NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
राजनीति
अर्थव्यवस्था
ब्याज दरों में कमी आर्थिक संकट का समाधान नहीं
कारोबारी अपना माल बेच नहीं पा रहे हैं। यानी बिक्री की कमी वजह से उनकी कमाई कम हो रही है। कमाई कम होने की वजह से बैंकों से लिए गए कर्ज का भुगतान उनपर बोझ की तरह बढ़ता जा रहा है। बैंक दरों में ब्याज की कमी की वजह से उनका यह बोझ कम होगा न कि बिक्री बढ़ेगी और आर्थिक संकट का सामाधान होगा।
मुकेश असीम
16 Oct 2019
rbi repo rate

गत एक वर्ष में रिजर्व बैंक ने 5 बार में ब्याज दर में कुल 1.35% की कटौती की है। साथ ही आगे और कटौती का इशारा करते हुये कह दिया है कि जब तक जरूरत हो ब्याज दरों में कटौती का सिलसिला जारी रहेगा। यह वह ब्याज दर है जिस पर रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों को उधार देता है। साथ ही रिजर्व बैंक ने यह भी कहा कि बैंकों को उधार देने में अपने हाथ खुले रखेगा। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में जारी संकट से वित्तीय व्यवस्था को बचाने के लिये भी सभी जरूरी कदम उठाने का भी भरोसा दिया गया है। उधर यूरोपीय केंद्रीय बैंक व अमेरिकी फेडरल रिजर्व भी ब्याज दर घटाने की शृंखला जारी रखे हुये हैं।

जब भी कहीं आर्थिक संकट होता है पूंजीपति वर्ग की सबसे बड़ी माँग दो ही होती हैं। एक, ब्याज दर कम करना और दो, इस सस्ती ब्याज दर पर भारी मात्रा में नकदी उपलब्ध कराना। इसके पीछे तर्क है कि सस्ते ब्याज पर खूब कर्ज मिलने से व्यवसायी पूंजी निवेश बढ़ाएंगे, जिससे रोजगार सृजन होगा। फिर सस्ते ब्याज वाले कर्ज और जमा पर कम ब्याज मिलने से उपभोक्ता भी पैसा बैंक में रखने के बजाय उपभोग बढ़ाएंगे तथा कर्ज लेकर घर, कार, उपभोक्ता माल खरीदेंगे। इससे माँग का विस्तार होकर अर्थव्यवस्था में उछाल आयेगा। पर क्या वास्तव में ऐसा होता है? 

इसको सही से समझने के लिये पहले पूंजीवादी व्यवस्था में बैंक कर्ज से जुटाई पूंजी की भूमिका को समझना बेहद जरूरी है। दरअसल आज कोई भी व्यवसाय बैंक पूंजी के पृष्ठपोषण के बिना विस्तार नहीं कर सकता, बहुत से लोगों से शेयर पूंजी जुटाने वाली जाइंट स्टॉक कंपनियाँ भी नहीं - रिलायंस जैसी कंपनी का टेलीकॉम और खुदरा क्षेत्र में विस्तार भी बैंक पूंजी की मदद से ही हो रहा है और पिछले वित्तीय वर्ष में ही उसने 67 हजार करोड़ रु नया कर्ज लिया है। 
पर बैंक यह काम कैसे करते हैं? एक, वे पहले उद्योग में लगने वाली स्थायी पूंजी के लिये कर्ज देते हैं जिससे जमीन-इमारत बनती है, मशीनें खरीदी जाती हैं, उत्पादन में प्रयुक्त कच्चे माल और श्रम शक्ति के लिये शुरुआती अग्रिम मिलता है। फिर उत्पादन क्रम को गतिशील बनाये रखने के लिये चालू पूंजी (working capital) देते हैं। तीसरे, बना माल बाजार पहुँच सके इसके लिये डीलरों-दुकानदारों को व्यापारिक पूंजी देते हैं। चौथे, माल खरीदने के लिये उपभोग ऋण (कार, बाइक, टीवी-फ्रिज से शुरू कर शादी-बीमारी, कॉलेज डिग्री और टूर पैकेज तक सब कुछ खरीदने के लिये मासिक किश्तों पर कर्ज उपलब्ध है!) फिर, शेयर, जिंस और जमीन-मकान में सट्टेबाजी भी बैंक कर्ज से ही चलती है।

अगर बैंक पूंजी की उपलब्धता किसी भी कदम पर कम हो तो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को चलाने वाला खरीद-बिक्री का चक्का थम जाता है। पहले बैंकों, अब गैर बैंक वित्तीय कंपनियों के डूबते कर्जों की वजह से यही हो रहा था। इसके लिये एक और तो सरकार लगातार सरकारी बैंकों में पूंजी झोंक रही है; दूसरी ओर, रिजर्व बैंक उन्हें सस्ते ब्याज पर फंड उपलब्ध करा रहा है। डॉलर स्वैप और सरकारी प्रतिभूति खरीद के जरिये यह काम पहले भी जारी था, अब और तेज होगा। पर क्या इससे अर्थव्यवस्था का संकट सुलझेगा? उसके लिये इसके और पक्ष भी समझने होंगे। 

