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अयोध्या विवाद के 'हल' होने के बाद, संघ परिवार का रुख़ काशी और मथुरा की तरफ़
‘लेकिन, अयोध्या परियोजना को ज़मीन पर उतारने से पहले ही...यहां तक कि संघ परिवार ने वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में शाही ईदगाह को गिराने के लिए भी कई दिशाओं से आवाज़ें उठानी शुरू कर दी हैं।'
नीलांजन मुखोपाध्याय
17 Sep 2020
ap

यह हमेशा से एक गलत धारणा रही कि जैसे ही अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की योजना को धरातल पर उताने में ठोस प्रगति होने लगेगी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े लोग अपने मंदिर मुद्दे की तरफ़ बढ़ते क़दम को खींच लेंगे।

अनुबंधित कंपनी, लार्सन एंड टुब्रो 17 सितंबर के बाद अपेक्षित तेरह हज़ार वर्ग मीटर की नींव पर निर्माण कार्य शुरू करने वाली है, क्योंकि इस दिन हिंदुओं द्वारा नयी परियोजनाओं की शुरुआत के लिए अशुभ माने जाने वाले पितृ पक्ष की अवधि समाप्त हो जाती है।

लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 5 अगस्त को राजनीतिक रूप से प्रतीकात्मक भूमि पूजन के बाद अयोध्या परियोजना को ज़मीन पर उतारने से पहले ही...यहां तक कि संघ परिवार ने वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में शाही ईदगाह को गिराने के लिए भी हर तरफ़ से आवाज़ें उठानी शुरू कर दी है।

अब यह निश्चित हो गया है कि यह महज़ समय की बात रह गयी है कि ऊपर बताये गये इन दो इस्लामिक धर्मस्थलों को गिराने की मांग को औपचारिक रूप से आरएसएस या उसके किसी सहयोगी के एजेंडे का हिस्सा कब बनाया जाये।

मथुरा-काशी मांगों पर उभरती कहानी, जिसे 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वस्त होने के बाद से लंबित बताया जाता रहा है, वास्तव में अयोध्या वाले तौर-तरीक़े का ही अनुसरण करता दिखायी दे रही है। इस बात को फिर से बताये जाने की ज़रूरत है कि हिंदुओं को तीन धर्मस्थलों को सौंपने की मांग पहली बार 1949 में हिंदू महासभा की तरफ़ से की गयी थी, एक दशक पहले जिसे आरएसएस ने औपचारिक रूप से अपने एजेंडे में शामिल किया था।

1983 में इस मांग को पुनर्जीवित करने के बाद भी इस मुद्दे को पहली बार उन व्यक्तियों और समूहों की ओर से उठाया गया था, जिनका आरएसएस के साथ कोई औपचारिक जुड़ाव नहीं था; उन्होंने इसके बजाय अपनी ज़िंदगी के सफ़र के किसी न किसी पड़ाव पर कांग्रेस के प्रति अपनी निष्ठा जतायी थी।

संघ परिवार के भीतर इस राम मंदिर के मुद्दे को पहली बार 1984 की शुरुआत में विश्व हिंदू परिषद द्वारा शामिल किया गया था, और आरएसएस तो अगले एक-दो साल के लिए इस आंदोलन से औपचारिक रूप से जुड़ा भी नहीं था। भारतीय जनता पार्टी का भी जून 1989 तक इस आंदोलन के साथ कोई औपचारिक सम्बन्ध नहीं था, जब उसने अपने ऐतिहासिक पालमपुर प्रस्ताव के ज़रिये हिंदू समुदाय के लिए राम जन्मभूमि को “फिर से हासिल करने” की मांग को अपनाया था।

लेकिन, उस समय 1980 के दशक में भगवा ताक़त एक छोटी ताक़त थी, जब ये सब घटनाक्रम हो रहे थे और यह उस समय सामाजिक-राजनीतिक वैधता हासिल करने के लिए आतुरता के साथ काम कर रहा थी, अब तो ख़ैर इस बात को लेकर कोई विवाद ही नहीं रह गया है कि यह भारत की एक अहम सियासी ताक़त है। तक़रीबन हर विरोधी को राम मंदिर के 'मक़सद' का ढोल पीट-पीटकर इस मुद्दे में फ़ांस दिया गया है और मथुरा और वाराणसी पर उनका रुख़ वस्तुत: थोड़ा अलग होगा।

भगवा बिरादरी की तरफ़ से दो तीर्थस्थलों की मांग की आवाज़ उठना अब कुछ समय बाद ही शुरू हो जायेगा, लेकिन इस सिलसिले में पहले से ही वे लोग और संगठन काफ़ी आगे बढ़ चुके हैं,जो हिंदुत्व पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं। नतीजतन, इस मांग के आधिकारिक तौर पर शामिल किये जाने की प्रक्रिया को अयोध्या मामले में समर्थन जुटाने में लगने वाले समय के मुक़ाबले बहुत तेज़ किया जा सकता है।

