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अयोध्या विवाद के हाशिये से महिलाओं की आवाज़
मस्जिद जाने का ग़म नहीं, लेकिन मुस्लिमों के लिए अनादर पीड़ा का कारण है।
हसीना ख़ान, सना कांट्रैक्टर
27 Nov 2019
अयोध्या विवाद

हम दोनों मुस्लिम स्त्रियाँ बम्बई में पैदा हुईं और पली बढीं और भिन्डी बाज़ार इलाक़े की निवासी हैं। जिस दिन अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायलय ने अपना फ़ैसला सुनाया, तो एक बार फिर से 1992 के दर्द और आघात को ज़िंदा कर दिया। इस फ़ैसले ने हमारे भीतर 6 दिसम्बर 1992 के घावों को फिर से हरा कर दिया, जिस दिन बाबरी मस्जिद को ध्वस्त दिया गया था और उसके बाद जो कुछ हुआ था।

हमारे दिमाग़ के परिदृश्य में मस्जिद ढहाए जाने के बाद के नब्बे के दशक का भिन्डी बाज़ार का वह कठिन दौर अभी भी ताज़ा है। यह इलाक़ा शहर में सबसे लंबे दौर के कर्फ़्यू और सबसे अधिक पुलिस ज़ुल्मों का गवाह रहा है। हम न सिर्फ़ उस क्रूरता के रंगमंच के साक्षी रहे, बल्कि हम मुस्लिम समुदाय के उन पुनर्वासित सदस्यों के रूप में भी शामिल रहे हैं जिन्हें अंत में राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी।

2019 में लौटते हैं, और हम फिर से इसके गवाह हैं। फिर से हम देख रहे हैं कि मुस्लिमों को देश के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित करनी पड़ रही है, और अच्छे नागरिक का सुबूत दे रहे हैं। मुसलमानों की इस इच्छा का प्रकटीकरण यह है कि वे कैसे यह साबित करके दिखायें कि वे सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद शांति और स्वीकृति बनाए रखने के लिए जुटे हुए हैं।

लेकिन हम महिलाएं, जो धार्मिक क़ानूनों के बजाय संवैधानिक मान्यताओं को बनाए रखने के लिए लगातार संघर्ष कर रही हैं। हमने अपने समुदाय को शरिया क़ानून के बजाय भारत के संविधान के प्रति अपने विश्वास बनाए रखने का आग्रह करते रहे, आज इस फ़ैसले से हैरान हैं। जय सिया राम से जय श्री राम के इस ख़ून से सनी यात्रा की गवाह बनी हम आज समझ नहीं पा रहीं हैं कि अपने संवैधानिक मूल्यों की लड़ाई में हम आज कहाँ खड़ी हैं।

बाबरी विध्वंस, जिसके चलते बम्बई शहर में दंगे भड़क उठे थे और 13 बम धमाके ने हमें एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा कर दिया था, जिसने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया कि एक भारतीय, एक मुस्लिम के रूप में, और सबसे अधिक महत्वपूर्ण एक महिला के रूप में हम ख़ुद को कैसे देखते हैं। हमने देखा था कि किस तरह सभ्रांत बम्बईवासियों ने जिस महानगरीय मुखौटे को ओढ़ रखा था, वह रूमानियत का नक़ाब फट चुका था। हमने देखा कि मुंबई का परिद्रश्य बदल गया है, जब सुरक्षा की भावना के चलते मुस्लिमों ने भीड़ की शक्ल में शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में पलायन किया। घेटोकरण की प्रक्रिया गहरी हुई और दोनों समुदाय एक दूसरे से और अधिक अलगाव में चले गए। मुसलमानों को अपनी जान माल से हाथ धोना पड़ा, लेकिन सबसे अधिक नुक़सान कहें तो इसके बाद राज्य के प्रति उनके विश्वास के ख़त्म होते चले जाने में दिखा।

अयोध्या मामले के फ़ैसले की समीक्षा के लिए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (ए.आई.एम.पी.एल.बी) के  प्रस्ताव को समझने के लिए "क़ानून के निष्पक्ष चश्मे” को समझे जाने की ज़रूरत है। भले ही उनकी याचिका को स्वीकार किया जाए या नहीं, यह देखते हुए कि एआईएमपीएलबी अयोध्या मामले में एक पक्षकार नहीं है, एक बात स्पष्ट है: यह मामला अभी भी शांत नहीं हुआ है।

जब न्यायालय ने मंदिर निर्माण के पक्ष में फ़ैसला सुनाया, जिस जगह पर मस्जिद ढहाई गई तो हर किसी ने कहा कि इसका “शांतिपूर्ण” हल निकाल लिया गया है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह से लेकर विपक्षी पार्टियों और यहाँ तक कि अयोध्या मामलों के पक्षकारों तक ने इसे एक ऐसा मामला बताया जिसने हिन्दू और मुसलमानों के बीच कड़वाहट पैदा कर दी थी। हमसे कहा गया कि हर किसी को फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए और आगे की ओर देखना चाहिए।

