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अयोध्या का भूमिपूजन भारत के लोकतंत्र का बहुसंख्यकवाद में बदल जाने का सबसे बड़ा गवाह है
भारतीय संस्कृति के सबसे अहम नायकों में से एक श्री राम अचानक से 20वीं शताब्दी के अंतिम चार दशकों में भारतीय बहुसंख्यकवाद के प्रतीक बन गए। इस पूरे प्रकरण में भाजपा को जमकर फायदा हुआ। उसकी राजनीति चमकी और पकड़ मजबूत हुई। और भारतीय समाज तमाशबीन समाज में बदलते हुए खुद को सांप्रदायिक बनाता चला गया।
अजय कुमार
05 Aug 2020
ayodhya

श्री राम केवल नाम नहीं है। भारतीय संस्कृति के सबसे अहम नायकों में से एक हैं। एक पूरी जीवनशैली हैं, जिससे भारतीय समाज जीवन मूल्य सीखने का दावा करता है। लेकिन यह दावा झूठा है। इसका सबसे बड़ा उदहारण है। बाबरी मस्जिद विध्वंस। जो आने वाले समय में पूरी तरह से इतिहास में कैद होने जा रहा है और उस जगह पर श्री राम मंदिर बनने जा रही है।  

भारतीय संस्कृति के सबसे अहम नायकों में से एक श्री राम अचानक से 20वीं शताब्दी के अंतिम चार दशकों में भारतीय बहुसंख्यकवाद के प्रतीक बन गए। इसका परिणाम यह निकला कि हिंदुस्तान का समाज पूरी तरह से हिन्दू-मुस्लिम दीवार में बंट गया। और भाजपा नामक पार्टी भारतीय राजनीति पार्टी बनकर उभरी। इस पार्टी ने अपने प्रतीकों में श्री राम का जमकर इस्तेमाल किया। ऐसा इस्तेमाल जो श्री राम के जीवन मूल्यों से बिलकुल उलटा था। इस पूरे प्रकरण में भाजपा को जमकर फायदा हुआ। उसकी राजनीति चमकी और पकड़ मजबूत हुई। और भारतीय समाज तमाशबीन समाज में बदलते हुए खुद को सांप्रदायिक बनाता चला गया।  

साल 1885 में पहली बार कण-कण में समाय श्री राम को एक मंदिर में कैद करने की कवायद उठ खड़ी होती है। ईसा पूर्व से पहले जन्मे श्री राम के जन्म को अयोध्या में केंद्रित करने की कोशिश की जाती है। साल 1949 में चुपके से बाबरी मस्जिद के अंदर मूर्तियां रख दी जाती हैं। अस्सी के दशक से अयोध्या विवाद, अयोध्या आन्दोलन और राम मंदिर आन्दोलन तूल पकड़ना शुरू होता है।

कहने वाले कहते हैं कि भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद सबसे अधिक गोलबंदी रामजन्म भूमि के लिए हुई थी। जेपी आंदोलन से भी ज़्यादा। विडंबना यह रही कि भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद भारत को आजादी मिली थी और छह दिसम्बर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भारत भीषण बहुसंख्यकवाद या हिन्दुत्ववादी उग्र राजनीति का शिकार होता चला गया।

इसके बाद हुआ ये कि 1980 में अपनी स्थापना के बाद 1984 में केवल 2 लोकसभा सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने भारतीय राजनीति में अपने पैर जमाने शुरू दिए। कहने के लिए आन्दोलन राम मन्दिर बनाने के नाते सांस्कृतिक प्रकृति का था लेकिन इसके इरादे पूरी तरह से राजनीतिक थे और धर्म के नाम पर आसानी से ध्रुवीकरण करने के थे। ताकि सत्ता के शिखर तक पहुंचा जा सके।

इस मुद्दे को आग बनाने का काम जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठन विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और भाजपा ने किया था, वहीं इस मुद्दे के लिए आधार का काम कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार पहली ही कर चुकी थी। इस तरह से भारत में हिंदुत्व की राजनीति के उभार के लिए अगर भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों को दोष देना सही है तो कांग्रेस को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है।

29 जनवरी 1989 को विश्व हिन्दू परिषद ने कुम्भ मेले के दौरान ‘राम जन्मभूमि की मुक्ति’ का संकल्प लिया। यानी बाबरी मस्जिद को हटाकर पूरी तरह राम मंदिर बनाने का संकल्प। विश्व हिन्दू परिषद ने अपील किया कि शहर और गाँव का प्रत्येक हिन्दू रामशिला यानी राम नाम से लिखी हुई ईंट लेकर अयोध्या पहुंचे। इस प्रस्ताव ने हिन्दू जनमानस के बीच उन्माद की तरह काम किया।