नवंबर 2019 में अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के तुरंत बाद वाराणसी और मथुरा की परियोजनाओं पर काम शुरू हो गया था। भाजपा के एक राज्यसभा सांसद, हरनाथ सिंह, जय श्री कृष्णा वाले हरे रंग की चमकती पोशाक में सजकर तब सामने आये थे, जब उन्होंने पिछले साल उच्च सदन के शीतकालीन सत्र में भाग लिया था।

जब उनसे उनके उस रंग-रूप में सजने के बारे में पूछा गया था, तो उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि ऐसा करते हुए इस विचार को रेखांकित करना है कि अयोध्या के बाद, वाराणसी और मथुरा स्थित दो तीर्थस्थलों को हिंदू प्रतिनिधियों को सौंपने की बारी है।

भाजपा ने इसे लेकर अभी तक कोई औपचारिक रुख़ अख़्तियार तो नहीं किया है, लेकिन बजरंग दल के प्रमुख और फ़ैज़ाबाद के पूर्व लोकसभा सदस्य, विनय कटियार की तरफ़ से इसी तरह का नज़रिया सामने रखा गया था। 5 अगस्त को जिस समय मोदी ने अनुष्ठान किया था, उस समय उन्होंने घोषणा की थी कि इन अन्य दो धर्मस्थलों के मामले को उठाने में और विलंब नहीं होना चाहिए। इस पर पार्टी के किसी भी नेता को बोलने से परहेज़ करने को लेकर आगाह नहीं किया गया।

भाजपा के अलावे, इस साल की शुरुआत से ऐसे कई घटनाक्रम और हुए हैं और हाल के हफ़्तों में इन मामलों में तेज़ी आयी है। सख़्त और बिना किसी योजना के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन को लागू करने के तीन हफ़्ते पहले वाराणसी में हिंदू संतों की एक छतरी संस्था, अखिल भारतीय संत समिति की बैठक आयोजित की गयी थी। उस बैठक में श्री काशी ज्ञानवापी मुक्ति यज्ञ समिति की स्थापना का फ़ैसला लिया गया।

जैसा कि नाम से ही साफ़-साफ़ पता चलता है कि इसका मक़सद विश्वनाथ मंदिर से सटे मस्जिद को हटाने के लिए आंदोलन छेड़ना है। इस अभियान में आरएसएस-विहिप की ग़ैर-भागीदारी का भ्रम प्रदान करने के लिए 1984 में गठित राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति की तर्ज पर इसे रंग-रूप दिया गया। विद्रोही तेवर वाले बीजेपी विधायक, सुब्रमण्यम स्वामी को इस नये संगठन का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

कार्यभार संभालने के बाद स्वामी ने कहा कि प्राचीन मंदिर की "मुक्ति और बहाली" हिंदू नवजागरण का एक मूलभूत हिस्सा है। " लेकिन, इससे पहले कि इस पर योजनायें तैयार की जातीं, महामारी का प्रकोप बढ़ गया और इसके साथ ही मामलों को टालना पड़ा।

फ़रवरी में एक दूसरे से शुरुआती मुलाक़ात के साथ ही मिलने जुलने का उस सिलसिले को शुरू करने वाले मथुरा में रह रहे संत, देश भर में अनलॉक की प्रक्रिया शुरू होने के बाद हिंदू पुरोहितों की गहन प्रतिस्पर्धा वाली दुनिया के भीतर मात खाना नहीं चाहते थे। 23 जुलाई को इन धार्मिक नेताओं की तरफ़ से श्री कृष्ण जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन ट्रस्ट की घोषणा की गयी।

अयोध्या में भूमिपूजन किये जाने के समय तक वाराणसी और मथुरा में मुस्लिम समुदाय को 'मौजूदा' तीर्थस्थलों से दूर करने की मांग औपचारिक रूप से की जा चुकी थी, हालांकि यह संघ परिवार के मंचों से नहीं की गयी। इसके बाद, ज़रूरत इस बात की थी कि इसे और अधिक प्रतिनिधित्व वाली संस्था बना दी जाये और दोनों धर्मस्थलों के सिलसिले में अभी किसी गुट को शामिल नहीं किया जाये। इसके पीछे का इरादा ज़्यादतर उन धार्मिक नेताओं को सामने लाने का था,जो आरएसएस और उसके सहयोगियों के 'क़रीब' हों।

इस महीने की शुरुआत में इलाहाबाद में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की बैठक इसी दिशा में हुई थी। अखाड़ा ख़ास तौर पर लड़ाके, पूरी तरह से अलोकतांत्रिक और स्वाभाविक रूप से पितृसत्तात्मक भाईचारे पर आधारित संस्था होता है और इन अखाड़ों के पास अकूत संसाधन और शक्ति है, जिन पर उनका नियंत्रण हैं।

अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष, नरेंद्र गिरि सबसे बड़े सियासी संतों में से एक हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,ख़ास तौर पर इसके प्रमुख मोहन भागवत के प्रशंसक के तौर पर जाने जाते हैं। उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण क़ानून को शुरू करने की ज़रूरत को हरी झंडी देने के लिए सरसंघचालक की लगातार तारीफ़ की है, उनके मुताबिक़ यह एक ऐसी मांग है,जिससे विरोधियों को उकसाये बिना एक ख़ास तबके का समर्थन हासिल किया जा सकेगा। वह उन विवादों के दौरान नियमित रूप से दखलंदाज़ी करते रहते हैं, जिन्हें लेकर हिंदुत्व समर्थकों का एक सख़्त रुख़ होता है।

