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बिहार ही नहीं पूरे देश में बीमार है स्वास्थ्य सेवा!
देश में बड़ी संख्या में मौत स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से हो रही है फिर भी ये सरकारों की प्राथमिकता में यह नहीं है?
मुकुंद झा
22 Jun 2019
बिहार ही नहीं पूरे देश में बीमार है स्वास्थ्य सेवा!

बिहार के मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत का सिलसिला थम नहीं रहा है। यहां एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (चमकी बुखार) के चलते बच्चों की मौत के बढ़ते मामलों की रिपोर्ट पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने केंद्र और बिहार सरकार को नोटिस भेजकर जवाब माँगा।

लेकिन क्या सिर्फ बिहार में बच्चे ख़राब सुविधा के कारण मर रहे हैं? इसका जबाब है नहीं।

आज देश में सरकारी अस्पतालों ठीक से सुविधा न मिलने के कारण बिहार के अलावा अन्य राज्यों में भी लोग मर रहे हैं। यहाँ तक देश की राजधानी दिल्ली में भी कल, शुक्रवार को एक बच्ची की मौत आईसीयू में बेड न मिलने से हुई है। ये सब दिखाता है कि भारत की स्वास्थ्य सेवाएं खुद ICU में हैं? इतनी संख्या में मौत स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से हो रही है फिर भी ये सरकारों की प्राथमिकता में यह नहीं है?

मेडिकल जर्नल, द लैंसेट में प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया है कि स्वास्थ्य सेवा की पहुंच न होने के कारण और स्वास्थ्य देखभाल की खराब गुणवत्ता के कारण मृत्यु बहुत अधिक हैं।

ग्लोबल बर्डन ऑफ डिसीज अध्ययन के अनुसार 2016 में भारत में 2.4 मिलियन (24 लाख) से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई, जिनका इलाज हो सकता था। 

अध्ययन में कहा गया है कि 24 लाख में लगभग 16 लाख लोग यानी 66%, स्वास्थ्य सेवाओं की खराब गुणवत्ता के कारण मर गए, जबकि 8,38,000 लोगों की मृत्यु स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग न करने के कारण हुई ।

मोदी सरकार के तमाम दावों और वादों के बाद भी देश की स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल नजर आती हैं। साल में प्रति व्यक्ति सिर्फ 1,112 रुपये के साथ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में से एक है।

इस  रिपोर्ट ने भी इस बदहाली पर मुहर लगा दी है। इसमें कहा गया है कि भारत में 11,082 लोगों पर महज एक डॉक्टर है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में यहां जीडीपी का महज एक फीसदी खर्च किया जाता है, जो वैश्विक औसत 6% से बहुत कम है। यहां तक कि डब्ल्यूएचओ जीडीपी के कम से कम 5% सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्च की सिफारिश करता है। भारत पड़ोसी देशों मालदीव, भूटान, श्रीलंका और नेपाल के मुकाबले भी कम खर्च करता है। देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हर साल प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन महज़ तीन रुपये खर्च किए जाते हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक, देश में डॉक्टरों की भारी कमी है। फिलहाल प्रति 11,082 आबादी पर महज एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के तय मानकों के मुताबिक यह अनुपात प्रति एक हजार (1:1000) होना चाहिए यानी कम से कम एक हज़ार व्यक्तियों पर एक डॉक्टर, परन्तु देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है। बिहार जैसे पिछड़े राज्यों में तो स्थित और भयावह है। वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक डॉक्टर है। उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ का हाल भी कुछ बेहतर नहीं है।

गोवा सबसे बेहतर, असम सबसे पिछड़ा है

64.8 अंकों के साथ गोवा और 63.9 अंकों के साथ केरल ने भारतीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के बीच सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। अन्य शीर्ष राज्यों में दिल्ली (56.2) और हिमाचल प्रदेश (51.7) हैं। सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले छत्तीसगढ़ और झारखंड (34.7), बिहार (37), ओडिशा (36.3), उत्तर प्रदेश (34.9) और असम (34) हैं।

मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे। इनमें से सिर्फ 1.2 लाख डॉक्टर ही सरकारी अस्पतालों में हैं। बीते साल सरकार ने संसद में बताया था कि निजी 8.18 लाख और सरकारी 1.2 लाख अस्पतालों में काम करने वाले लगभग 10 लाख डाक्टरों को ध्यान में रखें तो देश में डॉक्टर और मरीजों का अनुपात 1:1,612 हो सकता है। लेकिन यह तादाद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुकाबले कम ही है। इसका मतलब है कि तय मानक पर खरा उतरने के लिए देश को फिलहाल और पांच लाख डॉक्टरों की जरूरत है। लगातार बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए यह खाई हर साल तेजी से बढ़ रही है।

ऐसा नहीं केवल देश के पिछड़े ग्रामीण इलाकों के सरकारी अस्पतालों में ही डॉक्टरों की कमी है। देश में सबसे बेहतर समझे जाने वाले एम्स भी डॉक्टरों की भरी कमी से जूझ रहा है।  

एम्स में भी डाक्टरों की कमी

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री, अश्विनी कुमार चौबे के अनुसार, 1,042 की स्वीकृत पदों के मुकाबले 670 संकाय चिकित्सक (फैकल्टी डॉक्टर) वर्तमान में काम कर रहे हैं। मंत्री जी ने शुक्रवार 21 जून को लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए यह जानकारी दी । 

मंत्री अश्विनी कुमार चौबे के अनुसार, भोपाल, भुवनेश्वर, जोधपुर, पटना, रायपुर, ऋषिकेश, मंगलागिरी, नागपुर, कल्याणी, रायबरेली में नए एम्स में संकाय डॉक्टरों के लिए 2,395 स्वीकृत पदों में से केवल 1,031 पद ही भरे हैं,  जहाँ 1,364 के पद खाली हैं, यानी 56.95% पद खाली हैं। इन 9 एम्स में से छह चल रहे हैं- भोपाल, भुवनेश्वर, जोधपुर, पटना, रायपुर और ऋषिकेश।  इन एम्स भी में, 47.49% डॉक्टरों के पद खाली हैं। 

नौ एम्स में, सीनियर रेजिडेंट के लिए स्वीकृत 2,002 पदों में से 850 यानी 42.46% सीटें खाली रह गई हैं। जूनियर रेजिडेंट्स के लिए 1,814 स्वीकृत पदों में से 509, यानी 28.06% सीटें खाली हैं। छह चालू एम्स के में भी,  सीनियर रेजिडेंट्स और जूनियर रेजिडेंट्स के लिए रिक्त पदों का प्रतिशत क्रमशः 42.41% और 27.85% है।

स्वास्थ्य राज्यमंत्री ने कहा कि एम्स दिल्ली में, कुल 90 सहायक प्रोफेसर, 2,270 सीनियर रेजिडेंट्स और 2617 जूनियर रेजिडेंट्स पिछले तीन वर्षों के दौरान नियुक्त किए गए हैं। छह अन्य एम्स में, 2018 में कुल 2,771 डॉक्टर नियुक्त किए गए थे।

एक तरफ देश में पर्याप्त सरकारी अस्पताल नहीं हैं, और जो हैं भी उनका खुद का स्वास्थ्य ख़राब है। सरकार द्वारा निवेश की कमी के कारण अधिकांश सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली ठीक से काम नहीं करती हैं। निजी अस्पतालों में सेवाएं कुछ बेहतर भी हैं तो लेकिन वहां उसके लिए इतनी भारी राशि का भुगतान करना पड़ता है कि वो आम जनता के पहुँच से बाहर रहती है।

सरकार के खुद के आकड़े बताते की देश की स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बेहद ही चिंताजनक स्थिति में है। अभी भी सरकारों को इस दिशा में सकारत्मक कार्रवाई करनी चाहिए। 5 जुलाई को केंद्र सरकार अपना बजट पेश करने जा रही है। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि इस बार सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में बजट बढ़ाएगी।

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