आम लोगों से लेकर पढ़े लिखे लोगों तक राममंदिर के उन्माद में बहते चले गए। विश्व हिन्दू परिषद के इन कोशिशों के विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने हिफाजती दस्ता संगठित किया। विश्व हिन्दू परिषद के इरादों का विरोध करने के लिए हजारों मुस्लिमों ने अपनी गिरफ्तारियां दीं।

1989 में भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन में विश्वनाथ प्रताप की सरकार आई। भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने राम मन्दिर बनवाने के लिए सरकार पर दबाव डालना शुरू किया। इस दबाव को कम करने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की उन सिरफारिशों को लागू करवाने का फैसला ले लिया जिसके तहत अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देने की सलाह दी गयी थी।

मंडल की इस राजनीति से कथित ऊंची सवर्ण जातियों से जुड़ी हुई भाजपा परेशान हो गई और राम मन्दिर के नाम पर खुलकर सामने आने लगी। यानी भारतीय राजनीति में मंडल और कमंडल की राजनीति की हवा चलने लगी। उस समय बीजेपी की राजनीति के दो बड़े चेहरे थे अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी। आडवाणी को जहां उग्र हिन्दुत्व के तौर पर स्थापित किया गया वहीं अटल को साफ्ट हिन्दुत्व के तौर पर और इस प्रकार बीजेपी या कहें कि उसके पितृ संगठन आरएसएस ने अपनी पकड़ बढ़ानी शुरू की।

मंदिर मुद्दे को लेकर लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की रथयात्रा शुरू कर दी। हालांकि लालू यादव की सरकार ने बिहार के समस्तीपुर में इस रथ यात्रा को रोक दिया और लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन भावुक हिंदुत्व के नाम पर लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की। इस समय भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सरकार को दिए गये समर्थन को वापस ले लिया। उसके बाद कांग्रेस के समर्थन में कुछ दिनों तक चंद्रशेखर की सरकार चली और बाद में कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने के बाद वह सरकार भी गिर गयी।

इसके बाद दसवें लोकसभा चुनाव हुए और भाजपा को राम जन्मभूमि मुद्दे की वजह से जमकर कामयाबी मिली। भाजपा को संसद के कुल 120 सीटों पर हिस्सेदारी मिली। इसी समय हिन्दुत्वादीयों की राजनीति उत्तर प्रदेश में शिखर पर पहुंची और उत्तर प्रदेश में पहली बार कल्याण सिंह की अगुवाई में भाजपा की सरकार बनी। इसी राजनीतिक फायदे को और भुनाने के लिए भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े लोगों ने 6 दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दी।

इसके बाद से भारतीय राजनीति भाजपा और कांग्रेस के इर्द गिर्द घुमने लगी। भाजपा ने एक सुनियोजित रणनीति के तहत स्वेदशी की जगह उदारीकरण और बाजार के औजारों का अपने फायदे के लिए जमकर इस्तेमाल किया, लेकिन वोट बटोरने के लिए और अपनी वैचारिक स्थिति को मजबूत करने के लिए हिंदुत्व के भीतर राम मंदिर बनाने के आग्रह को कभी नहीं छोड़ा।

इसके बाद हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद की राजनीति को खुलकर बोलने का मंच मिल गया। कांग्रेस के किसी बात के विरोध में गरीबी, भुखमरी, शिक्षा, रोजगार और सेहत से जुड़े मसले उठने चाहिए थे लेकिन भाजपा के मंच पर होने की वजह से ऐसे मसले उठे जिसमें बहुसंख्यकवादी आग्रह था, साम्प्रदायिकता के सहारे वोटबैंक बनाने की रणनीति थी और विकास के नाम पर बाजार को पूरी तरह से छूट देने की कोशिश थी ताकि सत्ता पाने के लिए पैसे की कमी कभी न रहे। कांग्रेस के भ्रष्टाचर के सामने यह रणनीति बहुत अच्छे तरीके से काम कर रही थी।

मनमोहन सरकार की नाकामियों के अलावा हिन्दुत्वादी आग्रह और पैसे के दम पर किए गए प्रचंड प्रचार के बल पर साल 2014 में भारत नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने। भारत की दबी हुई साम्प्रदायिकता खुलकर सामने आने लगी। हिन्दू मुस्लिम दीवारें बढ़नें लगीं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम होने की बजाए लोगों को डराने के लिए इस्तेमाल किये जाने लगे। भीड़ हिंसा के लिए हथियार बनकर काम करने लगे।

 अपनी सरकार की तमाम नाकामियों के बाद भी इन सब भावनाओं के समेटते हुए कमजोर विपक्ष के दम पर साल 2019 में भाजपा फिर सत्ता में आ गयी। भारतीय लोकतंत्र का सबसे खराब दौर शुरू हुआ। कई टिप्पणीकारों ने कहा कि अघोषित आपातकाल लग गया है, संस्थाओं से लेकर प्रसाशन तक मीडिया से लेकर न्यायलय तक सब सरकार के पाले की तरफ झुक गए हैं। वही होना शुरू हुआ जो सरकार ने चाहा। सुप्रीम कोर्ट ने अहम मामलों में कुछ ऐसे फैसले दिए जो सरकार के पक्ष में झुके हुए लगे।  

