीति
आर्टिकल 370 : क्या मोदी सरकार जिन्ना की डरावनी कल्पनाओं को पूरा कर रही है?
देखा जाए तो केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में बंदूक के बल पर लोकतंत्र थोप रही है।
एजाज़ अशरफ़
06 Aug 2019
Translated by महेश कुमार
आर्टिकल 370 : क्या मोदी सरकार जिन्ना की डरावनी कल्पनाओं को पूरा कर रही है?

जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्ज़े को ख़त्म करने का नरेंद्र मोदी सरकार का निर्णय, स्पष्ट रूप से हिंदुत्व की राजनीति की अलोकतांत्रिक प्रकृति को दर्शाता है। मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का ऐसा मानना है कि लोकसभा में मिले बहुमत के ज़रिये लोगों ने उन्हें अपनी इच्छा थोपने का अधिकार दिया है।

यह विश्वास हमारे लोकतंत्र की अजीबोग़रीब प्रकृति से उपजा है। बीजेपी ने 2019 में लोकसभा में 303 सीटों पर जीत हासिल की है। बावजूद इसके यह कश्मीर में एक भी सीट नहीं जीत सकी, जहां उग्रवादी/अलगाववादी आंदोलन अब लगभग तीन दशक पुराना हो चुका है। घाटी में राज्य में मौजूद असंख्य समस्याएं और स्थानीय राजनीतिक अस्थिरता घर बनाए हुए हैं। यह कश्मीरी मुसलमान हैं जो या तो भारत के साथ अपने संबंधों को फिर से परिभाषित करना चाहते हैं या उससे अलग होना चाहते हैं, लेकिन जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों के लोग ऐसा नहीं चाहते हैं।

फिर भी केंद्र में बैठी सत्तारूढ़ पार्टी ने कश्मीरियों से इस बाबत कोई सलाह नहीं ली, उनकी इच्छाओं को ध्यान में रखना तो दूर की बात है। ऐसा भी नहीं कि उन्होंने 2019 के लोकसभा में भाजपा को वोट दिया; पार्टी घाटी में एक भी सीट नहीं जीत पाई। इस दृष्टिकोण से देखें तो मोदी सरकार के फ़ैसलों में कश्मीरियों की कोई सहमति नहीं थी और इसलिए, यह स्पष्ट तौर पर अलोकतांत्रिक है।

इसका मतलब यह है कि एक हिंदुत्व वाले स्टेरॉयड  को भारत में कहीं भी एक ख़ास समुदाय के लोगों को निशाना बना सकता है, भले ही उन्होने भाजपा सांसद चुना हो या नहीं। उनके अधिकारों को छीना जा सकता है, उनकी इच्छाओं की अनदेखी की जा सकती है। उनके असंतोष को या तो नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा या फिर उसे बेरहमी से रौंद दिया जाएगा। कश्मीर की तरह भारत के अन्य हिस्सों में भी, भाजपा उन लोगों के ख़िलाफ़ निर्णय लेने से पहले उस क्षेत्र को सेना के हवाले कर सकती है, जिनके ख़िलाफ़ ये निर्णय जाते हैं।

इसे बंदूक की नाल से लोकतंत्र थोपना कहा जाएगा।

इस तरह के लोकतंत्र के स्वरूप में हिंदुत्व का काफ़ी विश्वास है क्योंकि संसद के चल रहे सत्र में अधिकांश विधेयकों को न तो चयन ना ही स्थायी समिति को विचार के लिए भेजा गया। इन्हें बिना किसी क़ानूनी जांच के पारित कर दिया गया, उन पर कोई सहमति बनाने की कोशिश नहीं की गई। यही मुस्लिम महिला (विवाह संबंधित अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 और ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों (रोकथाम) अधिनियम में संशोधन विधेयक के साथ हुआ था। दूसरे शब्दों में कहें तो, भाजपा अपनी हिंदुत्व की विचारधारा को कम करने के लिए तैयार नहीं है, चाहे फिर वह सामाजिक टकराव का कारण ही क्यों न हो।

मोदी सरकार द्वारा कश्मीर पर छल से भरे फ़ैसलों से संघीय सिद्धांत कमज़ोर हो गया है। इसको लेकर अन्य राज्य सरकारों में हड़कंप मच सकता है कि उनके लिए मोदी सरकार के पास क्या योजना है। शायद वे पूरे भारत में अपनी छाप छोड़कर ही भाजपा की महत्वाकांक्षा को पूरा कराने में लगे हैं। लेकिन जो राज्य छह या सात सांसदों को भेजते हैं वे राज्य गंभीर चिंता के दायरे में है। उत्तर भारत में भाजपा के व्यापक समर्थन को देखते हुए, उनके नेताओं के लिए यह मायने नहीं रखता कि मोदी सरकार के फ़ैसलों के कारण चुनावी रूप से कम महत्वपूर्ण राज्यों के लोगों को अलग-थलग कर दिया गया है।