मज़ेदार तथ्य यह है कि बीजेपी के नेतागण सबरीमला केस में सर्वोच्च न्यायलय द्वारा दिए गए फ़ैसले पर इसी तरह के “सम्मान” को देना नहीं चाहते हैं। सबरीमाला केस में बीजेपी ने हिंसा को पहले से ही ‘विश्वास का मामला’ बताकर तर्कसंगत घोषित कर चुकी है। बेशक अयोध्या मामले में फ़ैसला उनके हक़ में गया है, और इसलिए दोनों फ़ैसलों के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए इसके मानक एक समान नहीं दिखते हैं।

फिर भी, देश में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करने के लिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस की भूमिका पर शांति बनाए रखने के लिए इन उकसावों की अनदेखी की जाती है। इसके साथ ही ध्रुवीकरण ने बीजेपी को राजनीतिक बढ़त हासिल करने का औज़ार बना दिया है। यह यात्रा जो 1989 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की कथित मशहूर रथ यात्रा के रूप में शुरू हुई थी, और जिसका समापन 2019 में हमारे देश की राजनीतिक राजनीति को फिर से परिभाषित करने के लिए किया गया है। इसने ताक़तवर हिंदुत्व को पूरी तरह से सीता से, जिनके पति हिंदू देवता के रूप में भगवान राम हैं, हिन्दू देवत्व के मानसिक धरातल  से छीनने में लंबा समय लिया। भगवान राम को हिंदुत्व के तालिबानी रूप के प्रतीक के रूप में बदलने में भी काफ़ी वक़्त लगा है।

यह सच है कि 1992-93 में जो हिंसा हमने देखी थी, उसने झटके दिए थे, ग़ुस्से, डर और दर्द का अहसास पैदा किया था। वही भावनाएं अब दोबारा उभर रही हैं, लेकिन इस समय वे एक “शांति” के मौक़े पर उभर रही हैं। इन तीन-विषम दशकों ने सांप्रदायिक हिंसा के स्वरूप को ही बदल कर रख दिया है। 1980 और 1990 के दशक में भारी पैमाने पर दंगे भड़के थे, लेकिन अब मुस्लिमों और उनमें से ख़ासकर सबसे अधिक कमज़ोर तबक़ों के बीच एक अजीब से भय का वातावरण बन गया। यह खौफ़ किसी दिन बीफ़ के नाम पर हिंसा के रूप में उजागर होता है तो दूसरे दिन ‘जय श्री राम’ के उद्घोष से इनकार करने के नाम पर।  

इस परिदृश्य में हमसे कहा जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले ने दोनों समुदायों के बीच के कटु विवाद को ख़त्म करने का काम कर दिया है। वास्तव में, इस फ़ैसले ने अल्पसंख्यक समुदाय को साफ़ संदेश भेज दिया है कि वे कभी भी धर्मनिरपेक्ष संस्था से न्याय की उम्मीद न रखें। फिर इन शांति की उद्घोषणाओं और उपदेशों की क्या क़ीमत रह जाती है कि “आगे की ओर देखिये”? जो ऐसा दावा कर रहे हैं, उन्हें ही इस सवाल का जवाब देना चाहिए।

सबसे बेहतर तो यह होता अगर जिस मस्जिद को ढहाया गया था उसे दोबारा बनवाया जाता. लेकिन वर्तमान भारत में मुसलमानों के लिए ऐसा सोचना भी भोलापन है कि मस्जिद का जीर्णोद्धार संभव है. इलाहबाद उच्च न्यायालय के फैसले में जमीन को उसके तीन दावेदारों के बीच में बाँट देने के फैसले को एक बीच-बचाव के रूप लिया गया फैसला लगता है. अब, उस जमीन को जहाँ पर कभी मस्जिद मौजूद थी को उन्हें सौंप देने के फैसले ने, जो इसे तोड़ने के गुनाहगार हैं, एक निर्मम मजाक की तरह महसूस होता है.

यह सच है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को स्वीकार किया है कि मस्जिद को ढहाना एक गैर-क़ानूनी कदम था. यह टिप्पणी किसी भी तरह से फैसले को "उचित" बनाने वाली है। लेकिन हम अपनी आँखों के सामने देख रहे हैं कि एक ऐसी पार्टी जिसके पास 1980 के दशक में संसद में मात्र दो सीटें थीं, मंदिर के एजेंडा को आगे रख 2014 और 2019 के आम चुनावों के रूप में दो पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल होती है. बम्बई दंगों के बाद, शिवसेना भी खुलकर सत्ता में आती है और मुंबई में बहुसंख्यकवाद की खुली वकालत के साथ कईयों को अलगाव में ले जाने का काम करती है, जिन्होंने इस शहर को बनाया था. 