बैंक उद्योगों को पूंजी क्यों देता है? पहले एक सरल उदाहरण से बैंक का व्यवसाय समझते हैं। मान लें बैंक की अपनी पूंजी 10 हजार रु है, 90 हजार रु वह जमा राशि से जुटाता है। जमा पर औसत ब्याज 7% है। इस एक लाख को कर्ज देकर उसे औसत 10% ब्याज मिलता है तो उसकी बचत 3700 रु हुई। अगर इसमें कामकाज का खर्च 1700 रु मान लें तो उसे 2000 रु बचे। लेकिन क्या उसकी मुनाफा दर 2% ही है? नहीं। क्योंकि उसकी अपनी पूंजी तो 10 हजार ही है अर्थात 20% मुनाफा। यहाँ सरलता के लिए हमने शुल्क की आमदनी तथा डूबे कर्ज होने वाली से हानि दोनों को गणना से बाहर छोड़ दिया है। 

लेकिन उद्योग मालिक कर्ज पर ब्याज कहाँ से देता है? अर्थव्यवस्था में नया मूल्य सिर्फ उत्पादन प्रक्रिया में जुड़ता है और उसे जोड़ता है उत्पादन में लगा श्रम। मानव श्रमशक्ति का ही गुण है कि उसके खुद के उत्पादन अर्थात जीवनयापन में जितना खर्च आता है वह उससे अधिक मूल्य उत्पादित कर सकता है। पूंजीपति श्रमशक्ति को उसके जीवनयापन के न्यूनतम खर्च पर खरीदता है और उससे अधिकतम काम कराकर उस से अधिक मूल्य पैदा कराता है। यही अतिरिक्त या अधिशेष या बेशी मूल्य सारी धन-दौलत का मूल है। यह अधिशेष मूल्य कहाँ जाता है? मालिक का मुनाफा, बैंक का ब्याज, जमीन-मकान का भाड़ा, माल बेचने वाले व्यापारी का कमीशन, यातायात का मालभाड़ा, उत्पादन के अतिरिक्त वाले कर्मचारियों का वेतन, सरकार को मिलने वाले टैक्स - ये सब इसका ही हिस्सा हैं। 
लेकिन इस बँटवारे के पहले जरूरी है कि उत्पादन में पैदा यह अधिशेष मूल्य बिक्री के जरिये मुद्रा या रुपये में बदल लिया जाये। अगर बड़े बैंक कर्ज से उद्योग में लगी भारी पूंजी से बढ़ाया गया उत्पादन बाजार में पूरा न बिक पाये, क्योंकि बहुत से पूँजीपतियों ने ऐसा ही किया है, तब अति-उत्पादन का संकट पैदा हो जाता है।
अनबिके माल से बाजार अटने लगते हैं, कारखाने बंद होने लगते हैं। माल अगर बिका नहीं, तो अधिशेष मूल्य मुद्रा में बदला नहीं! मुद्रा में बदला नहीं तो मुनाफा गिर गया! बैंक का ब्याज कहाँ से आए? यहीं से बैंकों का कर्ज डूबता है। उद्योग सरकार से राहत मांगते हैं। इनमें से एक राहत है ब्याज दर कम करना - उद्योग को मुनाफा कम है तो पूंजी अग्रिम देने वालों को भी कम ब्याज ही दे सकता है। तब बैंक क्या करेगा? अपने जमा कर्ताओं को ब्याज कम देगा, क्योंकि जमा पर मिलने वाला ब्याज अंत में उद्योग में लगी श्रम शक्ति की लूट से ही आता है। 

नवउदारीकरण के दौर में बैंक ऋणों में विस्तार,उद्योगों में भारी पूंजी निवेश, रोजगार सृजन में कमी, मुनाफा दर में गिरावट, ब्याज दरों के इसी तरह कम होते जाने का इतिहास है। 25 साल पहले भारत में कर्ज पर ब्याज दर 16-20% और जमा पर 12-14% थी। अब औसतन 10% व 6% है। जापान में तो ब्याज दरें पिछले 20 वर्षों से शून्य से नीचे हैं किंतु उसकी अर्थव्यवस्था में मंदी आजतक समाप्त ही नहीं हुई। यूरोप-अमेरिका में भी कई देशों में शून्य से नीचे या अधिकतम 2% तक हैं। आर्थिक संकटग्रस्त ग्रीस में 10 वर्षीय राजकीय बॉन्ड पर ब्याज दर 1.5% है जबकि भारत में 6.71%, किंतु ग्रीस अर्थव्यवस्था का संकट दूर नहीं हुआ।