वास्तव में देखा जाए तो, अब हिंदी क्षेत्र ही भारतीय राजनीति को चला रहा है। यह भी सच है कि हिंदी क्षेत्र हिंदुत्व के भंवर में फंस गया है। इससे क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं पर एक हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पड़ा है। उनमें हिंदुत्व का विरोध करने की इच्छा नहीं हैं, ऐसा नहीं है कि उन पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है। उदाहरण के लिए, बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) कश्मीर पर सरकार के फ़ैसलों का समर्थन करने की घोषणा में सबसे आगे थी। चुंकि उनके लिए उत्तर प्रदेश एकमात्र राजनैतिक खेल का मैदान है, इसलिए बसपा कश्मीर पर मोदी सरकार का विरोध नहीं करना चाहती है जो शायद उसके वोट पस असर डालता, और पार्टी के पुनरुत्थान की उम्मीदों को धराशायी कर सकता था।

इससे कम चौंकाने वाली और विरोधाभासी बात नहीं हो सकती है - जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने, भाजपा को कश्मिर मुद्दे पर समर्थन की पेशकश की थी, जबकि उनके नेताओं से इस बाबत कहा भी नहीं गया था। केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी (आप) को कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव क सामना करना है। मोदी को चार साल तक कोसने के बाद, और मोदी सरकार द्वारा 2016 में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ की गई सर्जिकल स्ट्राइक का मज़ाक़ उड़ाने वाले केजरीवाल ने शायद अब यह विचार किया है कि कश्मीर पर सरकार का विरोध करने से उन्हें और उनकी पार्टी को हिंदू विरोधी और देश विरोधी माना जा सकता है। भारत में, ये दो शब्द जो अब तेज़ी से पर्याय बन गए हैं। उन्होंने सोचा कि इस तरह के लेबल से पार्टी की चुनावी दशा ख़राब हो सकती है।

केजरीवाल वास्तव में एक अक्म दॄष्टि वाले विचार के हैं, जिससे अन्य क्षेत्रीय नेता भी पीड़ित हैं। अगर जम्मू और कश्मीर की ताक़त को राज्य से केंद्रशासित प्रदेश में कम कर दिया जा सकता है, तो मोदी सरकार बहुत अच्छी तरह से दिल्ली की विधानसभा को पूरी तरह से वंचित कर एक क़ानून बना सकती है। क्या केजरीवाल तब "लोकतंत्र की हत्या" के बारे में चिल्लाएंगे? क्या इसकी दिल्लीवासियों के बीच प्रतिध्वनि नहीं होगी, जिनकी राजनैतिक पहचान क्षेत्रीय या भाषाई समानता में नहीं है।

हिंदी के क्षेत्र में भाजपा के प्रभुत्व ने केवल उसकी वहशी प्रवृत्ति को बढ़ाया है। वास्तव में, 1960 के दशक में भी, हिंदी क्षेत्र की लोकसभा सीटों की संख्या के आधार पर राजनेताओं का मानना था कि उन्हें भारत के अन्य हिस्सों में अपनी संस्कृति और राजनीतिक विचारों को थोपने का अधिकार है। इस मनोविज्ञान को लोकसभा की एक बहस में स्थान मिला था कि क्या केंद्र और राज्यों के बीच संचार के लिए हिंदी का उपयोग किया जाना चाहिए या नहीं।

जब एक सांसद ने घोषणा की कि हिंदी को विशेषाधिकार का दर्जा हासिल होना चाहिए क्योंकि यह किसी भी अन्य भाषा की तुलना में अधिक भारतियों द्वारा बोली जाती है, तो डी.एम.के. नेता सीएन अन्नादुरई ने टिप्पणी की, “यदि हमें अपने राष्ट्रीय पक्षी का चयन करने के लिए संख्यात्मक श्रेष्ठता के सिद्धांत को स्वीकार करना पड़ता, तो राष्ट्रीय पक्षी मोर पर नहीं बल्कि कौवा होता। ”