हम यह भी देखते हैं कि जो लोग 1993 बम धमाकों में शामिल होने के दोषी पाए गए थे, उन्हें मृत्यु दण्ड सहित कड़ी सज़ाएं सुनाई गईं। लेकिन जिन लोगों ने दिन दहाड़े एक ऐतिहासिक इमारत को ज़मींदोज़ करने का काम किया उन्हें इसका कोई नतीजा नहीं भुगतना पड़ा। उल्टा, आज उन्हें सम्मानित किया जा रहा है। मात्र संदेह के आधार किसी भी मुस्लिम युवा को गिरफ़्तार किया जा सकता है, और कई दशकों तक बिना सबूत के उसे जेलों में सड़ाया जा सकता है। लेकिन यदि कथित अपराधकर्ता हिन्दू है तो ऐसा लगता है कि दुनिया में चाहे जितने भी सबूत हों, उन्हें आरोपी नहीं बनाया जा सकता है. 

नारीवादी होने के नाते, हम ख़ुद को असहज स्थिति में पा रहे हैं। हमारा दुःख किसी धार्मिक प्रार्थना स्थल के खो देने से नहीं है, लेकिन यह एक समुदाय के रूप में मुसलमानों के प्रति न्याय की किसी भी भावना के लिए सरासर अपमानजनक है। जो हम देख रहे हैं वह साधारण मुस्लिमों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने की क़ीमत पर बहुसंख्यकवाद के शक्ति प्रदर्शन के रूप में नज़र आ रहा है। धर्म के नाम पर खेल तो पुरुष खेलते हैं, लेकिन महिलाओं को इसका मोहरा बनाया जाता है। बहुसंख्यकवाद की राजनीति मर्दवाद के आधार पर खेली जाती है जिसमें मुसलमानों को “विदेशी”, घुसपैठिया घोषित किया जाता है, एक ऐसा समूह जो श्री राम के ख़िलाफ़ है (सिया राम नहीं)।

मुस्लिम महिलाओं को अपने समुदाय के अन्य लोगों की इस दोहरी मार को झेलने पर विवश होना पड़ रहा है।  तुरंत तीन तलाक जैसे मुद्दों को उठाकर हिन्दू दक्षिणपंथियों ने मुस्लिम महिलाओं के समूहों के एजेंडा को अपने अन्दर समाहित कर लिया है, और कथित तौर पर उन्हें सुरक्षा मुहैय्या कराने की बड़ी बड़ी डींगें हाँकी जा रही हैं। लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ जब मुसलमान सांप्रदायिक हिंसा का शिकार बनते हैं तो यही दक्षिणपंथी उन्हें किसी प्रकार की सुरक्षा प्रदान करने में कोई रूचि नहीं रखते। और न ही वे यह कोशिश ही करते हैं कि सच्चर कमिटी की रिपोर्ट की सिफ़ारिशों जैसे क़दमों को लागू कराकर उनके आर्थिक हितों की रक्षा करें।

इसलिये, मंदिर-मस्जिद विवाद पर पुनर्विचार याचिका दाख़िल करने का निर्णय इस विवाद के ख़ात्मे के संकेत नहीं देते हैं। अगर कुछ है तो यह कि यह मुद्दा ज़िंदा है और बना रहेगा। यह एआईएमपीएलबी जैसी संस्थाओं के द्वारा मुस्लिम समाज के अंदर भय और असुरक्षा का दोहन के रूप में जारी रहेगा और साथ ही साथ हिन्दू दक्षिणपंथियों के लिए इससे भरपूर राजनैतिक लाभ की गुंजाईश बनी रहेगी। मंदिर वहीं बनेगा नारा बीजेपी का का लंबे समय से चुनावी एजेंडा रहा है। इसने अपने वादे पर अमल किया है। यहां तक कि यदि यह अपने "विकास के एजेंडे" पर कुछ भी देने में असफल साबित हुई तो भी इस मुद्दे से उसके पास दिखाने के लिए काफ़ी कुछ है और सत्तारूढ़ दल के रूप में उसकी स्थिति को मज़बूती प्रदान करता है।

अदालत ने सरकार को आदेश दिया है कि वह एक ट्रस्ट का निर्माण करे और जनता के पैसे से मस्जिद के बजाय एक मंदिर का निर्माण करे। धर्मनिरपेक्ष भारत के भविष्य के लिए इसके क्या मायने हैं? अब जब बीजेपी ने ख़ुद को हिन्दुओं और हिन्दू धर्म के रक्षक के रूप में ख़ुद को प्रतिष्ठापित करने में सफलता प्राप्त कर ली है, तो हम आने वाले वर्षों में एक महिला के रूप में और क्या उम्मीद करें?

लेखिकाएं बेबाक कलेक्टिव से सम्बद्ध नारीवादी कार्यकर्त्ता हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।

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