वाराणसी-मथुरा के फ़ायदे देने वाले रथ पर गिरि की मौजूदगी ज़ाहिरी तौर पर आरएसएस की एक ऐसी चाल है,जिसके तहत एक अहम हैसियत वाला एक ऐसा शख़्स उसके पास है,जो औपचारिक तौर पर आरएसएस के मंच का हिस्सा नहीं है। इन दोनों धर्मस्थलों पर जो उभरती रणनीति है,वह अयोध्या के समान ही है।

इस साल जून में पुजारियों के एक दूसरे संगठन, विश्व भाद्र पुजारी पुरोहित महासंघ ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की है, जिसमें उस उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की धारा 4 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गयी है, जो 15 अगस्त, 1947 के बाद पूजा स्थल के धार्मिक स्वरूप में किसी भी तरह के बदलाव पर रोक लगाता है।

इस पुरोहित महासंघ ने अपनी उस याचिका में दावा किया है कि 1991 अधिनियम की उपरोक्त धारा “आक्रमणकारियों की उस कथित अवैध और बर्बर कार्रवाई की पुष्टि करती है, जिसमें हिंदू धर्म स्थलों को अलग धर्मस्थलों में रूपांतरित कर दिया गया था… यह धारा (क़ानून) हिंदू-मुस्लिम समुदाय के लोगों के बीच भेदभाव पैदा करती है।

ग़ौरतलब है कि इस 1991 अधिनियम को 2019 के सर्वसम्मत अयोध्या निर्णय में क़ानून के एक ऐसे हिस्से के रूप में संदर्भित किया गया था, जो "भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का प्रतिबिंबित करता है और प्रतिगामी तौर-तरीक़ों पर सख़्ती से रोक लगाता है।"

इसके अलावा, न्यायाधीश ने इस बात पर सहमति जतायी थी कि यह क़ानून "भारतीय संविधान के तहत धर्मनिरपेक्षता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को लागू करने वाला एक अनुल्लंघनीय इक़रारनामा है। इसलिए,यह क़ानून भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति की रक्षा के लिए बनाया गया एक विधायी उपाय है, जो संविधान की मूलभूत प्रकृति में से एक है।”

हालांकि,इस क़ानून को कई बार चुनौती दी गयी है और इस तरह की दलीलों को नामंज़ूर कर दिया गया है, लेकिन यह बात तय नहीं है कि शीर्ष अदालत अपनी मौजूदा प्रकृति में पूर्ववर्ती न्यायाधीशों के उस फ़ैसले का ख़्याल रख पायेगी। इस संभावना से चिंतित जमीयत उलमा-ए-हिंद ने कहा है कि अगर इस पर विचार किया जा सकता है,तो सुप्रीम कोर्ट इस याचिका के ख़िलाफ़ उसे लड़ने का मौक़ा दे।

जिस तरह विहिप ने ख़ुद को अयोध्या टाइटल सूट(ज़मीन के मालिकाना हक़ से जुड़े केस) में एक पार्टी के रूप में अभियोग चलाया था, वैसे ही इस बात की पूरी संभावना है कि यह संगठन वाराणसी और मथुरा पर इसी तरह की रणनीति का सहारा ले सकता है।

इसके अलावे, अखाड़ा परिषद ने वाराणसी और मथुरा में एफ़आईआर दर्ज करने के लिए अपनी बैठक में यह फ़ैसला भी ले लिया कि अतीत में हिंदू मंदिरों को मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किया गया है। निश्चित रूप से यह एक आपराधिक मामले, क़ानूनी उपायों की तलाश और बेशक जन आंदोलन से जुड़ा एक बहु-आयामी नज़रिया है।

संघ परिवार भी यह मानता है कि अयोध्या के मुक़ाबले वाराणसी और मथुरा को लेकर 'बेहतर स्थिति’है, क्योंकि किसी मौजूदा मंदिर को तोड़ने के बाद बनायी गयी मस्जिद को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक राय नहीं दी है।

ये कारक और हालिया घटनाक्रम आने वाले सालों में बढ़ती अशांति की ओर इशारा करते हैं। इस सांप्रदायिक कड़ाह को उबलते हुए इसलिए रखा जायेगा,क्योंकि यह लोगों की आजीविका की उन बुनियादी चिंताओं से ध्यान हटाने में मदद करता है,जो कोविड-19 महामारी के अकुशल प्रबंधन के चलते और गहरी हो गयी हैं।

लेखक दिल्ली स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं। द डिमोलिशन: इंडिया एट द क्रॉसरोड,1994 में प्रकाशित उनकी पहली किताब है। वह फ़िलहाल इसी मुद्दे पर एक नयी किताब पर काम कर रहे हैं। इनका ट्विटर अकाउंट @NilanjanUdwin है। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
https://www.newsclick.in/Ayodhya-Dispute-Settled-Sangh-Parivar-Inches-Kashi-Mathura

 

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