हालांकि, भाजपा का मानना है कि संख्यात्मक श्रेष्ठता संवैधानिक अनैतिकता को संवैधानिक नैतिकता में बदल सकती है। कश्मीर के दर्जे में बदलाव उनके लोगों को दी गई संप्रभु गारंटी को पलट देता है कि उनका भारत में रहना दूसरे क्रम का है।

बीजेपी की संख्यात्मक  श्रेष्ठता, बदले में, हिंदी क्षेत्र में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण करने के लिए हिंदुत्व के उपयोग पर आधारित है, जहां 1947 से पहले के वर्षों में विभाजन की भयावह राजनीति की गई थी।
जब अंग्रेज़ों ने 1935-37 में 11 प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव कराने का फ़ैसला किया, तो कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कुछ प्रांतीय दलों ने चुनाव में भाग लिया। मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व का दावा करने के बावजूद, मुस्लिम लीग को कुल 5 प्रतिशत वोट मिले थे।

अपने निराशाजनक प्रदर्शन को देख लीग ने यह तर्क दिया कि अविभाजित भारत का हिंदू बहुसंख्यक मुसलमानों को निगल जाएगा और उनके धर्म और संस्कृति को दबा देगा। उनके पास यह सबूत था कि बिहार और संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में हिंदू-मुस्लिम दंगों की बाढ़ सी आ गई थी, दोनों में कांग्रेस का शासन था। उन्होंने तर्क दिया कि गायों के वध पर प्रतिबंध लगाने का आंदोलन, जो तब भी जारी था, जिसका उद्देश्य मुस्लिम संस्कृति को तोड़ना था।

हिंदू धर्मांधता के ख़िलाफ़ लीग के प्रचार ने मुसलमानों के बीच ज़बरदस्त आधार हासिल किया, जिन्होंने 1946 के प्रांतीय चुनावों में जिन्ना और उनके दो-राष्ट्र सिद्धांत पर ज़ोर दिया, जो उपमहाद्वीप के विभाजन के लिए अनिवार्य रूप से अग्रणी बना था। यह 1946-1947 की वह स्मृति है जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री ने 5 अगस्त को अपने ट्वीट में कहा था:

Today marks the darkest day in Indian democracy. Decision of J&K leadership to reject 2 nation theory in 1947 & align with India has backfired. Unilateral decision of GOI to scrap Article 370 is illegal & unconstitutional which will make India an occupational force in J&K.

— Mehbooba Mufti (@MehboobaMufti) August 5, 2019

 

आज भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा काला दिन है। जम्मू और कश्मीर नेतृत्व के द्वारा 1947 में 2 राष्ट्र के सिद्धांत को ख़ारिज करने और भारत से जुड़ने का फ़ैसला बेकार हो गया। भारत सरकार द्वारा धारा 370 को रद्द करने का एकतरफ़ा निर्णय ग़ैरक़ानूनी और असंवैधानिक है जो भारत को जम्मू-कश्मीर में एक क़ब्ज़ा करने वाली शक्ति बना देगा।

महबूबा, नेशनल कॉन्फ़्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला, और चुनावों में भाग लेने वाले दलों के नेता कश्मीर में घटने वाली इन घटनाओं को याद करेंगे, जिसे वे "भारत के विश्वासघात" के रूप में वर्णित करेंगे। मोदी सरकार के फ़ैसले ने उन्हें और उनके द्वारा अपनाए गए बीच के रास्ते - न तो पाकिस्तान के साथ  और न ही स्वतंत्रता की मांग करना, सिर्फ़ कश्मीर समस्या का एक समाधान चाहते हैं, को अप्रसांगिक बना दिया है।

फिर भी, कश्मीर पर मोदी सरकार के फ़ैसले से हिंदी क्षेत्र के साथ-साथ महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में भी ख़ुशी मनाई जाएगी और जश्न मनाया जाएगा। यह कश्मीर के बाहर के कश्मीरी मुसलमानों पर दबाव डालेगा, जिन्होंने वहां अपने सह-धर्मवादियों के साथ अभी तक कोई पहचान नहीं बनाई है। फिर भी कश्मीर में घट रही घटनाएँ उन्हें लगातार चिंतित करेगी, वह भी बड़े पैमाने पर क्योंकि इसके बाद असम में नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर का प्रकाशन होगा और अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट की दिन-प्रतिदिन की सुनवाई होगी।

मुसलमानों को यह प्रतीत हो रहा होगा कि मोदी सरकार जिन्ना की डरावनी कल्पनाओं को साकार करने पर ज़ोर दे रही है।

एजाज़ अशरफ़ दिल्ली में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और The Hour Before Dawn के लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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