वास्तविकता यह है कि जब तक बाजार में माँग न हो और उद्योग स्थापित उत्पादन क्षमता से भी नीचे काम कार रहे हों, जैसा अभी भारत में हो रहा है, तो वे सस्ता कर्ज लेकर भी पूंजी निवेश नहीं कर सकते। उधर रोजगार सृजन व आय में वृद्धि होने की संभावना न होने पर उपभोक्ता भी नए ऋण लेने का जोखिम लेने के बजाय अपने उपभोग की मात्रा को कम करते हैं। घर, कार, टीवी, आदि सभी तरह के स्थायी व रोज़मर्रा के उपभोग की सामग्री की बिक्री में कमी की वजह यही है। इस स्थिति से बाहर निकलने का एक ही रास्ता होता है कि कुछ कमजोर पूंजीपति दिवालिया होकर बाजार से बाहर हो जायें ताकि उनके हिस्से का बाजार प्राप्त कर बाकी का कारोबार फिर चल सके।  
 
असल में जैसा हमने ऊपर देखा ब्याज दर कम करना मुनाफे की गिरती दर के संकट का नतीजा है, इसका समाधान नहीं। न ब्याज दर कम करने से पहले कभी अर्थव्यवस्था के संकट का कोई समाधान हुआ है, न अब होगा। इसीलिए भारत में भी ब्याज दरों में लगातार कटौती के बाद भी वृद्धि दर गिरती ही जा रही है। हाँ इसका एक असर होगा कि बहुत से मध्यमवर्गीय लोग, खास तौर पर सेवानिवृत्त लोग, जो बचत पर मिलने वाले बैंक ब्याज को अपने जीवनयापन का आधार मान रहे थे उनके जीवन में संकट बहुत तेजी से बढ़ने वाला है क्योंकि पूंजीपति वर्ग अब इतना अधिशेष उत्पन्न नहीं कर पा रहा है कि उन्हें उसमें से एक हिस्सा दे सके। 
 

bank repo rate
RBI
bank work
capitalist economy
capital and owner
surplus of bank

Related Stories

लंबे समय के बाद RBI द्वारा की गई रेपो रेट में बढ़ोतरी का क्या मतलब है?

आम आदमी जाए तो कहाँ जाए!

रिपोर्टर्स कलेक्टिव का खुलासा: कैसे उद्योगपतियों के फ़ायदे के लिए RBI के काम में हस्तक्षेप करती रही सरकार, बढ़ती गई महंगाई 

आज़ादी के बाद पहली बार RBI पर लगा दूसरे देशों को फायदा पहुंचाने का आरोप: रिपोर्टर्स कलेक्टिव

RBI कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे: अर्थव्यवस्था से टूटता उपभोक्ताओं का भरोसा

नोटबंदी: पांच साल में इस 'मास्टर स्ट्रोक’ ने अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया

तबाही मचाने वाली नोटबंदी के पांच साल बाद भी परेशान है जनता

नोटबंदी की मार

तत्काल क़र्ज़ मुहैया कराने वाले ऐप्स के जाल में फ़ंसते नौजवान, छोटे शहर और गाँव बने टार्गेट

सरकारी आंकड़ों में महंगाई हो गई कम, ग़रीब जनता को एहसास भी नहीं हुआ! 


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    लॉकडाउन-2020: यही तो दिन थे, जब राजा ने अचानक कह दिया था— स्टैचू!
    27 Mar 2022
    पुनर्प्रकाशन : यही तो दिन थे, जब दो बरस पहले 2020 में पूरे देश पर अनियोजित लॉकडाउन थोप दिया गया था। ‘इतवार की कविता’ में पढ़ते हैं लॉकडाउन की कहानी कहती कवि-पत्रकार मुकुल सरल की कविता- ‘लॉकडाउन—2020’।
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    लीजिए विकास फिर से शुरू हो गया है, अब ख़ुश!
    27 Mar 2022
    ये एक सौ तीस-चालीस दिन बहुत ही बेचैनी में गुजरे। पहले तो अच्छा लगा कि पेट्रोल डीज़ल की कीमत बढ़ नहीं रही हैं। पर फिर हुई बेचैनी शुरू। लगा जैसे कि हम अनाथ ही हो गये हैं। जैसे कि देश में सरकार ही नहीं…
  • सुबोध वर्मा
    28-29 मार्च को आम हड़ताल क्यों करने जा रहा है पूरा भारत ?
    27 Mar 2022
    मज़दूर और किसान आर्थिक संकट से राहत के साथ-साथ मोदी सरकार की आर्थिक नीति में संपूर्ण बदलाव की भी मांग कर रहे हैं।
  • अजय कुमार
    महंगाई मार गई...: चावल, आटा, दाल, सरसों के तेल से लेकर सर्फ़ साबुन सब महंगा
    27 Mar 2022
    सरकारी महंगाई के आंकड़ों के साथ किराना दुकान के महंगाई आकड़ें देखिये तो पता चलेगा कि महंगाई की मार से आम जनता कितनी बेहाल होगी ?
  • जॉन पी. रुएहल
    क्या यूक्रेन मामले में CSTO की एंट्री कराएगा रूस? क्या हैं संभावनाएँ?
    27 Mar 2022
    अपने सैन्य गठबंधन, सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (सीएसटीओ) के जरिये संभावित हस्तक्षेप से रूस को एक राजनयिक जीत प्राप्त हो सकती है और अपने अभियान को आगे बढ़ाने के लिए उसके पास एक स्वीकार्य मार्ग प्रशस्त…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License