बाबरी मस्जिद मामले में ऐसा फैसला सुनाया गया जो तमाम विरोधाभासों से भरा था। बहुत लोगों ने इसे फ़ैसला माना, इसांफ़ नहीं। जानकारों ने कहा कि श्री राम पर ऐसा फैसला सुनाया गया जिसकी मनाही श्री राम के सहारे सिखाया जाने वाला जीवन मूल्य करता है।

सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि केस के 1045 पेज के जजमेंट में पैराग्राफ 795 से लेकर 798 तक के फैसले का सार लिखा। अर्थ न बदलते हुए थोड़ा सुप्रीम कोर्ट के फैसले को समझते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि संविधान किसी भी धर्म के विश्वास और आस्थाओं के साथ भेदभाव नहीं करता है। दिक्कत आने पर जज संविधान की व्याख्या करते हैं। लेकिन सबसे ऊपर नागरिक होते हैं जो इन से जुड़े होते हैं, जिनके जीवन का धर्म अभिन्न हिस्सा होता है। यहां पर अंतिम लाइन से आप काफी कुछ समझ सकते हैं।
इस मामले में कोर्ट को ज़मीन के मालिकाना हक़ का फैसला करना था। कोर्ट जमीन के मालिकाना हक का फैसला दस्तावेजों तथ्यों के आधार पर करता है। आस्थाओं के आधार पर नहीं। यानी सुप्रीम कोर्ट अपनी दूसरी ही बात में अपनी पहली बात को काट रहा है। जहां वह कह रहा है कि धर्म नागरिकों के जीवन का अभिन्न हिस्सा होता है और नागरिक सबसे ऊपर हैं।

इसके साथ सुप्रीम कोर्ट खुद स्वीकारता है कि एएसआई की रिपोर्ट के मुताबिक बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे की नीचे कुछ मलबा मिले हैं, यह मलबे हिंदू मंदिर की संरचना जैसे लगते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं यह राम मंदिर था और इसे हमलावरों ने तोड़ दिया था। यानी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक ऐसा तथ्य निकल कर सामने नहीं आता है जो यह कहे कि बाबरी मस्जिद के नीचे कोई राम मंदिर था। इसके साथ सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले में साफ साफ कहता है कि साल 1949 में मंदिर के अंदर मूर्तियों का रखना गैरकानूनी था और बाबरी मस्जिद को ढहाना भी अपराधिक कृत्य था। यह सब कहने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट का फैसला मंदिर बनाने के पक्ष की तरफ जाता है।

 आसान शब्दों में ऐसे समझिए कि सुप्रीम कोर्ट के पूरे फैसले के तर्क इस बात के पक्ष में हैं कि मंदिर बनाने के हक में फैसला नहीं जाना चाहिए लेकिन अंतिम फैसला ऐसा है की मंदिर बनाने का रास्ता साफ हो जाता है। और सुप्रीम कोर्ट साफ-साफ कहता है कि "क्योंकि गलत तरीके से उन्हें मस्जिद से बाहर किया गया था इसलिए न्याय और संतुलन बनाए रखने के लिए मुस्लिमों को मस्जिद बनाने के लिए अलग जमीन दिए जाने का निर्देश दिया जाता है। "

राजनीतिक विशेषज्ञ सुहास पलशिकर इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि इस फैसले ने राम जन्मभूमि आंदोलन के सभी कार्रवाइयों को मान्यता प्रदान कर दी। इस फैसले ने केवल राम जन्मभूमि आंदोलन को मान्यता नहीं दी बल्कि इस पक्ष द्वारा लड़ी जा रही ऐतिहासिक और वैचारिक लड़ाई को मान्यता दे दी। और यह भी ऐसा स्तंभ है जो भारत में बदलते गणतंत्र के चरित्र को दिखाता है। अंततः भारत का गणतंत्र बहुसंख्यको के उग्र व्यवहार से निर्धारित होने लगा है। यह अचानक नहीं हुआ है। इसमें भाजपा के तकरीबन 40 साल लगे हैं। इसमें केवल भाजपा ही शामिल नहीं है बल्कि कांग्रेस भी शामिल है। भारतीय गणतंत्र को आजादी के बाद यही खतरा था कि क्या उसका हिंदू बहुसंख्यक उसे लोकतंत्र की तरफ चलने देगा या उसे रोक लेगा। राम जन्मभूमि आंदोलन पर लगी सुप्रीम कोर्ट की मोहर ने यही साबित किया है कि भारत का लोकतंत्र उसके बहुसंख्यक मांग के नीचे दब चुका है।

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